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अमर  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.
1.देवता।
  • उदा.--अमर वडे तेतीस कोड़, जस नांम जपंदे।--केसोदास गाडण (डिं.को.)
2.पारा.
3.कुलिश.
4.ईश्वर (नां.मा.)
5.गंधर्व (अ.मा.)
6.आकाश (अ.मा.)
7.वृक्ष.
8.अमरकोश.
9.पृथ्वी (डिं.नां.मा.)
10.लिंगानुशासन नामक प्रसिद्ध कोश के रचयिता अमरसिंह जो विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में थे.
11.उनचास पवनों में से एक.
12.राजस्थानी के वेलिया सांणोर छंद का एक भेद विशेष जिसके प्रथम द्वाले में 38 लघु 13 गुरु कुल 64 मात्राएं तथा इसी क्रम से शेष द्वालों में 38 लघु, 12 गुरु कुल 62 मात्राएं होती हैं। (पिं.प्र.)
13.इकतीस मात्रा का एक मात्रिक छंद-विशेष (ल.पिं.)। वि.--जो न मरे, चिरंजीवी, नित्य, चिरस्थायी।
  • उदा.--आतम पियां अजांण ही, अमर करै अमरत्त।--ह.र.


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






राजस्थानी भाषा, व्याकरण एवं इतिहास

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