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कनक  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.
1.स्वर्ण, सोना (अ.मा.)
2.धतूरा (डिं.को.)
3.एक प्रकार का घोड़ा।--शा.हो.
4.छप्पय छंद का एक भेद जिसके अनुसार 21 गुरु और 110 लघु से 131 वर्ण या 152 मात्राएं होती हैं (र.ज.प्र.)
5.एक वर्णिक छंद जिसमें एक रगण एवं एक जगण के क्रम से 14 वर्ण होते हैं तथा अंत में लघु होता है (ल.पिं.)
6.वेलिया सांणौर नामक छंद का एक भेद विशेष जिसके प्रथम द्वाले में 44 लघु व 10 गुरु सहित 64 मात्राएं होती हैं तथा शेष द्वालों में 44 लघु 9 गुरु सहित कुल 62 मात्राएं होती हैं (पिं.प्र.) वि.--पीला, पीत* (डिं.को.)


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






राजस्थानी भाषा, व्याकरण एवं इतिहास

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