सं.पु.
सं.
1.किसी अनुचित और हानिकारक कार्य को होते हुए देख कर उत्पन्न होने वाला चित्त का वह तीव्र उद्वेग जिसमें उस हानिकारक कार्य करने वाले से बदला लेने की इच्छा होती है, कोप, रोष.
2.कृष्ण पक्ष।
- उदा.--सम्मत अठार सौ मास क्रोध, जुध्धे गुण चाळिस रचय जोध।--शि.सु.रू.