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खैर  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.खदिर
1.एक प्रकार का बबूल जाति का वृक्ष विशेष जो प्रायः बड़ा होता है।
  • कहावत--खैर रौ खूंटौ होणौ--खैर वृक्ष की लकड़ी का खूंटा होना अर्थात्‌ दृढ़ता धारण करना।
2.इस वृक्ष की लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को उबाल कर बनाया हुआ रस जो पान के साथ खाया जाता है, कत्था। [फा.खैर]
3.प्रसन्नता।
  • उदा.--बणिक खता रा कां मैं, औ दरसावै खैर। नाई नूं दीधी मुहर, वाळण टाकर वैर।--बां.दा.
4.दान।
  • उदा.--चहुं ओर इळा वध तौर चहुं चक, खैर दियै कव रोर खंडै।--चिमनजी कवियौ
5.पुण्य।
  • उदा.--खैर कौ न चूंन खायौ, मै'र कौ भर्‌यौ उमायौ।--ऊ.का.
6.कुशल, मंगल, क्षेम।
  • उदा.--खोसां मार मनावौ खैर।--चिमनजी कवियौ
अव्यय
कुछ चिंता नहीं, अस्तु।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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