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चकोर, चकोरड़ौ     (स्त्रीलिंग--चकोरी, चकोरड़ी)  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.चकोर+रा.प्र.ड़ौ
1.एक प्रकार का बड़ा तीतर जो पहाड़ी स्थानों में पाया जाता है। इसकी चोंच और आँखें बहुत लाल होती हैं। इसके लिये भारत में बहुत प्राचीन समय से यह बात प्रसिद्ध है कि यह चंद्रमा का अत्यधिक प्रेमी है और आग की चिनगारियों को चंद्रमा की किरणों के भ्रम में खा जाता है।
  • उदा.--1..बाग अनेक बावड़ी अदभुत फूल अपार, कोयल, मोर, चकोर पिक जपत भंवर गुंजार।--बगसीरांमजी प्रोहित री बात
  • उदा.--2..तुम दरसण हो मुझ आणंद पूर कि, जिम जगि चंद चकोरड़ा। तुम दरसण हो मुझ मन उछरंग कि, मेह आगम जिम मोरड़ा।--स.कु.
  • मुहावरा--चकोर होणौ--प्रेमी होना, चंद्रमुख का प्रेमी होना।
अल्पा.
चकोरड़ौ, चकोरियौ।
यौ.
चकोरबंधु।
2.एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण, एक गुरु और एक लघु होता है। वि.--
1.सचेत, होशियार, सावधान, सतर्क।
  • उदा.--तूं रावळ रौ घर घणोआ बिगौवै छै। नै तूं मांणस छै तौ म्हारौ नांम मत लेई। आ चकोर थकी रहै छै।--नैणसी
  • मुहावरा--चकोर होणौ--सतर्क व सावधान होना।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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