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दिसा  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.स्त्री.
सं.दिशा
1.क्षितिज वृत के किये हुए कल्पित विभागों में से किसी एक ओर के विभाग का विस्तार। वि.वि.--क्षितज वृत के मुख्य चार विभाग माने गये हैं--पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। पूर्व के ठीक सामने पश्चिम तथा उत्तर के ठीक सामने दक्षिण माना गया है। इन चारों में से प्रत्येक के लिए निम्न पर्यायवाची हैं--पूर्व के लिये इंद्रा (ऐंद्री); पश्चिम के लिये वारुणी; उत्तर के लिये सोमा; और दक्षिण के लिये याम्या। उपर्युक्त चार मुख्य दिशाओं के अतिरिक्त इनके बीच में चार कोण माने गये हैं जिन्हें उपदिशाएं या मध्यदिशाएं कहते हैं, वे निम्न हैं।--
1.पूर्व और दक्षिण के मध्य के कोण को अग्निकोण।
2.दक्षिण और पश्चिम के मध्य के कोण कोर् नैऋत्यकोण।
3.पश्चिम और उत्तर के मध्य के कोण को वायव्यकोण।
4.उत्तर और पूर्व के मध्य के कोण को ईशानकोण। आकाश की ओर व पाताल की ओर दो दिशाएं और मानी गई हैं जिन्हें क्रमश: ऊर्ध्व व अध: कहते हैं तथा इन्हीं को जैन ग्रंथों में क्रमश: विमला व अंध या तमा कहते हैं। इस प्रकार चार मुख्य दिशाएं व उनके मध्य के चार कोण, आठा हुई तथा ऊर्ध्व व अध: दो और जोड़ने से कुल दश दिशाएं हुईंजो निम्न दिग्चक्रों के अनुसार स्पष्ट है--उपर्युक्त दिशाओं में और विकास हुआ तथा आठ दिशाओं के मध्य आठ और उपकोण माने गये जिनका उल्लेख जैन ग्रंथ आचारांग सूत्र का निरुक्ति के अन्तर्गत गाथा संख्या 52 से 58 तक में हुआ है। संस्कृत ग्रंथ शकुन वसन्तराज में भी अठारह दिशाओं का उल्लेख हुआ है परन्तु उनके नामों का मेल आचारांग सूत्र से नहीं होता है। शकुन वसन्तराज में ये दिशाएं शुभाशुभ शकुनों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये मानी गई हैं। इसी प्रकार राजस्थानी में भी शुभाशुभ शकुन ज्ञान के निमित्त अठारह दिशाएं मानी गई हैं जिनके कुछ नामों का मेल शकुन वसन्तराज से होता है। राजस्थानी में क्षितिज वृत के किसी निश्चित स्थान को ही दिशा विशेष का संकेत स्थान मानते हैं जो क्षितिज वृत्त में नक्षत्रों के उदय और अस्त स्थानों पर आश्रित है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि शकुन वसन्तराज के आधार पर ही राजस्थानी में अठारह दिशाओं की कल्पना की गई है न कि जैन ग्रंथों के आधार पर। आचारांग सूत्र के अनुसार उपरोक्त आठ दिशाओं के मध्य में आठ और उपकोण या विदिशाएं मानी गई हैं जिनका क्रम निम्नानुसार है--
1.पूर्वा (पूर्व दिशा) तथा पूर्व--दक्षिण (अग्निकोण) के मध्य की दिशा सामुत्थानी।
2.पूर्व--दक्षिणा (अग्निकोण) तथा दक्षिणा (दक्षिण दिशा) के मध्य की दिशा कपिला।
3.दक्षिणा (दक्षिण दिशा) दक्षिणापरार् (नैऋत्यकोण) के मध्य की दिशा खेलिज्जा।
4.दक्षिणापरार् (नैऋत्यकोण) तथा अपरा (पश्चिम दिशा) के मध्य की दिशा असिधर्मा।
5.अपरा (पश्चिम दिशा) तथा अपरोत्तरा (वायव्यकोण) के मध्य की दिशा परिया।
6.अपरोत्तरा (वायव्यकोण) तथा उत्तर (उत्तर दिशा) के मध्य की दिशा धर्मा।
7.उत्तरा (उत्तर दिशा) तथा पूर्वोत्तरा (ईशानकोण) के मध्य की दिशा सावित्री।
8.पूर्वोत्तरा (ईशानकोण) तथा पूर्वा (पूर्व दिशा) के मध्य की दिशा पण्णवित्ती। उपरोक्त क्रम निमनुसार अधिक स्पष्ट हो जायगा--पूर्व दिशा (पूर्वा) से दक्षिण दिशा (दक्षिणा) के मध्य की उपदिशाओं का क्रम--
1.सामुत्थानी
2.पूर्व--दक्षिणा (अग्निकोण) तथा
3.कपिला दक्षिण दिशा (दक्षिणा) से पश्चिम दिशा (अपरा) के मध्य की उपदिशाओं का क्रम--
1.खेलिज्जा
2.दक्षिणापरार् (नैऋत्यकोण) तथा
3.असिधर्मा पश्चिम दिशा (अपरा) से उत्तर दिशा (उत्तरा) के मध्य की उपदिशाओं का क्रम--
1.परिया
2.अपरोत्तरा (वायव्यकोण) तथा
3.धर्मा उत्तर दिशा (उत्तरा) से पूर्व दिशा (पूर्वा) के मध्य की उपदिशाओं का क्रम--
1.सावित्री
2.पूर्वोत्तरा (ईशानकोण) तथा
3.पण्णवित्ती । उपर्युक्त दोनों क्रमों से सोलह दिशाएं ज्ञात हुईं और दो ऊर्ध्व (देवदिशा) व अध: (अधोदिशा) इस प्रकार कुल अठारह दिशाएं हुईं जिनका उल्लेख आचारांग सूत्र में है। राजस्थानी में उपरोक्त सोलह दिशाओं के लिये कुछ पर्यायवाची प्रयोग किये जाते हैं जिनका उल्लेख प्रसंगानुसार कई राजस्थानी ग्रंथों में मिलता है। उदाहरण के लिये मुंहता नैणसी की ख्यात में कई स्थानों पर उक्त दिशाओं में से कुछ के लिये पर्यायवाची प्रयुक्त हुए हैं। राजस्थानी में उक्त दिशाओं के लिये जो पर्यायवाची बोले जाते हैंवे निम्न हैं--पूर्व से दक्षिण के मध्य की दिशाओं के लिये--
1.पूर्व दिशा (पूर्वा) के लिये--इंद्र।
2.सामुत्थानी के लिये--उडीक, परियांण, मेवास।
3.अग्निकोण (पूर्व--दक्षिणा) के लिये--अगन, चींगण।
4.कपिला के लिये--रूपारास। दक्षिण से पश्चिम के मध्य की दिशाओं के लिये--
1.दक्षिण दिशा (दक्षिणा) के लिये--निवास, लंका।
2.खेलिज्जा के लिये--पंचाद--पांव।
3.र्नैऋत्यकोण (दक्षिणापरा) के लिये--निरांत, नैरत।
4.असिधर्मा के लिये--खरक। पश्चिम से उत्तर के मघ्य की दिशाओं के लिये--
1.पश्चिम दिशा (अपरा) के लिये--आथुण।
2.परिया के लिये--पंचाद।
3.वायव्कोण (अपरोतरा) के लिये--वाय।
4.धर्मा के लिये--ऊंध। उत्तर से पूर्व के मध्य की दिशाओं के लिये--
1.उत्तर दिशा (उत्तरा) के लिये--ध्रुव।
2.सावित्री के लिये--भरणीजळ, भरहरे।
3.ईशानकोण (पूर्वोत्तरा)--कुबेर।
4.पण्णवित्ती के लिये--दयारास, लांणी, वित्रभव। उपयुक्त दिशाओं के पूर्ण स्पष्टीकरण के लिये यहाँ आचारांग सूत्र, शकुनवसन्तराज और राजस्थानी के अनुसार तीन दिग्चक्र दिये जाते है। पर्याय.--आसा, कुकंभ, कन्या, कास्टा, गो।
  • मुहावरा--1.दिसा जाणौ--शौच जाना.
  • मुहावरा--2.दिसोदिसी--चारों ओर।
2.चार की संख्या*
3.दस की संख्या*।
4.देखो 'दसा' (रू.भे.)
  • उदा.--वस्त्र हरीनि हंस गयु ते विठी याहारि वाहार। तेह रांकनु वांक किसु, जु दिसा पडी अपार।--नळाख्यांन
5.देखो 'दीक्षा' (रू.भे.)
  • उदा.--करइ ति मांणिक बालिय बालिय वूना काज। परधरि हुइ दिसा लिय टाळिय दीजतउ राज।--नेमिनाथ फागु
  • उदा.--1..रूक हथौ भाटी 'रैणायर', मांझी तीन साथ दळ मोगर। वांरा भड़ मेळाऊ आया, चंचळ थळवट दिसा चलाया।--रा.रू.
  • उदा.--2..देवड़ै मैंगळदे भांणेज नूं पोहचावण नूं घड़सी आबू दिसा गयौ थौ, सु पाछौ वळतौ मेहवा मांहै आयौ।--नैणसी
रू.भे.
दिच्छा, दिस, दिसि, दिसिया, दिसी, दिस्सा, दीसा।
अल्पा.
दिसड़ी, दिसड़ौ, दिसली।
क्रि.वि.
ओर, तरफ।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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