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नक्षत्र  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.
1.आकाश (खगोल) में स्थित वे तारक-पुंज या तारक-गुच्छ विशेष जिनके मध्य क्रांतिवृत्त है। वि.वि.--ये तारक-पुंज सूर्य की परिक्रमा नहीं करते और सूर्य की परिक्रमा करने वाले ग्रहों से भिन्न हैं। आकाश में इनकी स्थिति, परस्पर दूरी आदि स्थिर जान पड़ती है। हमारे सूर्य और ग्रहों की अपेक्षा ये बहुत ऊँचे या दूर तथा बड़े माने जाते हैं। ऐसे दो-चार पास-पास रहने वाले तारों की स्थिति का ध्यान करके उनको सदा पहचाना जा सकता है। अत: सुविधा के लिए इन पास-पास रहने वाले तारों से बनने वाली विशिष्ट आकृति को देखकर उसके अनुसार नाम रख लिया गया है। चन्द्रमा इन तारक-पुंजों के मध्य से गमन करता हुआ लगभग 27-28 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा कर लेता है। चूंकि एक-एक तारक-पुंज या तारक-गुच्छ एक-एक नक्षत्र हैं अत: पूरे वृत्त को नक्षत्रचक्र कहते हैं। इस चक्र में पड़ने वाले नक्षत्र 27 माने गये हैं किन्तु एक अभिजित नक्षत्र और है जो उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के चतुर्थ चरण और श्रवण नक्षत्र के 1 1/5 भाग के अन्तर्गत आ जाता है। अत: विशिष्ट गणना में ही इसे अलग मानकर कुल 28 नक्षत्र गिने जाते हैं किन्तु साधारणतया नक्षत्र 28 ही माने गये हैं। चान्द्रमासों का नामकरण भी नक्षत्रों के आधार पर हुआ है। चन्द्रमा का पूर्ण होना पूर्णिमा कहलाया। जिस नक्षत्र के आसन्न चन्द्रमा पूर्ण होता है उसी के नाम के अनुसार उस मास का नामकरण किया गया है। जैसै--चित्रा से चैत्र, विशाखा से वैशाख आदि। पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा एक वर्ष में पूर्ण करती है। इस कारण ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य एक-एक नक्षत्र पर कुछ काल तक रहता है। अत: ये ही नक्षत्र सौर नक्षत्र भी कहलाते हैं। चूंकि नक्षत्र भी स्थिर हैं और सूर्य भी स्थिर है किन्तु पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा करती है। अत: पृथ्वी वालों को सूर्य के प्रकाश के कारण जो नक्षत्र दिखाई नहीं देता है उसी नक्षत्र पर उस काल के लिए सूर्य माना जाता है। कुछ काल के पश्चात्‌ पृथ्वी अण्डाकार वृत्त पर आगे बढ जाती है अत: वह नक्षत्र पुन: दिखाई नहीं देता है। अत: तब यह माना जाता है कि सूर्य अमुक नक्षत्र पर से हट कर उससे आगे वाले पर आ गया है। वास्तव में सूर्य हटता नहीं है; पृथ्वी के ही अपने वृत्त पर आगे बढ़ती रहने के कारण ऐसा होता है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वी की दैनिक (अपने अक्ष पर घूमने की) तथा वार्षिक (अण्डाकार वृत्त पर सूर्य की परिक्रमा करने की) गतियों के कारण क्रमश: एक-एक नक्षत्र सूर्य की आड़ में आता रहता है और दिखाई नहीं देता है। अत: तदनुसार सूर्य उन नक्षत्रों पर माना जाता है। वर्ष पूरा होने तक क्रमश: सभी नक्षत्र, प्रत्येक लगभग 13 या 14 दिन के समय के लिए, सूर्य की आड़ में आ जाते हैं और इस प्रकार सौरनक्षत्र कहलाते हैं। राजस्थान में वर्षा विज्ञान में इन सौर नक्षत्रों का विशेष महत्व है। निम्न दोहा प्रसिद्ध है--'मिगसर वाव न वज्जियौ, रोयण तपी न जेठ। कथा म बांधे झूंपड़ौ, रहसां वड़ला हेठ।।' ज्येष्ठ मास में जब रोहिणी नक्षत्र पर सूर्य होता है तब यदि तेज गर्मी न पड़े, तत्पश्चात्‌ मृगशिरा नक्षत्र पर सूर्य होने पर यदि तेज वायु न चले तो वर्षा न होगी। अत: उक्त दोहे में एक नारी अपने पति को कहती है कि हे पति! झोंपड़ी मत बांधना, वटवृक्ष के नीचे ही रहेंगे अर्थात्‌ वर्षा के अभाव में निर्वाह के लिए दूसरे स्थानों (जैसे मालवा आदि) पर जाना पड़ेगा जहां वृक्षों के नीचे ही रहना पड़ेगा। यों भी कहते हैं कि 'रोयण तपणी अर मिगसरा वाजणा' अर्थात्‌ सूर्य के रोहिणी नक्षत्र पर होने पर तेज गर्मी पड़नी चाहिएऔर सूर्य के मृगशिरा नक्षत्र पर होने पर तेज हवा चलनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो अकाल का लक्षण माना जाता है। मृगशिरा के बाद आर्द्रा नक्षत्र लगता है। उसके लिए यह प्रसिद्ध है कि--'आदरा भरै खादरा' अर्थात्‌ आर्द्रा नक्षत्र के समय में कुछ वर्षा हो जाती है जिससे साधारण गड्‌ढ़े आदि भर जाते हैं। इसका संबंध पूर्व के रोहिणी और मृगशिरा से भी जोड़ा गया है, यथा--'रोयणी तपै, मिगसरा वाजै तौ आदरा अणचींतिया गाजै' अर्थात्‌ रोहिणी नक्षत्र में गर्मी पड़ने और मृगशिरा में तेज हवा चल जाने के अपरांत तो आर्द्रा नक्षत्र में बादल अवश्य गरजते हैं और वर्षा करते हैं। इसके विपरीत यदि मृगशिरा नक्षत्र के समय में तेज हवा न चल कर उससे आगे वाले आर्द्रा नक्षत्र के समय में चल जाती है तो यह भी अकाल का लक्षण माना जाता है। यथा--'आद पड़िया वाव, झूंपड़ झोला खाव' आर्द्रा में हवा चल जाने से झोंपड़े झोला ही खाते हैं अर्थात्‌ वर्षा नहीं होती है। आर्द्रा के पश्चात्‌ पुनर्वसु नक्षत्र सूर्य की आड़ में आता है या यों कहा जाता है कि सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र पर आता है। इसके लिए प्रचलित है कि--'पुनरस भरै तळाव' अर्थात्‌ पुनर्वसु के समय खूब वर्षा हो जाती है जिससे तालाब आदि भर जाते हैं। पुनर्वसु के पश्चात्‌ पुष्य नक्षत्र पर सूर्य आता है। अत: प्रचलित है कि 'पुख भांगै गायां रौ दुख' अर्थात्‌ इस समय तक इतनी वर्षा हो जाती है कि गायों को घास के अभाव का दुःख प्रतीत नहीं होता क्योंकि पर्याप्त वर्षा के कारण घास बहुत पैदा हो जाता है। तत्पश्चात्‌ अश्लेषा नक्षत्र लगता है। इसके लिये कहा जाता है कि 'असलेसा सावदेसा' अर्थात्‌ इस समय सब स्थानों पर वर्षा हो जाती है। अश्लेषा के बाद मघा नक्षत्र लगता है। इस समय कहा जाता है कि--'मघा माचत मेहा कै उडत खेहा' अर्थात्‌ मघा के लगते ही यदि मेह बरसना प्रारम्भ हो जाता है तो इसके 13-14 दिन के समय तक वर्षा होती रहती है और यदि मघा के प्रारम्भ में तेज वायु चल जाती है तो फिर वर्षा नहीं होती और धूल उड़ती रहती है। अन्त में यह कहा जाता है कि--'अगस्त ऊगा अर मेह घरै पूगा' उन दिनों अगस्त्य तारा उदय होता है। उसके बाद प्राय: वर्षा नहीं होती है। अत: अगस्त्य वर्षा की मसाप्ति का सूचक माना जाता है। ऐसा उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी ने 'रामचरितमानस' में भी किया है, यथा--'उदित अगस्ति पंथ जल सोषा'
2.क्रांतिवृत्त के प्रत्येक 13 अंश 20 कला के विभाग का नाम। वि.वि.--इस प्रकार क्रांतिवृत्त के 27 विभाग होते हैं।
3.पंचांग का तृतीय अंग.
4.तारा।
रू.भे.
नक्खत्र, नख, नखत, नखतर, नखत्र, नखित, नखितर, नखित्र, नख्यत, नछत्र, नाखत, नाखित, नाखितर, नाखित्र, नाख्यत्र, निखत, निखतर, निखत्र।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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