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पवित्र  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
वि.
सं.
1.शुद्ध, पापरहित।
  • उदा.--पवित्र कंध इम करिस बडा प्रभ, नमे तूझ चरणां पोहोकरनभ। कंठ इम पवित्र करिस करुणाकर, गावेतूझ चरित गोपीवर।--ह.र.
2.निर्मल, स्वच्छ, साफ।
  • उदा.--उदर पवित्र करिस अपरंपर। चरणाम्रत तो धरे चक्रधर।--ह.र.
1.वह कुश जो यज्ञ में घी को छिड़कने या शुद्ध करने में व्यवहृत होता है।
2.ताँबा। पर्या.--पावन, पुण्य, पूत।
रू.भे.
पवित, पवितर, पवित्त, पवित्तर, पवित्ति, पवीतर, प्रबीत, प्रवित, प्रविति, प्रवित्त, प्रवीत, प्रिवित।
सं.पु.[सं.पुवित्रं]


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






राजस्थानी भाषा, व्याकरण एवं इतिहास

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