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प्रेम  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.पुरेमन्‌
1.वह मनोवृति जिसके अनुसार किसी पदार्थ या व्यक्ति आदि के संबंध में यह भावना हो कि वह सदा हमारे पास या साथ रहे, उसकी वृद्धि, उन्नति या हित हो, अनुराग, स्नेह। (अ.मा., ह.नां.मा.)
  • उदा.--आपणपा सयण तेडिया आह (व) इ, लांजउ घणी निरवाहण लाज। वर ईसर जगंनाथ अणंबर, प्रेम तणी ताइ बाधी पाज।--महादेव पारवती री वेलि
2.पुरुष-समाज और स्त्री-समाज के ऐसे जीवों का आपस का स्नेह या मुहब्बत जो प्राय: रूप, गुण, स्वभाव और कामवासना के कारण होता है, प्यार मुहब्बत।
  • उदा.--1..अलक डोरि तिल चड़सवौ, निरमळ चिबुक निवांण सीचै नित माळी समर, प्रेम बाग पहचांण। प्रेम बाग पहुचांण, निरंतर पाळ ही। ग्रीवा कंबु कपोत, गरब्बां गाळ ही। कंठसरी बहु क्रांति, मिळी मुकताहळां। हिंडुळ नौसरहार, जळूस जळाहळां।--बां.दा.
  • उदा.--2..वयणै माळवणी तणइ, रहियउ साल्हकुमार। प्रेमइ बंध्यउ प्री रहइ, जउ प्री चालणहार।--ढो.मा.
3.अनुकंपा, अनुग्रह।
4.हर्ष, प्रसन्नता।
  • उदा.--सुरता बिकसी सरसायन में, परि प्रेम पयोनिधि पायन में।--ऊ.का.
5.लखपत पिंगल के अनुसार एक मात्रिक छंद विशेष जिसके प्रत्येक चरण में बीस मात्राएं होती हैं।
6.कोमल, मुलायम।* (डिं.को.)
रू.भे.
परेम, प्रेम।
अल्पा.
पेमौ, प्रेमौ।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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