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बंदौ     (स्त्रीलिंग--बंदी)  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
फा.बंद:
1.सेवक, दास।
  • उदा.--त्रिभुवण मांझ नहीं त्यां तोलै, ओळै सुत अरब्यंदौ। म्है किव 'किसन' हुलासै चित में, आसेलियौ अमंदौ। बरसी राज रै चोटीकट बंदौ।--र.ज.प्र.
2.स्वयं को सम्बोधित करने में प्रयोग किया जाने वाला शब्द। ज्यूं--बंदौ हाजिर है।
  • उदा.--1..रांम भरोसै ऊकळै, आदण ईसरदास। ऊकळता में ऊरसी, बंदा राख बिसास।--ह.र.
  • उदा.--2..सांई सूं सब कुछ हुवै, बंदा सूं कुछ नांहि। राई सूं परबत हुवै, परबत राई मांहि।--ह.र.
  • उदा.--3..बंदा बहोत अधीर है, तिल भर नहीं करार। साहिब राखै तौ रहै, बंदा का इतबार।--ह.र.
3.कृपापात्र।
4.भक्त।
  • उदा.--सांई सूं सांचा रहौ, बंदां सूं सतभाव। भावै लांबा केस रख भांवै घोट मुंडावे।--अज्ञात
5.देखो 'बांध' (अल्पा., रू.भे.)
रू.भे.
बांदी।
अल्पा.
बांदियौ।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






राजस्थानी भाषा, व्याकरण एवं इतिहास

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