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बरंग  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
1.टुकड़ा, खंड।
  • उदा.--1..करै बरंग दळ किलम, 'रुधौ' सूजावत रूकां। वढ़ै घाट रत वहै, वाहि झळ जेम भभूकां।
  • उदा.--2..बगतर सहित ऊछळइ बरंग, घीब पडइ नेजाळ धड। भाजइ भ्रगिट अरी चा भिडतां, घाय रमाडइ ति विध घड।--महादेव पारवती री वेलि
2.कवच, सनाह। (डिं.को.)
3.देखो 'वरंग' (रू.भे.) (ह.नां.मा.)
  • उदा.--ईसांन दिसा उत्तम अनूप, रजताचळ रजत रूचिर रूप। ईसांन जयति नारद अनंग, विसवंस जयति गंगा बरंग।--हिंगळजदांन कवियौ
रू.भे.
बरंगी।
अल्पा.
बरंगौ। मह.--बरंगळ, बरंगोळ।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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