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बिंद
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
देखो 'बिंदु' (मह., रू.भे.)
उदा.--
1..पांच पचीस तीन गुण तज, मनका विकारा। नाद
बिंद
के ऊपर आसन, सो सबका किरतारा।--स्रीहरिरामजी महाराज
उदा.--
2..ब्रह्मंड इकीस ऊपरे आसन, ज्यांपर अविगत योगी। नाद
बिंद
का नहीं विकारा, ब्रह्म आनंद का भोगी।--स्रीहरिरांमजी महाराज
2.देखो 'बूंद' (रू.भे.)
उदा.--
1..समुद्र नी जिसी लहिरडी रे, थोडा मेहनु स्यंद। द्रस्टि वाय--सनी चंचल, जेहवु हुइ रे ठार नुं
बिंद
।--नळदवदंती रास
उदा.--
2..स्री जिन प्रतिमा हो जिन सारखी, कही ए दीठां आणंद। समकित बिगड़इ हो संका कीजतां, जिम अम्रत विस
बिंद
।--स.कु.
3.देखो 'बिंदी' (मह., रू.भे.)
उदा.--
3..करना कर आकर कीरत के, ध्रर चाकर ठाकर धीरत के। जक नाद रु
बिंद
धरै जब वे, बकवाद रु निंद करें कब वे।--ऊ.का.
4.देखो 'बिंदक' (रू.भे.)
उदा.--
कोसळेस सुद्रक सुता,
बिंद
वंश निधिनांम। परणी संभर प्रियतमा, या दूजी अभिरांम।--वं.भा.
नोट:
पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।
राजस्थानी भाषा, व्याकरण एवं इतिहास
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