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बिड़द  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.वृद्धि
1.विवाह आदि मांगलिक कार्य।
2.मांगलिक कार्य के समय बनाया जाने वाला मिष्ठान्न।
3.उक्त मिष्ठान्न में से उतना अंश जो गजानन को चढ़ाया जाता है।
4.देखो 'विरूद' (रू.भे.)
  • उदा.--1..यो जस तीन लौक प्रगटावौ, सत को सब्द विचारी। पदम भक्त नैं बिड़द दियौ दै, कथियौ कृष्ण मुरारी।--रुकमणी मंगळ
  • उदा.--2..मैं तो थारै बिड़द भरोसे अविनासी, मैं तो थारे.। या जग मांही स्वांमी तुम पत राखौ, मत नै कराज्यो जग हांसी।--मीरां


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






राजस्थानी भाषा, व्याकरण एवं इतिहास

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