सं.पु.
सं.
1.किसी वस्तु या पदार्थ अथवा पेड़--पोधों का वह उद्गम तत्व जिससे उनका उत्पादन या उत्पति होती है, गर्भाड, दाना।
- उदा.--1..निकंमी नीयत रा सरवर नीतरिया, बींठा बीजां रा तरवर बीथरिया। चतुरां क्यूं ऊंडी चिता चांपा री, आछी ईसुर री भूंडी आंपां री।--ऊ.का.
- उदा.--2..चतुर रूप भई एक सक्ति, गायत्री गुण लारा। बीज माय ज्यूं तरुवर प्रगटै, यूं सक्ती सक्त पसारा।--स्री हरिरांमजी महाराज
- उदा.--3..मनवा एक चतुर घर नांमा, स्रस्टि अनंत रचाजी। एक बीज सूं सब ही उपज्या, पैड़ डाल फूलाजी।--स्री सुखरांमजी महाराज
4.वंश
- उदा.--मालदे मूछाळौ सांवतसी रौ बेटौ गढ़रोहै जाळोर रै रावळ कांनड़दे बीज राखण वास्तै काढ़ियौ।--नैणसी
5.केवल बोने के लिये सुरक्षित रखा हुआ बढ़िया अन्न।
- उदा.--1..अपणूं बाह्योड़ौ नव बीज ऊगौ, पैलै भव रौ हव बदळायत पूगौ। पूरवाखाढ़ा खाडा में पड़िया, अगलै अनरथ रा अंकुर ऊधड़िया।--ऊ.का.
- उदा.--2..असाढ सुध सूनम रा, न बादळ न वीज। हळ फाडो इंधण करो, बैठा खावौ बीज।--वर्षा विज्ञान
10.किसी बात या विषय का वह सूक्ष्मांश जो आगे चल कर बड़ा रूप धारण करता है, सारांश, सार--तत्त्व।
- उदा.--जलमता बाळक रौ रौवणौ दुनियां री संगळी हंसी रौ सार, उणरौ बीज रूप।--फुलवाड़ी
11.किसी नाटक की मूल कहानी या कथानक।
13.मंत्र का प्रधान भाग।
- उदा.--सहु कांम धरम सीह, दीयै रिद्धि--सिद्धि औ दोऊं। बावन आखर बीज, आदि प्रणमीजै ओ ऊं।--ध.व.ग्रं.
15.कोई अव्यक्त वर्ण समुदाय जिसे हार व्यक्ति न समझ सकता हो।
16.किसी देवता को प्रसन्न करने के लिये कोई अव्यक्त ध्वनि या शब्द।
17.विश्वदेवों में से एक यज्ञीन देवता (च.को.)
18.देखो 'दूज' (1)(रू.भे.)
- उदा.--1..बीज सूं पूनम तक बधता चांद रै सांमी बापड़ा सुरग री जिनात ई कांई है।--फुलवाड़ी
- उदा.--2..परधै रा लोग कांई जवाब देवता। राजाजी रै ज्यूं जची त्यूं बीज रा नवा चांद एजां--बेजां बोल्या।--फुलवाड़ी
- उदा.--3..गंगनांमि गंगेउ भणीजइ, क्रमि क्रमि जुव्वांणि मिति पसरीजइ। बीज तणी ससिरेह जिम।--सालिभद्र सूरि
19.देखो 'बीजळी' (रू.भे.) (अ.मा., डिं.को., ह.नां.मा.)
- उदा.--1..पहियां राव न पावही, पड़ौ बीज उण पौळ। ऊ फळसौ रहजौ अडग, दूधां दहियां छोळ।--बां.दा.
- उदा.--2..बहै त्रप साबळ ऊरस बाट, झबा झबबीज उडै खग झाट।--मे.म.
- उदा.--धन घटा गरजित छटा तरजित भये जरजित गहे। टब टबकि टबकत झबकि झबकत बिचि बिचि बीज की रेह।--विनय कुमार कृत कुसुमांजलि
- उदा.--4..नमौ नरेस राघवं, दराज पाय दाघवं। उपंत स्यांम अंगयं, सनीर अव्र ढंगयं। दकूळ पीत लोभयं, सुरूपबीज सोभयं, निखंग पीठ रज्जायं, संचार पांणि सज्जायं।--र.ज.प्र.
20.देखो 'बीजळा' (मह., रू.भे.)