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मकरंद  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.
1.पुष्परस जिसे मधुमक्खियां और भौरे चूसते है।
  • उदा.--1..स्रीपत चरण सरोज रो, गंगाजळ मकरंद। अलियळ ज्यूं कर पांन अब, अधिकांवण आणंद।--बां.दा.
  • उदा.--2..अढ़ार भार वनस्पती मकरंद फूलादि रा रस मांणतौ थकौ वहै छै।--राजान राउत री बात
2.फूल का केसर, पराग कण।
3.कुंद पुष्प।
4.कोयल।
5.मधु मक्षिका।
6.भ्रमर, भौंरा। (अ.मा.)
  • उदा.--मुख की उपमा कहा कहूं, सरस सुधा को कंद। देखत रत लज्जित भई, भूल रह्यौ मकरंद।--कुंवरसी सांखला री वारता
7.प्रत्येक चरण में 21 मात्रा का मात्रिक छद विशेष। (ल.पिं.)
8.डिंगल गीत 'वेलिया सांणोर का भेद विशेष जिसके प्रथम द्वाले में 50 लघु 7 गुरु कुल 64 मात्रायें ओर अन्य द्वालों में 50 लघु 6 गुरु कुल 62 मात्रायें होती हैं। (पिं.प्र.) वि.--श्याम, कृष्ण, काला।
  • उदा.--1..मालव देसावर धणी राजा भीम नरिंदा। तास धणी धू माळवी सुंदर सिर मकरंद--ढो.मा.
  • उदा.--2..चपळ नैत्र सारंग, रेखां भ्रूंहां मकरंद। दीपक नासा दपंत, सरद रैणी मुख इंद्रह।--गु.रू.बं.
रू.भे.
मक्रंद।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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