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मद  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.
1.मादक पदार्थों के सेवन से होने वाली वह उद्वेगपूर्ण अवस्था जिसमें मस्तिष्क् ठीक प्रकार से कार्य नहीं करता, नशा, खुमारी।
  • उदा.--हड हड़ हसत, मसत मदिरा मद, डड़--डड़ सेर धवाड़ै। चड़चड़ चाव जोगण्यां चौसट, धड़धड़ भूमि धुजाड़ै।--मे.म.
2.अहंकार, गर्व। (अ.मा., ह.नां.मा.)
  • उदा.--लछवर धनंख साथ, तेज निज हर हलया, रद कर मद दुज रांम, अवधपुर आविया।--र.ज.प्र.
  • मुहावरा--मद उतरणौ=गर्व चूर--चूर होना।
  • मुहावरा--2.मद उतारणौ=गर्व नष्ट करना। मद चढ़णौ=गर्व में चूर होना।
3.अपनी विशिष्टता या श्रेष्ठता के कारण व्यक्ति की वह मानसिक दशा जिसमें वह किसी दूसरे को तुच्छ समझता है, थोथा अभिमान, झूठा अहंकार।
4.वह मानसिक अवस्था जिसमें यौवन अथवा काम वासना के प्रभाव से उचित अनुचित का ध्यान नहीं रह जाता, कामोत्तेजना, कामुकता।
  • उदा.--1..हमै कैवर मदन रै जोरै, सुगध रे धोरै। जोबन मद चुवतौ, प्रेमातुर हुवतौ। 'सुखिया' नूं साथ लेइ चवड़ारौ मारग टाळियां, हालियौ विलालौ छोगा राळियां।--र.हमीर
  • उदा.--2..'रतना' मद मै मत्त निसंक हुई थी तिणरा संकोज हूं रूकण लागी, लाज रै भार आखियां झुकण लागी।--र.हमीर
5.उन्मत्तता, पागलपन, मतवालापन।
6.हर्ष, आनन्द।
7.जोश, आवेग, उत्तेजना।
  • उदा.--करां खग मोगर धूण करूर। पटाझर आहुडिया मद पूर।--गो.रू.
  • मुहावरा--तद झरणौ=मतवाला होना, मदमस्त होना।
8.एक प्रकार का स्राव जो कुछ विशिष्ट पशुओं यथा मस्त हाथी, ऊंट, सिंह आदि के मस्तक और ग्रोव के संधि--स्थल से निकलता है।
  • उदा.--1..केहर तणरं कळाइयां, भणणाहट भमरांह। भीजी गजसिर भांजतां, मद सोरंभ डमरांह।--बां.दा.
  • उदा.--2..दिकपाळां रा गाढ़ समेत दिग्गजां रा मद छूटि। आठूही अनेकप चकितपणां का चोकार करण लागा।--वं.भा.
  • उदा.--3..मद झरै करै आकास मून रिस भरै चरै ताते सु चून। गूंगळा मस्त बोलै दुगाळ, झुकता सखुबी नुखता सझाळ।--पे.रू.
9.मदिरा, शराब।
  • उदा.--आलीजा अलबेलिया, हो हंजा हुसनाक। भीनोडा रसिया भमर, छैल पियौ मद छाक।--बां.दा.
10.मधु, शरद।
  • उदा.--धूप दीप नैवेद पुस्य फळ। कस्मीरज मळयज नागज कळ। मद म्रग--मद तांबूळ महहावर। बन धनसार घिरत बेसांनर।--मे.म.
11.कस्तूरी।
12.एक विशिष्ट स्राव जो विशेष वृक्षों तथा पत्थरों के सन्धि स्थलों से निकलता हे।
13.वीर्य।
14.कामदेव, मदन।
15.एक दानव जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था।
16.एक दावन जो च्यवन ऋषि से उत्पन्न हुआ था।
17.छप्पय छंद का 42 वां भेद जिसमें 29 गुरू, 94 लघु से कुल 123 वर्ण या 152 मात्रायों होती हे।
18.दो भगण का एक छंद विशेष।
19.मस्त हाथी। (डिं.को.)
20.खाता या खाते का विभाग।
21.वह लम्बी लकीर जो बही में खींचकर उसके नीचे भिन्न--भिन्न रकमें लिखते हे।
22.किसी कार्य या कार्यलय का विभाग, शाखा।
23.काला, श्याम। * (डिं.को.)
रू.भे.
मंद, मदि, मद्द, मध, मय, महि।
अल्पा.
मदड़ौ।
विशेष विवरण:-हाथी के मद में सुगध होती है और सिंह व ऊंट के मद में सिंह और ऊंट की बू (गंध) आती हे।

मद  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.स्त्री.
सं.मेद:
1.चर्बी, बसा।
2.शरीर के किसी भाग में चरबी की बड़ी हुई गांठ, एक रोग। (डिं.को.)
  • उदा.--ऊपरला होठ रै पसवाड़ै मूंछ्‌यां रा मांमूली सेनांण। गळा रै सांमौ सांम लांठी मेद।--फुलवाड़ी
3.एक वर्ण संकर जाति जिसकी उत्पत्ति वैदेहिक पुरूष तथा निषाद जाति की स्त्री से होना माना जाता है।
4.एक नाग का नाम।
5.एक औषधि विशेष जो अष्ट गण वर्ग में से एक है तथा क्षय रोग की दवा है। (अमृत)
6.कस्तूरी।
7.देखो 'मेदनी' (रू.भे.)
8.देखो 'मेध' (रू.भे.)


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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