सं.पु.
सं.ललितं
1.श्रृंगार-रस में कामिक हाव भाव या अंगचेष्टा जिसमें सुकुमारता के साथ भौं, आंख, हाथ, पैर आदि अंग हिलाये जाते हैं।
2.एक विषम वर्ण वृत्त जिसके पहले चरण में सगण, जगण, सगण व लघु, दूसरे में नगण, सगण, जगण व गुरु तीसरे में नगण, नगण, सगण और चौथे में सगण, जगण, सगण जगण होता है।
3.संगीत में षाडव जाति का एक राग जौ भैरव राग का पुत्र कहा गया है और जिसमें निषाद स्वर नहीं लगता तथा धैवत और गांधार के अतिरिक्त और सब स्वर कोमल लगते हैं।
4.एक गौंण अर्थालंकार, जिसमें कोई बात छाया के रूप में कही जाती है।
5.एक वार्णिक छंद जिसके प्रथम आठ वर्ण पर यति और फिर 14 (मनु)+1=15 वर्ण पर यति होती है।
7.एक गंधर्व जो शाप के कारण राक्षस हुआ तथा 'कामदा' एकादशी का ब्रत करने से शाप मुक्त हो गया। वि.--
1.सुन्दर, कमनीय, मनोहर। (अ.मा., ह.नां.मा.)
- उदा.--1..मधुर वचन छबि चंद मुख, ऊमगै उरज ऊतंग। लीलंबर ढाकै ललित, सुभ कंचन-गिर स्रंग।--बगसीराम प्रोहित री वात,
- उदा.--2..ललित लजीलौ छै, सुभग सजीलौ छै मनोहर इणरी मुरत, कांमणगारी सियाबर म्हांनै निरखण दै सखि! प्यारी!--गी.रां.
2.शुभ, कल्याणप्रद।
- उदा.--भवसतति ना भय दुख भंजण, पंचम गति दातार रे। त्रिभुवननाथ ललित, गुण तोरा, गावइ देव गंधार रे।--स.कु.
यौ.
ललित-कळा, ललित-कांता, ललित-गरभेसर, ललित-त्रिभंगी, ललित-पद, ललित-लता।