सं.पु.
सं.लिंगम् 3
1.चिह्न, निशान।
2.न्याय-शास्त्र में वह वस्तु जिसके माध्यम से किसी प्रकार की घटना या उसके तथ्यों का अनुमान हो। वि.वि.--न्याय-शास्त्र में ये चार प्रकार के कहे गये हैं--(क) संबद्ध (ख) व्यस्त (ग) सहवर्ती (घ) विपरीत
4.मीमांसा के अनुसार लिंग निर्णय के छः लक्षण:--उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, अर्थवाद, उपपत्ति।
5.शिव की एक विशेष प्रकार की मूर्त्ति जो पुरुष की जननेन्द्रिय के रूप में होती है।
- उदा.--लिंग कौं चढावै लाडू भाटै को लगावै भोग, भड़वै पुजावै भग स्वांमि सेल सोधां की।--ऊ.का.
6.सांख्य के मतानुसार वह मूल प्रकृति जिसमें सारी विकृत्तियां फिर से लीन होती हैं।
7.जननेन्द्रिय, शिश्न। (डिं.को.)
- उदा.--करवाय मोल गजराजकौ, लिंग हाथ मांहै लियौ। सुखसींग कमध करतब समै, किसौ कांम आंछौ कियौ।--अज्ञात
8.व्याकरण में शब्दों का वह वर्गीकरण जिससे यह ज्ञात किया जाता है कि कोई संज्ञा या सर्वनाम पुरुष जाति का वाचक है या स्त्री जाति का। वि.वि.--संस्कृत, फारसी, मराठी, अँग्रेजी आदि भाषाओं में तीन प्रकार के लिंग होते हैं--(क) पुल्लिंग (ख) स्त्रीलिंग (ग) नपुंसक लिंग। इसके अतिरिक्त हिन्दी, उर्दू आदि कई भाषाओं में दो ही प्रकार के लिंग होते हैं--स्त्री लिंग और पुलिंग।
9.देवता की मूर्ति या प्रतिमा।
10.वेदान्त में आत्मा का सूक्ष्म रूप।
11.लिंगायत लोगों द्वारा किसी आवरण में आवेष्टित करके गले में लटकाई जाने वाली प्रतिमा या मूर्ति।