सं.पु.
सं.
1.प्रसार, फैलाव।
- उदा.--सिव सक्ती का सब विस्तारा, ब्रह्मा कीट लग कर रे। इनमें ई उत्पत्ति थिति अरु लयता, निज स्वरूप निरपख रे।--स्रीसुखरांमजी महाराज
- उदा.--2..अकास लील नगर गंधरव का, इंद्रजाळ आकार। जाग्रत झबकायूँ जोय र जोगुण, मन कल्पित विस्तारा।--स्रीसुखरांमजी महाराज
- उदा.--3..वधवांणी तूं एक ब्रंम, ओऊंकार अपार। किमि करि कीधौ काळिका, विसव तणौ विस्तार।--पी.ग्रं.
- उदा.--4..केतेक दिन तपस्या करि आरांम लगाया। तिस काकरिख कै नांम कागा कहाया। तिस बगीचू कै दरम्यांन वरणै जेतै फळ फूलू का विस्तार। सब्बू कै सिर पोस आंनारूं का अधिकार।
- उदा.--5..मैला मिनख बचन रै माथै, बात बणाय करै विस्तार। बैठ सभा बिच मूंडा बारै, वचन काढणौ बहुत विचार।--बां.दा.
3.अधिकता, बाहुल्यता।
- उदा.--तठै केसरियै साह ठकुरै साह नूं पूछी कही, 'जी साहजी, इतरौ थांहरै माया रौ विस्तार हंतौ, सु किसी भांति गयौ, सु मनै कहौ।--ठकुरै साह री वात
4.वृत्तान्त, विवरण।
- उदा.--1..तिण समय दिली पातिसाह स्रीसेरसाह राज करै छै। तिण रै पुत्र सलेमसाह साहिजादौ वडौ अदली हुयौ। तिण समै जोधपुर राव मालदै राज करै छै। विस्तार आगै लिखीजसी।--द.वि.
- उदा.--2..तिण अनुसारै मंडाय कोई संक्षेप हुंतौ तिण नै उनमांन न्याय जांण नै वधार्यौ। विस्तार जांण नै संकोच्यौ। तिण में कोई विरुद्ध आयौ हुवै।--भि.द्र.
- उदा.--3..स्वांमीजी फेर कह्यौ आपै करां। पछै चंद्रभांण तिलौकचंद दोनूं जणां मांन अहंकार रै बस टोला बारै निकल्या। तै सहुं विस्तार तौ स्वांमीजी क्रत रास थी जांणवौ।--भि.द्र.
- उदा.--4..पांच पांच सौ दीधा दात, सोनौ रूपौ ग्रहण संघात। राछ पीछ बडारण गाय, विस्तार सूत्र भगवती मांय।--जयवांणी
रू.भे.
बिथार, बिसतार, बिस्तर, बिस्तार, वित्थर, वित्थार, विथार, विसतर, विसतार, विसतारौ, विसंथार, विसार, विस्तर, विस्तारि, वीसार।