सं.पु.
1.एकता, मेल, संगठन।
- उदा.--1..बडभागी दीना विविद, संपत हित संनमांन। संप राखणौ सीखियौ, थिर चित राजसथांन।--ऊ.का.
- उदा.--2..लोगां री राड़ में बांणिया री लिछमी वास करै। लोग यूं संप राखण लाग जावै तो बांणियां री संपत कीकर बधै--फुलवाड़ी
- उदा.--3..राखै संप जिका धन राखै, 'बांकौ' दाखै सांच विध। न्याय नीमड़ै जित्ते नीमड़ै, राज चढै ज्यां तणी रिध।--बां.दा.
- मुहावरा--संप राखणो=एकता रखना।
2.स्नेह, प्रेम। [सं.सर्प]
2.शेषनाग।
- उदा.--1..हिलै संप हैथाट, चलै बांना बहरंगी, इळ जळनिध उल्लटै जांण बडवालळ संगी। गिर छीजै खुरताळ पहवि थळ सिखर पलट्टै, पड़ै अपंथै पथ, त्रणह तुट्टै सर खुट्टै।--रा.रू.
- उदा.--2..हलीलां हिलै संप फौजां हसत्ती, प्रथी संगि लागा केई देसपत्ती।--वचनिका
4.देखा 'संपा' (रू.भे.)
- उदा.--सिरगार सिरौमण साकुर रौ, तस बीड़िय रूप खुलै तुररौ। करती नभ सी किर सप किया, वळती फुरणां व्रत वाळकियां।--पा.प्र.
5.देखो 'साप' (रू.भे.)
- उदा.--आकां दतुण न कीजियै, संपां न खाजै मांस। जला जेथ न जायजै, जेठां जंद विनांस।--जलाल बूबनां री बात