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संभोग  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.सम्भोग
1.किसी वस्तु का भली भांति किया जाने वाला उपयोग।
2.रति क्रिया, मैथुन।
  • उदा.--बात न कहुं प्रगट करै, संभोगे अनुकूल। जन्म न ऐड़ा पुरस रौ, प्रिया न विसरै मूळ।--वैताल पच्चीसी
3.साहित्य में श्रृंगाउर-रस का एक भेद, संयोग श्रृंगार।
4.वह पुरूष जो गुदा मैथुन का आदि हो गया हो।
5.व्यवहार।
  • उदा.--पन्नां नें दीक्षा देवा री आग्या नहीं। अनें जो दीक्षा दीधी तो आपां रे हाआर पांणी रौ संभोग भैळो नहीं।--भि.द्र.
6.हाथी के कुम्भस्थल या मस्तिक का एक भाग। संभोगी--वि.(सं.संभोगिन्‌)
1.संभोग करने वाला।
2.उपभोग करने वाला।
विशेष विवरण:-जैन साधुओं के आपस में बारह प्रकार के व्यवहार (बर्ताव) होते हैं। उनमें से एक साथ बैठकर भोजन पान करने का भी व्यवहार होता हैं सौ यदि 'पन्ना' के बिना आज्ञा दिक्षा दे दी गई हो तो एक साथ बैठकर भोजन करने का व्यवहार शामिल न होगा।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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