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सिद्धौ  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.पु.
सं.सिद्ध:
1.वर्णों का अभ्यास कराने की प्राचीन पद्धति, जो व्याकरण युक्त होती थी।
अपभ्रंश--
सिद्धौ वरणा। समामनाया।
चत्रू चत्रू दासा। दऊ सवारा।
दसै समाना। दुध्यावरणौ।
न सीस वरणौ। पुरबौ हंसवा।
पारौ दिरगा। सारौ वरणा।
विणज्यौ नामी। इकरादेणी।
संध कराणी। कादी नाऊ।
विणज्यौ नामी। तै विरघा पंचा पचा।
विरघानाऊ प्रथम द्वितीया।
संपोसाइचा। घोघ घोष पितोरणी।
अनुनारा नासिक। निनाणुनामा।
अनता संता। जै रै लवा।
रुकमण सबोसासा।
आयती विसारजुनिया।
कायती जिह्वामूलिया।
पायती पदमानीया।
आयौ आयौ रतन सवारौ।
मतान्तर से--
सिंधौ वरण समामनाया,
त्रै त्रै चतुरक दसिया।
दौं सेवरा, दशै समाना,
तेरनु दुधवा, बरणौ।
वरणौ, नाशि सवरणौ,
पुरवौ रसवा, पारौ दरघा,
सारौ वरणौ, विणजै नामि,
इकरादेणी, संधयकराणि,
कादी नाउं विणजै नामी
तै वरगा पंचौ पंचिआ,
वरगां णउं, प्रथम दिवटिआ
श्री शंखौ सारांशिया,
गोरवा गोरव, वतोरणै,
अनुसार शंखा, निनाणिनम,
अंथा संथा, जेरै लव्वा,
उर वमण शंखोषाहा।
संस्कृत--
सिद्धोवर्णसमाम्नाय:। सिद्ध खुल वर्णानां समाम्नायो वेदितव्य: ते के। अ आ इ ई उ ऊ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ। क ख ग घ ड़। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न। प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह। इति।
तत्रादौ चतुर्दश स्वरा:। तस्मिन्‌ वर्णसमाम्नाये आदौ ये चतुर्दशवर्णा: ते के। अ आ इ ई उ ऊ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ।
दश समाना:। तस्मिन्‌ वर्ण समाम्नाये आदौ ये दश वर्णास्ते समानसंज्ञा भवन्ति। ते के । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ इति।
तेषां द्वौ द्वावन्योन्यस्य सवर्णों। तेषां समानानां मध्ये द्वो द्वो वर्णों अन्योन्यस्य परस्परै सवर्ण सज्ञौ भवत:। अ आ। इ ई। उ ऊ। ऋ ऋ। लृ लृ।
पूर्वो ह्रस्व: तयो: सवर्ण संयोर्मध्ये पूर्वो वर्णों ह्रस्वसंज्ञी भवति। अ इ उ ऋ लृ।
परो दीर्घ:। तयो: सवर्णयोर्मध्ये परो वर्णो दीर्घ संज्ञा भवति। आ ई ऊ ऋ लृ।
स्वरोऽ वर्णवर्जो नामि। अवर्ण वर्ज: स्वरी नामि संज्ञो भवति। इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ।
एकारादीनि संध्यक्षराणि। एकारादीनि स्वरनामानि संध्यक्षर संज्ञानि भवन्ति। तानि कानि। ए ऐ ओ औ।
कादीनि व्यंजनानि। ककरादीनि हकारपर्यन्तान्यक्षराणि व्यंजन-संज्ञान भवन्ति।
ते वर्गा: पञ्च पञ्च पञ्च। ते ककारादयो मावसाना वर्णा:पञ्च पञ्च भूत्वा पञ्चैव वर्ग संज्ञा भवन्ति।
वर्गाणां प्रथमद्वितीय शषसाश्चाघोषा:। कख चछ टठ तथ पफ श ष स एते अघोषा:।
घोषवन्तोऽन्ये। अघोषेभ्योऽन्ये तृतीय चतुर्थ पंचमवर्ण य र ल व हाश्च घोषतत्संज्ञा भवन्ति। ग घ ड़ । ज झ ञ। ड ढ ण। द ब भ म। य र ल व--इमै घोषा:।
अनुनासिका ड़ ञ ण न मा:।
अन्तस्था य र ल वा:।
ऊष्माण: श ष स ह:।
अ: इति विसर्जनीय:।
क इति जिव्हामूलीय:।
प इत्युपध्मानीय:।
अं.इत्यनुस्वार:।
हिन्दी--
वर्णों के समूह को सिद्ध समझना चाहिये। वर्ण ऊपर देखिये। ऊपर दिये हुए वर्णों में से पहले 14 वर्णों की स्वर संज्ञा है। ये 14 वर्ण संस्कृत रूप के साथ दिये गये हैं। 14 स्वरों में से पहले 10 वर्णों की समान संज्ञा है। समान स्वरों में से दो दो की परस्पर सवर्ण संज्ञा है। यथा--अ आ परस्पर सवर्ण कहलाते हैं: इसी प्रकार इ ई, उ ऊ, लृ लृ के लिये समझिये। सवर्ण स्वरों में पहला वर्ण ह्रस्व कहलाता है अर्थात्‌ अ इ उ ऋ और लृ ह्रस्व वर्ण है। आगे का वर्ण दीर्घ होता है। यथा--आ ई ऊ ऋ लृ दीर्घ स्वर हैं। अ वर्ण को छोड़ कर स्वरों की 'नामि' संज्ञा है। ए ऐ ओ औ--संध्यक्षर कहलाते हैं।
'क' से लेकर 'ह' तक के वर्ण व्यंजन कहलाते हैं। 'क' से 'म' तक के 25 वर्ण 25 वर्गों में विभक्त हैं। यथा--क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग। इन वर्गों के प्रथम दो अक्षर तथा श ष स अघोष कहलाते हैं तथा वर्गों के शेष तीन तीन वर्ण ता य र ल व ह घोष वर्ण हैं।
'ड़, ञ, ण, न, म' अनुनासिक हैं।
य र ल व अन्तस्थ हैं। 'श ष स ह' ऊष्म कहलाते हैं। अ: विसर्जनीय है।
क जिव्हामूलीय है। 'अं' अनुस्वार है।
प इत्युपध्मानीय है।
निम्नलिखित अपभ्रंश स्फुट रूप से और भी हैं।
पूरबौ फल्यौ रथौ रथौ।
पातारु पद पद।
विणज्यौ नामी सरु वरु वरणानेतु
नेत कर मैया राम साल की जेतू।
लषौ (खौ) पचा ईड़ा दुर्गण संधि।
एती संती सूत्रता।
प्रथमी पाटी शुभ करती।
ये कातन्त्र व्याकरण पर आधारित है।
2.देखो 'सीधौ' (रू.भे.)
रू.भे.
सिदौ, सिधौ, सीदौ।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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