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सुंदर  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
वि.
सं.
1.जो दिखने में अच्छा लगता हो, मनमोहक, चित्ताकर्षक। (अ.मा., ह.नां.मा.)
  • उदा.--1..सुभ चित्र मंदिर चौक सुंदर, औपि रुचि राय अंगणै। तन सदन सोभित करण तरणी, विविध मनि उद्दम वणै।--रा.रू.
  • उदा.--2..अति सुंदर कवळ मांडिया ऊपर, सोभा अति पांमइ सादीत। चंदवदनी मुख दिसउ चाहतां, ऊगा किरि बारह आदीत।--महोदव पारवती री वेलि
2.जो रंग, रूप व वर्ण से आकर्षक लगता हो, रूपवान्‌, खूबसूरत।
  • उदा.--सुंदर सोभत घणस्यांम, तड़िता पट-पीत छिब नांम। वांमै अंग सीता वांम, रूप अनंग कौटिग रांम।--र.ज.प्र.
3.अच्छा, भला, बढिया। (डिं.को.)
4.ठीक, सही।
5.सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम।
  • उदा.--दासरथी सुखदाई सुंदर, नमै पगां सुर नर आनूप। नरकां मिट जन तारै नकौ, भाख पयोध प्रभाकर भूप।--र.ज.प्र.
6.सुघट, सुघड़ित।
7.उत्तम, पवित्र, स्वच्छ।
  • उदा.--सर सरित निरमळ नीर सुंदर, अमळ अंबर ओपयं। किरि सुबुधि वधि सत संग कारण, लुबुध होत विलोपयं।--रा.रू.
8.जिसके नख शिख व अंग-प्रत्यंग सौन्दर्य के मापदण्ड के अनुसार हो।
  • उदा.--म्रगनयणी, म्रगपति, मुखि, म्रगमद तिलक निलाट। म्रगरिपु-कटि सुंदर वणी, अहहइ घाट।--ढो.मा.
9.जिसे पाने से, देखने से या अनुभव करने से आन्दानुभूति होती हो।
10.कला की दृष्अि से जिसकी रचना अत्यन्त उच्च कोटि की हो। पर्याय.--अभिरांम, कमन, कमनीय, दरसणी, दीपन, पेसल, प्रीय, मंजु, मंजुल, मधुर, मनहर, मनोगिन, मनोरम, मनोहर, रमण, रमणीय, रुच, रचिर, ललित, वर, वांम, सरूप, साधु, सुखम, सुभग, सुलखण, सोभित। सं.पु.--
1.ईश्वर, परमात्मा। (नां.मा., ह.नं.मा.)
2.बालक, बच्चा। (अ.मा.)
3.कामदेव, मनोज। (ह.नां.मा.)
4.लंका में स्थित एक पर्वत।
5.एक प्रकार का वृक्ष।
6.लकड़ी के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द।
  • उदा.--1..चल सुंदर मंदिर चलै, तुम विण चल्यौ न जाय। मात चलाती लाड मैं, सौ दिन पहुंच्या आय।--अज्ञात
  • उदा.--2..चल सुंदर मंदिर चलैं, तुम हौ जीवजड़ी। हम हुतै तुम न हुतै, जद थी आणंद घड़ी।--अज्ञात
7.एक प्रकार का मात्रिक छंद विशेष जिसमें एक लघु एवं एक दीर्घ के क्रम से पच्चीस मात्राऐं व 16 वर्ण होते हैं।
  • उदा.--सोलह आखर पय सखर, मात्र पचीस मलूक। कहि गुण लखपती कुंअर, सुंदर छंद सलूक।--ल.पिं.
8.डिंगल के वेलियां सांणोर छंद का एक भेद विशेष जिसके प्रथम द्वालै में 52 लघु, 6 गुरु, कुल 64 मात्राऐं होती हैं तथा शेष द्वालों में 52 लघु, 5 कुरु, कुल 62 मात्राऐं होती हैं। (पिं.प्र.) सं.स्त्री.--
9.पृथ्वी, भूमि। (डिं.को; डिं.नां.मा., ना.डिं.को.)
10.देखो 'सुंदरी' (रू.भे.) (डिं.को.)
  • उदा.--1..कुण मांड्‌यां, अै सुवागण, थारा हाथ, पेम रस महंदी राचणी। राच्या राच्या, अै सुंदर, थारा हाथ, ेपेम रस महंदी राचणी।--लो.गी.
  • उदा.--2..सुंदर सोळ सिंगार सजि, गई सरोवर पाळ। चंद मुळक्यउ, जळ हंस्यउ, जळहर कंपी पाळ।--ढो.मा.
  • उदा.--3..प्रह फूटी, दिसि पुंडरी, हणहणिया हय थट्ट। ढोलइ धण ढंढोळियउ, सीतळ सुंदर-घट्ट।--ढो.मा.
  • उदा.--4..सांम्हउ जिण कळस आंणियउ सुंदर, वंदायउ कर भली विधि। जनम जनम बैकुंठ पांमिस्यइ, वळै वंदावइतां नवै निधि।--महादेव पारवती री वेलि
  • उदा.--5..उदमाद घणइ जगि चढती वांनी, करि नरिखती फोरती कंध। सांई मिळण कारणै सुंदर, बंधिया चोळी तणाज बंध।--महादेव पारवती री वेलि
अल्पा.--
रू.भे.
सुंदरु, सुंदरू।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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