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गायत्री  
शब्दभेद/रूपभेद
व्युत्पत्ति
शब्दार्थ एवं प्रयोग
सं.स्त्री.
सं.गायत्रिन्‌
1.एक वैदिक छंद का नाम। यह छंद तीन चरणों का होता है और प्रत्येक चरण में आठ-आठ अक्षर होते हैं। इसके आर्षी, दैवी, आसुरी, प्रजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची और ब्राह्मी आठ भेद हैं.
2.एक पवित्र मंत्र जिसे सावित्री भी कहते हैं। वि.वि.--ब्रह्मा की स्त्री का नाम गायत्री था। गायत्री मंत्र वेद का सबसे प्रचलित मन्त्र और गायत्री छंद सबसे प्रसिद्ध छंद है। इसको वेद माता भी कहा गया है। यह मन्त्र सबसे अधिक पुनीत अथवा पावन माना गया है। द्विजों में यज्ञोपवीत के समय वेदारंभ संस्कार करते हुए आचार्य इस मन्त्र का उपदेश ब्रह्मचारी को करता है। प्रत्येक ब्राह्मण के लिए त्रिसंध्या में इसका जप करना अनिवार्य माना गया है। मनु का कथन है कि प्रजापति ने आकार, उकार और मकार वर्णों, भूः भुवः और स्वः तीन व्याहृतियों तथा सावित्री मन्त्र के तीनों पादों को ऋक्‌, युजः और सामवेद से यथाक्रम निकाला है। गायत्री मन्त्र इस प्रकार है--ॐ भूः भुवः स्वः तत्सवितुः वरेण्यम्‌ भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्‌। विद्वानों ने इसका भिन्न-भिन्न अर्थ किया है। मन्त्र का मौलिक आशय इस प्रकार है--'हम उस परम तेजोमय सूर्य (सविता) के उस तेज की उपासना करते हैं कि वह हमारे मन और बुद्धि को प्रकाशमान करे।'
3.दुर्गा.
4.गंगा.
5.गाय।


नोट: पद्मश्री डॉ. सीताराम लालस संकलित वृहत राजस्थानी सबदकोश मे आपका स्वागत है। सागर-मंथन जैसे इस विशाल कार्य मे कंप्युटर द्वारा ऑटोमैशन के फलस्वरूप आई गलतियों को सुधारने के क्रम मे आपका अमूल्य सहयोग होगा कि यदि आपको कोई शब्द विशेष नहीं मिले अथवा उनके अर्थ गलत मिलें या अनैक अर्थ आपस मे जुड़े हुए मिलें तो कृपया admin@charans.org पर ईमेल द्वारा सूचित करें। हार्दिक आभार।






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