सं.पु.
सं.दृष्टांत
1.समान धर्म वाली किसी प्रचलित वस्तु या व्यापार का कथन जो अज्ञात वस्तुओं या व्यापारों का धर्म्म आदि बतलाते हुए समझाने के लिए हो।
- उदा.--1..रुखमणीजी कंचुकी पहिरी छै सु मांनु इभ कहतां हस्ती तै कै कुंभस्थळ ऊपरि अंधारी राखी छै। दूसरौ द्रस्टांत जांणै महादेवजी कवच पहिर्यौ छै, कांम सों जुद्ध करिवा कै तांई। तीसरौ द्रस्टांत स्रीक्रिस्णजी का मन के तांई मंडप छायौ छै, जु मन आय वइसिसी। चौथौ भाव यौ जु मन वांध्यौ चाहिजै, त्यै के कारणै या वारिगह दीधी छै।--वेलि.टी.
- उदा.--2..समस्त मनुष्य छै त्यां सिंघळां हरी आंखि स्रीकिस्णजी रा मुख सों द्रस्टि लागि रही छै। ताकों द्रस्टांत जैसे समुद्र कै विखै चंद्रमा का प्रतिबिंब नै मछळी सब लागि रहै छै, आंणि पासि घेरि रहै छै, इह भांति सब ही का नेत्र क्रिस्णजी का मुखारविंद नै आरोपित किया छै।--वेलि.टी.
2.उदाहरण, मिसाल।
- उदा.--रीता हुवै हजार हां, कळस भरीज भरीज। रीता हुवै निवांण नह, इण द्रस्टांत पतीज।--बां.दा.
3.स्वप्न, सपना।
- उदा.--मैं द्रस्टांत दीठौ छै।--पंचदंडी री वात
4.ऋतुस्नाता स्त्री का पुरुष दर्शन जिसका प्रभाव गर्भ पर होता है.
7.एक अर्थालंकार जिसमें एक ओर तो उपमेय और उसके साधारण धर्म्म का वर्णन और दूसरी ओर बिंब--प्रतिबिंब भाव से उपमान और उसके साधारण धर्म का वर्णन होता है। वि.वि.--उपर्युक्त अर्थ संख्या दो का उदाहरण है--
- उदा.--रीता हुवौ हजार हां, कळस भरीज भरीज। रीता हुवै निवांण नह, इण द्रस्टांत पतीज।----बां.दा.इसके अनुसार एक ओर तो उपमेय के धर्म का वर्णन है कि हम हजारों कलश भरते हैं फिर भी खाली हो जाते हैं (रीता हुवै हजार हां=क्योंकि वे हमारे स्वार्थ के कारण खाली हो जाते हैं) दूसरी ओर बिंब प्रतिबिंब भाव से उपमान का वर्णन है कि कूप खाली नहीं होता है (रोतौ हुवै निवांण नह=अर्थात् परोपकारी या दातार होने के कारण वह खाली नहीं होता है।) इसी प्रकार उपर्युक्त अर्थ संख्या एक के दोनों उदाहरणों में भी यही अलंकार है।
रू.भे.
दसटांत, दिट्ठंति, दस्टांत, दिस्टांत।