सं.पु.
सं.
1.श्रीकृष्ण, गोपाल (अ.मा.)
यौ.
नाथपूत।
- उदा.--डरे नाग काळी झरे स्रोण डाचै। नमौ नाथ तो नाच नारद्द नाचै। पनंगे सिरे नाचियौ नाथ पाखै। भलौ नंदकीसोर नारद्द भाखै।--ना.द.
3.ईश्वर।
- उदा.--1..हरि अकळ सकळ विसपाळ, नाथ निरभै निरधारं। निराकार निरलेप, वार नहिं लाभै पार।--ह.पु.वा.
- उदा.--2..होय सनाथ जनम मत हारै, नाथ समर त्रयलोक नरेस।--ओपौ आढ़ौ
4.स्वामी, प्रभु, मालिक (डिं.को.)
- उदा.--तोरा हू पूरा तवै, सकूं केम ससि-माथ। चत्रभुज सह थारा चरित, निगम न जांणूं नाथ।--ह.र.
6.राजा।
- उदा.--1..करि हौफर तूटे कवल, तारा तिम तिण वार। आवै जो उण बार में, उडि जावै असवार। उडि जावै असवार, टकर लगि तूंड री। मचक पड़ै दळ मांहि, भचक लखि भूंड री। वहै हाथ तिण वार, नरू खंड नाथ रा। जैद्रथ रथ पर जांण, पांण पाराय रा।--सिवबक्स पाल्हावत
- उदा.--2..अटै सोध अवरोध अचांणक, बोध मोद विसराये। प्रांण नाथ हा नाथ! जोधपुर गौख सौध गणणाये।--ऊ.का.
7.मत्स्यद्रेंनाथ द्वारा प्रवर्तित एक सम्प्रदाय। वि.वि.--नाथ सम्प्रदाय को सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूतमत, अवधूतसम्प्रदाय आदि भी कहा जाता है। भारत के प्राय: हर भाग में इसके अनुयायी मिलते हैं। इस मत का सब से प्रामाणिक ग्रंथ 'सिद्ध-सिद्धान्त-पद्धति' है। इसका संक्षिप्त रूप अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में काशी के बलभद्र पंडित द्वारा लिखा गया था जिसका नाम 'सिद्ध-सिद्धान्त-संग्रह' है। 'नाथ' शब्द में 'ना' का अर्थ किया जाता है, अनादि-रूप और 'थ' का अर्थ किया जाता है। स्थापित होना या तीन लोकों का स्थापित होना अर्थात् अनादि रूप में तीन लोकों के रूप में स्थापित होना। इसके अतिरिक्त 'ना' का अर्थ नाथब्रह्म और 'थ' का अर्थ हटाने वाला (अज्ञान के प्राबल्य को) अर्थात् वह ब्रह्म जो अज्ञान को हटा कर ब्रह्मानद या सच्चिदानंद में विलीन करे। नाथ सम्प्रदाय का विस्तार आदि में होने वाले नव मूल नाथों से माना जाता है तथा उन्हीं को नव नारायण का अवतार भी माना जाता है राजस्थान में शरीर के लिए 'नव नारायण री देह' कहा जाता है, इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि शरीर में नव नारायण है। 'योगिसंप्रदायविष्कृति' के अनुसार निम्न नव नारायण नव नाथों के रूप में अवतरित हुए किन्तु इनमें आदिनाथ (शिव) और गोरक्षनाथ का नाम नहीं है--
1.कविनारायण - मत्स्येंद्रनाथ
3.अंतरिक्षनारायण - ज्वालेंद्रनाथ (जालंधरनाथ)
4.प्रबुद्धनारायण - करणिपानाथ (कानिपा)
5.आविहोंत्रनारायण - (?) नागनाथ
6.पिप्पलायननारायण - चर्पटनाथ (चर्पटी)
8.हरिनारायण - भर्तृनाथ (भरथरी)
9.द्रुमिलनारायण - गोपीचन्द्र नव नाथों के सम्बन्ध में अलग अलग नाम मिलते हैं। आदिनाथ शिव, नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक मत्स्येंद्रनाथ, जालंधरनाथ, गोरक्षनाथ, कृष्णापाद आदि को नव नाथों में से ही माना जाता है किन्तु कहीं इनसे भिन्न नाम मिलते हैं। गोरक्षनाथ नव नाथों में से हैं या अलग इस सम्बन्ध में भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जाता सकता है। अत: मूल नव नाथ कौनसे थे इसका ठीक निर्णय तब तक कठिन है जब तक कोई ठोस प्रमाण न मिले। इस सम्प्रदाय के आदिनाथ शिव माने जाते हैं जो इस सम्प्रदाय के उपास्यदेव है। वह शिव जो सब से परे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र, वेद, यज्ञ, सूर्य, चंद्र, निधि, जल, स्थल, अग्नि, वायु, दिक् और काल सब से पर हैं, यथा--न ब्रह्मा विष्णु रुद्रौ न सुरपति सुरा नैव पृथ्वी न चापो नैवाग्निर्वापिवारयुर्न न गगनतलं नो दिशो नैवकाल:। नो बेदा नैव यज्ञा न च रविशशिनौ नो विधि नैविकल्प:, स्वज्योति: सत्यमेकं जयति तव पदं सच्चिदानन्द मूर्ते।--सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ईसवी की नवीं शताब्दी में पूर्वी भारत के कामरूप प्रदेश के निकट किसी चंद्रगिरि नामक स्थान में नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ था। नाथपरम्परा में आदिनाथ के बाद सब से महत्वपूर्ण आचार्य मत्स्येंद्रनाथ ही हैं। चूंकि आदिनाथ शिव का ही नामान्तर है अत: मानव गुरुओं में मत्स्येंद्रनाथ ही इस परम्परा के सर्व-प्रथम आचार्य माने जाते हैं। इनके सम्बन्ध में अनेक दन्तकथाएँ प्रसिद्ध हैं। यह बात सत्य ही प्रतीत होती है कि मत्स्येंद्रनाथ आरम्भ में एक साधना में रत हुए थे। फिर वे एक ऐसे स्थान या आचार में जा फँसे जहां स्त्रियों का साहचर्य प्रधान था। वे अपनी साधना को भूल रहे थे। वहां से उनका उद्धार उन्हीं के प्रधान शिष्य गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने किया था। मत्स्येंद्रनाथ द्वारा अवतारित कौलज्ञान प्रसिद्ध है। उन्होंने 'कौलज्ञान-निर्णय' नामक ग्रंथ भी लिखा है। शाक्त आचारों में भी वाम, दक्षिण और कौल उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं और कौल-मार्ग ही अवधूतमार्ग है। इस प्रकार तंत्र ग्रंथों के अनुसार कौल या अवधूतमार्ग श्रेष्ठ है इसलिए शाक्त तंत्र भी नाथानुयायी ही हैं। 'कौलज्ञान निर्णय' के अतिरिक्त भी इन्होंने कई अन्य ग्रन्थों की रचना की थी। मत्स्येंद्रनाथ के मुख्य शिष्यों में गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) का नाम अधिक प्रसिद्ध है। विक्रम संवत् की दशवीं शताब्दी में भारतवर्ष के इस महान् गुरु का आविर्भाव हुआ था। शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने कोने में उनके अनुयायी आज भी पाए जाते हैं। गोरक्षनाथियों की मुख्य बारह शाखायें प्रसिद्ध हैं जो निम्न हैं--सत्यनाथी, धर्मनाथी, रामपंथ, नटेश्वरी, कन्हड़, कपिलानि, बेराग, माननाथी, आईपंथ, पागलपंथ, धजपंथ और गंगानाथी। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिंक आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्गं ही था। भारतवर्ष की ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसमें गोरक्षनाथ सम्बन्धी कहानियां नहीं पाई जाती हों। इन कहानियों में परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत है किन्तु यह बात स्पष्ट है कि वे अपने युग के सबसे बड़े नेता थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें से कई प्रकाशित हैं। जालंधरनाथ मत्स्येंद्रनाथ के गुरुभाई और समकालीन माने जाते हैं। तिब्बती परम्परा में ये मत्स्येंद्रनाथ के गुरु भी माने जाते हैं। उक्त परम्परा के अनुसार नगर भोग देश में (?) ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हुआ था। पीछे ये एक अच्छे पंडित भिक्षुक बने किन्तु घंटापाद के शिष्य कूर्मपाद की संगति में आकर ये उनके शिष्य हो गए। मत्स्येंद्रनाथ, कण्हपा (कृष्णपाद) और तंतिपा इनके शिष्यों में से थे। भोटिया ग्रंथों में इन्हें आदिनाथ भी माना जाता है। 'तनजूर' में इनके लिखे हुए सात ग्रंथों का उल्लेख है। नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ और उपास्य देव शिव-मुद्रा, नाद और त्रिशूल धारण करने वाले हैं अत: नाथ सम्प्रदाय वाले कानों में कुण्डल या मुद्रा धारण करते हैं जिन्हें दर्शन भी कहते हैं। इस सम्प्रदाय में कान छिदवा कर कुण्डल धारण कर लेने के बाद योगी कनफटा कहलाते हैं और इससे पूर्व ओघड़ कहलाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जालंधरनाथ मुद्रा धारण नहीं करते थे, वे औघड़ थे। किन्तु 'सिद्धान्त वाक्य' में जालंधरपाद के एक श्लोक के अनुसार पता चलता है कि मुद्रा, नाद और त्रिशूल धारण करने वाले नाथ ही इनके उपास्य हैं, यथा--वन्दे तन्नाथतेजो भुवनतिमिरहं भानुतेजस्करं वा, सत्कर्तृ व्यापकं त्वा पवनगतिकरं व्योमवन्निनिर्भरं वा। मुद्रानादत्रिशूलैर्विमलरुचिधर खर्पर भस्ममिश्रं, द्वैत वाऽद्वैतरूपं द्वयत उत परं यौगिनं शंकरं वा।। --स.भ., स्.पृ.28 यह अनुमान लगाया जाता है कि नाथ-साधना बौद्ध दर्शन का ही एक रूप है अथवा उससे सम्बद्ध है। ऐसा माना जाता है कि बौद्ध कापालिक मार्ग और शैव कापालिक मार्ग का स्वतंत्र अस्तित्व था जो बाद में गोरखपंथी साधुओं में अन्तर्भुक्त हो गया। पं.हरप्रसाद शास्त्री द्वारा प्रकाशित 'बौद्धगानओदोहा' नामक संग्रह के भाग 'चर्याचर्यविनिश्चय' के अनुसार कान्हूपाद या कृष्णपाद एक बौद्ध सिद्ध था जो अपने आप को बौद्ध कापालिक कहता था, यथा--(1) आलो डोम्बि तोए संग करिब मो सांग। निर्धन कान्ह कापालि जोइ लांग।।--चर्या., पद 10 (2) कइसन होलो डोम्बि तोहरि भाभरि आली। अन्ते कुलीन जन माझे कावाली।। (3) तुलो डोम्बी हाउँ कपाली--वही, पद 10 यही कृष्णपाद अपने आप को जालंधरनाथ का शिष्य कहता है, यथा--शाखि करिब जालंधरि पाए। पाखि ण राहअ मोरि पांडिआ चादे।।--वही, पद 36 यह बात तो सर्वमान्य है कि जालंधरनाथ के शिष्य कृष्णपाद थे जिन्हें कण्हपा, कान्हूपा, कानपा, कानफा, कनिपाव आदि नामों से लोग याद करते हैं। श्री राहुलजी ने तिब्बती परम्परा के आधार पर इन्हें कर्णाटदेशीय ब्राह्मण माना है पर डॉ.भट्टाचार्य ने इन्हें जुलाहा जाति में उत्पन्न और उड़ियाभाषी लिखा है। शरीर का रंग काला होने से इन्हें 'कृष्णपाद' कहा गया है। महाराज देवपाल (809-849 ई.) के समय में यह एक पंडित भिक्षु थे और कितने ही दिनों तक सोमपुरी बिहार (पहाड़पुर, जिला राजशाही, बंगाल) में रहा करते थे। आगे चलकर सिद्ध जालंधर पाद के शिष्य हो गये। चौरासी सिद्धों में कवित्व और विद्या दोनों दृष्टियों से ये सब से श्रेष्ठ थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। नाथ सम्प्रदाय में कानिपा-सम्प्रदाय कृष्णपाद से ही चला है। सपेरे इसी सम्प्रदाय के होते हैं। जिन्हें राजस्थान में 'काळबेलिया' कहा जाता है। ये अपने आदि गुरु कनिपाव (कृष्णपाद) को बताते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि कानिपा-सम्प्रदाय बाद में गोरखपंथी साधुओं में अन्तर्भुक्त हो गया। यहां यह बात उल्लेख योग्य है कि कानिपा-सम्प्रदाय को अब भी पूर्ण रूप से गोरखनाथी सम्प्रदाय में नहीं माना जाता है। कृष्णपाद द्वारा प्रवर्तित कहा जाने वाला एक उपसम्प्रदाय बाममारग (वाम मार्ग) आज भी जीवित है। ये अपने को कृष्णपाद का शिष्य गोपीचन्द के अनुवतीं मानते हैं। गोरखपंथियों से कुछ बातों में ये लोग अब भी भिन्न हैं। मुद्रा गोरखपंथी योगियों का चिह्न है। गोरखपंथी लोग कान के मध्य भाग में कुण्डल धारण करते हैं पर कानिपा लोग कान की लोरों में भी पहनते हैं। गोरक्ष पंथ में मुद्रा के अनेक आध्यात्मिक अर्थ भी बताए जाते हैं।
1.'योगिसंप्रदायाविष्कृति' के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ और जालन्धरनाथ (ज्वालेंद्रनाथ) की शिष्य-परम्परा इस प्रकार है--
8.उक्त सम्प्रदाय के अनुयायियों के नाम के साथ लगाई जाने वाली पदवी या उपाधि।
11.वह रस्सी जिसे बैल, भैंसे आदि का नाक छेद कर नथुने में डाली जाती है जिससे वे वश में रहें।
- उदा.--सह गावड़ियां साथ, एक बाड़ै बाड़िया। रांण न मांनी नाथ, तांडै सांड 'प्रतापसी'।--दुरसौ आढ़ौ
- मुहावरा--नाथ घालणी--वश में करना।
12.वह कील जिसे गाड़ी का पहिया लगा देने के बाद धुरी के छेद में फंसा दी जाती है जिससे पहिया बाहर न निकल सके।
अल्पा.
नाथौ, नाहलउ, नाहलियौ, नाहलु, नाहलौ।