सबदकोस – राजस्थांनी व्याकरण (भाग-2)

वाच्य–

कर्मवाच्य रूप–

धातु में अथवा ईज ( ) जोड़ने से यह रूप बनता है। प्राचीन भाषाओं में भी धातु में प्रत्यय के संयोग से कर्मवाच्य रूप प्रकट किया जाता था। संस्कृत के धातु के साथ जोड़ कर कर्मवाच्य का रूप बनाया जाता था। प्राकृत एवं अपभ्रंश में इज्ज या ईज रूप मिलता है। वहाँ प्रत्यय का कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं है। सिद्ध हेमचन्द्र ने (सं. प्राप्यते ) पाविअइ का प्रयोग किया है। कुछ विद्वानों ने इस प्रत्यय का सम्बन्ध शौरसेनी तथा मागधी के से जोड़ा है तथा कुछ के मत से ( ) प्रत्यय इज्ज ( ईज ) से निकला है और इसलिये शौरसेनी तथा मागधी के प्रत्यय से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु इस का सम्बन्ध संस्कृत के से अवश्य है।[1] ध्वनि- परिवर्तन पर विचार करते समय हम देख चुके हैं कि राजस्थानी में का में परिवर्तन एक आम बात है। इस दृष्टि से ईज का प्रयोग भी इसी प्रकार से प्रचलित हुआ है, फिर भी स्वयं में की ध्वनि संन्निहित है। ईजइ एवं ईयइ दोनों के रूप अत्यन्त समान हैं। दूसरे रूप ईयइ में का लोप होकर द्वित्व के स्थान पर केवल हृस्व का रह जाना भी असंभव नहीं है। आधुनिक राजस्थानी में इस प्रकार ई, ईज, इ इन तीनों का प्रयोग कर्मवाच्य रूपों के लिये होता है। यह केवल सकर्मक क्रियाओं का ही रूप होता है।

वर्तमान कर्मवाच्य–

प्राचीन राजस्थानी में ईजइ, ईयइ ( ईअइ ) एवं ईइ का प्रयोग कर्मवाच्य रूप बनाने में किया जाता था, यथा–

(i) ईजइ के उदाहरण–
कीजइ [ सं. क्रियते, अप. कीज्जइ ]
कहीजइ [ सं. कथ्यते, अप. कहिज्जइ ]
(ii) आजई या अजई से–
खाजइ [ सं. खाद्यते, अप. खज्जइ ]
नीपजई [ सं. निष्पद्यते, अप. णिप्पज्जइ ]
(iii) ( ईअइ ), ईयइ से–
करीयइ [ सं. क्रियते, अप. करिज्जइ, करीजइ ]
जोईअइ [ सं. द्योत्यते, अप. जोइज्जइ ]
(iv) ईह से–
करीइ [ अन्य रूप करी ( ) > करोजइ ]
जाणीइ
धरीइ

आधुनिक राजस्थानी में केवल ईज, इज एवं ईयइ का ही प्रयोग साधारणतः होता है–

(i) ईज– काटणौ कर्म वा. रूप– काटीजणौ
मारणौ कर्म वा. रूप– मारीजणौ

(ii) ईयइ– छोडणौ छंडयइ

इनके अतिरिक्त केवल प्रत्यय से कुछ विशेष कर्मवाच्य रूप भी होते हैं। इनमें औकारान्त रूप न रह कर प्रत्यय से केवल ईकारान्त ही होते हैं। किन्तु इस प्रकार के रूपों के प्रयोग क्वचित् ही होते हैं अथवा क्षेत्र विशेष में ही सीमित रहते हैं, यथा–

(i) खाणौ क्रिया का कर्मवाच्य रूप खाणी
उ.–म्हांसूं खाणी को आवै नी–मुझसे खाया नहीं जाता।

(ii) जोवणौ क्रिया का कर्मवाच्य रूप जोवणी
उ.–म्हांसूं जोवणी को आवै नी–मुझसे देखा नहीं जाता।

तैस्सितोरी ने प्राचीन राजस्थानी में कर्मवाच्य रूपों के प्रयोगों के सम्बन्ध में लिखा है[2] –“जितनी पांडुलिपियाँ मैंने देखी हैं उनमें हमें वर्तमान कर्मवाच्य के केवल अन्य पुरुष के एकवचन और बहुवचन रूप ही प्राप्त हुए हैं। इनमें से एकवचन के रूप अधिक प्रचलित हैं और इनका प्रयोग विविध अर्थों में होता है और प्रायः सभी पुरुषों के स्थान पर ये भाववाच्य में भी प्रयुक्त होते हैं।” यह मत कहाँ तक तर्कसम्मत है, यह विचारणीय एवं शोध का विषय है। प्राचीन राजस्थानी एवं आधुनिक गुजराती में इस प्रकार के उदाहरण पाये जाते हैं किन्तु आधुनिक राजस्थानी में इनका प्रयोग स्वल्प ही है।

भूतकालिक कर्मवाच्य–

साधारण कर्तृवाच्य रूपों के समान वर्तमान कर्मवाच्य रूपों में– इयौ प्रत्यय से ही उनका भूतकालिक रूप बनाया जाता है–

वर्तमान कर्म वा.
भूतकालिक कर्म.वा.
करीजणौ
करीजियौ
काटीजणौ
काटीजियौ
मारीजणौ
मारीजियौ

लिंग के प्रभाव से इनके रूपों में भी परिवर्तन हो जाता है। उपरोक्त रूप पुल्लिंग है। स्त्री लिंग रूपों में यौ का लोप होकर रूप ईकारांत होता है, यथा–

वर्तमान कर्म वा.
भूतकालिक कर्म.वा.
पुल्लिंग
स्त्रीलिंग
लीरीजणौ
लीरीजियौ
लीरीजी
खवीजणौ
खवीजियौ
खवीजी
[1]यण का इक हो जाता है जो संप्रसारण कहलाता है। य व र ल के स्थान में क्रमशः इ उ ऋ लृ होता है। (इग्यणः संप्रसारणम्) सिद्धान्तकौमुदी, सूत्र 1/1/45.
[2]पुरानी राजस्थानी,डॉ. एल.पी. तैस्सितोरी, अनु. नामवरसिंह, पारा 137 का अंश।

गोड़वाड़ आदि क्षेत्रों में इस भूतकालिक कर्मवाच्य के रूप इस प्रकार मिलते हैं–

क्रिया
भूतकालिक कर्मवाच्य
लिखणौ
लिखांणौ
पढ़णौ
पढ़ांणौ
खाणौ
खावाणौ आदि।

भविष्यत् कर्मवाच्य–

भविष्यत् कर्मवाच्य के रूप पुरानी राजस्थानी एवं आधुनिक राजस्थानी में कुछ भिन्न प्रकार से होते हैं। पुरानी राजस्थानी पर अपभ्रंश का पर्याप्त प्रभाव है। उसके कुछ रूप निम्नलिखित प्रकार से निष्पन्न होते हैं–

(i) इज वाले–
कीजसी =किया जायगा
जाइजसी =जाया जायगा
लीजिस्यइ =लिया जायगा
(ii) वाले–
कहीस्यइ, कहीसिइ =कहा जायगा
बोलिसिइँ =बोला जायगा
परावीसिउ =पराभूत होंगे
मरीसिइ =मरेगा पांमीस्यइँ =पायेंगे

आधुनिक राजस्थानी में भी रूप प्रायः सी लग कर ही बनते हैं।

वर्तमान कर्मवाच्य
भविष्यत्कालिक कर्मवाच्य
लीरीजणौ
लीरीजसी
करीजणौ
करीजसी
खवीजणौ
खवीजसी

भाववाच्य–

सकर्मक क्रियाओं के रूप कर्मवाच्य तथा अकर्मक क्रियाओं के रूप भाववाच्य होते हैं। कर्मवाच्य एवं भाववाच्य के रूपों में कोई विशेष भेद नहीं होता। एक ही प्रकार से दोनों के रूप बनते हैं। केवल अकर्मक एवं सकर्मक के भेद से ही भाववाच्य एवं कर्मवाच्य रूप बनते हैं, यथा–

(अ) वर्तमानकाल–

क्रिया
वाच्य
मरणौ (अकर्मक)
मरीजणौ (भाववाच्य)
मराणौ (सकर्मक)
मराईजणौ (कर्मवाच्य)
कटणौ (अकर्मक)
कटीजणौ (भाववाच्य)
कटाणौ (सकर्मक)
कटाईजणौ (कर्मवाच्य)
काटणौ (सकर्मक)
काटीजणौ (कर्मवाच्य)

(आ) भूतकालिक–

क्रिया
वर्तमानकाल
भूतकाल
पड़णौ (अ.रू.)
पड़ीजणौ
पड़ीजियौ (भाव. वा.)
काटणौ (स.रू.)
काटीजणौ
काटीजियौ (कर्म. वा.)

(इ) भविष्यकालिक–

क्रिया
वर्तमानकाल
भविष्यकाल
जावणौ
जावीजणौ
जावीजसी
बैठणौ
बैठीजणौ
बैठीजसी

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भाववाच्य एवं कर्मवाच्य दोनों में परिवर्तन करने या रूप बनाने की प्रणाली का कुछ एक ही प्रकार का ढंग है।

तैस्सितोरी ने अपने लेख में विधिमूलक कर्मवाच्य (Potential Passive) का भी उल्लेख किया है।[1] डॉ. हॉर्नले ने भी अपनी “गौडियन ग्रामर” में इस सम्बन्ध में युक्तियां एवं उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।[2] कर्मवाच्य धातु में जोड़ने से बनने वाले विधिमूलक कर्मवाच्य के कई उदाहरण प्राचीन राजस्थानी में मिलते हैं। इस कर्मवाच्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सामान्यतः इसमें विधि (Potential) का अर्थ निहित रहता है, परन्तु कालान्तर में इस विशिष्ट अर्थ का धीरे-धीरे लोप होता गया। आधुनिक गुजराती में इसका प्रयोग सामान्यतः कर्मवाच्य के अर्थ में होता है। प्राचीन राजस्थानी में इस विधिमूलक कर्मवाच्य (Potential Passive) के निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं।

वर्तमान–

(i) सरव पाप-मल-थकी मुकाइँ = (वे) सवै पाप मल से मुक्त हो सकते हैं।
(ii) तुम्हौ अभक्ष्य-मांहि कहिवाय = तुम अभक्ष्य में कहे जा सकते हो।

भविष्यत–

नरक रूपी या वैस्वानर मांहि पचाइसि = नरक रूपी वैश्वानर में पकाए जाओगे।

आधुनिक राजस्थानी में इनका प्रयोग निम्नलिखित रूपों में होता है–

वर्तमान–सब पापां सूं मुक्त होवीजै
भविष्य– रोटी तवा माथै पकावीजसी

राजस्थानी में भविष्य आज्ञार्थक में जे जै , या जौ का प्रयोग होता है, यथा–

पत्र लिखज = पत्र लिखना
औखध खाइजौ = औषधि खाना
धान खरीदजै = धान खरीदना

इन जे, जै, जौ की उत्पत्ति संस्कृत के ण्यत् (यत्) प्रत्यय से हुई है।

[1]पुरानी राजस्थानी,पृष्ठ 184, पारा 140
[2]“गौडियन ग्रामर” पारा484

प्रेरणार्थक–

संस्कृत के मूल स्वर को दीर्घ करके प्रेरणार्थक बनाने की परिपाटी रही है। राजस्थानी में भी इस प्रकार के कई उदाहरण मिलते हैं। यहाँ भी स्वर को दीर्घ करके प्रेरणार्थक रूप कई क्रियाओं का बनाया जाता है। सामान्यतः ऐसे रूपों को आजकल सकर्मक ही माना गया है। प्रस्तुत कोश में भी ऐसे रूप व्याकरण की दृष्टि से सकर्मक के अंतर्गत ही रक्खे गये हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ऐसा अनुभव होता है कि उनमें प्रेरणार्थक भाव अंतर्निहित है। ऐसे रूप अकर्मक क्रियाओं से बनते हैं।

क्रिया सकर्मक क्रिया (प्रेरणार्थक रूप)
प्राचीन राजस्थानी आधुनिक राजस्थानी
उतरणौ ऊतारइ ऊतारणौ
मरणौ मारइ मारणौ
मिळणौ मेळइ मिळाणौ

इसके अतिरिक्त राजस्थानी में आव प्रत्यय जोड़ कर भी प्रेरणार्थक रूप बनाये जाते हैं। यह आव प्रत्यय की उत्पत्ति संभवतया संस्कृत के आ-पय से हुई है। सं. का ” आ-पय” अपभ्रंश में आव, आवे के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्राकृत में आपय को प्रत्यय के रूप में स्वीकार किया जाकर इसका प्रयोग सामान्यतः प्रेरणार्थक रूप बनाने में किया जाता था। ऐसा देखा गया है कि राजस्थानी में प्रेरणार्थक रूप इस प्रत्यय द्वारा बनाते समय मूल दीर्घ स्वर हृस्व हो जाया करता है, किन्तु यह नियम सदैव लागू नहीं होता। आव प्रत्यय से बने निम्नलिखित रूपों के उदाहरण दिये जा सकते हैं–

क्रिया
प्रेरणार्थक
काटणौ (स. रू.)
कटावणौ
मारणौ (स. रू.)
मरावणौ
आंणणौ
अणावणौ या आंणावणौ

प्रायः कई बार इस आव प्रत्यय का मूल स्वर हृस्व होकर अव के रूप में प्रयुक्त होने लगता है, यथा–

क्रिया
प्रेरणार्थक
मेळणौ
मेळवणौ
सीखणौ
सीखवणौ

इस प्रकार के रूपों का प्राकृत में भी हेमचंद्र ने प्रयोग किया है– पट्ठवइ ( सिद्ध 4 ।37), मेलवइ (सिद्ध 4।28) सोसवइ (सिद्ध 3।140) । अतः यह केवल राजस्थानी की अपनी विशेषता नहीं है। इसे परम्परा के रूप में प्राकृत एवं अपभ्रंश से राजस्थानी में प्राप्त किया गया है। इस प्रकार अव प्रत्यय से बने रूप आधुनिक राजस्थानी में कम, परन्तु प्राचीन राजस्थानी में प्रचुरता से मिलते हैं। तैस्सितोरी ने भी इसका उल्लेख किया है। कठिनाई यह है कि इस अव प्रत्यय का प्रयोग राजस्थानी में अपभ्रंश की तरह नाम धातु बनाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है, यथा–

संस्कृत- भोग राजस्थानी- भोगवइ
संस्कृत- सत्यापयति अपभ्रंश- सच्चवइ राजस्थानी- साचवइ
संस्कृत- चिन्तयति राजस्थानी- चींतवइ

इस प्रकार के रूपों से कई बार यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि अवइ वाला यह रूप प्रेरणार्थक है अथवा नाम धातु-निर्मित क्रियापद।

इसके अतिरिक्त आड़ प्रत्यय के संयोग से भी राजस्थानी में प्रेरणार्थक रूप निष्पन्न हुए हैं। इस प्रत्यय का अस्तित्व प्राकृत में भी मिल जाता है। सिद्ध हेमचंद्र जैन सूरि ने अपने प्राकृत व्याकरण 4।30 में इसका उल्लेख किया है। इस प्रकार के स्थान पर स्वार्थिक अथवा श्रुति तत्व के रूप में आया है। प्राचीन राजस्थानी में यह आड था किन्तु आधुनिक राजस्थानी में इसका प्रयोग आड़ के रूप में हुआ है। वर्ण के सम्बन्ध में विवेचना करते समय हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि प्राचीन राजस्थानी में का प्रयोग था। प्राचीन अपभ्रंश एरं प्राकृत में भी केवल ही था। इसी के प्रभाव के कारण पुरानी राजस्थानी में भी ही रहा, किन्तु आधुनिक राजस्थानी में यह के रूप में प्रयुक्त होने लगा, यथा–

क्रिया प्रेरणार्थक
प्राचीन राजस्थानी आधुनिक राजस्थानी
लगाणौ लगाडणौ लगाड़णौ
काटणौ कटाडणौ कटाड़णौ
देखाणौ देखाडणौ देखाड़णौ
बांधणौ बंधाडणौ बंधाड़णौ

इस आड़ प्रत्यय से कालान्तर में आर एवं आल दो प्रत्यय और प्रयोग में आने लगे। इन दोनों का प्रयोग प्राचीन राजस्थानी में तो बहुतायत से हुआ है परन्तु आधुनिक राजस्थानी में इनका प्रयोग बहुत कम मिलता है।

क्रिया प्रेरणार्थक
प्राचीन राजस्थानी आधुनिक राजस्थानी
घटाणौ घटारणौ (घटारइ) घटारणौ
दिवाणौ दिवारणौ (दिवारइ) दिरावणौ
आल प्रत्यय के रूप–
दिखाणौ दिखाळणौ ( दिखाळइ) दिखाळणौ
बिठाणौ बेठाळणौ बैठाळणौ

वर्णों के स्थानान्तरण से कुछ क्रियाओं के रूप नये रूप में निर्मितहो जाते हैं। उदाहरण के लिए देणौ क्रिया का प्रेरणार्थक रूप दिवाणौ है। आर प्रत्यय के संयोग से इसका दिवारणौ रूप भी बनता है किन्तु इस दिवारणौ रूप का प्रयोग आधुनिक साहित्य में नहीं होता। के स्थानान्तरण से इसका दिरावणौ रूप ही पूरी तरह प्रचलित हो गया है। किन्तु मूल रूप में यह आर प्रत्यय का ही उदाहरण है। इस प्रकार लेणौ क्रिया का प्रेरणार्थक रूप लेवाणौ या लेवारणौ है। इस आर प्रत्यय वाले लेरावणौ रूप में भी का स्थानान्तरण होकर लेरावणौ या लिरावणौ रूप ही मुख्यतया प्रचलित हो गया है। राजस्थानी में ये रूप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

आड़ एवं आर प्रत्यय से निर्मित होने वाले रूपों का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। कालान्तर में इन दोनों प्रत्ययों का परस्पर प्रभाव के कारण संयुक्त रूप अवाड़ या अवाड तथा अवार प्रयुक्त होने लगा। इन्हें हमें दुहरी प्रेरणार्थक क्रियायें कह सकते हैं, यथा–

क्रिया
प्राचीन राजस्थानी
आधुनिक राजस्थानी
कहणौ
कहवारइ
कहवाड़णौ
मेळणौ
मेळवाडइ
मेळवाड़णौ

ऊपर हम के स्थान पर स्थानान्तरण के विषय में लिख चुके हैं। आव और आर का संयुक्त रूप अवार है, जो दिवारणौ, लिवारणौ में प्रयुक्त होता है। इसी अवार का रूप के स्थानान्तरण के कारण अराव हो गया। इस सम्बन्ध में मतभेद हो सकते हैं। डॉ. तैस्सितोरी ने भी इसी मत का प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार धातु के अन्त्यस्वर तथा प्रत्यय के आद्य के बीच आई हुई श्रुति तथा प्रत्यय गत के पास रहने से जो उच्चारण सम्बन्धी कठिनाई उत्पन्न हो सकती थी उसे दूर करने के लिए का स्थानान्तरण कर दिया गया है। इस प्रकार दि- व्-अवार-अ इ हुई, फिर के वर्ण-विपर्यय द्वारा दि-व-अराव अइ[1] डॉ. तैस्सितोरी के इस मत से पूर्ण सहमति कई विद्वानों को न हो सके किन्तु उनका यह मत विचारणीय अवश्य है।

धातु के स्वर में परिवर्तन करके भी प्रेरणार्थक रूपों का निर्माण होता है–

पीवणौ– क्रि. स. पावणौ– क्रि. प्रे. रू.

कुछ स्थानों में अथवा कुछ व्यक्तियों के प्रति आदरसूचक भाव के निमित्त प्रेरणार्थक क्रियाओं का प्रयोग कर दिया जाता है, किन्तु वे प्रायः अपने मूल में आज्ञार्थक ही रहती है–

रावळै आरोगावौ(वै) –आप अरोगिए
रावळै पोढ़ावौ(वै) — आप शयन कीजिए

ल, र एवं के संयोग से बनने वाले कुछ प्रेरणार्थक रूप विचारणीय हैं–

धातु
प्रेरणार्थक
पहला रूप
प्रेरणार्थक
दूसरा रूप
दा (देणौ)
दिराणौ
दिलवाणौ, दिवाणौ
मर (मरणौ)
मराणौ
मरवाणौ, मरवाड़णौ
ला[2] (लेणौ)
लिराणौ
लिरवाणौ, लिवाणौ

आव प्रत्यय वाले प्रायः ये दोनों रूप प्रेरणार्थक क्रियाओं के रूप में मिलते हैं–

क्रिया
प्रेरणार्थक
करणौ
कराणौ, करावणौ, करावावणौ
करणौ
करवाणौ,करवावणौ
पढ़णौ
पढ़वाणौ, पढ़वावणौ

उपरोक्त समस्त प्रेरणार्थक रूप अपनी मूल क्रियाओं से सम्बन्धित हैं। अतः इस कोश में उन्हें स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया गया है। प्रचलित क्रिया रूपों के साथ ही उनके द्वारा निर्मित अन्य रूप यथास्थान दे दिए गए हैं। किन्तु कुछ क्रियाओं के साथ में इस प्रकार के रूपों को स्थान दे दिया गया है तथा कुछ के साथ नहीं दिया गया। पाठकगण भ्रम में न पड़ जाएं, अतः स्पष्टीकरण आवश्यक है। प्रायः सभी प्रचलित एवं साधारण व्यवहार में काम आने वाली क्रियाओं के समस्त रूप उनके साथ ही दे दिए गए हैं, किन्तु कुछ क्रियाओं का प्रयोग अत्यन्त सीमित रूप में होता है, या तो वे साहित्य में भी बहुत ही कम स्थानों में प्रयुक्त हुई हैं या साधारण बोलचाल के व्यवहार में काम में नहीं लाई जातीं। अतः इनके बनने वाले रूपों को कोश में स्थान नहीं दिया गया। इसके अतिरिक्त कुछ क्रियायें बहुत प्रचलित हैं, किन्तु उनके द्वारा बनने वाले रूप साधारणतः कार्य में नहीं आते। इस प्रकार की क्रियाओं के रूप नहीं दिए गए हैं। प्रायः समस्त क्रियाओं के येन-केन-प्रकारेण कुछ न कुछ रूप अवश्य होते हैं। अगर पाठकों को ऐसी क्रिया के रूपों की आवश्यकता अनुभव हो जिनके कि रूप इस कोश में नहीं लिखेगए हैं तो वे स्वयं इस भूमिका के आधार पर अथवा तत्संबंधित व्याकरण के नियमों के आधार पर उनके रूपों का निर्माण कर प्रयोग में ला सकते हैं। कोश व्याकरण का स्थान नहीं ले सकता। इस प्रकार के स्थानों में व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। पाठकों को कोश का अवलोकन करते समय इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

[1]पुरानी राजस्थानी–मूल ले. तैस्सितोरी,अनु. नामवरसिंह, पारा 141.
[2]जिस प्रकारदा=देना होता है, उसी प्रकार ला=लेना मान लिया गया है। दान–आदान जैसा सहयोग है, वैसा ही देना–लेना का सहयोग है। यह सादृश्य के प्रभाव के कारण है, ऐसा स्व. पं. नित्यानन्दजी शास्त्री का मत है।

कृदन्त–

राजस्थानी में भी अन्य भाषाओं की तरह कृदन्तों का व्यवहार होता है।

वर्तमानकालिक कृदंत– इसका निर्माण धातु के अंत में तां लगाने से बनता है। प्राकृत के प्रभाव से तौ भी इस कृदंत के बनाने में प्रयुक्त होता है। ड़ौ राजस्थानी की अपनी विशेषता है। इस प्रकार तां, तौ, तोड़ौ– तीनों के संयोग से वर्तमानकालिक कृदंतों का निर्माण होता है। इस तां की व्युत्पत्ति संस्कृत वर्तमानकालिक कृदंत के अंत (शत्-प्रत्ययांत)[1] वाले रूपों से मानी गई है। लिंग के कारण इसके रूपों में भी विकार होता है, यथा–

सं. कृ
क्रिया — करणौ
करना
वर्तमानकालिक कृदन्त —
करतां
करते हुए (पु.)
करती
करती हुई (स्त्री.)
करतौ
करता हुआ (पु.)
करती
करती हुई (स्त्री.)
करतोड़ौ
करता हुआ (पु.)
करतोड़ी
करती हुई (स्त्री.)

राजस्थानी साहित्य में इन कृदंतों का प्रयोग स्थान-स्थान पर हुआ है, यथा–

वह मुगलाँ बिरदैत, खागै खंडरतौ खलां –वचनिका रतनसिंघजी री।

प्राचीन राजस्थानी में इसके रूप आंशिक रूप से अपभ्रंश एवं प्राकृत से प्रभावित हैं, यथा–

पु. एकवचन — वूठैतौ, चलंतउ, चडंदउ
पु. बहुवचन — मनगमता, जावता, नीगमतांह, उसारंता, भमंता
स्त्री. — विललंती, चाहंदी, देखती, वळती

आधुनिक राजस्थानी में तौ एवं तोड़ौ केवल एकवचन के रूप में ही प्रयुक्त होता है। वर्तमानकालिक कृदन्त का यह एकवचनांत रूप है।

उपरोक्त तीनों प्रत्यय, यथा– तां, तौ, तोड़ौ– इस कृदंत में प्रयुक्त होते हैं, तथापि इनके बीच सूक्ष्म रूप से कुछ अंतर विद्यमान है। तौ, तोड़ौ एकवचन के साथ ही सामान्य वर्तमानकाल का बोध कराते हैं, किन्तु तां प्रत्यय से निश्चयार्थ तत्काल का बोध होता है। सामान्यतया तां इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है और तात्कालिक कृदन्त के नाम से पुकारा जाता है। तात्कालिक कृदन्त रूप वर्तमानकालिक कृदन्त विकृत रूप में ही इज, ईज, हिज, हीज, ज, पांण आदि लगा कर बनता है, यथा–

दवाई देवतां पांण सास निकळ गियौ।
सिफारिस लगावतां ही नौकरी मिळगी।

किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि तात्कालिक कृदन्त में केवल ” तां” प्रत्यय का ही प्रयोग होता है। इसकी पहचान तो केवल ही, पांण, ईज आदि का प्रयोग है। “तौ” का भी तात्कालिक कृदन्त अव्यय के रूप में कभी- कभी प्रयोग होता है, प्रायः यह सदा एकवचन रूप के प्रयोग तक ही सीमित रहता है, यथा–

चोर चोरी करतौ ही पकड़ीज गियौ।

इस प्रकार तात्कालिक कृदंत का अलग अस्तित्व न होकर यह वर्तमानकालिक कृदन्त का ही विकारी रूप है। इससे मुख्य क्रिया के साथ होने वाले कार्य की समाप्ति का बोध होता है। तात्कालिक कृदन्त और मुख्य क्रिया का उद्देश्य बहुधा एक ही रहता है पर कभी-कभी तात्कालिक कृदन्त का उद्देश्य भिन्न रहता है और यदि वह प्राणीवाचक हो तो संबंधकारक में आता है, यथा–

दिन निकळतां पांण चोर भाग गिया।
आपरै आवतां ही झगड़ौ ठंडौ पड़ गियौ।

ड़ौ का प्रयोग राजस्थानी की विशेषता है। वर्तमानकालिक कृदन्त के साथ इसके संयोग से वर्तमानकालिक कृदन्त विशेषण बन जाता है, यथा–

चलतोड़ी गाड़ी में मत बैठौ।
उड़तोड़ी चिड़ियां नै भाटा मत बाव़ौ।

यह विशेषण विशेष्य लिंग, वचन के अनुसार बदलता है। अपूर्ण क्रिया द्योतक कृदन्त भी वर्तमानकालिक कृदन्त का विकृत रूप मात्र है, यथा–उनै कांम करतां देर होइगी।

भूतकालिक कृदन्त–

यह धातु के अंत में प्रायः इयौ या यौ जोड़ने से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के भूतकालिक कर्मवाच्य कृदन्त के त, इत (क्त प्रत्ययान्त) वाले रूपों से मानी जाती है।[2] इसके रूप भी प्राकृत के समान ही होते हैं–

सं. चलितः प्रा. चलिऔ, रा. चालियौ
सं. कृतः प्रा. करियौ, रा. करियौ

ड़ौ के जोड़ने से भूतकालिक कृदन्त विशेषण का रूप बन जाता है। भूतकालिक कृदन्त विशेषण बनाने के नियमों का विस्तारपूर्वक उल्लेख करना व्याकरण का कार्य है। अकर्मक क्रिया से बना हुआ भूतकालिक कृदन्त विशेषण कर्त्तृवाच्य और सकर्मक क्रिया से बना हुआ कर्मवाच्य होता है, यथा–

अकर्मक–

ऊगियोड़ौ घास काट दियौ।
आयोड़ौ माल बारै मती फेंकौ।

सकर्मक–

तपयोड़ी चाँदी चमकदार हुवै।

निम्नलिखित उदाहरणों से भूतकालिक कृदन्त विशेषणों के रूप अधिक स्पष्ट हो जायेंगे–

बचियोड़ी रोटियां कुत्तां नै नांख दौ।
फंसियोड़ी मिनकी खतरनाक हुवै।

लिंग एवं वचन के अनुसार ये विशेषण भी विशेष्य के अनुसार रूप बदलते हैं। प्रस्तुत कोश में इस प्रकार के भूतकालिक कृदन्त विशेषणों को यथास्थान उपस्थित किया गया है।

पुरानी राजस्थानी में भी भूत कृदन्तों का प्रयोग अपभ्रंश से प्रभावित था। श्री तैस्सितोरी ने पुरानी राजस्थानी के भूत कृदन्तों को प्रत्यय एवं व्युत्पत्ति के अनुसार पाँच समूहों में रक्खा है[3]

[1]पं.नित्यानन्दजी शास्त्री के मत के अनुसार–” शान्-प्रत्ययांत” होना चाहिए।
[2]हिन्दीभाषा का इतिहास, धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ 295, पारा 310
[3]पुरानी राजस्थानी,पारा 126

(1) इउ (यु), (इअउ) यउ अंत वाले भूत कृदन्त राजस्थानी भूत कृदन्तों में इनका प्रयोग सबसे अधिक था, यथा–

करउ = कर्‌इउ
कहउ = कह्-इउ
ध्याउ = ध्या-यउ
हु = यउ

(2) आंणउ अंत वाले भूत कृदन्त–इनका प्रयोग प्रमुखतया कर्मवाच्य के अर्थ में ही होता है। सिंधी भाषा के अंदर भी इस प्रकार के उभाणौ, उझाणौ, खाणौ आदि रूप मिलते हैं। इनकी उत्पत्ति आमणु वाली कर्मवाच्य की क्रियाओं से है। पुरानी राजस्थानी में निम्नलिखित उदाहरण मिलते हैं–

क्रियांणउ = खरीदा
छेतरांणउ = धोखा खाया हुआ
मूकांणउ = मुक्त
रंगांणउ = रंगा हुआ
बिलखांणी (स्त्री.) = विलखाई हुई

(3) धउ अंत वाले भूत कृदन्त–इसके रूप बहुत ही सीमित मात्रा में प्रयुक्त होते हैं, यथा–

कीधउ = किया
खाधउ = खाया
दीधउ = दिया
पीधउ = पिया
बीधउ = भयभीत
लीधउ = लिया

इन छः उदाहरणों के अतिरिक्त और कोई उदाहरण इस प्रकार के प्रयोग के उपलब्ध नहीं है।[1] आधुनिक राजस्थानी में भी इन्हीं छः के आधार पर निम्नलिखित रूप प्रचलित हैं–

सं. कृत करइ से संबद्ध कीधउ से आधुनिक राजस्थानी में कीधौ
सं. खादित खाइ से संबद्ध खाधउ से आधुनिक राजस्थानी में खाधौ
सं. दत्त दिइ से संबद्ध दीधउ से आधुनिक राजस्थानी में दीधौ
सं. पीत पीइ से संबद्ध पीधउ से आधुनिक राजस्थानी में पीधौ
सं. विद्ध बीहइ से संबद्ध बीधउ से आधुनिक राजस्थानी में बीधौ
सं. लात लिइ से संबद्ध लीधउ से आधुनिक राजस्थानी में लीधौ

आधुनिक राजस्थानी में भी इन छः प्रयोगों के अतिरिक्त अन्य प्रयोग नहीं मिलते। ये क्रियाओं के भूतकालिक प्रयोग हैं। भाषा-विज्ञान से सम्बन्धित लोगों के लिये इस प्रकार के रूप अध्ययन के विषय हैं। इनकी संतोषप्रद व्याख्या आज तक प्रायः उपलब्ध नहीं हुई है। तैस्सितोरी ने इस सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है कि “धउ की उत्पत्ति न्हउ में श्रुति के समावेश द्वारा हुई है। यह प्रक्रिया अपभ्रंश के अति परिचित शब्द पण्णरइ ( < सं. पञ्चदश ) के परिवर्तन से बहुत कुछ मिलती- जुलती है जो प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में पनर हो गया। प्रोफेसर पिशेल ने दिखलाया है कि प्राकृत भूत कृदन्त दिण्ण दिद्ंन से निकला है और दूसरी ओर इस प्रमाण का अभाव नहीं है कि संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत में भूत कृदन्त प्रत्यय का प्रचलन अधिक है। प्रत्यय वाले ये आनुमानित रूप कृण-न > कृष्ण; खाद्-न > खान्न; दिद् न > दिन्न, पिप्-न, बिभ-न, लिन-न ही है जिनसे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के भूत कृदंत के ध(उ) वाले रूपों का इतिहास जाना जा सकता है। मध्यवर्ती अवस्थाएँ ( कः स्वार्थे के साथ) ये हैं–अप.– किण्णउ, खण्णउ, दिण्णउ, पिण्णउ, बिण्हउ, लिण्णउ, (लिण्हउ)।”[2] इनमें अपभ्रंश का मूर्धन्य द्वित्त्व सरलीकृत होकर प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में दन्त्य हो गया, यथा– कीन्हउ, खान्हउ, दीन्हउ, पीन्हउ, बीन्हउ, लीन्हउ । इसके पश्चात् न् के स्थान पर द् श्रुति का समावेश हो जाने से कीधउ, खाधउ, दीधउ, बीधउ, लीधउ रूप बनते हैं। अउ आधुनिक राजस्थानी में में रूपान्तरित हो गया है। अतः आधुनिक राजस्थानी में इनके कीधौ, खाधौ, दीधौ, पीधौ, बीधौ, लीधौ आदि रूप मिलते हैं। इन छः के अतिरिक्त और कोई रूप आधुनिक राजस्थानी में नहीं मिलता। लाधौ (प्राप्त) का सम्बन्ध सं. के लब्ध से है। इस धउ का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है।

(4) व्यञ्जनान्त धातुओं से निर्मित या वाले मूल संस्कृत कृदन्तों से उत्पन्न भूत कृदन्त– इन यौगिक रूप के दोनों तत्वों में से एक धातु का अंतिम व्यञ्जन है और दूसरा संस्कृत प्रत्यय है। अपभ्रंश में इन दोनों का सारूप्य होकर प्राचीन राजस्थानी में सरलीकरण हो गया[3], यथा–

कंठ्य–

सं. भग्नक, अप. भग्गउ, प्रा. रा. भागउ, आ. रा. भागो
सं. लग्नक, अप. लग्गउ, प्रा. रा. लागउ, आ. रा. लागौ

मूर्धन्य–

सं. छुट्, प्रा. छुट्ट, अप. छुट्टउ, प्रा. रा. छूटउ, आ. रा. छूटौ
सं. दृष्टक, अप. दिट्ठउ, प्रा. रा. दीठउ, आ. रा. दीठौ
सं. रुष्टक, अप. रुट्ठउ, प्रा. रा. रूठउ, आ. रा. रूठौ

दन्त्य–

सं. जितकः, अप. जित्तउ, प्रा. रा. जीतउ, आ. रा. जीतौ
सं. प्रभूतक[4] , अप. पहुत्तउ, प्रा. रा. पहुतउ, पुहुतउ, आ. रा. पहुतौ, पो’तौ
सं. लब्धकः, अप. लद्धउ, प्रा. रा. लाधउ, आ. रा. लाधौ
सं. बद्धकः, अप. बद्धउ, प्रा. रा. बाधउ, आ. रा. बाधौ
सं. सिद्धकः, अप. सिद्धउ, प्रा. रा. सीधउ, आ. रा. सीधौ

(5) अलउ, इलउ वाले भूत कृदन्त–इनका प्रयोग बहुत ही थोड़ी मात्रा में मिलता है। वह भी प्राचीन राजस्थानी की पांडुलिपियों तक सीमित है। आधुनिक राजस्थानी में इनके रूप नहीं मिलते। प्राचीन राजस्थानी में कुछ रूप ये हैं– सुणिल्ला = सुना, धुणिल्ला = धुना हुआ।

समस्त भूत कृदन्त लिंग, वचन एवं कारक के अनुसार विकारग्रस्त होते हैं।

भूत-कृदन्त के प्रयोगों एवं भूतकालिक कृदन्त विशेषण के रूप के बारे में ऊपर व्याख्या की जा चुकी है, फिर भी थोड़े से उदाहरण इस सम्बन्ध में और दिये जाने उचित होंगे, यथा–

(i) कर्तृ प्रयोग–

हूँ बोलियौ– मैं बोला।
मनैं कुण लायौ– मुझे कौन लाया?

(ii) कर्मणि प्रयोग–

तारौ दीठौ– तारा दृष्टिगत हुआ।
मैं दांन दीधौ– मैंने दान दिया।

(iii) भावे प्रयोग–

म्हैं हस्यौ– मैं हँसा।

पूर्ण क्रिया द्योतक कृदन्त भी भूतकालिक कृदन्त का विकृत रूप है, यथा–

विनै गयां बोत दिन होय गया।

भूतकालिक कृदन्त के विकारी रूप इस प्रकार हैं–

पु. एक.
अउ
लागउ, वूठउ, विलखउ
यउ
आयउ
इयउ
कूटियउ, ऊमाहियउ
पु. बहु. व.
विलक्खा, अदिठा, सूका
या
पिया
इया
भरिया
स्त्री. एक. व.
वियापी, मांगी-तांगी
बहु.
इयाँ
सामुहियाँ, उपराठियाँ
[1]“रीधौ”शब्द भी राजस्थानी में मिलताहै, किन्तु इसकी गणना इस प्रकार के शब्दों के अंतर्गत नहीं की जा सकती। “रीझणौ” में ” झ” का परिवर्तन “ध” में होने से “रीधणौ” बन गया। “रीधौ” इसीका भूतकालिक कृदन्त है।
[2]पुरानी राजस्थानी,पृ. 162.
[3]पुरानी राजस्थानी,एल.पी. तैस्सितोरी, अनु. नामवरसिंह, पृष्ठ 163.
[4]प्र+’भू. = प्राप्तौ’क्तः।

पूर्वकालिक कृदन्त–

यह अविकृत धातु के रूप में रहता है या धातु के अंत में कर या नै लगा कर बनता है, यथा–

पांच बजीया सोकर उठीयौ……….. (i)
मार नै रुपिया खोस लिया………… (ii)

संस्कृत में यह कृदन्त त्वा और लगा कर बनता है। क्रिया के पहले उपसर्ग आने पर ही संस्कृत में लगता था किन्तु प्राकृत में यह भेद भुला दिया गया और उपसर्ग रहने पर भी सं. से सम्बन्ध रखने वाले रूपों का व्यवहार प्रचलित हो गया।

प्राकृत में संस्कृत के त्वां के स्थान पर ऊण का प्रयोग होने लगा। राजस्थानी में यही ऊण आगे जाकर नै हो गया। श्री एस. सी. वूल्लर ने अपनी प्राकृत प्रवेशिका में क्त्वा, ल्यप् प्रत्ययान्त या पूर्वकालिक क्रिया के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है–

शौ. पुच्छिअ, महा. पुच्छिऊण, अमा. पुच्छित्ता या पुच्छिदूण । शौ. माग. कदुअ = कृत्वा, गदुअ = गत्वा[1] कभी शौ. छंद में– ऊण-दूण प्रत्यय होते हैं। जैसे– पेक्खिऊण । गद्य में इअ प्रत्यय ही होता है। माग. में अधिक प्रयोग ऊण प्रत्यय का है जैसे– हऊण, गन्तूण, हसिऊण, काऊण

राजस्थानी में नै का सम्बन्ध इसी ऊण से है। मराठी में यह ऊण अभी तक प्रयुक्त होता है।

प्राचीन राजस्थानी में पूर्वकालिक कृदन्तों के रूप दो प्रकार से बनाये जाते थे–

(i) धातु में– एवि प्रत्यय जोड़ कर इसकी उत्पत्ति संस्कृत की सप्तमी त्वी से हुई है, यथा–

भणेवि, धरेवि, पणमेवि, जोडेवि।

इन रूपों का राजस्थानी में बहुत ही कम व्यवहार हुआ है, जो कुछ हुआ है वह भी कविता तक सीमित रहा है। इस पर अपभ्रंश काल का प्रभाव स्पष्टतः लक्षित होता है।

(ii) धातु में प्रत्यय जोड़ कर, यथा–

नमी, विस्तारी, वउलावी, लेई, जाई।

कई बार कवियों ने पादपूर्ति आदि के लिए के बाद का आगम कर दिया है, यथा–

मारी, छाँडीअ, वरीअ।

इसके अतिरिक्त गद्य और पद्य दोनों में पूर्वकालिक को जोरदार बनाने के लिए प्रायः उसके बाद स्वार्थिक नइ परसर्ग[2] जोड़ दिया जाता है, यथा–

करी-नइ, बाँची-नइ, थई-नई, भोगवी-नई।

अंत्य के आगम की उत्पत्ति के विषय में काफी मतभेद हैं। श्री उदयनारायण ने[3] इन प्रत्ययांत रूपों की उत्पत्ति संस्कृत दृक्ष्य से मध्य भारतीय आर्य भाषा में देक्खिअ तथा आधुनिक रूप में देखि परिवर्तन क्रम से मानी है।

डॉ. तैस्सितोरी ने इस सम्बन्ध में काफी छान-बीन की है। सं. से अपभ्रंश से राजस्थानी पूर्वकालिक कृदन्त की धारणा को उन्होंने भ्रममूलक ठहराया है। उनके अनुसार अपभ्रंश के भावे सप्तमी कृदन्तों से प्राचीन राजस्थानी के वाले पूर्वकालिक कृदन्त उत्पन्न हुए हैं जिनमें इ-इ संकुचित होकर हो गया जैसा कि वाले तृतीया रूपों में हुआ है। इस तरह करि-इ ( करिउ का सप्तमी रूप) से पूर्वकालिक कृदन्त करी उत्पन्न हुआ है।[4]

आधुनिक राजस्थानी में इन अन्त्य का प्रयोग कम होता है। प्रायः धातुओं के साथ कर या नै को जोड़ कर ही पूर्वकालिक कृदन्तों का प्रयोग किया जाता है। जहाँ का प्रयोग होता है वहाँ नै या कर का प्रयोग नहीं होता, यथा–

खेत सींचि आयौ…………… (i)
खेत सींचनै आयौ………….. (ii)
खेत सींच नै आयौ ………… (iii)

उपरोक्त उदाहरणों में प्रथम अन्त्य का उदाहरण है। दूसरे में नै का प्रयोग हुआ है एवं तीसरे में नै लुप्त है। आधुनिक राजस्थानी में प्रायः दूसरे व तीसरे प्रकार के प्रयोग ही अधिक मिलते हैं। व्यवहार में आते-आते इस इकार का लोप होने लगा किन्तु अंत्य के लुप्त हो जाने से क्रिया के धातु वाले रूप और इस कृदन्त के रूप में कुछ भी भेद नहीं रह गया। अतः ऊपर से कर, नै आदि शब्द जोड़े जाने लगे। इस कर की उत्पत्ति प्रा. करिअ से मानी गई है।

काल–

व्याकरण में काल तीन माने गए हैं–वर्तमान, भूत एवं भविष्य। वर्तमान राजस्थानी की काल-रचना-प्रणाली प्राचीन आर्य भाषा संस्कृत की पद्धति से बहुत दूर चली गई। संस्कृत में धातु के तीन रूप किये जाते थे– लङ्, लिट् एवं लुङ लकार में, यथा–(स) अगच्छत्, (स) जगाम, (स) अगमत् । किन्तु मध्य काल में धातु के भूतकालिक कृदन्त रूप से ही भूत काल प्रकट किया जाकर ये तीनों रूप छोड़े जाने लगे। इन तीनों रूपों के बदले प्राकृत ने संस्कृत भाषा के कृदन्तीय रूप (स) गतः अपनाया। यह गतः मध्य काल में गअ, गय था एवं राजस्थानी में गयौ रूप में प्रयुक्त होने लगा। संस्कृत का वर्तमानकालिक कृदन्त रूप भी राजस्थानी में इसी प्रकार आया।[5] सं. चलन्त (चलत्+शतृ प्रत्यय-अन्त) से राजस्थानी में चालतौ बना। इन कृदन्तीय रूपों के अतिरिक्त संस्कृत के वर्तमान निर्देशक प्रकार के रूप भी राजस्थानी में आ गये, यथा–

संस्कृत चलति, मध्यभाषाकाल चलइ, राजस्थानी चालै । संस्कृत भाषा से प्राप्त ये तीन रूप (एक तिङ्न्त एवं दो कृदन्त), हिन्दी धातुओं के विविध रूपों के आधार हैं और इनमें सहायक क्रियाओं के योग से राजस्थानी में काल-रचना-प्रणाली का विकास हुआ है।

निश्चयार्थ, आज्ञार्थ तथा संभावनार्थ इन तीन मुख्य अर्थों तथा व्यापार की सामान्यता, पूर्णता तथा अपूर्णता को ध्यान में रख कर समस्त राजस्थानी कालों की संख्या सोलह मानी जा सकती है, यथा–

1. साधारण अथवा मूलकाल

(1) भूत निश्चयार्थ वौ चालियौ।
(2) भविष्य निश्चयार्थ वौ चालसी।
(3) वर्तमान संभावनार्थ अगर वौ चालै।
(4) भूत संभावनार्थ अगर वौ चालतौ।
(5) वर्तमान आज्ञार्थ थूं चाल।
(6) भविष्य आज्ञार्थ थे चालजौ।

2. संयुक्तकाल

वर्तमानकालिक कृदन्त + सहायक क्रिया

(7) वर्तमान अपूर्ण निश्चयार्थ वौ चालै है।
(8) भूत अपूर्ण निश्चयार्थ वौ चालतौ हौ।
(9) भविष्य अपूर्ण निश्चयार्थ वौ चालतौ व्हैला।
(10) वर्तमान अपूर्ण संभावनार्थ अगर वौ चालतौ व्है।
(11) भूत अपूर्ण संभावनार्थ अगर वौ चालतौ होतौ।

3. भूतकालिक कृदन्त+ सहायक क्रिया

(12) वर्तमान पूर्ण निश्चयार्थ वौ चालियौ है।
(13) भूत पूर्ण निश्चयार्थ वौ चालियौ हौ।
(14) भविष्य पूर्ण निश्चयार्थ वौ चालियौ व्हैला।
(15) वर्तमान पूर्ण संभावनार्थ — अगर वौ चालियौ व्है।
(16) भूत पूर्ण संभावनार्थ — अगर वौ चालियौ हौतौ।

[1]प्राकृत प्रवेशिका–मू. ले. ए.सी.वूल्लर, अनु. बनारसीदास जैन , पारा 122, पृष्ठ 66.
[2]मिलाओ–प्राकृत भाषाओं काव्याकरण, पिशैल, पारा 581.
[3]आधुनिक राजस्थानी में”नै” इसी “नइ” परसर्ग से निष्पन्न हुआ प्रतीत होता है।
[4]पुरानी राजस्थानी–डॉ. तैस्सितोरी,अनु. नामवरसिंह, पारा 131 का कुछ अंश।
[5]मि. उपरोक्त प्रस्तावना का पृष्ठ 63.

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने ऐतिहासिक कालों को तीन वर्गों में विभाजित किया है[1]

1. संस्कृत कालों के अवशेष काल–इसवर्ग के अंतर्गत वर्तमान संभावनार्थ और आज्ञा आते हैं।
2. संस्कृत कृदन्तों से बनेकाल–इस वर्ग के अंतर्गत भूत निश्चयार्थ, बूत संभावनार्थ तथा भविष्य आज्ञा आते हैं।
3. आधुनिक संयुक्तकाल–इस श्रेणी में कृदन्त तथा सहायक क्रिया के संयोग से आधुनिककाल में बने समस्त अन्य काल आते हैं।

राजस्थानी काल-रचना की दृष्टि से इन पर अलग-अलग विचार करना समीचीन होगा।

1. संस्कृत कालों के अवशेष[2]

डॉ. ग्रियर्सन ने “जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसाइटी बंगाल” 1896 में “रेडिकल एण्ड पार्टिसिपियल टेन्सेज” नामक लेख में इन कालों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। उन्होंने अपने लेख में हिन्दी के वर्तमान संभावनार्थ एवं आज्ञा पर विचार कर तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। राजस्थानी के सम्बंध में भी उसका उपयोग किया जा सकता है–

संस्कृत
प्राकृत
अपभ्रंश
राजस्थानी
एकवचन
चलामि
चलामि
चलउ
चालूं
चलसि
चलसि
चलहि, चलइ
चालै
चलसि
चलइ
चलहि, चलइ
चालै
बहुवचन
चलामः
चलामौ
चलहुं
चालां
चलथ
चलह
चलहु
चालौ
चलन्ति
चलन्ति
चलहिं
चालै

डॉ. ग्रियर्सन ने जो तुलनात्मक कोष्ठक प्रस्तुत किया है वह विचारणीय है। मध्यम पुरुष के रूपों के विकास में कोई विशेष कठिनाई नहीं मालूम पड़ती किन्तु उत्तम पुरुष के सम्बन्ध में उपरोक्त विवेचना संदिग्ध है। इस पुरुष के एकवचन के बारे में श्री उदयनारायण तिवारी ने इस प्रकार की व्युत्पत्ति प्रकट की है[3] — प्रा. भा. आर्य भाषा– चलामः, प्रा. चलामु, चलाउँ, अप. चलउँ, राजस्थानी चालूं । यह अधिक संभव है कि चलामि के इकार के लोप हो जाने और म के अनुस्वार में परिवर्तित हो जाने से यह रूप बना होगा। बीम्स ने भी अपनी ग्रैमर (भाग 3) में इस मत का समर्थन किया है। इसी प्रकार इसके बहुवचन रूप चालां की उत्पत्ति भी संस्कृत चलामि, म. भा. आ. भा. चलाइँ से हुई होगी।

[1]हिन्दी भाषा का इतिहास–डॉ. धीरेन्द्रवर्मा, पृष्ठ 299, पारा 316.
[2]ग्रियर्सन,रैडिकल एण्ड पार्टिसिपियल टेन्सेज, जर्नल ऑव दि एशियाटिक सोसायटी ऑवबेंगाल, 1896, पृ. 352, 355.
[3]हिन्दी भाषा काउद्गम और विकास–डॉ. उदयनारायण तिवारी, पृष्ठ 499, पारा 393.

डॉ. ग्रियर्सन ने आज्ञा के रूपों का भी सम्बन्ध संस्कृत के वर्तमान काल के रूपों से ही माना है किन्तु बीम्स ने अपनी ग्रैमर में इनका सम्बन्ध संस्कृत के आज्ञा-रूपों से मान लिया है। बीम्स का मत भ्रामक मालूम होता है। संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी इन तीनों के आज्ञा-रूपों को बराबर देने से यह स्पष्ट हो जायगा–

संस्कृत
प्राकृत
राजस्थानी
एक वचन–
चलानि
चलमु
चालूं
चल
चलसु, चलाहि
चाल
चलतु
चलदु, चलउ
चाले
बहु वचन–
चलाम
चलामौ
चालां
चलत
चलह, चलध
चालौ
चलंतु
चलंतु
चाले

उपरोक्त कोष्ठक में मध्यम पुरुष एकवचन को छोड़ कर आज्ञार्थ के अन्य राजस्थानी रूप वर्तमान संभावनार्थ के ही समान है। पाली और प्राकृत में भी आज्ञा और संभाव्य भविष्यत् के रूपों का इस तरह का हेलमेल पाया जाता है।

राजस्थानी में भविष्य निश्चयार्थ में का संयोग होता है, यथा–

वौ जावेला,
वौ करैला,
थूं करैला,
मूं करूँला।

राजस्थानी में सामान्य वर्तमान में अन्य भाषाओं के समान ही क्रिया रूपों का व्यवहार होता है। अन्य भाषाओं में (यथा–हिन्दी) सामान्य वर्तमान में लिंग भेद से विकार होता है, यथा–

वह खाती है– स्त्री.
वह खाता है– पु.

किन्तु राजस्थानी में लिंग भेद से कोई विकार नहीं होता। दोनों लिंगों में वह सामान्य रूप में व्यवहृत होते हैं–

एक वचन
बहु वचन
प्राचीन राजस्थानी
उत्तम पुरुष–
खाऊं हूँ, खावूं छूं
खावां हां, खाऊं छूं
खावूं छूं
खावा हां
खावां छां
एक व.– खाऊँ, खावउँ, दिउ
बहु.देवां, द्यां
मध्यम पुरुष–
थूं खावै छै
थूं खावै है
थे खावौ छौ
थे खावौ हौ
गाजइ, चुट्टइ
खावइ
अन्य पुरुष–
(वां) वौ खावे है
( वां) वौ खावै छै
वे खावे है
वे खावे छै
खांवण, जांणइ
जायइ, दियइ आदि

पूर्ण वर्तमान–

एक वचन
बहु वचन
उत्तम पु.–
म्हैं खायौ है (छै)
म्हे खाया है (छै)
म्हैं खादौ है (छै)
म्हे खादा है (छै)
मध्यम पु.–
(थूं) तूं खायौ है (छै)
थे खायौ है (छै)
(थूं) तूं खादौ है
(छै) थे खादौ है (छै)
अन्य पु.–
उण खायौ है (छै)
उणां खायौ है (छै)
उण खादौ है (छै)
उणां खादौ है (छै)

संभाव्य वर्तमान–

एक वचन
बहु वचन
उत्तम पु.–
म्हैं सायत खाऊँ (खांवूं)
म्हैं सायत खावां
मध्यम पु.–
थूं (तूं) सायत खावै है
थे सायत खावौ हौ (छौ)
अन्य पु.–
वौ सायत खावै है (छै)
वे सायत खावै है (छै)

संदिग्ध वर्तमान–

एक वचन
बहु वचन
उत्तम पु.–
म्हैं खावतौ होऊंला
म्हे खावता होवांला
मध्यम पु.–
थूं ( तूं) खावतौ होवेला
थे खावता होवौला
अन्य पु.–
वौ खावतौ होवैला
वे खावता होवैला

लिंग भेद से संदिग्ध वर्तमान में विकार उत्पन्न होने से खावतौ का खावती हो जाता है। वर्तमानकालिक कृदन्त (जिनकी विवेचना हम पहले कर चुके हैं) एवं सहायक क्रिया के संयोग से संदिग्ध वर्तमान का रूप बनता है।

हेतु हेतु मद् वर्तमान–

एक वचन
बहु वचन
उत्तम पु.–
म्हैं खाऊं तौ, म्हनै भी दौ
म्हे खावां तौ
मध्यम पु.–
थूं (तूं) खावै तौ
थे खावौ तौ
अन्य पु.–
वौ खावै तौ
वे खावै तौ

राजस्थानी साहित्य में इन वर्तमान कालों के रूप विभिन्न रूपों में प्रयुक्त हुए हैं। प्राचीन एवं आधुनिक राजस्थानी की कुछ फुटकर कविता-पंक्तियों के उद्धरण से यह अच्छी तरह ज्ञात हो सकेगा–

1. बाज कुमैतविसासतौ,धीमै बेग धपाय।
बाभी तोरण बींद तिम, जोवौ देवर जाय ।।–वी.स. 134

2. ईखौ घर घर ऊतरै,चूड़ा भूखण चीर।
दया न मांनै दोयणां, बाई! थांरौ बीर।।–वी.स. 136

3. मारू-लंक दुइ अंगुळां,वर नितंब उर मंस।
मल्हपइ मांझ सहेलियां, मानसरोवर हंस।।–ढो.मा. 461

4. पुहपवती लता न परस पमूँके,देतौ अंगआलिंगन दांन।
मतवाळौ पय ठाइ न मंडै, पवन वमन करतौ मधुपांन।।–वेलि 262

5. सखी अमीणा कंत रौ,औ इक बड़ौ सुभाव।
गळियारां ढीलौ फिरै, हाकां वागां राव।।–हा.झा. 17

भूतकाल–

सामान्य भूतकाल और भूतकालिक कृदन्त के रूप प्रायः एक समान ही होते हैं। भूतकालिक कृदन्तों की विवेचना करते समय इस प्रकार के रूपों का उल्लेख कर चुके हैं, अतः सामान्य भूत के रूप में अपनी पुनरावृत्ति करना उचित न होगा। सामान्य भूतकाल में लिंग भेद से विकार होता है, यथा–

एक वचन बहुवचन
पु. स्त्री. पु. स्त्री.
उत्तम पु.– म्हैं आयौ
म्हें आई म्हे आया म्हे आई, म्हे आयै।
मध्यम पु.– थूं आयौ थूं आई थे आया थे आई, थे आयै
अन्य पु.– वौ आयौ वा आई वे आया वे आई, वे आयै

धउ अंत वाले रूपों का प्रयोग राजस्थानी में विशेष प्रकार से होता है। भूतकालिक कृदन्तों के धउ अंत वाले रूपों यथा– कीधौ, खाधौ, दीधौ, पीधौ, लीधौ की विवेचना पहले की जा चुकी है। सामान्य भूत में भी उन्हीं रूपों का प्रयोग किया जाता है। प्रस्तुत कोश में इन रूपों को स्थान दिया गया है। साधारणतया क्रियाओं के भूतकाल कोश में नहीं दिये गये तथापि इन रूपों की राजस्थानी विशेषता, जो किसी अन्य भाषा में नहीं मिलती, के कारण ही कोश में इनका उल्लेख किया गया है एवं उनके स्त्री लिंग रूप भी साथ में कोष्ठक में दे दिये गये हैं।

अपूरण भूतकाल–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
म्है आवतौ हौ (तौ, थौ, हंतौ, हुंतौ, हतौ छौ)
म्हे आवता हा (ता, था, हंता, हुंता, हता)
मध्यम पु.–
थू आवतौ हौ (छौ)
थे आवता हा (छा)
अन्य पु.–
वौ आवतौ हौ (छौ)
वे आवै हा

पूरण भूतकाल–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
म्हैं आयौ हौ (छौ, तौ, थौ, हंतौ, हुतौ, हतौ)
म्हे आया हा (छा, ता, था, हंता, हुता, हता)
मध्यम पु.–
थूं आयौ हौ (छौ, तौ, थौ, हंतौ, हुतौ, हतौ)
थे आया हा (छा, ता, था, हंता, हता, हुतौ)
अन्य पु.–
वौ आयौ हौ (छौ, तौ, थौ, हंतौ, हुतौ, हतौ)
वे आया हा (छा, ता, था, हंता, हुता, हतौ)

संभाव्य भूत–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
(सायत) म्हैं आयौ होऊं (वा)
म्हे आया होवां
मध्यम पु.–
थूं आयौ होवै
थे आया होवौ
अन्य पु.–
वौ आयौ होवै
वे आया होवै

संदिग्ध भूत–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
म्हैं आयौ (आवतौ) होऊलां
म्हे आया (आवता) होवाला
मध्यम पु.–
थूं आयौ (आवतौ) होवैला
थे आया (आवता) होवोला
अन्य पु.–
वौ आयौ (आवतौ) होवैला
वे आया (आवता) होवैला

हेतु-हेतु मद् भूत–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
म्है आवतौ
म्हैं आयौ (आवतौ) होतौ (होवतौ)
म्हे आवता
म्हे आया (आवता) होता (होवता)
मध्यम पु.–
थूं आवतौ
थूं आयौ (आवतौ) होतौ (होवतौ)
थे आवता
थे आया (आवता) होता (होवता)
अन्य पु.–
वौ आवतौ
वौ आयौ (आवतौ) होतौ (होवतौ)
वे आवता
वे आया (आवता) होता ( होवता)

भूतकालिक प्रयोगों के कुछ कविता पंक्तियों के उदाहरण–

1. सेल घमोदा किम सह्या, किम सहिया गज दंत।
कठिन पयोहर लागतां, कसमसतौ तूं कंत।।
कंत सूं ओळंबौ दियौ इम कांमणी।
ऐण घट आज रा केम सहिया अणी।।–हा.झा. 19

2. ऊलंबे सिर हथ्थड़ा, चाहंदी रस-लुध्ध।
विरह-महाघण ऊमट्यउ, थाह निहाळइ मुध्ध।।–ढो.मा. 15

3. भड़ घोड़ा महंगाथिया, एकण झाट उडंत।
भड़ घोड़ां रा भांमणा, जेथ जुड़ीजै कंत।।–वी.स. 20

4. गंडा मारिवेसारियानीठि गज्जं। रुआमाळ फेरै करै झाडि रज्जं।।
तियां चोपड़ै तेल सिंदूर तन्नं। वयंडा वणावै घणूं स्यांम व़न्नं।।
नाड़ी भिड़ियां अंग लग्गा निहंगं। जटा जूट संनाह जे कोड जंग।।
कसे पाखरां चांमरां जूह काळा। वणे जांणि पाहाड़ हेमंग वाळा।।–वचनिका 58 (2, 3, 4, 5)

भविष्यत्काल–

भविष्यकालिक रूपों में राजस्थानी में एवं का प्रयोग प्रचुरता के साथ होता है। न दो वर्णों के संयोग से ही भविष्यत्काल के रूप निर्मित होते हैं। संस्कृत के भविष्यत्कालिक स्य प्रत्यय का प्राकृत परिवर्तन स्स में होता है। इसी से करिष्यति आदि का राजस्थानी रूप करीस आदि बनता है।

सामान्य भविष्यत्–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
म्हैं जाऊंला, म्हैं जाऊंलौ, म्हैं जाऊं
म्हे जावांला, म्हे जावां
मध्यम पु.–
थूं जावैला, थूं जावेलौ, थूं जाई
थे जावोला, थे जावौ
अन्य पु.–
वौ जावैला, वौ जावैलौ, वौ जाई
वे जावैला, वे जाई

दूसरा रूप का अथवा रूपान्तरित का संयोग–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
म्हैं जासूं, हूं जाही, हूं जासी, हूं जाईस
हूं जाईह, म्हैं जास्यूं, हूं जाऊं, हूं जाहूं
म्हे जासां, म्हे जास्यां, म्हे जाहां,
म्हे जास्यां
मध्यम पु.–
थूं जाईह, थूं जाईस, थूं जासी, थूं जाही
थे जाहौ, थे जासौ, थे जास्यौ
अन्य पु.–
औ (वौ) जासी
औ (वौ) जास्यै, औ (वौ) जाही
औ ( वे) जासी, औ (वे) जास्यै,
औ (वे) जाही, औ (वे) जाई

इनके अतिरिक्त कुछ लोग गा, गी, गो के संयोग से भी इन रूपों का निर्माण करते हैं, किन्तु उनका प्रयोग बहुत ही सीमित मात्रा में होता है।

संभाव्य भविष्यत्काल–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
सायत मैं जाऊं।
सायत म्हे जावां (जाहां)।
मध्यम पु.–
सायत थूं जावै।
सायत थे आवौ (औ)।
अन्य पु.–
सायत वौ जावै।
सायत वे जावै (ऐ)।

आज्ञार्थक रूपों में जा, जाजे, जाए, जावजे आदि रूप केवल मध्यम पुरुष में होते हैं।

हेतु-हेतु मद भविष्यत्–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
आवैला तौ म्हैं जाऊंला
म्हैं आवांला तौ
मध्यम पु.–
थूं आवैला तौ
थे आवोला तौ
अन्य पु.–
वौ आवैला तौ
वे आवैला तौ

भूतकाल एवं भविष्यकाल के समस्त रूपों में लिंग भेद के कारण रूपों में विकार होकर पुल्लिंग रूप औकारांत अथवा आकारांत से बदल कर ईकारांत बन जाते हैं। किन्तु वर्तमान काल में इस प्रकार के रूपों का परिवर्तन साधारणतया नहीं होता।

भविष्यकालिक प्रयोगों के कुछ कविता प्रयोग उदाहरण–

1. केहरि केस भमंग मणि,सरणाई सुहडाँह।
सती पयोहर क्रपण धन, पड़सी हाथ मुवांह।।
मूवांहिज पड़ैसी हाथ तौ भमंग मणि।
गहड़ सरणाइयां ताहरै गैडसणि।।–हा.झा. 12

2. राड़ि मकरि इक तरफ रहि,आगै पीछै आव।
जोइ दिली फिरि जाइस्यां, परसि असप्पति पाव।।–वचनिका 41

3. जेताइ दीसां धरण गगन मां,तेताई उठजासी
तीरथ बरतां ग्यांन कथंता, कहा लियां करवत कासी ।।
यौ देही रौ गरब ना करणा, माटी मां मिळ जासी
यौ संसार चहर री बाजी, सांझ पड़्यां उठ जासी ।।
कहा भयां थां भगवा पहर्यां, घर तज लयां संन्यासी।
जोगी होयाँ जुगत ना जांणी, उलट जनम फिर आसी ।।–मीरां

4. समळी और निसंक भख,अंबक राह म जाह।
पण धण रौ किम पेखही, नयण बिणट्ठा नाह।।–वी.स. 17

5. कंत भलां घर आविया,पहरीजैमो बेस।
अब धण लाजी चूड़ियाँ, भव दूजै भेटेस ।।–वी.स. 81

6. नारायण रा नांमसूं,लोक मरत जो लाज।
बूडैला बुध बायरा, जळ बिच छोड जहाज।।–ह.र. 36

राजस्थानी में प्रायः क्रिया के अंत में अ, इ, र, एवि, नै, ह आदि प्रत्ययों के संयोग से पूर्वकालिक क्रियायें भी बनाई जाती हैं, यथा–

पालिअ = पालन कर
ठांनि = ठान कर।
जायर = जाकर
प्रणमेवि = प्रणाम कर।

मूल धातु के आगे नै, र, अर, अन, न, इनै, ने, ए, ऐन, कै प्रत्यय जोड़ कर भी बनते हैं। यह, तथा पूर्वकालिक कृदन्त एक ही हैं जिनका विवेचन हम कृदन्तों के सिलसिले में पहले ही कर चुके हैं।

उत्तरकालिक क्रिया (क्रियार्थक क्रिया) के प्रयोगों में प्रत्यय रहित अवस्था में रूप प्रायः अकारांत एवं आकारांत ही होते हैं, यथा–

म्हैं पढ़ण आयौ हूं = मैं पढ़ने के लिये आया हूँ।
थूं खेलवा जावै है = तुम खेलने के लिये जाते हो।
वा खेलण आई है = वह खेलने के लिये आई है।
वौ मिळण आयौ है = वह मिलने के लिये आया है।

इनके अतिरिक्त मूल धातु के साथ विभिन्न प्रत्ययों के संयोग से भी उत्तरकालिक क्रिया के रूप बनते हैं। उदाहरण के रूप में लिख धातु के उदाहरण से ये रूप पूर्णतया स्पष्ट हो जायेंगे–

धातु– लिख = लिखण, लिखण नै, लिखण नें, लिखण नां, लिखण नूं, लिखबा, लिखवा, लिखण आंटै, लिखवा आंटै, लिखबा आंटै, लिखण वासते, लिखण सारू, लिखबा बैई, लिखवा बेई, लिखबा तांई, लिखण आंटा।

उपरोक्त विवेचन से क्रिया के सब रूप पूर्णतया स्पष्ट हो गये होंगे। कोश में इस प्रकार से निर्मित सब रूपों का मूल क्रिया के साथ उल्लेख करना न तो आवश्यक ही है एवं न उचित ही। किसी क्रिया के प्रत्येक रूप एवं उसके निर्माण-नियमों का विवेचन करना व्याकरण का कार्य है। इस प्रस्तावना में मोटे तौर से इनके उल्लेख का केवल इतना ही अर्थ है कि पाठक कोश में मूल क्रिया देख कर उसके साथ ही दिये गये अन्य क्रिया रूपों को हृदयंगम कर सके एवं आवश्यकतानुसार उनका उपयोग कर सके। किसी क्रिया के विकारी रूप को ढूँढ़ने वाला पाठक निराश ही होगा जबकि इस भूमिका की टिप्पणियों द्वारा उसे यह ज्ञात हो जायेगा कि यह विकृत रूप किस क्रिया का है। मूल क्रिया ज्ञात होने पर वह कोश में उसे आसानी से ढूँढ़ सकेगा। मूल क्रियाओं के साथ उससे संबंधित मुख्य-मुख्य रूप प्रस्तुत कोश में दे दिये गये हैं। जो क्रियायें बहुत कम प्रयोग में आती हैं अथवा उससे बनने वाले रूप कुछ अटपटे हैं या कम व्यवहृत होते हैं, ऐसी मूल क्रिया के साथ अन्य रूप नहीं दिये गये। आवश्यकता होने पर पाठक स्वयं व्याकरण के नियमानुसार उनके रूपों का निर्माण कर उपयोग करने को स्वतंत्र हैं। कुछ प्रचलित क्रियाओं के साथ विभिन्न रूप दिये गये हैं। कृदन्तों, सहायक क्रियाओं आदि का समावेश उनमें किया गया है। मूल क्रिया एवं उसका सकर्मक रूप, यदि कोई हो तो, एवं भूतकालिक कृदन्त विशेषण मूल स्थान पर दिये गये हैं। एक उदाहरण इस संबंध में पर्याप्त होगा–

करणौ, करबौ– क्रि.स.– कार्य को संपादित करना।

करणहार, हारौ (हारी), करणियौ– वि.।
करवाणौ करवाबौ, करवावणौ, करवावबौ।
कराणौ, कराबौ, करावणौ, करावबौ– प्रे.रू.।
करिओड़ौ, करियोड़ौ, कर्योड़ौ– भू.का.कृ.।
करीजणौ, करीजबौ– कर्म वा.।

इनमें सकर्मक रूप एवं भूतकालिक कृदन्त को इस प्रकार मूल संबंधित क्रिया के साथ दिये जाने के अतिरिक्त उन्हें अलग से भी अपने क्रमिक स्थान पर प्रस्तुत किया गया है। संबंधित क्रिया के साथ भूतकालिक कृदन्त के तीनों रूपों का उल्लेख है, यथा– करिओड़ौ, करियोड़ौ, कर्योड़ौ; किन्तु अलग से क्रमशः दिये जाने पर उनका केवल करियोड़ौ रूप ही दिया गया है। शेष दो रूप संबंधित क्रिया के साथ ही दे देना पर्याप्त समझा गया है। प्रत्येक भूतकालिक कृदन्त के संबंध में यही परिपाटी प्रस्तुत कोश में अपनाई गई है। अलग से दिये गये भूतकालिक कृदन्त के साथ उनका स्त्रीलिंग रूप भी दे दिया गया है। पूर्वी राजस्थानी में क्रियान्त णौ के स्थान पर बौ का प्रयोग किया जाता है अतः प्रत्येक क्रिया एवं उसका रूप, जिनके अंत में णौ है, वह दूसरे बौ अंत के रूप में भी हर जगह प्रस्तुत कर दिया गया है। वस्तुतः दोनों एक ही हैं किन्तु क्षेत्र-भेद के प्रयोग से इन दोनों को स्थान देना आवश्यक समझा गया। हम पहले उल्लेख कर चुके हैं कि कुछ क्रियायें ऐसी हैं जिनका प्रयोग अकर्मक एवं सकर्मक दोनों रूपों में होता है, यथा– खड़णौ =मरना (अ.क्रि.), खणड़ौ =हाँकना (स.क्रि.) इस प्रकार की क्रियाओं का अगर अकर्मक अर्थ पहले दिया गया है तो व्याकरण के कॉलम में क्रि.अ.स. अर्थात् पहले क्रिया अकर्मक लिखा गया है एवं सकर्मक बाद में लिखा गया है। किन्तु अगर सकर्मक अर्थ पहले लिखा गया है तो व्यवस्था इसके विपरीत होगी एवं व्याकरण के खाने में क्रि.स.अ. लिखा गया है। भूतकालिक कृदन्त विशेषण के अतिरिक्त अन्य कृदन्तीय रूप मूल क्रिया के साथ क्रिया रूपों में नहीं दिये गये हैं। इस प्रस्तावना के अध्ययन से पाठक स्वयं उनका रूप-निर्माण कर प्रयोग कर सकते हैं।

संज्ञा एवं विशेषण शब्दों के साथ कुछ के क्रिया प्रयोग भी दिये गये हैं जिससे पाठकों को उनके साथ प्रयुक्त होने वाली क्रियाओं अथवा सहायक क्रियाओं का ज्ञान हो जायगा।

क्रिया के इस प्रकरण के समाप्त होने से पहले सहायक क्रियाओं, द्वैत क्रिया-पदों, संयुक्त क्रिया-पदों आदि का उल्लेख करना विषयान्तर न होगा।

सहायक क्रियाओं की रचना प्रमुखतः संस्कृत धातु भू (प्राचीन राजस्थानी होवउँ, आधुनिक राजस्थानी होणौ ) और अस (प्राचीन राजस्थानी अछवउँ ) से हुई है। निषेधवाचक रूप नथी ही अस धातु से बना है। सामान्य वर्तमानकाल में प्रायः होवै का (प्राचीन राजस्थानी में हुइ तथा काव्यगत रूप होइ, होय का) प्रयोग होता है जो अपभ्रंश के होइ, प्रा. हवइ[1] सं. भवति से निःसृत हुआ है। आधुनिक राजस्थानी में होवै के रूप भेद हुवइ एवं व्है भी प्रचलित है। तैस्सितोरी के मतानुसार ये दोनों रूप श्रुति के समावेश से बने हैं।[2] बहुवचन के लिये प्राचीन राजस्थानी में हुइँ, हुइ, होइँ, होइ, हुवइ आदि रूप भी मिलते हैं। आधुनिक राजस्थानी में एकवचन में उत्तम पुरुष के लिये हूँ, मध्यम पुरुष तथा अन्य पुरुष के लिये (तू या वह) है का प्रयोग है। सं.– अस्म, अस्मि से मध्यकालीन भाषाओं में अम्हि तथा वर्तमानकाल में हूँ हो गया। हैं रूप संस्कृत के अस्ति, प्रा.– अत्थि, अहि से निकला है। प्राचीन राजस्थानी में हूतउँ सामान्य रूप से व्यवहृत होता था। यह सं.– भवन्तकः, अप.– होन्तउ से स्पष्टतः निकला है।

भूतकाल में प्रायः हो, छौ, थौ का प्रयोग (स्त्री लिंग रूप में ही, छी, थी ) एक वचन में एवं हां, छै, छा, था का प्रयोग बहुवचन में किया जाता है। हौ की व्युत्पत्ति इस प्रकार मानी जा सकती है, सं. असन्त-अहन्त, हंतौ-हतौ त का लोप होकर हौ । प्राचीन राजस्थानी में सामान्य रूप हूउ, ( अप. हूअउ, सं. भूतक ), हूअउ, हूयउ, हऊइ और हुयउ मिलते हैं। मूल स्वर प्रायः हृस्व हो जाता है जबकि उसके बाद आने वाला पदान्त स्वर दीर्घ हो जैसे– हुई ( स्त्री.) हुआ (पु. बहु.) इत्यादि।

निषेधवाचक रूप नथी का प्रयोग भी राजस्थानी में पाया जाता है। यह सं. नास्ति, प्रा. णत्थि, अप. नाथि से निकल नथी हो गया है। इसका प्रयोग सहायक एवं मुख्य दोनों अर्थों में होता है। लिंग एवं वचन भेद से इसमें विकार उत्पन्न नहीं होता। प्राकृत में अत्थि तथा णत्थि का प्रयोग भी इसी रूप में एकवचन और बहुवचन सभी पुरुषों के साथ होता है। राजस्थानी कविताओं में नथी का प्रयोग प्रचुरता के साथ हुआ है, यथा–

कंस लखीजै दोहि कुळ, नथी फिरंती छांह।
मुड़ियां मिळसी गींदवौ, वळे न धण री बांह।।–वी.स.

जब नथी का प्रयोग सहायक क्रिया के कार्य के लिये होता है तो प्राचीन राजस्थानी में वर्तमानकाल की रचना करने के लिये यह वर्तमान कृदन्तों के साथ जुड़ता है, यथा–

नथी कही तां = नहीं कहा जाता।

अथवा, फिर परोक्ष भूत की रचना के लिये भूतकृदन्त के साथ जुड़ता है, यथा–

हउँ बाहरइ नथी नीसरी = मैं बाहर नहीं निकली।

वर्तमानकाल में सहायक क्रिया के लिये पूर्वी राजस्थानी में प्रायः छै का प्रयोग किया जाता है। लिंग भेद के कारण इस काल के एकवचन के अंतर्गत इसमें विकार नहीं होता, केवल उत्तम पुरुष के एकवचन में इसका रूप छूं (म्हैं आऊं छूं) पाया जाता है अन्यथा यह विकार रहित ही रहता है, यथा–

एक वचन पु.–
तू आवै छै = तू आता है।
वौ आवै छै = वह आता है।

एक वचन स्त्री.–
तू आवै छै = तू आती है।
वा आवै छै = वह आती है।

बहुवचन में अन्य पुरुष एवं मध्यम पुरुष के प्रयोग में छै तथा छौ का प्रयोग भी होता है, यथा–

बहुवचन पु.–
थे आवौ छौ = तुम आते हो।
वे आवै छै = वे आते हैं।

बहुवचन स्त्री.–
थां आवौ छौ = तुम आती हो।
वे आवै छै = वे आती हैं।

उत्तम पुरुष के बहुवचन में इसका रूप छां होता है, यथा– म्हे आवां छां

प्रायः मुख्य क्रिया के रूप के साथ ही इस सहायक क्रिया छै का रूप निर्धारित होता है। ऐकारान्त होने पर छै, ईकारांत होने पर छी, आकारांत में छां तथा औकारांत में छौ रूप ग्रहण कर लेता है।

प्राचीन राजस्थानी में भी इसके सामान्य वर्तमान में प्रायः इस प्रकार के रूप पाये जाते हैं–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
छउं, छूं,
छूं
मध्यम पु.–
अछइ, छइ
अछउ, छउ
अन्य पु.–
अछइ, छइ
अछइ, छइ, छि

छै का भविष्यकालीन रूप नहीं होता। संस्कृत के भू द्वारा सब कालों के रूप बनते हैं किन्तु अस का भविष्यत् रूप नहीं होता। छै की उत्पत्ति अस् धातु से ही हुई है, अतः छै का भी भविष्यकालीन रूप नहीं होता। पाणिनि का सूत्र श्नसोरल्लोपः (6।4 ।111) यह होने अर्थ वाले अस् धातु के अकार का लोप कर डालता है। इसी आधार पर सत् का छतौ, छै, छौ, छा रूप अपभ्रष्ट होकर दिखाई पड़ते हैं। भविष्यत् में तो पाणिनि अस् को भू कर भविष्यत्ति बनाता है, जो भाषा में होगा के स्थान पर प्रयुक्त होता है।[3]

डॉ. तैस्सितोरी ने छै या छूं संबंधी ये सब रूप अछवउं क्रिया से माने हैं। पिशैल ने अपने प्राकृत व्याकरण में[4] इसकी उत्पत्ति सं. ऋच्छति एवं अप. अच्छइ से मानी है। अछइ का प्रयोग एवं के लोप से छइ का प्रयोग इसीसे निःसृत हुआ है। प्राचीन राजस्थानी में वर्तमान कृदन्त छतउ सं. ऋच्छन्तकः, अपः.– अच्छन्तउ से निकल कर बना है।[5] डॉ. तैस्सितोरी का यह मत हमें उचित नहीं मालूम देता।[6]

[1]प्राकृत भाषाओं का व्याकरण–ले. रिचार्ड पिशैल–अनु. डॉ.हेमचंद्र जोशी , पारा 475.
[2]पुरानी राजस्थानी,पृष्ठ 139.
[3]यह स्व. पंडितनित्यानन्द शास्त्री का मत है।
[4]पिशैल का प्राकृत व्याकरण,पारा 57, 480
[5]पुरानी राजस्थानी–मू.ले. डॉ. एल.पी.तैस्सितोरी, अनु. नामवरसिंह, पारा 114
[6]श्री N.B. Divatia ने भी तैस्सितोरी का यह मत नहीं माना है। देखिये Gujarati Language and Literature, Vol. I, Page 248 to 264

संभाव्य अतीत में सहायक क्रियाओं के रूप इस प्रकार मिलते हैं–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
मैं होतौ
आपां (या म्हां) होता
मध्यम पु.–
तू होतौ
थे होता
अन्य पु.–
वो होतौ
वे होता

होतौ रूप प्राकृत के होन्तो का रूप भेद है। प्राकृत का होन्तो सं. के भवन् से निकला है। होता, होतौ का ही विकारी रूप है।[1]

भविष्यत्काल में मध्यमपुरुष में होइसि, हुएसि, हुइसिइ, होसि आदि रूप, अप.– होएस्सहि या होस्सहि एवं संस्कृत के भविष्यसि से निकले हैं। अन्य पुरुष के एकवचन में हुसइ, हुसिइ, हुसि, हुस्यइँ, होसिइ, होस्यइँ, हसिइ आदि रूप मिलते हैं। इनकी उत्पत्ति अपभ्रंश होसइ (सिद्ध हेम. 4।388) एवं भोष्यति (भविष्यति) से मानी गई है।[2]

संभाव्य भविष्यत् के रूप इस प्रकार होते हैं–

एक वचन
बहुवचन
उत्तम पु.–
मैं होऊँला
म्हां होवालां (हौलां)
मध्यम पु.–
तू होवैला
थे होवोला
अन्य पु.–
वो होवैला (हौलां)
व्है होवैला (हौलां)

द्वैत क्रिया पद–

कार्य की निरन्तरता, महत्त्व एवं पुनः करने के भाव जिनमें तात्कालिक किये जाने वाले कार्य का भाव निहित रहता है, प्रकट करने के लिये प्रायः कृदन्तीय रूपों को द्वित्व कर दिया जाता है, यथा–

(i) चील उडती-उडती नीचे पड़गी।
(ii) भागतां-भागतां ठोकर लागगी।
(iii) का’णी सुणतां-सुणतां नींद आयगी।

इसके अतिरिक्त पूर्वकालिक क्रिया के द्वित्व में नै परसर्ग को बाद में जोड़ देते हैं, यथा–

(i) नाच-नाच नै राजी कियौ।
(ii) पढ़-पढ़ नै हुसियार होइ गियौ।

पाणिनि ने भी “नित्यवीप्सयौः” 8।1।4 (वीप्सा) के अर्थ में द्वैत क्रियापदों के बारे में भुकत्त्वा-भुकत्त्वा आदि के रूप में विधान किया है। इस दृष्टि से इनके प्रयोग की परिपाटी अति प्राचीन मानी जा सकती है।

कई बार समानार्थ में अथवा इसी के समान विभिन्न अर्थ में कुछ धातु पदों को युग्म रूपों में प्रयुक्त करते हैं, यथा–

(i) वौ चार आखर लिख-पढ़ नै रौब गांठै।
(ii) देख-सुण नै कांम करणौ चाहिजै।
(iii) कूट-पीस नै कप्पड़छांण कर लियौ।

इस प्रकार के प्रयोग संभवतया प्राचीन आर्य-भाषाओं में नहीं प्राप्त होते। ये बाद की आधुनिक उपज मालूम होते हैं।

अन्य आधुनिक भाषाओं के समान आधुनिक राजस्थानी में भी पारस्परिक क्रिया-विनिमय प्रकट करने के लिये, क्रिया विशेष्य पदों के “द्विरुक्त” रूप प्रयुक्त होते हैं। इस प्रकार के युग्म पदों में पहला पद आकारांत तथा दूसरा पद ईकारांत कर दिया जाता है, यथा–

(i) टाबरां नै घणी मारा-मारी मत करजौ।
(ii) देखा-देखी टाबर बिगड़ै।

उपरोक्त द्वैत क्रिया पदों में एक ही क्रिया की पुनरावृत्ति हुई है किन्तु कभी-कभी अन्य समानार्थक क्रियाओं का भी युग्म बना कर प्रयोग कर दिया जाता है–

छीना-झपटी नी करणी चाहिजै।

संयुक्त क्रिया पद (Compound verbs) —

प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं में जो काम प्रत्यय आदि लगा कर लिया जाता था वह काम अब बहुत कुछ संयुक्त क्रियाओं से होता है। अन्य आधुनिक भाषाओं के समान राजस्थानी भाषा में भी संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। प्राचीन भाषाओं, जैसे ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि में क्रिया पदों में उपसर्ग लगा कर नवीन भावों का प्रकाशन होता था। योरोप की कई आधुनिक भाषाओं में कालान्तर में इसका अभाव होता गया। आधुनिक भारतीय भाषाओं में इसकी क्षतिपूर्ति संयुक्त क्रियाओं के प्रयोग से की गई। इन संयुक्त क्रिया पदों का रूप अत्यन्त आधुनिक होने के कारण इनका ऐतिहासिक रूप से विवेचन करना सम्भव नहीं है। द्रविड़ भाषाओं में भी संयुक्त क्रियाओं का बहुत प्रयोग होता है किन्तु आधुनिक उत्तर भारत की भाषाओं में उसके प्रभाव के कारण ही संयुक्त क्रिया पदों का प्रयोग होने लगा हो, यह कहना संदिग्ध है। केलॉग ने अपनी ग्रैमर में संयुक्त क्रियाओं का विस्तार से वर्गीकरण किया है। आधुनिक भाषाओं में क्रिया पदों के साथ संज्ञा, क्रियामूलक-विशेष्य अथवा कृदन्तीय पदों के संयोग के कारण एक विशेष प्रकार का मुहावरेदार प्रयोग बन जाता है। इन दो संयुक्त पदों में से क्रिया पद वास्तव में सहायक रूप में ही होता है तथा वह संज्ञा एवं क्रियामूलक विशेषण या विशेष्य ( Participle तथा verble Nouns ) की विशेषता द्योतित करता है।

संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग प्राचीन काल से ही चला आ रहा है, ऐसा डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने उदाहरण देकर सिद्ध करने का प्रयत्न[3] किया है।

केलॉग ने संयुक्त क्रियाओं को पाँच वर्गों में बाँटा है[4] –(1) पूर्वकालिक कृदन्त पद-युक्त; (2) आकारान्त क्रियामूलक विशेष्य पद-युक्त; (3) असमापिका पद-युक्त; (4) वर्तमानकालिक तथा भूतकालिक कृदन्तयुक्त; (5) विशेष्य अथवा विशेषण पद-युक्त।

1. पूर्वकालिक कृदन्त पद-युक्त–

(i) भृशार्थक (Intensives) , यथा– फेंक देणौ, खा जाणौ, पी लेणौ, गिर पड़णौ आदि।

(ii) शक्यताबोधक (Potentials) , ये पूर्वकालिक कृदंत के साथ सक(णौ) के संयोग से बनते हैं, यथा– पढ़ सकणौ, देख सकणौ आदि।

(iii) पूर्णताबोधक (Completives) , ये पूर्वकालिक कृदंत रूप एवं चुक(णौ) क्रिया के साथ निष्पन्न होते हैं, यथा– खा चुकणौ, कर चुकणौ आदि।

2. आकारान्त क्रिया-मूलकविशेष्य पदयुक्त–

(i) पौनः पुन्यार्थक (Frequentatives) –क्रियामूलक विशेष्य पद जो आकारान्त हो उसके साथ कर(णौ) क्रिया के संयोग से बनते हैं, यथा– जाया करणौ, खाया करणौ, सोया करणौ आदि।

(ii) इच्छार्थक (Desiderative) –ये चाह(णौ) धातु के संयोग से बनते हैं, यथा–वो बोळणौ चावै। वा लड़णौ चावै, वौ पढ़णौ चावै[5]

3 . असमापिका पद युक्त–

(i) आरम्भिकता-बोधक (Inceptives) –यह असमापिका पद के विकारी रूप के साथ लग(णौ) धातु के संयोग से बनते हैं, यथा– खावण लागणौ,पढ़ण लागणौ आदि।

(ii) अनुमतिबोधक (Permissive) –यह असमापिका पद के विकारी रूप के साथ दे ( णौ) क्रिया लगा कर बनते हैं, यथा– जावण देणौ, सोवण देणौ, पढ़ण देणौ आदि।

(iii) सामर्थ्यबोधक (Acquisitives) — पा(णौ) या पा(वणौ) को असमापिका-पद के विकारी रूप के साथ जोड़ कर बनाया जाता है, यथा– करण पावै आदि।

4. वर्तमानकालिक तथा भूतकालिक कृदन्तयुक्त–

(i) निरन्तरता-बोधक (Continuatives) –यह वर्तमानकालिक कृदन्त के साथ रै(णौ) के जोड़ने से बनता है, यथा– करतौ रैवै, पढ़तौ रै” वै, सोवती रै”वै आदि। भूतकालिक कृदंत के संयोग से भी इनका निर्माण होता है, यथा– दूध पीया करौ

(ii)) प्रगतिबोधक (Progressives) –वर्तमानकालिक कृदन्त के साथ जा(णौ) क्रिया के योग से यह रूप बनता है, यथा– पढ़तौ जाणौ, खेलतौ जाणौ, नदी उतरती जावै आदि।

(iii) गत्यर्थक (Statical) –यह वर्तमानकालिक कृदन्त के साथ गतिबोधक क्रिया के जोड़ने से बनता है, यथा– वो गावतौ चालै, रोवतौ दोड़ै आदि।

(5) विशेष्य अथवा विशेषण-पद-युक्त–

वाक्य विशेष या विशेषण पदों के साथ कर(णौ), हो(णौ), ले(णौ), दे(णौ) आदि धातुओं के जोड़ने से बनते हैं, यथा– काम करणौ, मोज करणी, सुख देणौ आदि।

[1]हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास–डॉ. उदयनारायण तिवारी,पारा 405
[2]पुरानीराजस्थानी–मू.ले. डॉ. एल.पी. तैस्सितोरी, अनु. नामवरसिंह, पारा 114
[3]बैंगालीलेंग्वेज–डॉ. चाटुर्ज्या, पारा 778
[4]हिन्दी ग्रामर–कैलॉग,पृ. 258
[5]पूर्वीराजस्थान में ये रूप निम्न प्रकार से भी बनते हैं–वो बोलणी चावै, वा लड़णी चावै , वो पढ़णी चावै।

क्रिया सम्बन्धी इस प्रकरण को समाप्त करने से पहले कुछ ऐसी विशेषताओं की ओर इंगित कर देना चाहते हैं जो प्रायः किसी अन्य भाषा में नहीं मिलतीं।

राजस्थानी में कुछ क्रियायें केवल भाववाच्य ही होती हैं। उनका अकर्मक एवं सकर्मक रूप नहीं बनता। वे अपने भाववाच्य रूप में ही प्रयुक्त होती हैं, यथा–

1. तुहीजणौ (सं. तुभ्यते )–पशुओं में मादा का गर्भस्राव होना।
2. गड़ीजणौ–भैंस का गर्भवती होना।
3. आंबाईजणौ,आंबीजणौ– 1. अधिक शारीरिक कार्य करने या अधिक चलने से शरीर का ऐंठा जाना। 2. नींबू, आम, अमचूर आदि खट्टे पदार्थों के खाने से दांतों का खट्टा होना।
4. फोगराईजणौ,फोगरीजणौ– अधिक पानी के प्रभाव से फूल जाना, अथवा कालर नामक कीड़ा लगने से मिट्टी, पत्थर आदि की बनी दीवार व वस्तुओं पर से पपड़ी उतरना।
5. कालरीजणौ
6. फाताईजणौ,फातीजणौ– व्याकुल होना, घबड़ाना।

राजस्थानी के ये प्रयोग बड़े स्वाभाविक एवं स्वतंत्र हैं। सम्भवतया इस प्रकार के सूक्ष्म भाव स्पष्ट करने वाले प्रयोग अन्य भाषाओं में कम मिलते हैं। प्रस्तुत कोश में इस प्रकार के भाववाच्य रूपों को मूल क्रिया के समान ही स्थान दे दिया गया है एवं पाठकों को असुविधा से बचाने के लिये इनको प्रायः अकर्मक रूप मान लेने की प्रवृत्ति अपनाई गई है। किन्तु वास्तव में ये भाववाच्य रूप ही हैं, इनके सकर्मक एवं अकर्मक रूपों का निर्माण होता ही नहीं। भूतकालिक कृदन्त विशेषण रूप अवश्य ही इनसे निर्मित होते हैं, यथा– तुहीजियोड़ी, आंबाईजियोड़ौ, आंबीजियोड़ौ, फोगरीजियोड़ौ, कालरीजियोड़ौ, फातीजियोड़ौ आदि। इनके स्त्री लिंग प्रयोग भी शब्द के साथ ही उपस्थित कर दिये गये हैं किन्तु ये इन भाववाच्य रूपों के ही भूतकालिक कृदन्त विशेषण हैं। रूप- भेद के अनुसार इनके कई भेद होते हैं, यथा–

कुईजणौ, कुयीजणौ, कुहीजणौ } — (सं. कुथ्-पूती-भावे)– सड़ना, खमीर उठना।

इस प्रकार के रूपभेद वाले प्रयोगों में प्रमुख रूप से प्रयुक्त होने वाले रूप को मुख्य स्थान देकर बाकी को उसी के साथ रूप भेद में दे दिया गया है।

राजस्थानी भाषा की कुछ क्रियायें उसी रूप में संज्ञा अर्थ में भी प्रयुक्त होती हैं। इस प्रकार के प्रयोग में अर्थ बदल जाता है किन्तु मूल भाव के अनुसार दोनों में थोड़ा बहुत सादृश्य रहता है, यथा–

खुरचणौ– क्रि. स. कुरेदना, खुरचना।
खुरचणौ– सं. पु. कुरेदने या खुरचने का लोहे या पीतल का बना एक उपकरण।
कसणौ– क्रि. स. मजबूत बांधना, कसौटी पर कसना आदि।
कसणौ– सं.पु. रगड़ कर परीक्षा करने का काला पत्थर, कंचुकी बांधने की डोरी, कवच का हुक आदि।

उपरोक्त उदाहरणों के उन क्रियाओं के रूप स्पष्ट हैं जो संज्ञा अर्थों में भी उसी रूप में प्रयुक्त होती हैं। संज्ञा के अतिरिक्त कुछ क्रियायें विशेषण अर्थों में भी प्रयुक्त होती हैं, यथा–

भुसणौ– क्रि. अ.–भौंकना।
भुसणौ– वि.–भौंकने वाला।

व्हेणौ– क्रि.–अ. चलना।
व्हेणौ– वि.–चलने में दक्ष, चलने वाला।

विशेषण अर्थों में कोई क्रिया उसी समय प्रयुक्त होती है जब क्रिया के करने में दक्षता या अधिकता का भाव निहित हो, जैसे–

कुत्तौ भुसै है–कुता भौंकता है।
कुत्तौ भुसणौ है–यह कुत्ता (बहुत) भौंकने वाला है।

इस प्रकार के विशेषण प्रयोगों में लिंग एवं वचन-भेद से शब्दों में विकार होता है।

कुछ क्रियायें तीनों अर्थों में (यथा–क्रिया, संज्ञा एवं विशेषण) प्रयुक्त होती हैं। इस प्रकार का एक उदाहरण यहां पर्याप्त होगा।

1. सुबै बिदांम रौ सीरौ खाणौ जोइजै–प्रातःकाल बिदाम का हलुवा खाना चाहिये।
2. खाणौ पुरस नै बेगौ लावौ–भोजन शीघ्र परोस कर लाइये।
3. औ कुत्तौ खाणौ है–यह कुत्ता काटने वाला है अथवा इस कुत्ते के काटने का स्वभाव है।

उपरोक्त इन तीनों उदाहरणों में खाणौ शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पहले उदाहरणों में क्रिया, दूसरे में संज्ञा एवं तीसरे में विशेषण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

क्षेत्र भेद के अनुसार पूर्वी राजस्थान आदि स्थानों पर क्रियान्त में णौ के स्थान पर बौ का प्रचलन है, यथा– करबौ, दौड़बौ, खाबौ आदि। सभी क्रियाओं के साथ क्रियान्त में णौ रूपों के साथ बौ रूप भी दिये गये हैं। ये केवल क्षेत्र भेद का प्रभाव है, किन्तु इस प्रकार के प्रयोगों से अर्थ-विस्तार संकुचित हो गया है। णौ क्रियान्त वाली कुछ क्रियाओं का संज्ञा या विशेषण अथवा दोनों रूपों में प्रयुक्त होना सम्भव है परन्तु बौ क्रियान्त वाली क्रियायें सामान्यतया इस प्रकार के विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त नहीं होतीं। ऊपर के उदाहरणों में खुरचणौ एवं कसणौ क्रिया एवं संज्ञा दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु खुरचबौ एवं कसबौ केवल क्रिया अर्थ में ही प्रयुक्त होते हैं। संज्ञा अर्थ में इस प्रकार के रूप नहीं मिलते। यही प्रभाव क्रियाओं के विशेषण प्रयोगों पर भी पड़ता है। खाणौ शब्द कभी-कभी संज्ञा एवं विशेषण अर्थों में भी प्रयुक्त हो जाता है, किन्तु खाबौ का प्रयोग केवल क्रिया अर्थ में ही होता है। कभी-कभी इसे विशेषण रूप में प्रयुक्त कर देते हैं, यथा– कुत्तौ बडौ खाबौ है– कुत्ता काटने वाला है आदि। किन्तु यह णौ क्रियान्त वाले रूपों के प्रभाव के कारण है। सामान्यतया बौ क्रियान्त वाले रूपों का प्रयोग क्रिया अर्थ के अतिरिक्त नहीं किया जाता, अतः प्रस्तुत कोश में जहाँ क्रिया शब्दों में णौ एवं बौ क्रियान्त वाले दोनों रूप दे दिये गये हैं वहाँ इन क्रियाओं से बनने वाले संज्ञा एवं विशेषण अर्थ वाले शब्दों के केवल णौ अंत वाले रूप ही दिये गये हैं। बौ क्रियांत वाले कुछ शब्द दोनों अर्थों (यथा क्रिया व संज्ञा) में प्रयुक्त होते हैं, यथा–

करबौ– क्रि. स. (सं. कृ ) करना।
करबौ– सं. पु. (सं. करम्भ) दले हुए अनाज को पका कर छाछ के मिश्रण से बनाया जाने वाला एक प्रकार का पेय पदार्थ।

ऐसे प्रयोगों के मूल तत्सम आधार अलग-अलग होने के कारण हमारी उपरोक्त संभावनाओं में नहीं आते। इस प्रकार का प्रयोग संयोगिक है। क्रिया एवं संज्ञा अर्थों में कोई सामञ्जस्य नहीं। अतः यह मान लिया गया है कि बौ क्रियांत वाले शब्द केवल क्रिया सम्बन्धी अर्थ ही देते हैं जब कि णौ क्रियान्त वाले कुछ शब्द क्रिया के अतिरिक्त संज्ञा एवं विशेषण अर्थ भी देते हैं।

कुछ क्रियाओं का प्रचलन आरम्भ के स्वर को ह्रस्व से दीर्घ करके भी उसी अर्थ में हो गया है। इस प्रचलन से उनके अर्थ में कोई भिन्नता उत्पन्न नहीं होती, यथा–

अजमाणौ, आजमाणौ।
जगणौ, जागणौ।
रखणौ, राखणौ।
थकणौ, थाकणौ।
पकणौ, पाकणौ।
चखणौ, चाखणौ।
भगणौ, भागणौ। आदि।

किन्तु यह परिवर्तन प्रायः उन्हीं क्रियाओं में सम्भव है जिनके आरम्भ में दोनों स्वर हृस्व हों। अगर प्रथम हृस्व है एवं उसके बाद पड़ने वाला वर्ण स्वर के अतिरिक्त किसी अन्य स्वर से प्रभावित है तो ऐसा परिवर्तन प्रायः सम्भव नहीं है। अपवादस्वरूप कुछ ऐसे शब्द भी मिल जाते हैं जिनमें प्रथम स्वर के बाद पड़ने वाला दूसरा स्वर हृस्व से दीर्घ होता है, यथा–

उमहणौ, उमाहणौ

किन्तु इनमें भी प्रथम दोनों वर्णों में स्वर होना आवश्यक है। दूसरे स्वर से प्रभावित वर्णों में परिवर्तन इस प्रकार नहीं होता।

ध्वनि के सम्बन्ध में विवेचना करते समय हम लिख आए हैं कि क्रोधादि मनोविकारों के कारण हम शब्दों को प्रायः बिगाड़ कर बोलते हैं। क्रियाओं में भी इन मनोविकारों का प्रभाव स्पष्टतः लक्षित होता है। कुछ क्रियाओं के प्रयोगों से यह बात स्पष्ट हो जायगी–

(i) रोटी गिटणी
(ii) लाडू घसकाणौ आदि

रोटी प्रायः स्वभाव से ही भूख मिटाने के लिये खाई जाती है। उससे खाने वाले की आत्मा भी सन्तुष्ट होती है। बलात् खाने या खिलाने से खाने वाले के आत्म-सन्तोष से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। अतः प्रायः क्रोधादि में इनका प्रयोग बिगड़ कर असम्बन्धित क्रियाओं के साथ जुड़ जाता है। दवाई की गोली के लिये ही सामान्यतया गिटणौ का प्रयोग होता है किन्तु क्रोध के प्रभाव से प्रायः लोग रोटी गिटलै भी कह देते हैं। इस प्रकार के प्रयोग करने वाले व्यक्ति के मनोभावों से प्रभावित होते हैं। ( अठी आ– इधर आ) को क्रोध में लोग अठी बळ (इधर जल) भी उच्चारित कर देते हैं। ऐसे प्रयोगों को बोलने वाले व्यक्ति के मनोविकारों के आधार पर ही देखना चाहिये।

क्रिया विशेषण–

प्राचीन एवं मध्यकालीन आर्य भाषाओं, यथा–संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि में नाम तथा सर्वनाम शब्दों के परे तद्धति के कतिपय प्रत्यय लगाने से अव्यय बन जाते हैं। प्राचीन भाषाओं के अंतर्गत प्राप्त यह विशेषता आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में भी पूर्णतया सुरक्षित है। आधुनिक क्रिया विशेषणों की उत्पत्ति प्रायः संस्कृत संज्ञाओं अथवा सर्वनामों से हुई है। अर्थ की दृष्टि से ये कालवाचक,स्थानवाचक, दिशावाचक तथा रीतिवाचक इन चार मुख्य वर्गों में विभक्त किये जाते हैं। डॉ. तैस्सितोरी ने[1] इन्हें करणमूलक, अधिकरणमूलक, विशेषणमूलक एवं अव्ययमूलक नाम से विभाजित किया है। वे करणमूलक के अंतर्गत रीति का बोध कराने वाले क्रिया- विशेषणों को एवं अधिकरणमूलक के अंतर्गत काल एवं स्थान के बोधक क्रिया विशेषणों को रखते हैं। उनके लिखे अनुसार विशेषणमूलक क्रिया विशेषण से परिमाण या मात्रा का अथवा रीति की भावना में संशोधन का बोध होता है और अव्ययमूलक विशेषण (एक निश्चित उद्गम स्रोत न होने के कारण) कोई एक निश्चित अर्थ व्यक्त नहीं करते। निषेधवाचक क्रिया विशेषणों की गणना भी उन्होंने अव्ययमूलक विशेषण के अंतर्गत ही की है।

1. सर्वनाममूलक क्रिया विशेषण

(i) कालवाचक–इसका प्रयोग प्रायः के संयोग से होता है, यथा– अब, जब, तब, कब आदि। राजस्थानी में इनका प्रयोग जद, तद, कद आदि रूपों में लगा कर भी किया जाता है। वाले रूपों की उत्पत्ति डॉ. चटर्जी ने वैदिक एव, एवा, सं. एवं, प्रा. एव्वं, एब्बं से तथा बीम्स ने अपनी व्याकरण में सं. वेला से मानी है। राजस्थानी के रूपों वाले शब्दों जद, तद, कद आदि की उत्पत्ति संस्कृत के यदा, तदा, कदा आदि से स्पष्ट ही है।

ही के संयोग से (अब+ही) अभी ( तब+ही) कभी (कब+ही) कभी, (कद+ही) कदी आदि रूप भी प्रचलित हो गये हैं।

(ii) स्थानकवाचक–इनके रूप राजस्थानी में या के संयोग से बनते हैं, यथा– अठै, बठै, तठै, कठै आदि या ऐथ, ओथ, केथ आदि। इनका सम्बन्ध संस्कृत के अत्र, यत्र, तत्र, कुत्र आदि से जोड़ा जा सकता है।

(iii) रीतिवाचक–इनके रूप यूं, के संयोग से बनते हैं यथा– ज्यूं, त्यूं, क्यूं आदि। इन रूपों की उत्पत्ति अत्यन्त संदिग्ध है। डॉ. चटर्जी ने इनकी उत्पत्ति अप. के जेंव, तेंव केंव, जेवं, तेवं, केवं आदि से बताई है तथा केलॉग ने अपनी व्याकरण में इस प्रकार के शब्दों की उत्पत्ति सं. इत्थं, कथं आदि से मानी है। बीम्स ने इनका सम्बन्ध सं. मत् प्रा. मन्तो से मानी है, यद्यपि संस्कृत भाषा में इस प्रत्यय से बने हुए रूप अर्थ की दृष्टि से परिमाणवाचक होते हैं। इस प्रकार इन शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन अत्यन्त संदिग्ध है।

2. संज्ञामूलक,क्रियामूलक एवं अन्य क्रिया विशेषण

(i) कालवाचक–इसके अंतर्गत आज, काल, परसूं, तरसूं, सुबै, तड़कै, तुरत, झट, अचांणक आदि शब्दों के प्रयोग आते हैं। आज सं. के अद्य से, काल सं. कल्य, अप. कल्ले से, परसूं सं. परश्व = आने वाला दूसरा दिन (तैस्सितोरी के अनुसार सं. परमकै ) से, तरसों सं. त्रि+श्वस् से, तुरत सं. त्वरितम् से, झट सं. झटति से निकले हैं। प्राचीन राजस्थानी में इन रूपों का प्रयोग प्रायः के संयोग से होता था, यथा– काल्हि, कालि, दीहइ, परमइँ, प्रभातइ, रातइ, विहांणइ, सांझइ आदि।

(ii) स्थानवाचक–इसमें भीतर, बाहर, आगै, पीछै आदि रूपों का प्रयोग होता है। भीतर का संबंध सं. अभ्यंतर, बाहिर का सं. बहिः, आगै का सं. अग्रके, पीछे का सं. पश्चके या पश्चिले से जोड़ा जाता है। राजस्थानी में मांयनै भी भीतर के लिये प्रयुक्त होता है। प्राचीन राजस्थानी में आगइ, आगलि, पाछइ, पाछलि आदि रूपों का खूब प्रचलन था। तैस्सितोरी ने इन स्थानवाचक एवं कालवाचक क्रिया-विशेषणों को अधिकरण मूलक क्रिया-विशेषण कहा है।[2]

(iii) रीतिवाचक– तैस्सितोरी ने इनको करणमूलक[3] कहा है। उसके अनुसार इनका उपयोग प्रायः रीतिवाचक क्रिया-विशेषण के रूप में होता है जैसा कि संस्कृत और प्राकृत में भी होता है। प्राचीन राजस्थानी में निम्नलिखित प्रकार के रूप प्रचलित थे–

आडइँ = आर-पार, कस्टइँ = कठिनाई से, जोडिलइ = संयुक्त रूप से, दोहिलइँ = कठिनाई से, निश्चइँ (सं. निश्चयेन ) = निश्चयपूर्वक, प्राहइँ = प्राहिइँ (सं. प्रायकेण, अप. प्राअएँ ) = प्रायः, मउडइँ (सं. मृदुटकेन, अप. मउडएँ ) = देर से, रूडइ (सं. रूपटकेन, अप. रूअडएँ ) = भली-भांति, वेगि (सं. वेगेन ) = बेगपूर्वक, संक्षेपइकरी (सं. संक्षेपेण ) = संक्षेप में, सहजि (सं. सहजेन ) = स्वभावतः आदि।

तैस्सितोरी ने विशेषणमूलक क्रिया विशेषणों का एक और भेद माना है। इनका निर्माण एकदम नपुंसक लिंग एकवचन विशेषणों के द्वारा किया जाता है। यह विधि आधुनिक सभी भारतीय भाषाओं में प्रचलित है तथापि गुजराती, मराठी, सिंधी भाषाओं में ही इसका स्वरूप स्पष्ट रूप से लक्षित होता है क्योंकि नपुंसक लिंग इन्हीं भाषाओं में सुरक्षित रह गया है। क्रिया विशेषण की यही शाखा आधुनिक राजस्थानी में सबसे अधिक विवादास्पद हो गई है। सब वैय्याकरणों में क्रिया-विशेषण अव्यय के शब्दों को विकाररहित माना है तथा वे सदा सब प्रकार के प्रयोगों में एक रूप में ही रहते हैं किन्तु राजस्थानी में इन विशेषणमूलक क्रिया विशेषणों के शब्दों में विकार उत्पन्न हो जाता है, यथा–

हिन्दी भाषा
राजस्थानी भाषा
पु. एक व.–
वह धीमे-धीमे चलता है।
वौ धीमे-धीमे चालै।
स्त्री. एक व.–
वह धीमे-धीमे चलती है।
वा धीमी-धीमी चालै।
पु. बहु. व.
वे धीमे-धीमे चलते हैं।
वे धीमा-धीमा चालै।

इस प्रकार वचन एवं लिंग के प्रभाव से इनमें विकार उत्पन्न हो जाता है। एक और उदाहरण से यह बात अधिक स्पष्ट हो जायगी–

पु. एकवचन — वो बेगौ आयौ।
स्त्री. एक वचन — वा बेगी आई।

पु. बहुवचन — वे बेगा आया।
स्त्री. बहुवचन — वे बेगी आई।

राजस्थानी की इसी विशेषता के कारण इस शाखा के अंतर्गत आने वाले क्रिया विशेषण रूपों में लिंग-भेद एवं वचन-भेद से विकार होना मान लिया गया है। यद्यपि उद्देश्य-विधेय के अनुसार ये एक प्रकार के विशेषण ही हैं तथापि इनका प्रयोग क्रिया विशेषण के तौर-तरीकों पर हो गया। प्राचीन राजस्थानी में प्रायः ऐसा विकार नहीं पाया जाता, यथा–

घणुँ = घना। उ.–घणुँ दौडउ या सोचइ मनि घणऊँ।
थोडुँ = थोड़ा।

पहिलूँ = पहले। जोई नीचुँ जणणी-नइ-कहइ।

जिनमें ये नपुंसक एकवचन में रहते हुए सभी कारकों में अपरिवर्तित रहते हैं उनको तो तैस्सितोरी ने विशेषणात्मक क्रिया विशेषण एवं जो किसी समानाधिकरण विशेषण की तरह लिंग वचन और कारक के अनुसार रूप-रचना करते हैं उनको क्रियाविशेषणात्मक विशेषण नाम से लिखा है।[4]

[1]पुरानी राजस्थानी–अनु. नामवरसिंह,पारा 99
[2]पुरानी राजस्थानी–अनु. नामवरसिंह,पारा 99
[3]पुरानी राजस्थानी–अनु. नामवरसिंह,पारा 99
[4]पुरानी राजस्थानी,पारा 78 और 102.

सर्वनाम के अंतर्गत स्थानवाचक क्रिया-विशेषणों के रूप में उरौ = इधर, यहाँ; परौ = उधर, वहाँ; दूर आदि के प्रयोग लिंग एवं वचन के प्रभाव से विकारग्रस्त होते हैं, यथा–

उरौ = इधर (पास) आ–पु.।
उरी आव = इधर (पास) आ–स्त्री.।
उरा आवौ = इधर (पास) आइये।–पु. बहु. व.।

ऐसे प्रयोग प्रायः अन्य भाषाओं में नहीं मिलते। अतः अन्य भाषा-वैय्याकरण इन क्रियाविशेषणों के विकारग्रस्त भेदों पर नाक-भौं सिकोड़ें तो कोई आश्चर्य न होगा। प्रस्तुत कोश में इस विकारग्रस्त श्रेणी में आने वाले क्रियाविशेषणों में लिंग भेद देकर ही उपस्थित किया गया है। अतः ऐसे रूपों पर आपत्ति करने वाले महानुभावों को राजस्थानी की इस विशेषता को ध्यान में रखना चाहिेये।

अव्ययमूलक क्रियाविशेषण–इस श्रेणी के अंतर्गत वे क्रिया विशेषण आते हैंजो किसी सिद्ध शब्द से उत्पन्न नहीं हुए हैं, यथा–

अजी = अब तक।
अतिहिं = अत्यन्त।
नहीं, नइँ।
मत =

अवधारण अथवा जोर देने के लिये शब्दों के अंत में जोड़े जाने वाले निपात इ, जि (ज) ही हैं। संस्कृत अपि से एवं जि (ज) संस्कृत एव से उत्पन्न हुआ है, यथा–

सघलउ-इ वंसु = संपूर्ण ही वंश।
आज-इ लगइ = आज तक।
हूँ करेसि-जि = मैं करूँगा ही।
सात-ज = सात ही।
एक-इ-जि = एक ही।

अगर शब्द के साथ कोई परसर्ग होता है तो यह निपात शब्द एवं परसर्ग के बीच में आ जाता है, यथा–

गुरूआ-इ न = गुरुओं को भी।

ही निपात का प्रयोग प्रायः प्राचीन राजस्थानी में कम हुआ, किन्तु आधुनिक राजस्थानी में इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है–

ईणि हि जि-कारणि = इसी कारण में से।
तिम ही-ज = इसी प्रकार।

परिमाणवाचक क्रिया विशेषणों के अन्तर्गत ज्यादा, बोत, कम, कुल आदि प्रयुक्त होते हैं।

जब सर्वनाम-सम्बन्धी अव्यय को दुहरा दिया है तथा अन्य अव्ययों से संयुक्त कर दिया जाता है तो प्रायः उनका अर्थ परिवर्तित होता है, यथा– जब-जब के साथ तब-तब और जठै-जठै के साथ तठै-तठै आदि।

अनिश्चितता का भाव उत्पन्न करने के लिए संबंधवाची अव्यय का अनिश्चयवाची अव्यय के साथ संयोग कर दिया जाता है, यथा– जद-कदी, जठै-कठी आदि भी कभी अनिश्चितता प्रकट करने के लिए एक दो अव्ययों के मध्य का प्रयोग कर दिया जाता है, यथा– कदी न कदी, कठै न कठै आदि।

निम्नलिखित प्रकार के पदों का भी प्रयोग प्रायः राजस्थानी में अव्यय की भांति होता है, यथा– नाच कर, मिल कर, जांण कर आदि। पूर्वकालिक क्रिया से सम्बन्धित होने के कारण ये पूर्वकालिक क्रियाविशेषण कहे जा सकते हैं। इनका विवेचन हम पीछे कर चुके हैं। ऐसे पदों को कोश में स्थान देना उचित नहीं समझा गया क्योंकि इस प्रकार के पदों का निर्माण व्याकरण के निश्चित नियमों के आधार पर होता है। इस सम्बन्ध में सम्बन्धित व्याकरण की जानकारी आवश्यक है। अतः ऐसे रूपों को छोड़ कर शेष समस्त क्रिया-विशेषणों के रूपों को उनके रूप भेदों सहित प्रस्तुत कोश में स्थान दिया गया है। जहां उनमें लिंग-भेद का विकार भी दिया गया है वहां पाठकों को विशेषणात्मक क्रियाविशेषणों के संबंध में दी गई टिप्पणी को ध्यान में रखना चाहिए।

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