सबदकोस – निवेदन – सीताराम लालस

राजस्थानी भाषा एवं साहित्य अत्यन्त सम्पन्न होते हुए भी आधुनिक ढंग से निर्मित कोश का इसमें सर्वथा अभाव ही रहा है। यद्यपि डिंगल में रचे गये नाम माला कोश, अनेकार्थी कोश तथा एकाक्षरी कोश अल्प संख्या में उपलब्ध अवश्य हैं परन्तु साहित्य के अध्ययन में इनकी उपादेयता प्रायः नहीं के बराबर है। प्रस्तुत कोश का निर्माण राजस्थानी साहित्य में इसी अभाव की पूर्ति करने का एक प्रयास मात्र है। अन्य भाषाओं में निर्मित अधिकांश कोश अपने पूर्ववर्ती कोशों पर ही आधारित होते हैं पतु राजस्थानी में कोश-रचना की अपनी परम्परा से पृथक्‌ इस प्रकार के कोश निर्माण के पथ में प्रथम चरण ही है। वस्तुतः कोश-सम्पादन का कार्य सब प्रकार के साहित्यिक कार्यों से बहुत ही कठिन परिश्रम एवं व्ययसाध्य है। अतः मुझे प्रायः उन सभी कठिनाइयों से गुजरना पड़ा है जो किसी भाषा के प्रथम कोश के निर्माण के समय आती हैं।

प्रस्तुत कोश राजस्थानी में आधुनिक ढंग का सर्व प्रथम कोश होने के कारण कुछ निश्चित सिद्धान्तों का निर्धारण आवश्यक था। सब से बड़ी समस्या शब्द-संग्रह की थी। जीवित और प्रचलित भाषाओं में नित्य नए शब्द बनते रहते हैं तथा नित्य नया साहित्य भी प्रकाशित होता रहता है। अतः पुरानी पुस्तकों के साथ ही नवीन पुस्तकों में से भी शब्द-संग्रह करना आवश्यक था। यह कार्य जितना आवश्यक था उससे कहीं अधिक दुरूह भी था। पुरानी पुस्तकों में अधिकांश हस्तलिखित ग्रंथ थे। शब्दों के बीच अवकाश या स्थान देने की परिपाटी उस युग में नहीं के समान थी। लिपिकर्ताओं के अज्ञान से पुस्तकों के बहुत से शब्दों में परिवर्तन हो गया था। जीर्णशीर्ण अवस्था में मिलने वाले ये अधिकांश ग्रंथ अपूर्णावस्था में थे। किन्हीं के कुछ पृष्ठ ही गायब थे तो किन्हीं प्रतियों में शब्दों के शुद्ध रूपों का पता तक नहीं चलता था। ऐसी स्थिति में शब्दों के अर्थ-ग्रहण की समस्या बड़ी विकट थी। जो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं उनमें भी अधिकांश का प्रकाशन उच्च स्तर का न हो सका। पुराने ढंग से छपी हुई बहुत सी पुस्तकों में भी आठ-आठ और दस-दस शब्द और यहाँ तक कि पूरे चरण और पूरी पंक्तियाँ एक साथ छपी हुई मिलती हैं। शब्दों के रूपों में विभिन्नता का पाया जाना तो साधारण सी बात है। प्रकाशित पुस्तकों में ऐसी पुस्तकें अल्प संख्या में ही प्राप्त होती हैं जिनमें फुटनोट में पाठान्तर की व्यवस्था की गई है। शब्द वर्तनी के दृष्टिकोण से कई पुस्तकों का सम्पादन भी दोषपूर्ण हुआ है। ऐसी अवस्था में शब्द-चयन कार्य बहुत ही कठिन हो गया। इसके विपरीत जिन प्रकाशित पुस्तकों का प्रकाशन एवं सम्पादन सुन्दर ढंग सेुहआ है उनकी टीकायें, शब्दानुक्रमणिकायें, कठिन शब्दों के अर्थ हमारे बहुत ही सहायक हुए हैं।

सभी प्रकार की पुस्तकों में से शब्द-चयन स्वयं मेरे द्वारा ही हुआ है। प्रकाशित पुस्तकों को तो मैंने एक बार पढ़ कर लिए जाने वाले शब्दों को रेखांकित कर दिया और लेखकों ने उन शब्दों की स्लिपें (चिटें) तैयार करलीं। हस्तलिखित ग्रंथों के शब्दों की स्लिपें (चिटें) लेखकों के पास बैठ कर मैंने स्वयं ने तैयार कराईं। इसके अतिरिक्त सुदूर देहाती गाँवों में घूम-घूम कर लोहारों, सुनारों, खातियों, चमारों, तेलियों, गूजरों, कहारों, जुलाहों, धुनियों, गाड़ीवानों, कसारों, कुश्तीबाजों, सिकलीगरों, सिलावटों, महाजनों, बजाजों, पंसारियों, दलालों, महावतों, जुआरियों, सईसों आदि से सम्बन्धित शब्द भी एकत्रित करने का प्रयत्न किया गया। पशु-पक्षी तथा अन्य जीव-जन्तु आदि से सम्बन्धित शब्द भी लिए गये। इतिहास, भूगोल, गणित, दर्शन शास्त्र, खगोल शास्त्र, शकुन शास्त्र, ज्योतिष, विज्ञान, वास्तु विद्या, शालिहोत्र, कृषि, राजनीति, युद्ध, अर्थशास्त्र, काम विज्ञान, धर्म शास्त्र, नीति शास्त्र, वैद्यक आदि से संबंधित वे सभी शब्द लेने का भी प्रयास किया गया है जिनका राजस्थानी साहित्य व भाषा में प्रयोग हुआ है अथवा जिनका यहाँ के जन-जीवन में प्रचलन है। गृहस्थी के पदार्थों, पकवानों, मिठाइयों, विवाह आदि की रस्मों, तरकारियों, फल-फूलों, पेड़-पौधों, पहिनने के आभूषणों, वस्त्रों, अनाजों, बरतनों, देवी-देवताओं, योगासनों आदि के नामों एवं पारिभाषिक शब्द भी लेने के लिए सम्बन्धित व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त किया गया है। विभिन्न विषयों के अनेक शब्दों के अर्थ एवं परिभाषा में जहाँ भी तनिक शंका हुई, वहाँ विषय-सम्बन्धित विद्वज्जनों से बिना किसी हिचकिचाहट के सम्पर्क स्थापित कर शब्दों का अर्थ या परिभाषा ज्ञात की गई।

राजस्थान में युद्ध एक प्रिय विषय रहा है, अतः युद्ध में प्रयुक्त होने वाले अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र यहाँ पाये जाते हैं। विभिन्न शस्त्रागारों में जाकर प्राचीन अस्त्र-शस्त्रों को देख कर उनकी वास्तविक परिभाषा इस कोश में दी गई है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक व्यक्तियों की जीवनियाँ, प्राचीन स्थानों एवं त्यौहारों का वर्णन भी यथा स्थान पर संक्षिप्त रूप में दे दिया गया है जो व्यक्ति विशेष अथवा घटना विशेष की पूरी जानकारी देने में सहायक ही सिद्ध होगा। शब्दार्थ के साथ-साथ व्यापक रूप में प्रयुक्त होने वाले मुहावरों तथा कहावतों को भी यथा स्थान देने का प्रयत्न किया गया है। इतने पर भी मैं यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि राजस्थान में प्रचलित अथवा राजस्थानी साहित्य में प्रयुक्त सभी शब्दों का समावेश इस कोश में हो गया है। यद्यपि वैसे ही किसी भाषा के समस्त शब्दों का संग्रह एक महान्‌ कठिन कार्य है तथापि किसी जीवित भाषा में शब्दों का आगम निरंतर होता ही रहता है। कोश अधिकतम पूर्णता प्राप्त कर सके, इसी उद्देश्य से मेरी ओर से, प्रेस में पृष्ठों के छापे जाने के समय तक मिलने वाले नवीन शब्दों को कोश में अंकित करने का प्रयास चलता ही रहा। प्राचीन राजस्थानी में कुछ ऐसे अटपटे शब्दों का प्रयोग मिलता है जिनका प्रयोग बाद के साहित्य में नहीं हुआ और न होने की भविष्य में आशा ही है। कई बार तो ऐसे शब्द अपने मूल अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। कई कोशकारों के मत से इस प्रकार के शब्दों को कोश में स्थान नहीं देना चाहिए। (देखो ‘कोशकला’–रामचन्द्र वर्मा, पृ. 28, 29.) तथापि प्राचीन राजस्थानी के अध्ययन एवं उसे ठीक तरह समझने के उद्देश्य से ही ऐसे शब्दों को इस कोश में स्थान दिया गया है। जीवित भाषा होने के फलस्वरूप स्थानिक प्रभावों के कारण इसमें अनेक प्रकार के परिवर्तन एवं रूपान्तर होते रहते हैं तथा नए-नए शब्द मिलते रहते हैं। इस कोश में कुछ ऐसे विदेशी शब्दों को भी स्थान दे दिया है जो साहित्य एवं लोक-व्यवहार में रूढ़िग्रस्त हो चुके हैं और हमारे व्याकरण के नियमों से अनुशासित होते हैं। ऐसे शब्दों के आगे कोष्टक में उनके शुद्ध मूल रूप भी प्रस्तुत कर दिए गये हैं।

शब्दों की प्रामाणिकता एवं अर्थ की स्पष्टता का ध्यान रखने के फलस्वरूप शब्दों के साथ उदाहरण भी देने का निश्चय किया गया था। किन्तु यह निश्चय करना वस्तुतः एक कठिन कार्य था कि किन-किन शब्दों के उदाहरण दिए जायें और किन-किन शब्दों के उदाहरण छोड़ दिये जायें। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती। शब्दों के कम प्रयोग एवं कम प्रचलन के कारण तो उनके उदाहरण दिये ही गए हैं परन्तु अनेक शब्दों के ठीक उपयोग को बताने के लिए भी उनके उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। साथ-साथ ऐसे शब्दों के भी उदाहरण दे दिए गए हैं जिनके सम्बन्ध में हमारे दृष्टिकोण से किसी प्रकार की आपत्ति या आशंका हुई है। दिए गए उदाहरणों के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि कहीं-कहीं वे लम्बे हो गए हैं। शब्द-कोश का एक उद्देश्य उसे उपयोग में लेने वालों की जिज्ञासा पूरा करना भी है अतः उदाहरण में उतनी ही पंक्तियाँ दी गई हैं जिनसे सम्बन्धित शब्द का अर्थ स्पष्ट हो जाय, फिर वह केवल एक वाक्य के रूप में है अथवा उसका विस्तार चार-पांच पंक्तियों में हो गया है। कुछ शब्दों के अर्थ विशेष की पुष्टि के लिए यद्यपि उदाहरण में गीतों की एक दो पंक्तियाँ दी गई हैं परन्तु केवल उन पंक्तियों से अर्थ स्पष्ट नहीं होता। कारण यह है कि शब्द के उस विशेष अर्थ का सम्बन्ध पूरे गीत से होता है। राजस्थानी के डिंगल गीतों में यह परम्परा है कि उनमें शब्द की पुनरावृत्ति नहीं होती किन्तु अर्थ-चमत्कार के लिए पूर्व के द्वाले के शब्द या शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग होता है। अतः इस प्रकार के शब्द का अर्थ गीत के पूर्व के द्वालों से सम्बन्धित होता है। उदाहरण के लिए असत शब्द में अर्थ संख्या 7 शत्रु, दुश्मन दिया हुआ है और अर्थ की पुष्टि के लिए सूजा हरौ असतां सालै, हालै मन मांनिए हुए उदाहरण दिया हुआ है। यहां यह असतां शब्द इस गीत के पूर्व के द्वाले दोखियां तणो घणी धर दाबै, फाबै जुध जुध करण फतै के दोखियां शब्द के लिए ही प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ भी शत्रु ही है। अतः कोश का उपयोग करने वाले सज्जन जहाँ ऐसी शंका का अनुभव करें वहाँ गम्भीरतापूर्वक विचार करें।

मूल एवं मुख्य शब्द के साथ पर्यायवाची शब्द भी दिए गए हैं। राजस्थानी में किसी-किसी शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं, अतएव किसी शब्द के साथ इस प्रकार के पर्यायवाची शब्दों की संख्या कुछ अधिक हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. इसे राजस्थानी की विशेषता समझ कर स्वीकार कर लेना ही उचित है। इन पर्यायवाची शब्दों को यथास्थान अक्षर-क्रम से भी ले लिया गया है। बहुत से शब्द ऐसे भी होते हैं जिनके योग से अथवा जिनके आगे अन्य शब्द लग कर और अन्य शब्द भी बनते हैं। जैसे गज से गजानन, गजकांन, गजगति, गजधड़, गजपति, गजपत, गजपाळ, गजबंध आदि ऐसे शब्दों को अलग-अलग यथा स्थान अक्षर क्रम में तो लिया ही गया है परन्तु इनको उन शब्दों के साथ भी लिया गया है जिनके योग से या जिनके साथ लग कर वे बने होते हैं। पर्यायवाची एवं यौगिक शब्दों के अतिरिक्त मुख्य शब्द के साथ रूप भेद, अल्पार्थ, महत्त्ववाची एवं विलोम शब्द तथा क्रिया प्रयोग आदि भी यथा स्थान अक्षर क्रम से दिए गए हैं।

मोटे तौर पर प्रथम खंड के प्रकाशित होने तक कुल मिला कर 800000 (आठ लाख) के लगभग स्लिपें (चिटें) तैयार की गईं। लगभग 300 राजस्थानी पुस्तकों से शब्द इकट्ठे किये गये। पांच हजार के लगभग फुटकर राजस्थानी डिंगल गीतों से भी शब्द संग्रह किया गया। कोश की पूर्णता चार खंडों में होगी और जहाँ तक अनुमान किया जाता है इन चारों खंडों की पृष्ठ संख्या लगभग 3500 के होगी। शब्द संख्या को अधिक से अधिक बताने में आजकल के कोश निर्माताओं में एक प्रकार की होड़-सी लग रही है। किसी भी प्रकार से शब्दों की संख्या अधिक बताई जा सकती है परन्तु यह निश्चित है कि जहाँ कोश की पृष्ठ संख्या तो कम होती है और शब्द संख्या अधिक बताई जाती है; ऐसे कोशों में शब्दों के अर्थ अधिक विस्तृत एवं स्पष्ट रूप से नहीं मिल सकते। इनमें अर्थों का स्थान कोरी शब्द संख्या ही घेरे रखती है। चूंकि अधिकतर शब्द-कोशों की शब्द संख्या के उल्लेख का उद्देश्य प्रचार मात्र होता है, अतः ये शब्द संख्यायें बहुत भ्रामक और प्रायः निरर्थक होती हैं। किसी विद्वान का यह कथन पूर्ण सत्य है कि शब्द संख्या का महत्त्व तो तभी माना जायगा जब कि गृहीत शब्दों के अर्थों का विवेचन और व्याख्या भी समुचित रूप से हो। यदि ऐसा नहीं है तो शब्द संख्या वह धोखे की आड़ है जिसकी ओट में ग्राहकों का भली भांति शिकार होता रहता है। ऐसी अवस्था में कोश की शब्द संख्या बताना बड़ा जोखिम का काम है और वह भी उस समय जब कि कोश के चार खंडों में से केवल एक खंड ही प्रकाशित हुआ हो एवं बाद के खंडों के पृष्ठों के प्रेस में जाने तक नित्य नए-नए शब्दों का समावेश हो जाता हो। फिर भी अक्षर-क्रम से तैयार किए गए रजिस्टरों से अनुमान लगाये जाने पर प्रस्तुत कोश में कुल शब्द संख्या 125000 (एक लाख पच्चीस हजार) के लगभग ठहरती है। इस संख्या में न्यूनाधिकता होना संभव है।

देवनागरी लिपि में प्रकाशित कोशों के शब्द-क्रम में भी विभिन्नता पाई जाती है। प्राचीन वस्तु एवं विषय-वर्ग की परम्परा को छोड़ दिया जाय तब भी आधुनिक ढंग से प्रकाशित कोश में भी समानता नहीं पाई जाती है। प्रायः बड़े-बड़े विद्वान अपने-अपने विचारों और सिद्धान्तों के अनुसार क्रम में कई प्रकार के छोटे-मोटे अंतर स्थिर कर लेते हैं और उन्हीं के अनुसार अपने कोश का निर्माण करते हैं। अनुस्वारों के सम्बन्ध में अधिकांश कोशकारों ने अनुस्वार-प्रधान प्रणाली को ही अपनाया है। देवनागरी वर्णमाला में अनुस्वार का स्थान स्वरों के अंत में है अतः कई शब्द कोशों में इसी को ध्यान में रख कर अनुस्वार को स्थान दिया गया है। राजस्थानी में अनुनासिक के रूप में पंचम्‌ वर्ण यथा ङ्‌, ञ, ण, न एवं म का उपयोग नहीं होता है। भाषा में अनुस्वार के व्यापक रूप को देखते हुए उसे वर्ण के आरम्भ में ही लिखने का निश्चय किया गया। इसके अतिरिक्त अनुस्वार और चंद्रबिंदु के प्रयोग की भी बड़ी समस्या थी। इन दोनों का प्रयोग किया जाता है किन्तु दोनों के युक्त प्रयोग के कारण कोई निश्चित सीमा-रेखा खींचना अत्यन्त कठिन है कि कौनसा प्रयोग चंद्र बिन्दु का है और कौनसा अनुस्वार का। राजस्थानी कवियों ने आवश्यकता होने पर ध्वनि कम या अधिक शक्तिशाली करने के लिए इसमें बहुत स्वतन्त्रता बरती है। कोश आरम्भ करने के पहिले इस सम्बन्ध में निश्चित स्थिर करना अत्यन्त आवश्यक था अतः हमने इन दोनों के स्थान पर एक मात्र अनुस्वार लेना ही निश्चित किया और उसे वर्ण के आरंभ में ही स्थान दिया गया।

राजस्थानी में कुछ विशेष ध्वनियों को प्रकट करने के लिए कुछ विशेष वर्ण हैं यथा ल़ या ल या व़, स़ आदि। साधारणतया ल़ और ल का क्रम कुछ जटिल है। नीचे बिंदी वाले शब्दों को पहिले लेने की परिपाटी रखी गई है। इस नियम से आळ शब्द पहिले होगा तथा आल शब्द बाद में। सम्पूर्ण कोश में प्रायः इसी नियम का पालन किया जा रहा है किन्तु इस नियम का कठोरता से पालन करने पर यह अनुभव हुआ कि सम्बन्धित शब्द दूर-दूर पड़ जाते हैं और जिज्ञासु पाठकों को निराशा होती है। इन दोनों में उच्चारण-भेद को स्वीकार करते हुए भी पाठकों को जटिलता एवं दुरूहता से बचाने के लिए क्रम में दोनों के मध्य कोई विशेषता नहीं बरती गई, किन्तु समान शब्दों में इसका कुछ ध्यान अवश्य रखा गया है जिसके अनुसार अकल, गल, आल आदि शब्द अकळ, गळ, और आळ आदि के तत्काल बाद में ही लिए गये हैं। इसके अतिरिक्त बहुत प्रयत्न करने पर भी सम्बन्धित प्रेस व़ एवं स़ के टाइप की व्यवस्था नहीं कर सका, अतः व़ और स़ से सम्बन्धित शब्द व और स के ही अन्तर्गत दे दिए गये हैं। द्वितीय खण्ड में व़ और स़ की भी व्यवस्था हो सकेगी, ऐसी पूर्ण आशा है।

इस प्रणाली के आधार पर राजस्थानी कोश-निर्माण का प्रथम प्रयास होने के कारण शब्दों की व्युत्पत्ति का कार्य अत्यन्त कठिन था। शब्द की ठीक व्युत्पत्ति के अभाव में उसके सही अर्थ या उसकी आत्मा तक पहुँचना बहुत कठिन होता है। किसी वस्तु का वास्तविक रूप तो उसके आधार द्वारा ही प्रकट होता है। अतः शब्दों की उचित व्युत्पत्तियों के अभाव में कोश प्रायः अपूर्ण ही रह जाता है। प्रस्तुत कोश में शब्दों की व्युत्पत्ति देने में हम जो समर्थ हुए हैं, उस सम्बन्ध में स्वर्गीय विद्यानुरागी पं. नित्यानन्दजी शास्त्री, चाँद बावड़ी, जोधपुर का सहयोग चिरस्मरणीय रहेगा। राजस्थानी का मूल उद्‌गम संस्कृत से सम्बन्धित है। शास्त्रीजी संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। संस्कृत के अनेक ग्रंथ (कोश, व्याकरणादि) उन्हें कण्ठस्थ थे। शब्दों की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में उनकी प्रतिभा अद्‌भुत थी। उन्होंने कोश के सब शब्दों को सुन कर उनकी सही व्युत्पत्तियाँ बताईं एवं अशुद्ध व्युत्पत्तियों को शुद्ध किया। इस कार्य में यदि आपका सहयोग नहीं मिलता तो निस्संदेह व्युत्पत्तियों की दृष्टि से यह कोश अधूरा ही रह जाता। (परम) पूजनीय होने के नाते उनके प्रति आभार प्रदर्शित करना या धन्यवाद अर्पण करना उनकी प्रतिभा के समक्ष निरी तुच्छता ही होगी। अतः मैं तो यही कहूँगा कि उनके शुभाशीर्वाद ने सदैव मेरा पथ प्रशस्त किया है। इसके लिए मैं उनका सदैव ऋणी हूँ। यथासम्भव प्रत्येक शब्द के साथ व्युत्पत्ति देने का प्रयत्न किया गया है। मूल शब्द से वर्तमान शब्द के स्वरूप तक का विकास भी आवश्यकतानुसार दिया गया है। यथा :–आई सं., आर्या प्रा., अज्जा अप., आजी रा., आई, आयी अर्थात्‌ दुर्गा। इसी प्रकार कोसीस–सं. कपि शीर्षक, प्रा. कवि सीसग, अप. कवसीस, रा. कोसीस अर्थात्‌ किले या गढ़ की दीवार में थोड़ी-थोड़ी दूर पर त्रिकोणाकार स्थान या कंगूरा अथवा शिखर। कुछ शब्दों के साथ उनका सन्धि-विच्छेद एवं समास का स्पष्टीकरण भी कर दिया गया है जिससे जिज्ञासुओं को अर्थ समझने में सुगमता होगी और साथ ही साथ उनके ज्ञान की वृद्धि में भी यह सहायक होगा। जैसे–ओखधीस–सं. औषधि+ईष अर्थात्‌ चंद्रमा। इंदरावर–सं. इंदिरा+वर अर्थात्‌ लक्ष्मीपति, विष्णु। कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार धातुओं को उपसर्गों अथवा प्रत्ययों से पृथक्‌ कर के भी दर्शाया गया है। यथा–आसन्न=आ+सद्‌+क्त। कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो अपने भिन्न-भिन्न अर्थों में चार-चार और छः-छः भिन्न-भिन्न मूलों से निकले हैं। उदाहरण के लिए असत्‌ शब्द अपने विभिन्न अर्थों में–सं. असत्‌, सं. असत्वर, सं. अस्त, सं. असत्य, सं. असत्व, सं. अस्थि आदि से विकृत हुआ है। शब्द की व्युत्पत्ति देते समय शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थों पर अधिक ध्यान दिया गया है। इन सब का श्रेय पं. नित्यानन्दजी शास्त्री को ही है। उनके प्रयास से ही ऐसे अनेक शब्दों की व्युत्पत्तियाँ देना सम्भव हो सका है जो यद्यपि दुर्लभ नहीं तो दुरूह अवश्य ही थीं। उदाहरणार्थ छोकरौ एवं डीकरौ शब्दों की व्युत्पत्तियाँ उन्होंने संस्कृत के शोकहर एवं दीप्तिकर से मानी है। यह वस्तुतः उनकी गहरी पैठ एवं अनोखी सूझ का ही प्रमाण है। इतना सब कुछ होने पर भी यह तो नहीं कहा जा सकता कि कोश में दी गई सब व्युत्पत्तियाँ अपने में पूर्ण हैं। उनमें मतभेद हो सकता है। इसके अतिरिक्त भाषा विज्ञान का भी निरन्तर विकास होता जा रहा है। भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा नित नवीन सिद्धान्तों की स्थापना की जा रही है। ऐसी स्थिति में आज जो सत्य मानी जाने वाली व्युत्पत्ति कल गलत सिद्ध हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। विकासोन्मुख अवस्था का स्वागत करना ही चाहिए।

कोश में अर्थों का महत्त्व सबसे अधिक है। कोश का मुख्य उपयोग अर्थ, परिभाषा या व्याख्या जानने के लिए ही किया जाता है। अन्य उपयोग प्रायः गौण होते हैं, अतः इस बात का ध्यान रखने का विशेष प्रयत्न किया गया है कि शब्दों के अर्थ या उनकी व्याख्या ठीक प्रकार से स्पष्ट हो जाय, सहज में बोधगम्य हो जाय एवं अर्थ देखने में पूर्ण सुविधा हो, इसी दृष्टि से शब्द के विभिन्न अर्थों को अलग-अलग वर्गों में बाँट दिया गया है और पार्थक्य प्रकट करने के लिए उनके साथ संख्यासूचक अंक भी दे दिए गये हैं। आवश्यकता होने पर अर्थ स्पष्ट करने के उद्देश्य से शब्द के साथ कुछ विशेष विवरण भी प्रस्तुत किया गया है जो उस शब्द के सम्बन्ध में अतिरिक्त जानकारी देने में सहायक होगा। अर्थ देने के लिए प्रायः पर्याय एवं व्याख्या दोनों विधियाँ अपनाई गई हैं। जहाँ ‘अनंग’, ‘मार’, ‘मदन’ आदि के आगे केवल कामदेव ही लिखना पर्याप्त समझा गया है वहाँ कुछ शब्दों की पूरी व्याख्या भी दी गई है। प्रयत्न यह किया गया है कि जो परिभाषाएँ दी जायें वे जटिलताओं से मुक्त तथा दुरूहताओं से रहित हों, जिससे वे साधारण पाठकों को भी भली प्रकार बोधगम्य हो सकें। शब्द के साथ जो क्रिया प्रयोग, मुहावरे, कहावतें, रूपभेद, अल्पार्थ, महत्त्ववाची आदि शब्द हैं वे सब उन्हीं अर्थों के तुरन्त बाद ही दिए गए हैं जिनसे कि वे सम्बन्धित हैं। अर्थ और व्याख्या मुख्य या अधिक प्रचलित शब्द के साथ देकर उस शब्द के अन्य रूपभेदों के सम्मुख उस शब्द का निर्देश कर दिया गया है। यदि इस शब्द का निर्देशन शब्द के किसी अर्थ विशेष से ही संबंध है तो उस निर्देश के आगे संबंधित अर्थ का संख्यासूचक अंक भी दे दिया गया है। इस प्रकार के स्पष्टीकरण से, आशा है कि पाठक एवं जिज्ञासु जन सहज ही में आशय समझ लेंगे और तुरन्त अभीष्ट अर्थ तक पहुँच जायेंगे।

प्रस्तुत कोश के निर्माण की एक लम्बी कहानी है। जब से राजस्थानी साहित्य से मेरा परिचय हुआ तभी से एक सर्वांग, पूर्ण और बृहत्‌ कोश का अभाव मुझे खटकता रहता था। मैंने अपनी जिज्ञासा, यद्यपि वह मेरा दुस्साहस ही था, राजस्थानी के अनन्य सेवी पुरोहित श्री हरिनारायणजी के समक्ष प्रकट की। इस पर उन्होंने कोश सम्बन्धी कुछ राजस्थानी पुस्तकें मेरे पास भेजीं। पुस्तकों के सम्बन्ध में मैंने पुनः उन्हें अपनी अल्प मति के अनुसार कुछ सूचना दी। इसके प्रत्युत्तर में मुझे दिनांक 6-4-32 को उनका लिखा हुआ पत्र मिला। कहना न होगा कि यही पत्र इस कोश के निर्माण की सम्पूर्ण शक्ति अपने में समेट कर लाया था। यही पत्र इस कोश के निर्माण का मुख्य प्रेरणा-स्रोत था। पत्र के भावों ने हृदय पर प्रभाव जमाया, एक नवीन प्रेरणा मिली, पथ प्रशस्त हुआ। इससे यद्यपि राजस्थानी भाषा के बृहत्‌ कोश का सूत्रपात भले ही न हुआ हो परन्तु कोश-निर्माण का विचार तो दृढ़ एवं निश्चित रूप से हो ही गया। उन्हीं दिनों में मैंने ‘सूरज-प्रकाश’ आदि कुछ हस्तलिखित ग्रंथों से शब्द छांट कर उनकी एक लम्बी सूची बना कर पुरोहित श्री हरिनारायणजी के पास प्रेषित की। उन्होंने उस सूची को पसन्द नहीं किया किन्तु साथ में प्रकाशित अथवा अप्रकाशित ग्रंथों से शब्द छांटने के तरीके के सम्बन्ध में अपने सुझाव भेज दिए। उन्हीं सुझावों के अनुसार नए सिरे से शब्द संग्रह का कार्य आरंभ कर दिया। पहला प्रयास होने एवं समयाभाव के कारण इसकी गति अति धीमी रही। कुछ सज्जन ऐसे भी थे जो शब्द देखने के बहाने स्लिपें ले जाते और लाख कहने पर भी वापिस लौटाने का नाम तक नहीं लेते। ऐसी अवस्था में इस प्रकार की स्लिपों को फिर से तैयार करना पड़ा। ऐसे विशाल कार्य में इस प्रकार की छोटी-बड़ी कठिनाइयाँ तो आती ही हैं। पुरोहित श्री हरिनारायणजी की इस सम्बन्ध में कुछ विशेष कृपा रही। कोश के शब्द-संग्रह की प्रगति से मैं उन्हें निरन्तर सूचित करता रहता था। कई बार दो-दो मास तक मैं जयपुर में इसी कार्य हेतु रहा और दिन में निरन्तर उनके पास जाता था। उनके निर्देशन में विभिन्न ग्रंथों से शब्द-चयन कर अनेक स्लिपें बनाईं। वस्तुतः मुझे कहने में संकोच नहीं है कि अगर श्री पुरोहितजी महाराज की कृपा एवं सहयोग मुझे प्राप्त नहीं होता तो मेरा इस कोश-निर्माण के पथ पर कदम रखना नितांत असम्भव था। उन्होंने मुझे यह विश्वास भी दिलाया था कि वे मेरे द्वारा तैयार किए गए कोश को नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित होने वाली ‘बालाबख्श राजपूत चारण पुस्तक-माला’ के अन्तर्गत प्रकाशित कराने का प्रयत्न करेंगे। दैव को यह स्वीकार नहीं था। संवत्‌ 2002 में पुरोहितजी का स्वर्गवास हो गया। कोश के निर्माण की प्रगति में यह एक जबरदस्त व्याघात था। फिर भी उनकी इच्छा के अनुसार कोश-निर्माण का कार्य निरन्तर चलाए रखने का प्रयत्न किया। इस थोड़ी सी अवधि में कोश निर्माण के लिए मुझे जो अनुपम प्रेरणा व अमूल्य निर्देशन पुरोहित श्री हरिनारायणजी द्वारा प्राप्त हुए हैं, इसके लिए मैं उनका चिर ऋणी हूँ।

व्यावहारिक दृष्टि से यह सत्य है कि कोरे परिश्रम एवं लगन से कोश जैसा कार्य तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि इसके लिए पर्याप्त आर्थिक सहयोग उपलब्ध नहीं हो। इसकी प्रगति में आर्थिक समस्या एक मुख्य बाधा थी। साधारण अध्यापकीय पद पर कार्य करते हुए स्वयं मेरे ही द्वारा कोश के सम्पूर्ण व्यय-भार को वहन करने की कल्पना भी आकाश कुसुमवत्‌ थी। आर्थिक अभाव के कारण कार्य में अवरोध उपस्थित हुआ ही। इसी समय ठाकुर श्री गोरधनसिंहजी मेड़तिया (खानपुर) की कृपा मुझे वरदान सिद्ध हुई। मैंने उनसे कोश सम्बन्धी आर्थिक समस्या के सम्बन्ध में कुछ चर्चा की जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपने पास से रुपये देकर इस समस्या को हल कर दिया। उनका इस प्रकार का सहयोग कोश के आरम्भ होने के समय से लेकर आज तक समान रूप से प्राप्त हो रहा है। यह उन्हीं के सफल प्रयासों का फल है कि कोश आज इस रूप में प्रकाशित हो सका है। साहित्य-प्रकाशन में आपकी ऐसी सच्ची लगन और सद्‌भावना निश्चय ही आपकी महान्‌ उदारता एवं सौजन्य का परिचायक है। मैं हृदय से आपका कृतज्ञ हूँ।

कोश निर्माण के सम्बन्ध में मोतीसर शाखा के एक कबीर पंथी साधु श्री पन्नारामजी का सहयोग भी मैं नहीं भूल सकता। उनका राजस्थानी के सम्बन्ध में अद्‌भुत ज्ञान था। ‘रघुनाथ रूपक’, ‘रघुवरजस प्रकाश’, ‘लखपत पिंगळ’ आदि ग्रंथ उनको कंठस्थ थे। सैकड़ों ही गीत उन्हें मौखिक रूप से याद थे। सात-आठ बार मैंने उनका चातुर्मास भी करवाया। चातुर्मास के समय जो भी अतिरिक्त समय मिलता उस समय डिंगल गीतों के अर्थ एवं शब्द व्याख्या के सम्बन्ध में उनसे विचार-विमर्श होता रहता था। उनके द्वारा मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है, इसके लिए मैं उनका पूर्ण आभारी हूँ।

शब्द संग्रह के लिए स्लिपें बनाने का कार्य अब विकास पा रहा था। मेरे अकेले के प्रयत्न अब इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं थे। अतः स्लिपें बनाने के लिए कुछ कर्मचारियों की नियुक्ति भी आवश्यक थी। इसके लिए विशेष आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी। इस समय आर्थिक सहयोग की व्यवस्था कराने में श्री उदयराजजी उज्ज्वल का विशेष हाथ रहा है। साहित्य में, वह भी विशेषकर राजस्थानी साहित्य में आपकी विशेष अभिरुचि रही है। साहित्य-सेवा की भावना से ही आपने इस कार्य में अपना यह सहयोग दिया है। आपने तत्कालीन पोकरण ठाकुर स्व. श्री भवानीसिंहजी से आर्थिक सहयोग के लिये अनुरोध किया जिसके फलस्वरूप उनसे 2475/- रुपये कोश कार्य के लिए प्राप्त हुए। श्री भवानीसिंहजी की उदारता तथा श्री उदयराजजी उज्ज्वल की सौजन्यता एवं सहृदयता के लिये अपना आभार प्रकट करता हूँ।

इसी समय श्रीमान्‌ ठाकुर गोरधनसिंहजी के सद्‌प्रयत्नों के फलस्वरूप नीमाज ठाकुर श्री उम्मेदसिंहजी से भी इसी कार्य के लिए लगभग 2200/- रुपये की आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। इस प्रकार निरन्तर सहयोग मिलते रहने से स्लिपें बनाने के कार्य में अच्छी गति उत्पन्न हो गई। इस समय तक विभिन्न शब्दों की चार लाख के लगभग स्लिपें तैयार हो चुकी थीं। शब्द संग्रह का कार्य प्रायः ठीक चल ही रहा था परन्तु यह आर्थिक सहयोग कालान्तर में परिस्थितिवश रुक जाने के कारण फिर से कोश कार्य में व्यवधान आ गया। ऐसी भी स्थिति आ गई कि यह कार्य एक बारगी तो बंद ही हो गया।

इसी समय मुझे पता लगा कि शार्दूल रिसर्च इन्स्टीट्‌यूट, बीकानेर ने भी राजस्थानी भाषा का एक बृहद्‌ कोश बनाने का निश्चय किया है। इस सम्बन्ध में ऐसा सुना गया कि वे श्री रामकरण आसोपा द्वारा संकलित एवं अक्षर क्रम में व्यवस्थित लगभग चालीस हजार शब्द प्राप्त कर चुके हैं। यह एक बहुत बड़ी प्राप्ति थी। मेरा उद्देश्य तो केवल इतना ही था कि राजस्थानी भाषा में सर्वांगपूर्ण शब्द कोश का जो अभाव है उसकी पूर्ति हो जाय। स्वयं उसका श्रेय प्राप्त करने का मेरा लेश मात्र भी विचार नहीं था। अतः जब मुझे यह ज्ञात हुआ कि शार्दूल रिसर्च इन्स्टीट्‌यूट, बीकानेर कोश निर्माण करने का विचार कर रहा है तो मैंने अपनी कोश सम्बन्धी सारी संचित सामग्री, जो उस समय बहुत मात्रा में संग्रहीत थी, इन्स्टीट्‌यूट, बीकानेर को देने का निश्चय कर लिया और इसी उद्देश्य से मैंने अपने द्वारा संग्रहीत शब्दों में से धीरे-धीरे कुल 63000 (तिरेसठ हजार) शब्द मय अर्थ एवं उदाहरण के उनके पास भेज दिए और इसके साथ में यह भी निश्चय किया कि आवश्यकता होने पर उसे सब प्रकार की सहायता भी दी जाय किन्तु विधाता को संभवतः यह भी स्वीकार न था। काफी समय तक राह देखने पर भी शार्दूल राजस्थानी इन्स्टीट्‌यूट बीकानेर, कोश के प्रकाशन का कोई विशेष प्रबंध नहीं कर सका। तब मैंने स्वयं ही इस ओर पुनः प्रयास आरंभ किया। यद्यपि आर्थिक समस्या तो दुर्गम पर्वत की भांति मेरे समक्ष अडिग खड़ी थी तथापि कुछ साहस बटोर कर फिर आगे कदम रखा और ठाकुर गोरधनसिंहजी के समक्ष बिना किसी हिचकिचाहट के इसी समस्या को एक बार फिर रख दिया। उदारमना ठाकुर साहब ने कोश-प्रकाशन के प्रति पूर्ण सहानुभूति बताते हुए आर्थिक सहयोग देने का विश्वास दिलाया। शब्द संग्रह के लिए अन्य स्लिपें बनाने, बनी हुई स्लिपों को काट कर क्रमवार व्यवस्थित करने एवं उन्हें अक्षर-क्रम से रजिस्टरों में लिखने आदि के कार्य आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त व्यय-साध्य थे किन्तु श्री गोरधनसिंहजी की कृपा से यह समस्या हल हो ही गई। ठाकुर श्री गोरधनसिंहजी के बार-बार नामोल्लेख के कारण कुछ सज्जनों को पुनरुक्ति का अनुभव हो सकता है परन्तु यह सत्य ही है कि उन्हीं के सद्‌प्रयत्नों के फलस्वरूप इस कोश का निर्माण हो पाया है। ‘श्रेयांसि बहु विघ्नानि’ के अनुसार इस बड़े कार्य में भी समय-समय पर अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर उनके प्रयत्नों से धीरे-धीरे सभी विघ्न दूर होते गये। आपके व्यक्तिगत सम्पर्क एवं पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर ही श्रीमान्‌ ठाकुर कर्नल श्री श्यामसिंहजी ने स्लिपें कटवाने, उन्हें क्रमवार जमाने एवं रजिस्टरों में अक्षर क्रम में अंकित कराने आदि का सभी व्यय देना स्वीकार किया।

कोश निर्माण के कार्य में कर्नल श्री श्यामसिंहजी का जो अत्युत्तम सहयोग प्राप्त हुआ है, वह राजस्थानी साहित्य के साथ सदैव स्मरणीय रहेगा। वास्तव में आज के इस युग में कर्नल श्री श्यामसिंहजी जैसे साहित्य-प्रेमी सज्जन विरले ही मिलते हैं। संभवतः यह कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी कि अगर उनका सहयोग प्राप्त नहीं हुआ होता तो शायद कोश भी नहीं होता। जिस समय से आपका सहयोग प्राप्त हुआ है उस समय से लेकर अद्यावधि उनकी रुचि इस कोश में वैसी ही चली आ रही है। उनकी महत्ती कृपा के कारण आगे हमने किसी भी प्रकार की आर्थिक कठिनाई अनुभव नहीं की। जब-जब भी अर्थ-व्यवस्था की आवश्यकता हुई, आपने मुक्तहस्त होकर अपना सहयोग दिया। लगातार प्रति माह आवश्यकतानुसार निश्चित रूप से आर्थिक सहायता प्रदान करना साधारण कार्य नहीं है। गंगा की अविरल धारा के समान उनके द्वारा प्रदत्त सहायता अजस्र बनी रही है। स्लिपों के द्वारा सम्पूर्ण कोश की प्रथम प्रतिलिपि आपकी ही आर्थिक सहायता से की जा सकी। आर्थिक सहायता के अतिरिक्त आपके द्वारा प्राप्त अन्य सहयोग भी उल्लेखनीय है। कोश के लिए विभिन्न विषयों पर पुस्तकों की अत्यन्त आवश्यकता थी। इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकें खरीदना मेरे लिए संभव नहीं था। कुछ पुस्तकें तो अत्यन्त दुर्लभ भी थीं तथा कुछ अधिक कीमती भी थीं। इस कठिनाई का ज्ञान होते ही श्रीमान्‌ कर्नल साहब ने अपना निजी पुस्तकालय हमारे लिए उपलब्ध कर दिया। आपका यह पुस्तकालय बहुत ही विशाल है। उसमें विभिन्न विषयों की अनेक पुस्तकों का सुन्दर संग्रह है। राजस्थान में ऐसे पुस्तकालय बहुत ही कम हैं। उनके समस्त पुस्तकालय में हमने पूरा-पूरा लाभ उठाया है। आवश्यकता होने पर नैपाली कोश, ‘पाइअ-सद्द-महण्णवो’ जैसी कीमती पुस्तकें भी मंगवा कर हमें दीं। जब भी हमें किसी वस्तु की आवश्यकता हुई, उन्होंने उसकी तुरन्त ही व्यवस्ता कर दी। बड़े-बड़े समाजोपयोगी कार्य ऐसे ही उदार, दानी एवं विद्वान महानुभावों के बल पर ही सम्पन्न होते हैं। मैं कर्नल श्री श्यामसिंहजी के उपकारों से अनुगृहीत हूँ। उनके लिए आभार प्रदर्शित करने का साहस तो मैं नहीं कर सकता क्योंकि यह सब उन्हीं की कृपा का प्रसाद है।

कर्नल श्री श्यामसिंहजी के द्वारा आर्थिक सहयोग की पूर्ण सुविधा प्राप्त होने पर कोश सम्बन्धी कार्य अधिक गति एवं व्यवस्थित रूप में होने लगा। सभी स्लिपों को अक्षर क्रम से व्यवस्थित कर प्रत्येक वर्ण के पृथक्‌-पृथक्‌ रजिस्टर में उनको अंकित करने का कार्य आरम्भ हुआ। साथ ही साथ मुझे जैसे-जैसे नवीन हस्तलिखित ग्रंथ एवं प्रकाशित पुस्तकें या संस्करण प्राप्त होते रहे, उनसे मैं नवीन स्लिपें बनाने का कार्य निरन्तर करता रहा। शब्दों को सम्मिलित करने का कार्य जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि कोश के पृष्ठ प्रेस में छपने हेतु जाने के समय तक होता रहा है। इतना सब कुछ होने पर भी संभव है कि बहुत से शब्द रह गये हों। ऐसे छूटे हुए एवं नवीन उपलब्ध होने वाले शब्द कोश के चारों खण्डों के प्रकाशित होने के बाद परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित करने का प्रयत्न किया जायगा।

इस प्रकार कार्य करते हुए सभी संग्रहीत शब्दों को अक्षर-क्रम से रजिस्टरों में लिख लेने से कोश का एक अच्छा ढाँचा तैयार हो गया। अब प्रेस में सामग्री देने के लिए प्रेस कापी तैयार करने की समस्या सामने थी। यह भी एक विकट समस्या थी। प्रेस कापी के लिए रजिस्टरों में तैयार किये गये कोश के ढांचे में क्रिया प्रयोग, मुहावरे, कहावतें, रूप भेद, अल्पार्थ सूचक शब्द एवं महत्त्ववाची शब्दों का समावेश करना अत्यन्त आवश्यक था। प्रेस कापी बनाने के साथ ही साथ नए प्रकाशित ग्रंथों से शब्द छांट कर स्लिपें बनाना तथा उन्हें भी प्रेस कापी में सम्मिलित करना आवश्यक था। इस सभी कार्य के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाना अत्यन्त जरूरी था। इसके साथ ही अब छपाई-व्यय, जिसकी अधिकता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है, सामने था। इतना अधिक व्यय भार एक व्यक्ति द्वारा ही वहन किया जाना दूभर नहीं तो कठिन अवश्य ही है। अतः कोश हितैषी महानुभावों की सम्मति से कोश प्रकाशन का कार्य शिक्षा समिति चौपासनी, जोधपुर के नियंत्रण में इस शर्त पर दे दिया गया कि शिक्षा समिति अपने अधीनस्थ कार्य करने वाले राजस्थानी शोध-संस्थान के अंतर्गत इसे प्रकाशित करा दे। शोध-संस्थान के अंतर्गत इस कोश-निर्माण के कार्य की सम्पन्नता के लिए शिक्षा समिति ने प्रान्तीय एवं केन्द्रीय सरकारों से प्रान्तीय भाषाओं के उत्थान के निमित्त प्राप्त होने वाली आर्थिक सहायता प्राप्त की। इसका श्रेय शिक्षा समिति के अध्यक्ष श्री भैरूंसिहजी खेजड़ला, सदस्य, विधान सभा तथा मंत्री श्री कुंवर विजयसिंहजी सिरयारी, सदस्य, राज्य सभा, को ही है। राजकीय सहायता प्राप्त करने के लिए कुछ अंशों में व्यक्तिगत अनुदान भी आवश्यक था, अतः इसी अवसर पर झालावाड़ नरेश श्री हरिश्चन्द्रजी ने 5000/- रुपये का अनुदान देकर इस कार्य को सुगम बना दिया। इसके साथ ही साथ राजा साहब ने कोश कार्य के लिए भविष्य में भी आर्थिक सहयोग देते रहने का पूर्ण आश्वासन दिया। उनकी इस परम उदारता के लिए मैं उनका आभारी हूँ।

राजकीय सहयोग प्राप्त होने पर शोध-संस्थान के अंतर्गत कोश प्रकाशन का कार्य सुचारू रूप से होने लगा। इस सुन्दर व्यवस्था का श्रेय राजस्थानी शोध-संस्थान के संचालक श्री नारायणसिंह भाटी, एम.ए., एल-एल.बी. जो राजस्थानी के एक श्रेष्ठ कवि भी हैं, को है। आपके द्वारा मुझे जो सहयोग प्राप्त हुआ वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। कोश प्रकाशन का कार्य जब से आपने अपने नियंत्रण में लिया तभी से इस कार्य की सम्पन्नता में सतत प्रयत्नशील हैं. कोश निर्माण के प्रति आपने अपनी अभिन्न रुचि प्रकट कर अपना अपूर्व साहित्य प्रेम प्रकट किया है। कोश कार्य के लिए राजकीय सहायता प्राप्त करने के लिए आपको अनेक बार बाहर भी जाना पड़ा, जिसमें आपने समय-असमय व सुविधा-असुविधा का कोई ध्यान न रखते हुए अपने महत्त्वपूर्ण कार्य को भी एक तरफ रखते हुए कोश के प्रति तत्परता बतलाई। कोश की भूमिका में ‘राजस्थानी भाषा का विवेचन’ एवं ‘साहित्य परिचय’ के प्रकरणों के लिखने में भी आपने पूर्ण सहयोग दिया है। आपके साहच्‌यर्य का मैंने पूर्ण लाभ उठाया है और इसीलिए आपको बार-बार कष्ट भी देता रहा। आपकी सहृदयता एवं सहयोग के लिए मैं आपको अन्तःकरण से धन्यवाद देता हूँ।

माननीय श्री मोहनलाल सुखाड़िया, मुख्य मंत्री, राजस्थान सरकार, की इस राजस्थानी कोश पर विशेष कृपा दृष्टि रही है। सर्वप्रथम दिनांक 11-11-59 को उच्चतर विद्यालय, चौपासनी, जोधपुर के प्रांगण में जब अखिल राजस्थान एन.सी.सी. शिविर (कन्या वर्ग) के विसर्जन समारोह की अध्यक्षता करने पधारे थे तब अत्यधिक व्यस्त कार्यक्रम होते हुए भी आपने कोश के लिए कुछ समय निकाल कर शोध-संस्थान के कार्यालय में पूर्ण रूप से कोश का अवलोकन किया. कोश निर्माण की प्रणाली एवं उस समय तक के प्रकाशित शब्दों के अर्थों से, जो उदाहरण, मुहावरों, कहावतों आदि से पुष्ट थे, अत्यन्त प्रभावित हुए। राजस्थानी भाषा में इस नवीन प्रयास की प्रशंसा करते हुए वे मुझे उसी दिन (11-11-59) को उदयपुर ले गए। वहाँ मेरी भेंट श्री हुमायूं कबीर, केन्द्रीय मन्त्री, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक मंत्रणालय, जो उस समय औषधालय के उद्‌घाटनार्थ पधारे हुए थे, से कराई। इन दोनों महानुभावों ने राज्य की ओर से आर्थिक सहायता की स्वीकृति प्रदान की जिसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। मुख्य मंत्री महोदय ने कोश के लिए अपना शुभ संदेश भेजा है, जिसके लिए भी मैं कृतज्ञ हूँ।

शिक्षा समिति के आधीन शोध-संस्थान के नियंत्रण में कोश प्रकाशन की उत्तम व्यवस्था करने एवं केन्द्रीय तथा राजकीय या राज्यीय आर्थिक सहायता प्राप्त कराने में जो सहयोग चौपासनी शिक्षा समिति के अध्यक्ष एवं राजस्थान विधानसभा के सदस्य ठाकुर श्री भैरूंसिंहजी खेजड़ला तथा शिक्षा समिति के मंत्री सिरियारी कुंवर श्री विजयसिंहजी, सदस्य राज्य सभा, का प्राप्त हुआ है वह किसी भी स्थिति में विस्मृत नहीं किया जा सकता। इन्हीं महानुभावों के सद्‌प्रयत्नों एवं कोश के प्रति पूर्ण सहानुभूति होने के कारण ही कोश इस स्वरूप में प्रकाशित होने में समर्थ हो सका है। मुख्य मंत्री श्री मोहनलालजी सुखाड़िया को कोश देखने के लिए शोध-संस्थान, चौपासनी के कार्यालय में लाना तथा कोश कार्य से परिचित कराना आदि सभी का श्रेय इन्हीं दोनों महानुभावों को है। आपके जिस सहयोग ने मुझे अपना कार्य सम्पन्न करने के लिए उत्साहित किया है उसके लिए मैं इन दोनों महानुभावों तथा प्रबंधकारिणी समिति के सदस्यों का हृदय से कृतज्ञ हूँ।

कोश निर्माण जैसे विशाल एवं दीर्घकालीन कार्य में अधिकाधिक सहृदय विद्वज्जनों का सहयोग अपेक्षित ही था। कोश के माध्यम से ही मुझे अनेक महानुभावों के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनमें पद्मश्री जिनविजयजी मुनि, पुरातत्त्वाचार्य, सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर; श्री विष्णुदत्तजी शर्मा, प्रधानाचार्य, प्रशासकीय प्रशिक्षण विद्यालय, जोधपुर; श्री विष्णुदत्तजी शर्मा, सचिव, शिक्षा सचिवालय, राजस्थान; श्री लक्ष्मीनारायणजी जोशी, सदस्य, राजस्थान लोक सेवा आयोग; श्री भगवतशरण उपाध्याय, सम्पादक, हिन्दी विश्वकोश; डॉ. मोतीलाल मेनारिया, संचालक, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर; डॉ. रोजेरियो, संयुक्त शिक्षा सलाहकार, केन्द्रीय सरकार दिल्ली; डॉ. कन्हैयालाल सहल, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, बिड़लार् आट्‌स कॉलेज, पिलानी; श्री विश्वेश्वरनाथ रेऊ, महामहोपाध्याय, जोधपुर; डॉ. रघुवीरसिंह, महाराज कुमार सीतामऊ; डॉ. बी.एल. रावत; श्री जगन्नाथसिंह मेहता, संचालक, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा, राजस्थान; श्री सुधीन्द्रकुमार, उपसंचालक, शिक्षा विभाग, जोधपुर; श्री जनार्दनराय नागर, अध्यक्ष, साहित्य अकादमी, उदयपुर; श्री शिवशंकरजी, जिलाधीश जोधपुर; श्री गोपालनारायणजी बोहरा, एम.ए., उपसंचालक, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर; श्री शाह गोवर्द्धनलालजी काबरा; श्री अगरचन्दजी नाहटा; श्री आर. पी. श्रीवास्तव, रेक्टर, चौपासनी इन्स्टीट्‌यूट, श्री गणपतिचन्द्रजी भण्डारी, प्राध्यापक, महाराज कुमार कॉलेज, जोधपुर; सत्ता ठाकुर तणुराव, जैसलमेर; कर्नल श्री धोंकलसिंह मांमड़ोली व महन्त श्री लादूरामजी विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सभी महानुभावों ने मेरे कोश को बहुत निकट से देखा है और समय-समय पर अपने अमूल्य सुझाव देते हुए मेरी कोश- प्रणाली की सराहना भी की है। इनके जिस सहयोग से मुझे बल प्राप्त हुआ है और जिसके फलस्वरूप मैं अपने इस कार्य को सुगमतापूर्वक सम्पन्न करने में कुछ भी समर्थ हुआ हूँ उसके लिए मैं इन सभी विज्ञ जनों के प्रति आभारी हूँ।

इसके अतिरिक्त अनेक सज्जनों से समय-समय पर आवश्यकतानुसार मेरा सम्पर्क रहा है जिनमें श्री शक्तिसिंहजी (मंडला) अधीक्षक, पुरातत्त्व अजायबघर एवं विभाग श्री दुर्गालाल माथुर, क्यूरेटर, अजायबघर, जोधपुर; श्री रावत सारस्वत, सम्पादक, मरुवाणी; रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत; श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया; श्री आनन्दीलालजी शास्त्री; श्री कोमल कोठारी, सचिव, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर; श्री विजयदान देथा, कवि श्री रेवतदानजी ‘कल्पित’; वकील श्री अचलसिंहजी भाटी; श्री धोंकलसिंहजी, वाइस प्रिन्सीपल, चौपासनी, विद्यालय; श्री सत्यप्रकाश जोशी, एम.ए., जोधपुर; श्री तेजसिंहजी, शोध सहायक, राजस्थानी शोध संस्थान; लेफ्टीनेंट श्री रेवतसिंहजी भाटी; श्री चन्द्रसिंहजी जोधा; जोधसिंहजी उज्ज्वल, बीकानेर; श्री चंद्रसिंहजी बीका; श्री अक्षयचन्द्र शर्मा, बीकानेर आदि ने भिन्न-भिन्न क्षेत्र में अपना सहयोग दिया है। इसके लिये ये सभी धन्यवाद के पात्र हैं।

यह तो पहिले ही कहा जा चुका है कि कोश प्रकाशन का कार्य राजस्थानी शोध-संस्थान, चौपासनी, जोधपुर के सुपुर्द कर दिया गया था। कोश प्रकाशन की समुचित व्यवस्था के लिये शिक्षा समिति, चौपासनी ने एक पृथक्‌ उपसमिति का निर्माण किया, जिसके अध्यक्ष पद का भार भाद्राजून राजा साहिब श्री देवीसिंहजी को सौंपा गया। यह मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्य की बात हुई। राजा साहिब ने जिस सच्ची लगन से कोश कार्य की सम्पन्नता में अपना सहयोग दिया है उसके लिए मैं उनका चिर कृतज्ञ हूँ।

जैसा कि पूर्व विवरण से स्पष्ट है कि कोश निर्माण का कार्य कोई अल्पावधि का कार्य नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति की शक्ति का ही है। कोश का कार्य पर्याप्त अवधि तक चलता रहा है जिसमें कई व्यक्तियों ने वेतन पर कार्य करते हुए कोश कार्य के प्रति तत्परता एवं सुरुचि का परिचय दिया। श्री सुकनमलजी माथुर, एम.ए., बी.एड. ने कोश का कार्य बहुत लम्बे समय तक किया। उनकी कर्मठता एवं लगन के कारण उन्हें इस कार्य का काफी अनुभव हो गया जिससे आगे चल कर कोश की विशेषताओं का बारीकी के साथ निर्वाह करने में भी उनका सहयोग मिला और कार्य शीघ्रता से आगे बढ़ गया। इस कार्यावधि में उनके द्वारा किए गए सुन्दर कार्य, उनकी समय की पाबन्दी एवं कार्य के प्रति जागरूकता निश्चय ही सराहनीय है।

श्री मोहनलालजी पुरोहित, बी.ए., बी.एड., साहित्य-रत्न ने भी काफी अर्से तक कोश कार्यालय में तथा अन्यत्र रहते हुए भी कोश सम्बन्धी कार्य किया। कोश सम्बन्धी बहुत से कृषि संबंधी शब्दों का संकलन भी उनके द्वारा किया गया तथा उन शब्दों की परिभाषा भी आप ही ने बनाई। इनकी लगन, गहरी सूझ एवं सार ग्रहण करने की शक्ति वस्तुतः प्रशंसनीय है। हिन्दी साहित्य में विशेष रुचि होने के कारण लेखन कार्य में इनकी ओर से विशेष सहयोग मिला है। ये परिश्रमी व्यक्ति हैं और बड़ी लगन के साथ कोश कार्य कर रहे हैं।

कोश कार्य करते हुए श्री भँवरलालजी कछवाहा ने भी थोड़े से समय में कोश की कार्य- प्रणाली को बड़ी खूबी के साथ समझा है और बड़े ही परिश्रम तथा रुचि के साथ कार्य कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त श्री शक्तिदानजी कविया, एम.ए. ने भी कुछ समय तक कोश सम्बन्धी कार्य किया, ये राजस्थानी के अच्छे कवि भी हैं। मेरे अनुज श्री जैतदान लाळस ने बाहर भ्रमण कर ग्रामीण शब्दों, राजस्थान के देहाती क्षेत्रों में प्रचलित मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि के संग्रह करने में मेरी पर्याप्त सहायता की। कोश का कार्य करने वाले अन्य कार्यकर्ताओं में श्री सुमेरमलजी लोढ़ा, श्री हेमसिंहजी चौहान, श्री भालचन्द्रजी बोहरा, श्री बख्तावरदानजी वणसूर, श्री सांवळदानजी रतनू तथा श्री दौलतसिंहजी भी धन्यवाद के पात्र हैं। इन सभी कार्यकर्ताओं के उज्ज्वल भविष्य एवं सफल जीवन की कामना करता हूँ।

यह मेरा सौभाग्य ही था कि कोश प्रकाशन का कार्य साधना प्रेस, जोधपुर जैसे योग्य एवं व्यवस्थित प्रेस द्वारा सम्पन्न हुआ। प्रेस के व्यवस्थापक श्री हरिप्रसादजी पारीक के ही प्रयत्नों का फल है कि यह राजस्थानी शब्द कोश इस रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा सका है। श्री पारीकजी ने सही एवं शुद्ध रूप देने, प्रूफ संशोधन करने एवं उत्तम प्रकाशन करने के लिए जो अथक परिश्रम किया है उसके लिए वे वस्तुतः धन्यवाद के पात्र हैं।

अन्त में मैं उन सभी सज्जनों एवं सहयोगी बन्धुओं का आभार स्मरण किये बिना नहीं रह सकता, जिनसे परोक्ष या अपरोक्ष रूप में मुझे कोश निर्माण एवं इसकी सम्पन्नता में यथाविधि सहयोग प्राप्त होता रहा है। कदाचन्‌ विस्मृति के प्रभाव से सहयोगी जन का नामोल्लेख नहीं हो पाया है तो उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

यथेष्ट सावधानी रखने पर भी जो कुछ मानव-स्वभाव-सुलभ त्रुटियां या भूलें हुई हों उनको सुधारने के लिए विद्वानों से सादर विनम्र प्रार्थना करता हुआ यह आशा करता हूँ कि वे ऐसी भूलों के विषय में मुझे सतर्क करेंगे ताकि भविष्य में तदनुसार संशोधन का कार्य सरल हो सके। जो विद्वान मेरे भ्रम प्रमादों की प्रामाणिक पद्धति से मुझे सूचित करेंगे उनका मैं चिर-कृतज्ञ रहूंगा।

यदि मेरी इस कृति से राजस्थानी साहित्य के उन्नयन में कुछ भी सहयोग पहुंचा तो मैं अपने इस दीर्घकालीन परिश्रम को सफल समझूंगा।

–सीताराम लाळस

बसन्त पंचमी
वि. सं. 2018

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