सबदकोस – राजस्थानी साहित्य का परिचय (भाग-२)

<<भाग-१<<

अठारहवीं शताब्दी

नरहरिदास– ये रोहड़िया शाखा के चारण लक्खाजी के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1600 के उत्तरार्द्ध में हुआ था। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल के भक्त कवियों में इनका नाम उल्लेखनीय है। इनका ब्रज भाषा का लिखा “अवतार चरित्र” प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त इनकी राजस्थानी की मुक्तक रचनायें भी उपलब्ध हैं। “अमरसिंहजी रा दूहा” और अनेक फुटकर गीत इनकी काव्य-प्रतिभा का प्रमाण देने में पूर्ण समर्थ हैं। इनकी भाषा माधुर्यगुणयुक्त सरस एवं सरल है। इनका एक गीत देखिये–

कुतब गोस अबदाळ सूफी अनै कळंदर, पीरजादा मिळै सांझ परभात।
कांन “अवरंग” रा भरै इक राह कज, वरै नह पड़ै जसवंत छतै बात।।1
मोलवी कराड़ै अरज काजी मुला, पाड़जै देव हर दलां कर पेळ।
मेछवांछै जिकौ हिंद इकलीम मझ, खड़ौ राजा जिसूं वणै नह खेल।।2
अरथ कर नवा फुरकांण री आयतां, लियां कर साह रै कांन लागै।
कहै मख दूम जग हेक मजहब करौ। ………………………….।।

गोविन्दजी– ये रोहड़िया शाखा के चारण और मेवाड़ राज्य के निवासी थे। महाराणा जगतसिंह के समकालीन होने के कारण इनका रचनाकाल संवत् 1700 के आसपास ठहरता है। इनका स्वतंत्र ग्रंथ तो नहीं मिलता परन्तु वीर-रस से परिपूर्ण अनेक फुटकर गीत उपलब्ध हैं। गीतों में प्रयुक्त वीररस की उक्तियां सीधी हृदय को स्पर्श करती हैं। वर्णन में सजीवता है। सुन्दर शब्द-चयन के कारण भाषा-सौष्ठव देखते ही बनता है। महाराणा जगतसिंह के पराक्रम की प्रशंसा में लिखा एक गीत देखिये–

अवर देस देसां तणां लार कर एकठा, रैसिया मूगळां दीध राये।
हेक सिर नावियौ नहीं “सांगाहरै”, “जगै” पतसाह रै द्वार जाये।।1
झाड़ पाहाड़ मेवाड़ रा झाटके, जूंझ रूपी हुवौ खाग झाले।
मुगळ्ळां न गो दिल्लीस थांणा मिळण, हिंदवांणां तणौ छात हाले।।2
रांण रजपूत बट तणौ छळ राखियौ, साह सूं नांखियौ तोड़ सांधौ।
कमरबंध छोड़ कर जोड डंडवत करण, “करण” रै नांमियौ नहीं कांधौ।।3
“जगतसी” “अमरसी” “उदैसी” जेहवौ, छातपत केम कुळ राह छाडै।
रांण सीसोदियौ टेक झालै रहै, एक पतसाह सूं कंध आडै।।4

जयसोम– कवि जयसोम के निश्चित जन्मकाल का पता नहीं लगता, फिर भी सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही इनका पैदा होना माना जाता है। ये तपागच्छीय जैन साधु विजयदेव के शिष्य जससोम के शिष्य थे। अपनी रचना के अन्त में उन्होंने गुरु-वन्दना करते हुए स्वयं लिखा है–

तप गछपति विजयदेव मुनीसर कवि जससोम गुणवरिआरे,
तास सीस जयसोम नमई…जे समरस गुण भरिआरे।

इन्होंने धर्म ग्रन्थ के 6 भागों की गद्य में टीकायें भी लिखी हैं जिनसे इनकी शास्त्रविज्ञता एवं विद्वत्ता का पता चलता है। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ “बारह भावना वेलि”, जिसकी रचना संवत् 1703 में हुई थी, राजस्थानी साहित्य में अधिक ख्याति प्राप्त कर चुका है। रचनाकाल के सम्बन्ध में स्वयं कवि ने दृष्टि-कूट शैली में लिखा है–

भोजन नभ गुण (1703) वरस सुचि, सित तेरसकुंजवार,
भगत हेतु भावन भणी, जेसलमेर मझार।

कवि की शान्त रस की यह रचना साधारण बोलचाल की भाषा में ही लिखी गई है। कवि इसी भाषा के आधार पर अपनी बात जन-मानस में उतारना चाहता है। जैसलमेर में कृति का निर्माण होने के कारण स्थल-स्थल पर स्थानीय झलक दृष्टिगोचर होती है, फिर भी सरल राजस्थानी का रूप सर्वत्र हो रहा है। कवि का अलंकारों की ओर ध्यान तो नहीं रहा तथापि कहीं-कहीं शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है, उनसे कवि की सुन्दर भावाभिव्यक्ति का पता चलता है। रचना का एक उदाहरण देखिये–

सुभ मांनस मांनस करी, ध्यांन अम्रत रस रोळ।
नवदळ स्री नवकार पद, करि कमळासन कोळ।।
पातक पंक परवाळि नइ, करि संवरनि पाळि।
परमहंस पदवी भजै, छोड़ी सकळ जंजाळि।।

जगा खिड़िया– राजस्थानी साहित्य के मध्यकाल में प्राचीन परंपरागत चारण शैली में रचे गये ग्रंथों में “वचनिका राठौड़ रतनसिंघजी री, जगा खिड़िया री कही” प्रमुख है। इसके रचयिता जगाजी खिड़िया गोत्र के चारण थे। इनके विषय में बहुत कम विदित है। इन्होंने अपनी वचनिका में अपने जीवन-चरित्र तथा वंश-परम्परा आदि के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं दिया। निम्न पंक्तियों से केवल उनके नाम का पता चलता है–

जोड़ि भणै खिड़ियौ “जगौ”, रासौ रतन रसाळ।
सूरा पूरा सांभळौ, भड़ मोटा भूपाळ।।265

राजस्थानी के विशिष्ट ज्ञाता एवं काव्य-जिज्ञासु डॉ. तैस्सितोरी ने कवि के जीवन वृत्त को पाने का विशेष प्रयत्न किया। जगा के वंशजों से तो कोई उपयुक्त सामग्री न मिल सकी, फिर भी उन्होंने अपने अथक प्रयत्नों से कवि के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की।

जगाजी रतलाम के वीरवर रतनसिंह के दरबारी कवि थे। उक्त ग्रंथ में इन्हीं रतनसिंह का वर्णन बड़ी ओजस्वी भाषा में किया गया है। राजा रतनसिंह जोधपुर के राठौड़ राजा जसवंतसिंह की ओर से शाहजादा औरंगजेब के विरुद्ध लड़ कर वीरगति को प्राप्त हुये। यह घटना वि.सं. 1715 में हुई थी। कवि ने इसी घटना का उल्लेख अपनी वचनिका में किया है। कुछ विद्वानों के मतानुसार ये स्वयं घटनास्थल पर उपस्थित थे और उन्होंने रतनसिंह की वीरता का आंखों देखा हाल अपनी वचनिका में लिखा है। इस प्रकार इस ग्रंथ का रचनाकाल भी संवत् 1715 के आसपास ही माना जा सकता है।

वचनिका वीररस-प्रधान ग्रंथ है जिसमें गद्य एवं पद्य दोनों का ही प्रयोग हुआ है। भाषा की ओजस्विता से स्पष्ट है कि कवि ने अपनी रचना के लिए सोलहवीं शताब्दी से चली आ रही वीररसात्मक काव्य भाषा का ही अनुकरण किया है। ग्रंथ की भाषा पूर्ण प्रौढ़ है। किस रस में, किस प्रसंग में और कैसी परिस्थिति में भाषा का प्रयोग एवं किस प्रकार की वाक्य-रचना का प्रयोग किया जाय, इस बात का कवि को पूरा ज्ञान था। विषयानुकूल शब्द- चयन एवं प्रसंगानुकूल भावाभिव्यक्ति के कारण कृति बड़ी उत्कृष्ट हो गई है। भाषा पर कवि का पूर्ण अधिकार प्रतीत होता है। युद्ध के विकट प्रसंग का एक शब्द-चित्र देखिये–

भड़ां धड़ भंजि हुवै बि बि भग्ग, खड़क्खड़ ढ़ल्ल झड़ज्झड़ खग्ग।।
कड़क्कड़ वाजि धड़ां किरमाळ। बड़ब्बड़ भाजि पड़ंत बंगाळ।।
दड़ब्बड़ मुण्ड रड़ब्बड़ दीस, अड़ब्बड़ लेत चड़च्चड़ ईस।।
अंत्रां खग झाट निराट अळग्ग। पड़ै बि बि जंघ पड़ै झड़ि पग्ग।।

वचनिका में अनेक छंदों तथा गद्य-बंधों का प्रयोग किया गया है। त्रोटक, भुजंगी, गाथा, मौक्तिक-दांम, दूहा, बड़ा दूहा, कवित्त, चंद्रायणौ, हणूफाळ गाहा, चौसर और दुमेल आदि के प्रयोग से उन्होंने अपने पाण्डित्य का अच्छा प्रदर्शन किया है। कवि की उच्च काव्य-प्रतिभा के फलस्वरूप यह ग्रंथ कथा-प्रवाह की दृष्टि से, शब्द-चयन की दृष्टि से और रस-वर्णन की दृष्टि से उच्च कोटि की रचना हो गया है।

यह तो सत्य ही है कि चारण काव्य-परम्परा में वीररस का प्राधान्य रहता आया है, किन्तु उत्तम कवि प्रसंगवश समस्त रसों का वर्णन किया करते थे। जगा खिड़िया ने भी अपनी वचनिका में वीररस के साथ-साथ अन्य रसों का भी प्रयोग किया है।

तिण वार त्रिया रतनेस तणी, विधि साहस सोळ सिंगार वणी।
पग हाथ मलूक ज पंकजयं, गुणि छत्तिय गत्ति विन्है गजयं।
कटि सिंध नितंब जंघा कदळी, चित नित्त वित्त मराळ चली।
तन रंभह खंभ कनंक तिसी, ओपै सिरि नागेंद्र वेणि इसी।
वनिता मुख पूनिम चंद वणी, भ्रिंग भ्रूह चखां म्रिग रूप भणी।

जगा खिड़िया जहाँ वीर और श्रृंगार रस के अच्छे कवि थे वहाँ ये ईश्वर के भी परम भक्त थे। वीर-रस की रचना के साथ-साथ ईश्वर-भक्ति सम्बन्धी हृदयस्पर्शी कविता का सृजन भी इन्होंने अपनी लेखनी से किया है। भक्ति सम्बन्धी शांत-रस से ओतप्रोत उनके सभी छप्पय केवल गंभीर, भावयुक्त एवं चमत्कारपूर्ण ही नहीं अपितु उनकी आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति करने में भी पूर्ण समर्थ हैं। भक्तिरस का एक छप्पय देखिये–

पत राखे द्रोपदी, प्रभू विरदां प्रतपाळै।
ब्रहम पत्त राहवी वेद च्यारे ही गावाळे।
पत राखे पंडवां, अंब कर मांझि उपाये।
गजपत पत राहवे, अनंत खगपत चढ़ आये।
करणां निधांन जगियौ कहै, बहनांमी वह बूझि इण।
कळजुग इसा मांहे किसन, राखे पत राधा रमण।।

धर्मवर्द्धन– कविवर धर्मवर्द्धन के जन्म-संवत् तथा माता-पिता के सम्बन्ध में कोई विवरण ज्ञात नहीं है परंतु इनकी लिखी “श्रेणिक चौपई” से इनका जन्म-संवत् 1700 निर्धारित होता है–

वयु लघु में उगणीस में वरसे, कीधी जोड कहावै।
आयौ सरस वचन को इण में, सो सद्गुरू सुपसाये री।।[1]

इस चौपई की रचना संवत् 1719 में चन्देरीपुर में हुई थी।[2] 19 वर्ष की अल्पायु में ही आपने काव्य की रचना कर कवित्व-शक्ति एवं कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया। अपने जीवन काल में आपने प्रचुर मात्रा में साहित्यिक रचनायें कीं जिनसे आपका राजस्थानी, हिन्दी-गुजराती मिश्रित लोकभाषा एवं संस्कृत भाषा पर पूर्णाधिकार स्पष्ट प्रकट होता है। आपकी लिखी हुई रचनाओं के आधार पर आपका रचनाकाल संवत् 1719 से संवत् 1773 ठहरता है। आपकी सभी रचनायें बड़ी उत्तम, प्रौढ़ एवं मनोहारिणी हैं। उनमें कई स्थलों पर आपके असाधारण पांडित्य, विलक्षण व्यक्तित्व एवं श्रेष्ठ प्रतिभा का परिचय मिलता है। इसी असाधारण व्यक्तित्व एवं काव्य- प्रतिभा के कारण अपने जीवनकाल में ही आपने बहुत अधिक ख्याति प्राप्त करली थी। बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह, सुजाणसिंह; जैसलमेर के रावल अमरसिंह, जोधपुर नरेश जसवंतसिंह, वीर शिवाजी और राठौड़ दुर्गादास आदि से आपका काफी अच्छा परिचय था। संवत् 1740 में जिनचन्द्र सूरि ने आपको उपाध्याय के पद से सुशोभित किया। 80 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त कर संवत् 1780-81 में आप परलोकगामी हुये। आपकी राजस्थानी रचना का उदाहरण देखिये–

शीत ऋतु वर्णन–
ठंड सबळी पड़े हाथ पग ठाठरे, बायरौ ऊपरां सबळ बाजै।
माल साहिब तिके मौज मांणे मही, भूखियइ लोक रा हाड भाजै।
किड़किड़ै दांतां री पांत सी सी करै, धूम मुख ऊखमा तणा धखिया।।
दरब सुं गरब सौ जांणि गुजें दरक, दरब हीण सबै लोक दुखिया।

सुस्त्री वर्णन–
सुकुळीणी सुंदरी मिठबोली मतिवंती।
चित चोखे अति चतुर जीह जीकार जयंती।
दातारणि दीपती पुण्य करती परकासू।
हस्तमुखी चित हरणि सेवि संतोखे सासू।
सुकुळीण सील राखे सुजस, गहै लाज निज गेह नी।
“धरमसी” जेण कीधौ धरम, तिण गुणवंत पांमी गेहिनी।।

[1] राजस्थान, भाद्रपद 1993, वर्ष 2, संख्या 2, राजस्थानी साहित्य और जैन कवि धर्मवर्द्धन : श्री अगरचन्द नाहटा, पृ. 3.
[2] "सतरसै उगणीसे वरखे चंदेरीपुर चावै।"

किसोरदास– ये मेवाड़ के महाराणा राजसिंहके आश्रित कवि थे। इनका रचनाकाल संवत् 1719 के लगभग माना जा सकता है। अपनी जाति के सम्बन्ध में इन्होंने स्व-रचित ग्रन्थ “राजप्रकास” में लिखते हुए अपने आपको राव बताया है–

रांणौ प्रतपै राजसी, धर गिर पाटउ धोर।
राज प्रकासित नाम गहि, कहि कहि राव किसोर।।

अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में लिखा इनका एक ग्रन्थ “राजप्रकास” प्राप्त है। इस ग्रंथ में प्रारम्भ के 56 छंदों में महाराणा राजसिंह के पूर्वजों का संक्षिप्त वर्णन है और उसके बाद महाराणा राजसिंह के वैभव, विलास एवं शौर्य्य तथा पराक्रम का वर्णन किया हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ में दोहा, कवित्त, मोतीदाम आदि विविध छंदों को मिला कर कुल 132 पद्य हैं। ग्रन्थ की भाषा शुद्ध साहित्यिक डिंगल भाषा है। विषयानुकूल उचित शब्दावली के प्रयोग से कृति सुन्दर बन पड़ी है। नीचे इसका एक उदाहरण देखिये–

कवि धनि कीय करतार बार राजसी बिराजै।
सर गिरवर संचरी छत्रधारी क्रीत छाजै।
चंद दुड़ींद नरींद तेज सीतळ अवतारी।
सतजुग त्रेता हूंत बार द्वापर हू भारी।
अंक गिरह तेणि आईस अणीं जांम न सातां जांणीयौ।
राजसी रांण अविचळ रहौ राव किसोर वखांणियौ।।

“राजप्रकास” तो कवि की उच्च कोटि की साहित्यिक कृति है ही परन्तु इसके अतिरिक्त इनके फुटकर गीत भी मिलते हैं। गीतों में चारण शैली का निर्वाह पूर्ण रूप से हुआ है।

लधराज[1] ये जोधपुर राज्यान्तर्गत सोजत नगर के निवासी थे। इनके पिता कोचर, मुहता मंत्रीश्वर महेश थे जो महाराजा जसवंतसिंहजी के अत्यन्त विश्वासपात्र मंत्री थे। कवि ने अपनी रचनाओं में कहीं लधिया, लधो, लधमल, लधराज आदि लिख कर अपना नाम प्रकट किया है। “देव विलास” में अपना परिचय देते हुए स्वयं कवि ने लिखा है–

महिप राव “चूँड” रै, तपे नागौर तखत्ते।
“कोचर” पुत्र सुपुत्र, हुवौ राव जोध वखत्ते।
“दूजण” “सांगौ” “नरौ” “अखौ” “तपमाल” मुरधर।
तिण घर “वैरीसाल”, वीरमे-हीमत सागर।

x x x

तिण वंस लधराज, तुछमती तुछ आदर।
तिण मोटो गुण एक, वसे सोझित निरंतर।।
करै सेव च बंड, हुई परत्तख सगत्ती।
तिण कारण तेण नूं, सिकौ मांनै छत्रपत्ती।।

अन्य रचनाओं में भी अपने पिता का नाम, जन्म-स्थान आदि के विषय में इन्होंने उल्लेख किया है। यथा “महादेव निसाणी” में–

कर भासा “लधराज“, पिता “माहेस” मंत्रीस्वर,
सोजत वाससुवास, सेव चामुंड निरंतर।

संवत् 1708 से सं. 1730 तक की लिखी आपकी रचनायें प्राप्त हुई हैं, जिनकी सूची निम्न है–

1. कालिकाजी रा दूहा, सं. 1708, 2. पाबूजी रा दूहा, सं. 1709, 3. प्रबोधमाला, 4. देव विलास, सं. 1713, 5. लधमलसतक दूहा, सं. 1723, 6. रुक्मांगद चरित, सं. 1723। इनके अतिरिक्त “सीख बत्तीसी” “भजन पच्चीसी” “महादेवजी री निसांणी” “गणेसजी री निसांणी” आदि के साथ-साथ कुछ गुटके भी उपलब्ध हैं। कवि ने साधारण बोलचाल की राजस्थानी भाषा में ही काव्य-रचना की है। इन्हें संस्कृत का ज्ञान नहीं था। संस्कृत के आधार पर बनाये गये ग्रंथ इन्होंने दूसरे विद्वानों से सुन कर ही बनाये हैं। कवि ने स्वयं अपनी रचना में सोजत के श्रीमाली पंडित रामेश्वर का नामोल्लेख किया है। यहाँ नीचे हम उनके “देवविलास” का एक उदाहरण दे रहे हैं–

जोधांणे “जसराज” न्रिप, तप दूजौ “जैचंद”।
उठी दिली लग आगरै, हद ईस दीसी समंद।
प्रभ दीधौ महाराज पद, रीझे साहजहांन।
पीछै “औरंग” मांन अत, महिपत न को समांन।
मिंत्री तिण “लधमालियौ”, साचौ सगत भगत्त।
रहे भजन भगवंत रत जे जांणंत जगत्त।

[1] मरु-भारती, जनवरी-फरवरी 54 में लिखित श्री अगरचन्द नाहटा के लेख, "महाराजा जसवन्तसिंह के मंत्री लधराज और उनके ग्रन्थ" से साभार।

गिरधर आसियौ– कवि गिरधर मेवाड़ निवासी आसिया शाखा के चारण थे। इनका लिखा हुआ ग्रंथ “सगतसिंघ रासौ” प्राप्त हुआ है, जिसमें वीर शिरोमणि महाराजा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह के जीवन-चरित्र का विवरण दिया गया है। यह लगभग 500 छंदों का ग्रंथ है जिसमें दोहा, भुजंगी, कवित्त आदि मुख्यतः प्रयुक्त हुए हैं। उक्त “रासौ” की भाषा साहित्यिक डिंगल होने के कारण रचना प्रौढ़ हो पाई है। “सगतसिंघ रासौ” की भाषा का उदाहरण देखिये–

“ऊदळ” रांणै एक दिन, सभ पूछियौ स कोइ,
अणी सिरै कर आहणै, हूंसारै हूं सोइ।।
मैंगळ मैंगळ सारिखौ, सीह सारिखौ सीह,
सगतौ “उदियासिंघ” तण, अंग पित जिसौ अबीह।
चख रत्तैं मुख रत्तड़ौ, वैस जिहिं कुळ वग्ग,
सगतै जमदड़ढ़ां सिरै, आफाळियौ करग्ग।।

उक्त ग्रंथ के अतिरिक्त कवि के फुटकर गीत भी उपलब्ध हैं जिनमें वीर व श्रृंगार रस की बहुलता स्पष्ट झलकती है।

जोगीदास– ये जाति के चारण थे और प्रतापगढ़ नरेश महारावत हरिसिंह के आश्रित कवि थे। इनका रचनाकाल संवत् 1721 के लगभग है। कवि का लिखा एक ग्रंथ “हरि पिंगल प्रबन्ध” उपलब्ध है जिसमें कवि ने स्वयं रचनाकाल संवत् 1721 दिया है–

संवत् सतर इकवीस में, कातिक सुभ पख चंद,
हरि पिंगळ हरिअंद जस, वणियौ खीर समंद।

हिन्दी एवं डिंगल के मुख्य-मुख्य छंदों के लक्षणों की उदाहरण सहित विवेचना की है। समस्त ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है जिसमें प्रत्येग भाग को एक परिच्छेद का रूप दिया गया है। अन्तिम परिच्छेद के अधिकांश भाग में कवि ने अपने आश्रयदाता महारावत हरिसिंह के वंश-गौरव का विस्तृत विवरण दिया है। भाषा, कविता, विषय आदि सभी दृष्टि से “हरि पिंगळ प्रबन्ध” एक सफल रचना है। इसका उदाहरण देखिये–

जां लग रवि ससि अचळ, अचळ जां सेस धरत्ती।
जां वेळावळ अचळ अचळ जां केल सकत्ती।
बंभ संभ जां अचळ अचळ जां मेर गिरव्वर।
इंद धूअ जां अचळ अचळ जां भरण विसंभर।
चहुं वेद धरम्म जां लग अचळ, जाय व्यास वांणी विमळ।
“जसराज” नंद जग मध्य लै, हरिअसिंघ तां लग अचळ।

उपाध्याय लाभवर्द्धन– ये खरतरगच्छ की क्षेम शाखा के मुनि शान्तिहर्ष के शिष्य थे। इनका जन्म-नाम लाला या लालचन्द था। संवत् 1713 में सिरोही के आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने इन्हें जैन मुनि की दीक्षा दी और इनका दीक्षा-नाम लाभवर्द्धन रखा। अपने समय के जैन कवियों में ये राजस्थानी के श्रेष्ठ कवि हो चुके हैं। इनकी सबसे पहली रचना “विक्रम 900 कन्या चौपाई” है जो संवत् 1723 में जोधपुर राज्यान्तर्गत जयतारण ग्राम में रची गई थी। ग्रंथ की समाप्ति के लिए स्वयं कवि ने लिखा है[1]

परसाद तिण सदगुरु तणौं, एकी चौपई सार
ढाळ सतावीसमी भली, सुणंतां हसै अपार
सतरै सै तेवीस में, नभ मास सुद्धि पख
तिहां ए संपूरण थइ, तिथे तेरस बुधवार
ग्रांम स्री जयतारण सरस लहीई, नगरी सुथिर सुखकार।

इसके बाद से लेकर संवत् 1770 तक की आपकी अनेक रचनायें उपलब्ध हैं जिनकी सूची नीचे दी जाती है।

लीलावती रास सं. 1728, विक्रम पंच दंड चौपाई सं. 1633, धर्मबुद्धि पापबुद्धि रास सं. 1642, निसांणी महाराजा अजीतसिंहजी री सं. 1763, पांडव चरित चौपाई सं. 1767, शकुन दीपिका चौपाई सं. 1770 आदि।

इनके अतिरिक्त इनकी फुटकर रचनायें भी अनेक हैं। आपने अपना सारा जीवनकाल राजस्थान में ही बिताया और वृद्धावस्था तक रचनाओं का निर्माण करते रहे। आपकी भाषा लोक-भाषा-मिश्रित साहित्यिक डिंगल है। लीलावती का एक उदाहरण देखिये–

मेरी देहु लाला चूनड़ी अे जात कही ईक ढाळ रे,
जे चतुर हुसी सो समझसी, लाभवरधन वचन रसाळ रे।

x x x

ढुळावे हौ गजसिंघ रौ छावौ महिल में, अेह देसी में अेह,
पूरीय बीजी हौ ढाळ कही, इसी लालचंद ससनेह।

[1] जैन गुर्जर कवियौ, भाग 2, पृ. 212.

कुंभकरण– रतनरासौकार कवि कुंभकरण का जन्म-नाम दलपत था। इनका जन्म नागौर के समीप भदोरा गांव में कवि माला सांदू के पुत्र ईसरदास के घर में हुआ था। इनके जन्मकाल के सम्बन्ध में कोई निश्चित संवत् ज्ञात नहीं है, फिर भी रतनरासौ के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि ये रतलाम नरेश रतनसिंह के पुत्र रामसिंह और उसके पुत्र शिवसिंह के समय विद्यमान थे। कवि के रचे हुए दो ग्रंथ 1. “रतन रासौ” और 2. “जयचन्द रासौ” उपलब्ध हैं। “रतन रासौ” तो महाराजकुमार रघुवीरसिंह और श्री काशीराम शर्मा के सद्प्रयत्नों से बहुत शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है। “जयचन्द रासौ” की हस्तलिखित प्रति पाली जिले के मिरगेसर ग्राम में भोमदानजी सांदू के पास निजी सम्पत्ति के रूप में सुरक्षित है। “रतन रासौ” के अनुसार कवि का रचनाकाल लगभग 1732 के लगभग ठहरता है।[1] शिवसिंह का शासनकाल सं. 1740 से सं. 1752 है। “रतन रासौ” की रचना इस समय से कुछ पूर्व रामसिंह के शासनकाल के अन्तिम समय में हुई थी। कवि के अनुसार इस रचना की समाप्ति में बारह वर्ष लगे, अतः इसका रचनाकाल संवत् 1732 ही समीचीन जान पड़ता है।

कवि की भाषा प्रौढ़ और संयत है। ग्रंथ में विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। “रतन रासौ” का एक उदाहरण यहां देखिये–

लाज खितेति कुंकुम चढांय
सिव भक्त रतन रासौ पढ़ाय
रासौ अगाध सिव कर रतन, कुंभकरन कवि-इंद्र
कित स्रंगार सम इच्छाक छत्र, द्रढ़ सिध आनंद
चित चमत्कार सस्फुट वचन, अस्त्र सस्त्र चतुर्थ ध्रति
“सिवरतनसिंघ” रासो सरस, अस विधांन सुन परि न्रपति।

वीर दुरगादास की प्रशंसा में कुंभकरण कृत दो गीत–

(1)
अबळधाट खट झाट दहवाट करत्तौ प्रसण
भिड़ंतां निसाट चर थाट भागौ

“दुरग” दिली जाय र दरकार जुध देखिया
लार संकर वहै प्यार लागौ।1

भीमड़ा तणै तट विकट घट भांजतौ
भोम भाराथ सिवनाथ भोळा

जोयवा खड़ा संकर सकत्त जेहड़ा
दोवड़ा तेवड़ा जूथ दोळा।2

पेखता फिरंता फिरे हूरां परी
खिले नारद सकत्त वीर खेळा

अवलियां लिए पैकंबरां अंबरां
महत है आसुरां सुरां मेळा।3

वींभरै तरैं केई मीर वजरै विकर,
तणछ खग फरहरै वीर ताळी

कहर धर रिणोही वीर हाका करै
अजेही भीमड़ा तीर वाळी।4

(2)
ईळा ऊकटै काट है थाट भळै अभग
अकळ दोय वात संसार आखै

राह हिंदू तणौ साह “औरंग” रुकै,
राह हिंदूआं तणौ “दुरग” राखै।1

खेध चढिया धरा वेध बिहूँ खड़खड़ै
सुध्रम राखण कुळां जुगां सारूं

म्रजादा वेद री खूंद मेटण मतै
म्रजादा वेद री गह्यां मारूं।2

पटक रहिया घँणू कटकता असपती
मुरधरा काज अर धरा मारी

पालटै तखत पण धरम नँह पालटै
धरम री सरम करणोत धारी।3

देवड़ां कूरमां अने हाडां दुगम
चमक चीतोड़पत दीघ चांटी

“नींब” हर कमधजां चाळ बांधत नहीं
मुखां कलमा पढत घणा मांटी।4

[1] "रतन रासौ" के रचयिता का वंश-परिचय--काशीराम शर्मा, राजस्थान भारती, भा. 3, अं. 3-4.

मान जती– कवि मान विजयगच्छीय जैन यति थे। इनके यति होने का उल्लेख कविराजा बांकीदास के “वात संग्रह” में आया हुआ है–“मांनजी जती राज विलास नांमरूपक रांणा राजसिंह रौ वणायौ”[1] इसके अनुसार कवि मान ने “राज विलास” ग्रंथ की रचना की। इनका रचनाकाल सं. 1730 से 1740 है। “राज विलास” उच्च साहित्यिक डिंगल की एक वीररस-प्रधान सुन्दर कृति है। कवि ने इस ग्रंथ में अपने समय के मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के जीवन-इतिहास का सुन्दर वर्णन किया है। महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब के बढ़तेुहए अत्याचारों का बड़ी बहादुरी के साथ विरोध किया और संकटापन्न अवस्था में हिन्दू धर्म की रक्षा की। राणा का यही जीवन-वृत्त उक्त ग्रंथ में 18 विलासों में विभक्त किया गया है। कवि का राणा के समसामयिक होने के कारण ग्रंथ में वास्तविक घटनाओं का उल्लेख हुआ है। सही घटनाओं के समावेश के कारण साहित्यिक महत्त्व के साथ इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी बहुत बढ़ गया है। औरंगजेब के विरुद्ध राणा की चढ़ाई का उदाहरण देखिये–

रांण चढ़े राजेस सहस पण बीस तुरग सचि
घुरत निसांननि घोख रवि सुढकिय हय खुर रजि
मयंगळ दळ मय मत्त घटा उट्ठी कि स्यांम घन
पयदळ सहस पचीस सज्ज सायुध सूरं तन
रथ जंत्रि सहस सस्त्रहि भरयि, कर हां गिनति परंत किहिं
जग मज्झ कवन जननी जन्यौ, जग आइ जितै सुजिहिं।

[1] बांकीदास की ख्यात : पं. नरोत्तमदास स्वामी, पृ. 97.

वृन्द– महाकवि वृन्द का पूरा नाम वृन्दावनदास था किन्तु “रचना कलापः” में कवि ने उसे वृन्द ही रखा। ये शाकद्वीपीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम रूपसी था जो बीकानेर राज्य के रहने वाले थे किन्तु सोलहवीं शताब्दी में वे जोधपुर राज्य के मेड़ता गांव में आकर बस गये। यहीं पर प्रौढ़ावस्था में इनके घर संवत् 1700 के आश्विन शुक्ला प्रतिपदा, गुरुवार को वृन्द का जन्म हुआ। इन्होंने अपने बाल्यकाल में काशी जाकर वहां के तारा नामक पंडित से साहित्य, वेदान्त आदि अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। काशी से लौटने पर मेड़ते में इनका बहुत सम्मान हुआ। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह ने भी इनको कुछ भूमि देकर इनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई। धीरे-धीरे ये बादशाह औरंगजेब के दरबार में भी पहुंच गये। वहां इनकी अधिक प्रशंसा हुई।

संवत् 1738 में किशनगढ़ के महाराजा मानसिंह ने इन्हें सम्मानित किया और संवत् 1764 में यहीं के महाराजा राजसिंह ने अपने यहां बसा लिया।[1] कवि ने अपना शेष जीवन यहीं बिताया और अन्त में संवत् 1780 में यहीं पर उनका स्वर्गवास हो गया।

कवि वृन्द डिंगल व हिन्दी दोनों में ही कविता करते थे। हिन्दी साहित्य में भी इनके अनेक काव्य-ग्रंथ उच्च स्थान प्राप्त कर चुके हैं। डिंगल में लिखा “वचनिका-स्थान” इनका बहुत ही ख्याति-प्राप्त ग्रंथ है। कवि ने संवत् 1764[2] में इस ग्रंथ की रचना की जिसमें संवत् 1715 में शाहजहाँ के पुत्रों–दारा, शुजा, मुराद और औरंगजेब के बीच दिल्ली की बादशाहत के लिए धौलपुर के पास सामूगढ़[3] में हुए युद्ध का वर्णन है। इस युद्ध में किशनगढ़ के महाराजा रूपसिंह ने दारा का पक्ष लेकर औरंगजेब के साथ बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया। इस युद्ध में उन्होंने अपना जो अपूर्व पराक्रम दिखाया उसी का कवि ने “वचनिका” में सजीव चित्रण किया है। जैसी अद्भुत वीरता राजा ने दिखाई वैसी ही वीरतापूर्ण भाषा में कवि ने उक्त रचना की है। वीर रस की मौलिक एवं ओजपूर्ण रचना वास्तव में पढ़ते ही बनती है।

वृन्द कवि के वंशज श्री जियालालजी ने “रघुनाथ रूपक” की टीका के अन्त में महाकवि वृन्द की डिंगल कविता के कुछ गीतों को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया है। उसी में से त्रिकुटबंध गीत हम यहां नीचे दे रहे हैं।[4] कवि की ओजपूर्ण भाषा देखिये–

दळ दिखण मिळ दिल्ली दळां,
वध बेध खेद दुहूं बळां
धर लियण धूपट दियण धस मस,
रूक रथ राजांन
“अवरंग” संगर आहुरे,
फव फौज गज धज फरहरे।
धर फसर हैवर धूज धर,
मद झरर कुंजर सिर चमर।
नर निजर नाहर डर निडर,
तन पहर बगतर छिलम छर।
हर समर हस वर कस कमर,
धर सरध सर धर कर सिफर।
बद कँवर बीरत बांन।।

एक अन्य गीत के दो दोहले और देखिये–

मच्चै दिली रा चकत दिली दिसां धमच्चकां मचै,
संभाळै कायरां धरां सूरां चढ़ै सोह।
धवै नाळां भड़ा भड़ी धड़ा धड़ी धूजे धरा,
छूटै बांणां गोळी रांमचंगिया छछोह।।1
तड़ा तड़ी तठै बगतरां तणी तूटै कड़ी,
धमां धमी ऊठै घणां सेलां रा घमोड़।
झड़ा झड़ी जठै तरवारियां थी पड़ै झींक,
रमैं खगां महाराजा “राजसिंह” राठौड़।।2

[1] "रघुनाथरूपक गीतां रौ" में पुरोहित हरिनारायणजी द्वारा लिखित भूमिका, पृष्ठ 4.
[2] डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने इसका रचनाकाल सं. 1762 माना है।
[3] औरंगजेब नामा : यदुनाथ सरकार, अनुवादक नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ 86.
[4] इस सम्बन्ध में श्री जियालालजी ने "रघुनाथरूपक" की टीका के अंत में एक नोट दिया है--"हमारे प्रपिता "वृन्द सतसई" के कर्ता कवि वृन्दजी भी डिंगल कविता करते थे, जिनका बनाया हुआ यह "त्रिकुटबंध" गीत कृष्णगढ़ महाराजा श्री राजसिंहजी का "सुलतांनी जंग" अर्थात् आजमशाह और मुअज्जम में युद्ध हुआ, इसका भाव है, और जैसा कि ऊपर दरसाया गया है-- इस युद्ध का वृन्दजी ने "सत्यरूपक" ग्रंथ बनाया। यह युद्ध धौलपुर के "जाजुवा" नामक मैदान में संवत् 1764 में हुआ।"

महाराजा अजीतसिंह– अजीतसिंहजी का जन्म संवत् 1735 चैत्र कृष्णा चतुर्थी को हुआ था। इनके पिता जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंहजी भी संस्कृत, ब्रजभाषा और डिंगल भाषा के बड़े अच्छे विद्वान थे। महाराजा का देहान्त अजीतसिंह के जन्म के कुछ दिनों पहले ही हो गया था। महाराजा के देहान्त होने पर वीर दुर्गादास, जो उनके विश्वस्त अनुचरों में थे, अजीतसिंह को काबुल से मारवाड़ ले आये और वयस्क होने तक इन्हें छिपा कर रखते हुए इनका पालन-पोषण किया। वयस्क होने पर ये मारवाड़ के अधिपति घोषित कर दिये गये। इसके पश्चात् इनका अधिकांश समय युद्धों में ही बीता। अन्त में संवत् 1781 में ये अपने जनानखाने में सोते हुए अपने पुत्र बख्तसिंह द्वारा मार डाले गये।[1]

महाराजा अजीतसिंह वीर, साहसी और स्वाभिमानी नरेश होने के साथ विद्वान और अच्छे कवि भी थे। उनके रचे निम्न ग्रंथ हैं जिनकी हस्तलिखित प्रतियां पुस्तक प्रकाश, जोधपुर में विद्यमान हैं।

(1) गुण सागर (2) गज उद्धार (3) दुर्गापाठ भासा (4) निर्वाण दूहा। इनके अतिरिक्त इन्होंने अनेक फुटकर दूहे तथा गीत भी लिखे हैं जो अपनी सरलता एवं सरसता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनकी कविता की भाषा प्रसाद-गुणमयी साधारण बोलचाल की भाषा है। प्रवाहमयी होने के कारण इसमें विशेष आकर्षण है। “गज उद्धार” में गज की करुण पुकार का एक उदाहरण देखिये–

उंडै जळ में ले चल्यौ, गज कुं विकटौ ग्राह।
तब ततकार संभारीयौ, राधा नागर नाह।।
जिण सांईं पैदा कियौ, सो मो पास सदाय।
अलख अपंपर ईसवर, सो क्यूं अळगौ थाय।
जळ आयौ गज पीठ पर, डर उपज्यौ मन मांहि।
ग्राह राह वैरी भयौ, जळ उंडे ले जांहि।

लोक-भाषा का प्रयोग इनकी द्वारिका यात्रा के सम्बन्ध में लिखे फुटकर दोहों में देखिये–

और सबै आंणंद हुऔ, एक बात नह चाह।
कील्यांणौ राजण तणौ, मुवौ द्वारिका मांह।।

सिरदारै साथे हुती, नारी परतग दोय।
ठाली भूली रह गई, साथ गई नह कोय।।

ईते मरगे राह में, मांणस तीन हजार।
ऊंट तुरंगम बैल री, कर कुण सकै सुमार।।

[1] जोधपुर राज्य का इतिहास : गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पृष्ठ 600.

कीर्तिसुन्दर– जैन विद्वानों ने स्व-रचनाओं के अतिरिक्त अनेक संग्रहों का भी निर्माण कर साहित्य की सतत् सेवा की है। इन संग्रहों में “कथा संग्रह” आदि ग्रंथ मिलते हैं। ऐसे ही एक कथा संग्रह “वाग्विलास” का निर्माण करने वाले जैन मुनि कीर्तिसुन्दर थे। कीर्तिसुन्दर राजस्थान के प्रसिद्ध कविवर महोपाध्याय के शिष्य थे। “वाग्विलास” में कथा सम्बन्धी कुछ संस्कृत श्लोकों के साथ राजस्थानी गद्य-पद्य में अनेक सुन्दर कथा प्रसंग दिये हुये हैं। इसके अतिरिक्त कवि के निम्न ग्रंथ भी प्राप्त हैं–

1. माकड़रास, 2. अभय कुमारादि, 3. ज्ञान छत्तीसी, 4. कौतुक पच्चीसी, 5. साधुरास, 6. चौबोली चौपाई, 7. अवंति सुकुमार चौढ़ाळिया आदि। “वाग्विलास” ग्रंथ के अन्त में उसका निर्माणकाल आदि नहीं दिया हुआ है। परन्तु अन्य ग्रंथों को देखने से उसका रचनाकाल संवत् 1750 से 1765 के मध्य ठहरता है। विनोदपूर्ण रचना “मांकड़रासौ” का उदाहरण देखिये–

बोलंता मांहौ मैं बजरैं,
निन्नांमौ हिव आयौ नजरै।

सौड़ मांहै आवैं सळवळतौ,
वळै पलक में पूठा वळतौ।।

नेठ पकड़तां हाथै नावै,
जोतां हीज कठै ही जावै।

फेरंता कर केइक फिसिया,
घर में केइक कुसळे घुसिया।।

बाहर घालि वळै केइ वळिया,
“मांकण” हिवै घण हिज मिळिया।

पीवैं लोही केइक पूठै,
ऊंघांणौ सो भड़की ऊठैं।।

द्वारकादास– ये दधवाड़िया गोत्र के चारण और भक्ति रस के प्रसिद्ध ग्रंथ “रांमरासौ” के रचयिता प्रसिद्ध कवि माधौदास दधवाड़िया के पुत्र थे। ये अपने समय के जोधपुर नरेश अजीतसिंहजी के कृपापात्र थे और उनकी फौज में मुसाहिब के पद पर आसीन थे। इस समय उनकी प्रतिष्ठा बहुत थी। पिता की भांति इनमें भी काव्य-शक्ति प्रस्फुटित हुई और आगे चल कर डिंगल में सुन्दर रचनायें कर राजस्थानी के श्रेष्ठ कवियों में स्थान प्राप्त किया। इन्होंने महाराजा अजीतसिंहजी के जीवनकाल में ही संवत् 1772 में “महाराजा अजीतसिंह री दवावैत” नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें महाराजा के शौर्य, पराक्रम और वैभव का विशिष्ट वर्णन है। इसकी समाप्ति पर रचनाकाल के सम्बन्ध में स्वयं कवि ने लिखा है–

दवावैत द्वादस हुआ, तीन कवित दोय गाह।
सतरे संवत् बहोतरे, कवि द्वारे कहियाह।।

इसी ग्रंथ पर प्रसन्न होकर अजीतसिंहजी ने इन्हें जयतारण परगने का बासनी गांव प्रदान किया। इनकी भाषा सरल एवं आकर्षक है। सर्वत्र प्रसाद गुण ही छाया हुआ है। भाषा का उदाहरण यहाँ देखिये–

इनके खेहां के डंबर, उनके बद्दल के आडंबर।
इनके नोबत के टंकारे, उनके गाज घनघोरे।
इनके भालों का भाव, उनके बीज के सळाव।
इनके पंचरंगे वांने, उनके इंद्रधनक तांने।
इनके हस्तियां के हलके, उनके एरावत तुलके।
इनके खेत स्वेत दंत, उनके जेही बुक पंत।

उपरोक्त ग्रन्थ के अतिरिक्त कवि के अनेक फुटकर गीत भी पाये जाते हैं। गीतों की रचना साधारण है। भाषा बोलचाल की सरल भाषा है। महाराजा अभयसिंह के सम्बन्ध में कहा हुआ एक गीत देखिये–

सोहे सांमळी घड़ सुघड़ सहेली,
वांछंती वर समर वहेली।

चौरंग सील्है फाड़ कुच चौळी,
वाजंद्रे “अभमाल” विरोळी।।1

सार सिंगार छतीसूं सज्जै,
औप टौप पगूं घट आंब्रजै।

विचित्र घड़ा इण वैर विलूंधै,
रिण कण-कण कीधी रस रूळूधै।।2

नेवर पाखर रोळ नचंती,
संग “सिर विलंद” तणै सोभंती।

रोळी “अजण” तणै रंग रमणी,
गहु खोसाड़ गई गय गमणी।।3

ओप टोप गूंघट तोड़ावै,
माड हाड भागा मचकावै।
“गजन” हरा आगै रण गहली,
चतुरंगण हा हा कर चल्ली।।4

लड़खड़ती पड़ती लालरती,
मेल मांण सिर “संबर” मरती।

गी “अभमल” अगै पड़ गळियां,
मरमट मूंक मरद्दां मिळियां।।5

जैत जुअर बडौ जुध जीपै,
दळ गुजरात अमल धर दीपै।

गूड मलार राग सुर गवणी,
पेस करी “द्वारै” पालवणी।।6

हमीरदान रतनू– मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य में अपनी विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण रचनाओं के कारण हमीरदान रतनू का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये रतनू शाखा के चारण थे और जोधपुर राज्यान्तर्गत घड़ोई ग्राम के निवासी थे। बचपन से ही ये कच्छभुज में रहते थे। ये कच्छभुज के महाराव श्री देशलजी प्रथम (सं. 1774 से सं. 1808) के महाराज कुमार लखपतजी के कृपापात्र थे। अपनी रचना में कवि ने अपना स्वयं का परिचय देते हुए अपने आश्रयदाता के सम्बन्ध में भी लिखा है–

मुरधर देस सिवाना नगर मध्य
उतन घड़ोई प्रसिद्ध अमीर।

चारण “रतनू” कवियण चावौ,
हरि रौ चाकर नांम “हमीर”।।

जाड़ेचा सूरज राव जळवट,
भुज भूपत लखपत कुळ भांण।

त्रिय ग्रंथ कीध अजाची तिण रै,
जोतिखि पिंगळ नांम स्रब जांण।।

इनके प्रसिद्ध डिंगल कोश “हमीर नांममाळा” की रचना संवत् 1774 में हुई थी अतः इनके काव्य-सृजन का काल भी इसी के आसपास माना जाना चाहिए। इनके रचे लगभग 175 ग्रंथ बताये जाते हैं जिनमें निम्नलिखित ग्रन्थ मुख्य हैं–

1. लखपत पिंगळ, 2. पिंगळ प्रकास, 3. हमीर नांममाळा, 4. जदवंस वंसावळि, 5. देसळजी री वचनिका, 6. जोतिस जड़ाव, 7. ब्रह्माण्ड पुरांण, 8. भागवत दर्पण, 9. चाणक्य नीति, 10. भरतरी सतक, 11. महाभारत रौ अनुवाद छोटौ व बड़ौ।

ये राजस्थानी के उच्च कोटि के विद्वान और श्रेष्ठ कवि थे। खेद है कि राजस्थानी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी अब तक के प्रकाशित ग्रन्थों में इनको समुचित स्थान प्रदान नहीं किया गया। इनके ग्रंथों में “लखपत पिंगळ” तथा “पिंगळ प्रकास” दोनों ही छंद-शास्त्र के सुन्दर ग्रंथ हैं। “लखपत पिंगळ” कवि का सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसका निर्माण संवत् 1796 में हुआ था।-

संवत सत्तर छिनुऔ, पणा तस वरस पटंतर।
तिथि उतम सातिम्म, वार उतिम गुरू वासर।
माह मास व्रतमांन, अरक बैठौ उत्तराइणि।
सुकळ पख्य रिति सिसिर महा सुभ जोग सिरोमणि।
विसतार गाह मात्रा वरण सुजि पसाउ सर सतिरौ।
कहियौ “हमीर” चित चोज करि पिंगळ गुण लखपति रौ।।

ग्रन्थ की भाषा सरल और प्रवाहयुक्त है। कवि ने इसमें छंदों एवं गाहों के लक्षण देकर सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। वस्तुतः यह छंदों का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। छंद शास्त्र का ही इनका दूसरा ग्रंथ “पिंगळ प्रकास” है जो “लखपत पिंगळ” से पहिले समाप्त कर लिया गया था। ग्रंथ के अन्त में कवि ने इसका रचनाकाल दिया है–

संवत सतरह अड़सठै, माह सीत रित मास।
जिहड़ौ जोड़ै जांणीयौ, एहड़ौ कीऔ अभ्यास।
सुणतां पुणतां सीखतां, अधक होइ आणंद।
कहीयौ ग्रंथ हमीर कवि, गुण ग्राहग गोविंद।

“अचळदास खीची री वचनिका” व “रतनसिंघ री वचनिका” की भांति हमीरजी ने भी अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में “देसलजी री वचनिका” की रचना की। यह पूर्ववर्ती वचनिकाओं की भांति गद्यबद्ध रचना न होकर डिंगल पद्य में ही है। ऐतिहासिक काव्य होने के कारण इसका भी अधिक महत्त्व है। इसमें संवत् 1785 की होलिका के समय सरबुलन्द व कच्छ के महाराव देशल के बीच घोर युद्ध हुआ जिसमें देशल ने विजय प्राप्त की, इसी का ओजस्वी भाषा में सुन्दर वर्णन है। भाषा का प्रवाह देखते ही बनता है। निम्न उदाहरण में शब्द-चयन का चमत्कार देखिये–

भळाभळ कूंत खिंवे अदभूत,
धौळै दिन वेढ़ करै अविधूत।

हुए असुरांण घणां खळ हांण,
सांमी दस नांम रचै घमसांण।।

लथोबथ लोह झपेट लपेट,
खसै दळ मूंगळ आखळ खेट।

नागा करिवा वर खाग निनाग,
कटै धड़बेहड़ पग्ग करग्ग।।

कड़ाकड़ जूट विछूट कटक्क,
तड़ातड़ि त्रूट मिआं मसतक्क।

धमंचक चोट अणीं पड़ि धार,
तड़फ्फड़ मीर फड़फ्फड़ तार।।

ग्रंथों के अतिरिक्त कवि के अनेक फुटकर गीत भी उपलब्ध हैं जिनकी भाषा बड़ी सरस एवं चलती हुई है।

वीरभांण– अठारहवीं शताब्दी में राजस्थानी की श्रेष्ठ रचनाएँ प्रदान करने वालों में कवि वीरभांण का नाम भी अग्रगण्य है। ये भी जोधपुर राज्य के घड़ोई ग्राम के रहने वाले रतनू शाखा के चारण थे और हमीर रतनू के ही समसामयिक थे।[1] इन्होंने डिंगल के ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध ग्रंथ “राजरूपक” की रचना कर साहित्य की ही अमूल्य सेवा नहीं की अपितु इतिहास को भी एक अमूल्य देन दी है। ग्रन्थ में तिथि अनुसार अनेक ऐतिहासिक घटनाओं पर विशद वर्णन होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी बहुत अधिक है। इस ग्रंथ में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह और गुजरात के सूबेदार सर बुलन्दखां के बीच अहमदाबाद पर हुए युद्ध (सं. 1787) का वर्णन है। इस युद्ध में कवि वीरभांण स्वयं महाराजा अभयसिंह के साथ थे अतः उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में अहमदाबाद के युद्ध का अपनी आंखों देखा वर्णन किया है। इस ग्रंथ से उस समय की राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। अहमदाबाद के युद्ध के अतिरिक्त कवि ने उक्त ग्रन्थ में महाराजा जसवंतसिंह और महाराजा अजीतसिंह की जीवन घटनाओं के ठीक-ठीक संवत् और स्थान-स्थान पर काम आने वाले वीरों व सामंतों के नाम भी दिए हैं। इसके अनुसार यह स्पष्ट है कि कवि घटनाओं के समय उनके साथ उपस्थित अवश्य ही रहा होगा। डॉ. मोतीलाल ने इनका जन्म संवत् 1745 बताया है[2] जो इस तथ्य से उचित प्रतीत नहीं होता। इनका जन्म अवश्य ही महाराजा जसवंतसिंह के अन्तिम काल के निकट ही हुआ समीचीन जान पड़ता है।

ग्रंथ की भाषा सरल होते हुए भी पूर्ण साहित्यिक डिंगल है। पूरा ग्रंथ 46 प्रकाशों में विभक्त है। निम्न पंक्तियों में कवि की भाषा देखिये–

परम अंस रवि वंस, अवर दुरवंस अभायौ।
हंस वंस अवतंस, पुंस परताप सवायौ।
तेज पुंज आजांनबाहु, मुख कंज सकोमळ।
मंजु कांम समरूप अंज गज बंध महाबळ।
अणकोट कोट ऊथापणौ, आयां थापण ओटरां।
पेखियौ सांम चढ़ती प्रभा, सांमंतां नवकोटरां।।

[1] राजस्थानी भाषा और साहित्य, डॉ. मोतीलाल मेनारिया, पृष्ठ 178.
[2] राजस्थानी भाषा और साहित्य, डॉ. मोतीलाल मेनारिया, पृष्ठ 178.

करणीदान– जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के अहमदाबाद के युद्ध का वर्णन करने वालों में कवि वीरभांण के साथ ही महाकवि करणीदान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये कविया शाखा के चारण मेवाड़ राज्य के शूलवाड़ा ग्राम के निवासी थे। ये जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के आश्रित कवि थे। “सूरज प्रकास” जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना संवत् 1787 में समाप्त करने के कारण इनका रचनाकाल संवत् 1787 के आसपास ही ठहरता है। ऐसा कहा जाता है कि महाराजा अभयसिंह ने अहमदाबाद के युद्ध में जाने से पूर्व अपने तीन मुख्य कवियों को युद्ध का वर्णन करने की आज्ञा दी थी, जिनमें कविराजा करणीदान, वीरभांण रतनू तथा बखता खिड़िया थे। वीरभांण ने पूर्वोक्त “राजरूपक” ग्रन्थ की रचना की। बखता खिड़िया ने 165 छप्पय कवित्तों में युद्ध का वर्णन किया, परंतु कविराजा करणीदान ने अपने ग्रन्थ “सूरज प्रकास” में महाराजा के सर बुलन्दखां के साथ हुए युद्ध के वर्णन का उद्देश्य लेकर इनके पूर्वजों का भी इतिहास दिया है। इस ग्रंथ में अहमदाबाद के युद्ध का वर्णन अधिक विस्तार के साथ किया गया है।

“सूरज प्रकास” “राजरूपक” की भांति महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ तो है ही परन्तु वह साहित्य की दृष्टि से भी अधिक महत्त्वशाली है। करणीदानजी भी वीरभांण की तरह युद्ध में महाराजा के साथ उपस्थित थे, इसीलिए युद्ध का आंखों देखा वर्णन बड़ा सजीव बन पड़ा है। ग्रंथ के प्रारम्भ में महाराजा अभयसिंहजी के पूर्वजों का संक्षिप्त वर्णन है जिसमें सर्व प्रथम सूर्य वंश की वंशावली और उसके साथ रामायण की कथा लिखी है। रामायण की कथा के पश्चात् राम के पुत्र कुश से लेकर राजा पुंज तक की वंशावली देकर राजा जयचंद से अजीतसिंहजी तक के राजाओं का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है।

ग्रन्थ की रचना में कवि को एक वर्ष की अवधि लगी जिसका उल्लेख कवि ने स्वयं ग्रन्थ के अन्त में किया है–

सत्रैसे समत सत्यासियै,
विजयदसमी सनि जीत।

वदि कातिग गुण वरणियौ,
दसमी वार अदीत।

वणियौ गुण इक वरस विचि,
उकति अरथ अणपार।

छंद अनुस्टप करिउ जन,
सत पंच सात हजार।

“अभा” तणी सुभ नजर अति,
वधि छक सुकवि विधांन।

कुरबदांन लहियौ अधिक,
कहियौ करणीदांन।।

“सूरज प्रकास” वस्तुतः डिंगल भाषा का एक उच्च कोटि का ग्रंथ है। ग्रंथ के अध्ययन से पता चलता है कि कविराजा का राजस्थानी भाषा पर तो पूर्ण अधिकार था ही परन्तु इसके साथ-साथ उन्हें अरबी, फारसी व संस्कृत का भी उत्तम ज्ञान था। उक्त ग्रन्थ में कवि ने पात्रों के चरित्र-चित्रण और वस्तुवर्णन में अपनी अद्भुत काव्य शक्ति का परिचय दिया है। अलंकार एवं रस-विधान भी यथोचित है। इस ग्रंथ में सभी रसों का समावेश है पर करुण रस किसी स्थान पर नहीं मिलता। सम्भवतः वीर रस की इस श्रेष्ठ रचना में करुण रस को सम्मिलित करना कवि को अभीष्ट न था। भाषा का प्रवाह एवं चमत्कार निम्न उदाहरण में देखिये–

सुणि “रांमौ” सबळ रौ,
एम बोलियौ अड़ी खंभ।

विड़ंग ओरि दळ “विलंद”
जवन खग हणू रूप जम।

घण झेलूं खग घाव,
सांम निज कांम सुधारूं।

सिर समपूं संकर नूं,
रंभ चौसरि गळ धारूं।

जग तणी मोह माया तजूं,
जिम गोपीचंद भरथरी।

चढ़ि रथां अमरपुर मझि चढूं,
अमर क्रीत आपरी।।

कवि ने इसी विस्तृत ग्रन्थ का सारांश लेकर “विरदसंणगार” नामक छोटा ग्रंथ तैयार किया और महाराजा को दरबार में सुनाया। महाराजा इसे सुन कर बहुत अधिक प्रभावित हुए और कवि को अधिकाधिक सम्मान प्रदान किया। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त “जतीरासा” तथा “अभय भूषण” इनके दो उत्तम ग्रंथ और मिलते हैं। “अभय भूषण” का एक सवैया देखिये–

ऐ न घटा तन त्रांन सजे भट,
ऐ न छटा चमके छहरारी।

गाज न बाजत दुंदुभि ऐ,
बक पंत नहीं गज दंत निहारी।।

ऐ न मयूर जु बोलत है,
बिरदावत मंगन के गन भारी।

ऐ नहिं पावस काळ अली,
“अभमाल” “अजावत” की असवारी।।

ग्रंथों के अतिरिक्त विभिन्न विषयों पर करणीदानजी के लिखे अनेक गीत भी मिलते हैं जिनमें इनका कवित्व स्पष्ट रूप से झलकता है।

खेतसी सांदू– ये जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के आश्रित थे और कविराजा करणीदान और वीरभांण की भांति ये भी अहमदाबाद के युद्ध में महाराजा के साथ थे। ये सांदू शाखा के चारण और नाथूसिंह सांदू के पुत्र थे। डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने भी इन्हें सांदू बतलाया है। परंतु श्री अगरचंद नाहटा ने अपने लेख “भाषा भारत की ऐतिहासिक प्रशस्ति”[1] में एक प्रति का उल्लेख कर “खेतसी” का “गढ़वी खिड़िया” होना लिखा है। खेतसी के रचित प्रसिद्ध ग्रंथ “भाषा भारत” की उदयपुर वाली प्रति में इनका सांदू होना ही लिखा है और कविराजा करणीदान के “सूरज प्रकास” से भी यही बात पुष्ट होती है–

सुतण “नाथ” “खेतसी”, वदै सांदू खग वाहण।
“वखतौ” खिड़ियौ वदै, रचूं “अमरा” जैही रण।।

कवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “भाषा भारत” में महाभारत का राजस्थानी में सुन्दर पद्यानुवाद किया है। इसका रचनाकाल संवत् 1790 के आसपास माना जाता है। ग्रन्थ की समाप्ति सं. 1790 में हुई। इसका उल्लेख कवि ने स्वयं अपने ग्रंथ में किया है–

सतरमै सांमंत वरस नेउवै वसेखण।
कवि मुर वरखे करी कथ भारथ संपूरण।
वेसाखह वदि विवध तिथ एकम आलोकत।
भोमवार निरधार निरत रित राव स चाहत।
उतरांण भांण वरनन अगम दिस दिखण्ण विचारि उर।
कवि “सीह” परम महिम कही कुर पंडव क्रम जुत दुकर।

कवि का पूरा नाम खेतसिंह था परंतु कविता में इन्होंने अपने नाम के अन्तिम दो अक्षरों का ही प्रयोग किया है। “भाषा भारत” डिंगल की श्रेष्ठ रचनाओं में से है। इसकी भाषा पूर्ण साहित्यिक डिंगल एवं प्रौढ़ है। इसमें मोतीदांम, हनूफाळ, दूहा, कवित्त, चौपाई आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है। इसकी भाषा के उदाहरण के लिए निम्न कवित्त देखिये–

तर भेळप सुख मिळत, निसा भेळप तप नाहिन।
जळ भेळप मळ घटत, सतह पुरखां चित चाहिन।
पंडित भेळप प्रगट, मनह हरिनांम पियासै।
गुणीयां भेळप गुणी, बिमळ बुद्धि बधण बिकासै।
महिमा समंद जादव न्रिमळ, देखत व्रन आणंदीयौ।
कवी सीह हठी भेळप करे, भाखा दध पारह भयौ।।

[1] राजस्थान भारती : सार्दूल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर, अंक 1-2, वर्ष 6.

पीरदांन लाळस– ये लाळस गोत्र के चारण जोधपुर राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने में जुड़िया गांव के रहने वाले थे। इनके जन्मकाल एवं माता-पिता के सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण ज्ञात नहीं है। ये एक भक्त थे। इनके भक्ति सम्बन्धी ग्रंथों की प्रति हमारे संग्रह में है जिसके अन्त में स्वयं पीरदांन लाळस के हाथ का सांइया झूला रचित एक गीत लिखा हुआ है जिसमें उसका लेखनकाल संवत् 1792 लिखा है। इससे संवत् 1792 में उनका जीवित होना प्रकट होता है। इनका रचनाकाल भी इसी संवत् के आसपास माना जा सकता है। इनके ग्रन्थों का एक संग्रह “पीरदांन लाळस ग्रन्थावली” के नाम से बहुत शीघ्र ही सार्दूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर, प्रकाशित कर रहा है। कवि ने साधारण बोलचाल में ही शान्त रस की सुन्दर रचना की है। निम्न उदाहरण में इनकी भक्ति- भावना के साथ कविता-शैली देखिए–

अला तूझ उवारण जयौ जगदीस जुरारी
नरहर गुरु हरनाथ निमौ निकळंक विजारी।
कन्हैया कांन्हुआ निमौ निकळंक नरसेर
ग्वाळ निमौ ग्वाळिया, साच साथै सारंगधर।
राजि नां किसी परि रीझवां, राज वडा राधारमण
“पीरियौ” तूझ दाखै प्रभु, मूझ निवाजै महमहंण।।
(अलख आराध)

अठारहवीं शताब्दी में भी इतने अधिक कवि हुए हैं कि सब का क्रम से परिचय देना सम्भव नहीं होता अतः अब हम इस शताब्दी के शेष कवियों का उनके रचनाकाल के साथ नामोल्लेख मात्र कर रहे हैं। इस शताब्दी के अन्य कविगण–खेतसी लाळस (सं. 1700), किसनो आढ़ौ दुरसावत (सं. 1702), खीमराज दधवाड़िया (सं. 1705), हरिदास सिंढ़ायच (सं. 1705), बल्लू महडू (सं. 1705), महेसदास आढ़ौ (सं. 1710), डूंगरसी (सं. 1710), महाराजा करणसिंह (सं. 1715-26), आसकरण (सं. 1715), पीरदांन आसिया (सं. 1715), जिनसमुद्र सूरि (सं. 1720), मतिसुंदर (सं. 1724), हेमराज (सं. 1726), मोहनलाल (सं. 1726), कुसळधीर (सं. 1727), मथेरन उदयचंद (सं. 1731-65), मथेरन जोगीदास (सं. 1731-62), रुगौ मूथौ (सं. 1740-50), वीर दुर्गादास (सं. 1740-60), नाथौ सांदू (1745-60), ईस्वरदास (सं. 1764), कम्मा नाई (सं. 1770), वख्ताजी खिड़िया (सं. 1780-85), कुसाळचंद्र काळा (सं. 1781), नैणसी (सं. 1786), वरजूबाई (सं. 1787-90), भाखसी लाळस (सं. 1788), जोधराज (सं. 1785), टोडरमल (सं. 1797)।

काल-निर्धारण के समय हम यह निश्चयपूर्वक कह आये हैं कि राजस्थानी साहित्य की मध्यकालीन परम्परा लगभग 19 वीं शताब्दी की समाप्ति तक निरन्तर रूप से पाई जाती है। यद्यपि इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में साहित्य के वर्ण्य विषय एवं शैली में कुछ नवीनता के दर्शन हो जाते हैं, फिर भी मध्यकालीन विशेषतायें तो इस शताब्दी की समाप्ति के बाद तक भी पूर्ण रूप से मिलती हैं। अब हम यहाँ मध्यकाल की इस अन्तिम (उन्नीसवीं) शताब्दी के कवियों व उनके द्वारा रचित रचनाओं का परिचय देंगे।

पहाड़खाँ आढ़ा– ये आढ़ा शाखा के चारण, जोधपुर राज्य के पांचेटिया ग्राम के निवासी थे और जोधपुर के महाराजा विजयसिंह और बखतसिंह के समकालीन थे। इन्होंने अपना अधिकांश समय रियां ठाकुर शेरसिंहजी के पास रह कर ही बिताया। इन्होंने बादर ढाढ़ी के प्रसिद्ध ग्रंथ “वीरमायण” की घटना के आधार पर “गोगादे रूपक”[1] काव्य ग्रन्थ की रचना की। ग्रन्थ में कवि द्वारा रचनाकाल आदि कहीं भी दर्शाया नहीं गया है फिर भी अन्य तथ्यों के आधार पर कवि का रचनाकाल संवत् 1805 से 1810 तक माना जा सकता है। उक्त ग्रन्थ में राव वीरमदे के पुत्र गोगादे और जोहियो के नेता दला के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। गोगादे ने अपने पिता वीरमदे की मृत्यु का बदला लेने के अभिप्राय से ही दला से युद्ध किया था। इस ग्रन्थ में मोतीदाम और त्रोटक छंदों का ही प्रयोग हुआ है। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक है, शब्द-सौष्ठव देखते ही बनता है। निम्न उदाहरण देखिये–

उडै रज डंभर व्योम अथाह,
मिळै निस जांणक भाद्रव माह।

दलै कद वीरम हूंतायदाय,
उगंतां सूर वित लियौय आय।

धुबै पड़ रोस अरारक धाक,
हुबो-हुब होय चहुंबळ हाक।

ढंमंकय वाहर बाहर ढोल,
खेगां जड जीण दुबागाय खोल।

उक्त ग्रंथ के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न अवसर पर पहाड़खाँ के अनेक फुटकर गीत लिखे हुए प्राप्त हैं। गीतों की भाषा में ओज एवं लावण्य है। आउवे के ठाकुर कुशलसिंह और कवि के आश्रयदाता शेरसिंह के मध्य जोधपुर राज्य के विषय को लेकर परस्पर द्वन्द्व युद्ध हुआ। इस युद्ध में दोनों ही वीर वीरगति को प्राप्त हुए। इस सम्बन्ध में कवि ने एक सुन्दर गीत लिखा है। इसका प्रथम एवं अन्तिम दो द्वाले देखिये–

वडा बोलतौ बोल, बातां घणी बणातौ,
जोम छक जणातौ टसक जाझी।

“सदारौ” अग्राजै “सेर” ऊभौ समर,
“मधारा” हरारा आव माझी।।1

x x x

सता रा दिली आंबेर चीतोड़ सूं,
विढण कुण कुंवारी घड़ा वरसी।

…….विचै तांम अधरात रौ,
कांम पड़सी तरै याद करसी।।21

जूझ रौ भार बिहूँवां भलौ झलियौ,
निज बचन तोल साचां निभायौ।

“हरारौ” सती संग सतीपुर हालियौ,
मालियौ “सेर” प्रम जोत मांहै।।22

[1] राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित हो चुका है।

बहादुरसिंह– बहादुरसिंह राठौड़ राजपूत थे। ये किशनगढ़ राज्य के संस्थापक महाराजा कृष्णसिंह के वंश में महाराजा राजसिंह के पुत्र थे। हिन्दी के श्रेष्ठ भक्त कवियों में अपना नाम रखवाने वाले कवि नागरीदास (सांवतसिंह) इन्हीं के बड़े भाई थे। राजसिंह की मृत्यु (सं. 1805) पर बादशाह अहमदशाह ने सांवतसिंह को किशनगढ़ का राजा घोषित कर दिया। परंतु सांवतसिंह इस समय दिल्ली में था अतः उसकी अनुपस्थिति में बहादुरसिंह स्वयं किशनगढ़ का राजा बन गये। इन्होंने अपनी बहादुरी और चतुराई से 33 वर्ष तक अर्थात् सं. 1805 से सं. 1838 वि. तक राज्य किया।

महाराजा को डिंगल भाषा से प्रेम था। वे स्वयं डिंगल में कविता किया करते थे। इनकी लिखी “रावत प्रतापसिंघ म्होकमसिंघ हरीसिंघोत री वात” जो एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक वार्ता है, उपलब्ध है। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपने राजपूताने के इतिहास में इसका उल्लेख किया है।[1]

उक्त वात में देवलिया रावत हरीसिंह के पुत्र प्रतापगढ़ के संस्थापक रावत प्रतापसिंह तथा इनके अनुज म्होकमसिंह का वीरतापूर्ण चरित्र-चित्रण है। रावत प्रतापसिंह का प्रतापगढ़ का शासनकाल संवत् 1730 से 1764 माना जाता है।[2] बहादुरसिंह इनके परवर्ती काल में हुये, अतः स्पष्ट है कि ये उनकी वीरता से प्रभावित थे।

“रावत प्रतापसिंघ म्होकमसिंघ हरीसिंघोत री वात” वीरचरित नायकों की विलक्षण वीरता पर आधारित एक वर्णनात्मक कथा है। वार्ता में सर्वप्रथम प्रतापसिंह का श्रेष्ठ शासक के रूप में चित्रण है। इसके पश्चात् म्होकमसिंह की वीरतापूर्ण घटनाओं का वर्णन होने के कारण वार्ता में वीर रस का परिपाक पूर्ण रूप से हुआ है। कवि ने ओजस्वी भाषा में धाराप्रवाह के रूप में अनेक गीत, दूहे और कवित्त लिख दिए हैं। भाषा की प्रौढ़ता एवं सुन्दर शब्द-सौष्ठव के कारण वीर घटनाओं का चित्रण बड़ा सजीव बन पड़ा है। सम्पूर्ण रचना गद्य पद्य दोनों में ही है। इसके एक कवित्त का उदाहरण देखिए–

बजै झाट बीजळां, काटि पड़ कंध बिछूटै।
तड़िछ उठ घट तठै, जोंम धक हूता जूटै।
अमोसमा आछटै, छोह उपटै छछोहा।
मिटै घटै नह मरट, लहै चहै गळ लोहा।
अवनाड़ बीर साहस अधिक, दुहूं तरफां छक दाखवै।
धड़ भिड़ै देख पड़ियां धरा, वाह वाह सिर आखवै।।

महाराजा बहादुरसिंह ने इस “वात” के अतिरिक्त कुछ फुटकर गीतों की रचना भी की है। गीतों की भाषा मंजी हुई है। इमें भी ओज गुण की प्रधानता है।

[1] प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास, डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पृ. 165 और 185 के फुट नोट में।
[2] वही--पृष्ठ 177-188.

ब्रह्मदास ब्रह्मदास के जन्म का नाम विसनदांन (विष्णुदान था)। इन्होंने जोधपुर राज्य के माड़वा नामक ग्राम में वीठू शाखा के चारण जगा के घर में जन्म लिया था। इनके जन्मकाल के सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण ज्ञात नहीं है। इन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया और आगे चल कर दादूपंथी साधु बन गये। इनके गुरु का नाम हरिनाथजी था। साधु होने के पश्चात् इन्होंने अपना समय हरि-भजन व शास्त्र-श्रवण में ही व्यतीत किया। ये राजस्थानी के अच्छे कवि भी थे। अपनी भक्ति-भावना को इन्होंने अपनी भगतमाला में सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है। इनका जोधपुर के महाराजा विजयसिंहजी के राज्यकाल में विद्यमान होना पाया जाता है। इसी के अनुसार इनका रचनाकाल सं. 1816 के आसपास ठहरता है। इनके भक्ति सम्बन्धी दोहे देखिये–

ऊचरतां सुख ऊपजै, सुणतां आवै स्वाद।
कहियौ दांणव कोप कर, हर पर हर पहलाद।।

संतां सायक तूं सदा, दुसटां खायक देव।
केसव तो वरणन करूं, भल गुरु दीनौ भेव।

इनके भक्ति सम्बन्धी एक गीत में अनूठी सूझ देखिये–

कहै मांनवी देव अणभेव चिरतां सकळ,
जांण कुण सकै गोपाळजी कौ।

ऊधरे संत महिमा करे ऊजळी,
निंद्या कर तिरे सिसपाळ नीकौ।।1

x x x

दुवध दातार अणपार जगदीस री,
भलांईं वेद गावै भलाई।

दूध पाय”र तिरी जसोदा देवकी,
पय विख पूतना मोख पाई।।

भाग जागै कहै किसी ही भांत सूं,
दांमोदर मांय चित राख दीधां।

रुकमणी आदि तौ पतिवरत सूं ऊधरी,
कूबड़ी आदि विभचार कीधां।

x x x

कहै ब्रह्मदास जगदीस महाराज री,
गत अगत सेस माहेस गावै।

रिझावै जिकै पदन्याव पावै परम,
परम पद खिजावै जिकेई पावै।।

ओपाजी आढ़ा– ये सिरोही राज्य के पेशुआ नामक गांव में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम बखता आढ़ा था। इनके जीवन की मुख्य घटनाओं, जन्म-मरण के संवतों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। इतना अवश्य है कि ये जोधपुर के महाराजा विजयसिंह के दरबारी कवि थे और महाराजा मानसिंह के समय तक विद्यमान रहे। इसी के आधार पर इनका रचनाकाल वि.सं. 1840 से 1875 तक माना जाता है। इनका लिखा स्वतंत्र ग्रंथ तो कोई प्राप्त नहीं, किन्तु इनके लिखे फुटकर डिंगल गीत बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। इनके गीतों में बड़ी सरसता और कमनीयता है। भाव अनुभवगम्य और मर्मस्पर्शी हैं। गीत शान्त रस से ओतप्रोत एवं उपदेशात्मक होते हुए भी अधिक जनप्रिय हैं। इनके एक गीत का उदाहरण यहाँ देखिये–

जोबन कारमौ रे! विहांणे वह जासी,
आदर भजन-तणौ अभियास।
प्रांणिया! कदे न आवै पाछौ,
वळे न बीजौ बागड़ वास।।1
होय सनाथ जनम मत हारब,
नाथ समर त्रयलोक नरेस।
नांम लियण जोयां मिळसी नह,
बीस कोड़ देतां लघु वेस।।2
सूनै गांव म फाड़व साड़ौ,
गाफल हिरदै राख गिनांन।
“ओपा” ऐ दिन कदै फिर आसी,
भजसी भळै कदै भगवांन।।3
परसरांम भज चाख अम्रितफळ,
जनम सफळ हुय जासी।
पाछौ वळै अमोलक पंछी,
इण तरवर कद आसी।।4

ओपाजी एक भक्त कवि थे। इनकी भक्ति दास भाव की थी। हिन्दी के कवियों की भांति इनकी भक्ति के प्रधान विषय ईश्वर के प्रति अटल विश्वास, मानव जीवन की क्षणभंगुरता, काल की सबलता, सांसारिक वैभव की अनित्यता आदि थे। कवि के गीतों में इनकी मौलिकता स्पष्ट रूप से झलकती है।

हुकमीचंद खिड़िया– राजस्थानी साहित्य में गीत रचना की परम्परा अति प्राचीन है। राजस्थानी के अनेक कवियों ने अपने डिंगल गीतों द्वारा ही इस साहित्य को समृद्धशाली बनाने में पूरा-पूरा सहयोग दिया है। हुकमीचंद खिड़िया भी एक ऐसे कवि हो गये हैं जिनके गीत श्रेष्ठ कोटि के कहे जा सकते हैं। उनके गीतों की श्रेष्ठता सर्वमान्य ही रही है, इसीलिये किसी कवि ने कहा है–

सरूप कवित्त नरहरि छप्पय, सूरजमल के छन्द।
गहरी झमक गणेस री, रूपक हुकमीचंद।।

हुकमीचन्द जयपुर राज्य के निवासी थे। ये जोधपुर के महाराजा विजयसिंह और शाहपुरा के राव उम्मेदसिंह के समकालीन माने जाते हैं। इन्होंने अपने समकालीन राजाओं पर अनेक गीतों की रचना की और प्रायः सभी से सम्मान के रूप में जागीर प्राप्त की। ये गीत रचने में ही विशेष निपुण थे इसीलिए गीतों के अतिरिक्त इनकी कोई स्वतंत्र रचना नहीं मिलती। एक रचना “जयपुर के महाराजा प्रतापसिंहजी री झमाल” अवश्य है परन्तु “झमाल” एक बड़ा गीत होने के कारण यह भी गीतों की श्रेणी में ही आ जाता है। इनके गीत मुख्यतः वीर-रस प्रधान ही हैं। मौलिक उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं के साथ-साथ गीतों में भाषा अत्यन्त प्रौढ़ एवं ओजपूर्ण है। इनके एक प्रसिद्ध गीत के कुछ द्वाले नीचे उद्धृत किये जाते हैं। यह गीत शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह की वीरता की प्रशंसा में कहा गया है। उम्मेदसिंह ने मेवाड़ की रक्षा के लिए मरहठा सरदार माधोजी सिंधिया से उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर घनघोर युद्ध किया था। यह युद्ध संवत् 1825 में हुआ था।[1] कवि स्वयं इस युद्ध में उपस्थित थे। अतः इन्होंने राजा उम्मेदसिंह की अद्भुत वीरता का आंखों देखा वर्णन अपने इस गीत में किया है। इस युद्ध की तिथि के अनुसार ही कवि का रचनाकाल संवत् 1825 के आसपास ठहरता है। गीत का उदाहरण देखिये–

कड़ी बागतां बरम्मां पीठ पनागां उघड़ी केत,
मागां काळ घड़ी देत पैंडा आसमेद।

छड़ाळां त्रभागां लागां ऊडी आसमांन छायौ,
ऊपड़ी बाजंदां बागां यूं आयौ “ऊमेद”।।1

कोडी-डढ़ा फुणी झाट मोड़तौ कमट्टां कंध,
पब्बैराट सिंध बीछोड़तौ भोमपाट।

थंभ जंगां बोम बांट जोड़तौ रातंगा थाट,
तोड़तौ मातंगां घाट रौड़तौ त्रांबाट।।2

बाथ रौ बज्रंगी मोड़ चितोड़नाथ रौ बंधू,
काळी चक हात रौ आरोध लीधां क्रोध।

दुस्सासेण माथ क्रतांत रोध धायौ दूठ,
जेठी पाराथ रौ किना भारात रौ जोध।।3

पाट-धणी धारा धांम वंस मंत्र कांम पूगौ,
खाग धारां ऊगौ म्रत्यु भांण सो अखेद।

बदीतौ बचाड़ पाठ नेकी धाड़ धाड़ा बीर,
अेकी राड़ जीतौ आठ प्रवाड़ा “उमेद”।।22

कोड़ सवा जांमै काळनांमै चाढ़ै हेक कोड़,
माहा रुद्र धांमै न को पांमै अेही मीच।

बीच अेक नरां लोक आयौ तूं “उम्मेद” बीर,
बीर अेक तूंही गौ अम्मरां लोकां बीच।।23

[1] वीर विनोद, भाग 2, कविराजा श्यामलदास, पृष्ठ 1556.

कृपाराम– ये जोधपुर राज्य में मेड़ता परगने के जसूरी नामक गाँव के निवासी खिड़िया शाखा के चारण थे। इनके पिता का नाम जगाराम था। ये बड़े होने पर सीकर चले गये और वहीं रावराजा लक्ष्मणसिंह के पास रहने लगे, जिन्होंने इनके काम से प्रभावित होकर “लछीपुर” और “ढांणी” जो आज कृपाराम की “ढांणी” के नाम से प्रसिद्ध है, गांव प्रदान किये। काव्य-जगत् में ये अपने सोरठों और दोहों की रचना के लिए अधिक ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। इन्होंने अपने सेवक “राजिया” को सम्बोधित कर सोरठे व दोहे कहे थे। सम्भवतया सेवक की सेवा एवं स्वामीभक्ति से प्रसन्न होकर उसके नाम को अमरता प्रदान करने के लिए ही कवि ने इन सोरठों की रचना की हो। इनके ये दोहे “राजिया के सोरठे” के नाम से जनसाधारण में अधिक प्रचलित हैं। साहित्य जगत् में आज जो कृपाराम की प्रसिद्धि है वह इन्हीं सोरठों की लोकप्रियता के कारण है।

इन सोरठों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरलता, सहजता एवं बोधगम्यता है। शीघ्र बोधगम्य होने के कारण ही ये सहज ही पाठकों के हृदय में अपना स्थान बना लेते हैं। कवि ने स्वयं जीवन के चौराहे पर खड़े होकर विभिन्न समस्याओं को देखा, परखा एवं उन पर विचार किया। तत्पश्चात् उनका निचोड़ एवं निष्कर्ष इन सोरठों के रूप में सर्वसाधारण के सामने प्रस्तुत किया है। सरलता और सादगी ही इनका सबसे बड़ा सौन्दर्य है। सोरठों में इतनी सजीवता है कि ये इतने प्राचीन होते हुए भी आज नवीन प्रतीत होते हैं। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इनका प्रत्येक सोरठा सांसारिक अनुभव का भंडार है, काव्य-दक्षता का प्रतीक है। निम्न दोहों में कवि की विशेषता देखिये–

हिम्मत कीमत होय, बिन हिम्मत कीमत नहीं।
करे न आदर कोय, रद कागज ज्यूं राजिया।।
नरां नखत परवांण, ज्यां ऊभां संके जगत।
भोजन तपै न भांण, रांवण मरतां राजिया।।
लह पूजा गुण लार, नह आडंबर सूं निपट।
सिव वंदे संसार, राख लगायां राजिया।।
सांचौ मिंत्र सचेत, कहौ, कांम न करै किसौ।
हर अरजणरै हेत, रथ कर हांक्यौ राजिया।।
मळयागिर मँझार, हर कोइ तरु चंदण हुवै।
संगत लहै सुधार, रूँखां नै ही राजिया।।
पुन्न गया परवार, सज्जन-साथ छुट्या जदै।
दुरजण-जण री लार, रोता फिरवै राजिया।।
मुख ऊपर मीठास, घट मांहीं खोटा घड़ै।
इसड़ां सूं इखळास, राखीजै नहिं राजिया।।
मिळियां अत मनवार, व़ीछड़ियां भाखै बुरी।
लांणत दे ज्यां लार, रजी उडावौ राजिया।।

कृपाराम के लिखे ये सोरठे जनसाधारण में इतने अधिक प्रचलित हुए कि बहुत से अन्य कवि भी राजिया के नाम से सोरठों का निर्माण करने का लोभ संवरण नहीं कर सके हैं। इससे राजिये के वास्तविक सोरठों में कुछ प्रक्षिप्त अंश भी सम्मिलित हो गये हैं। उदाहरण हेतु निम्न सोरठा श्री फतहकरण उज्ज्वल का बनाया हुआ है परन्तु कई लोग भ्रमवश इसे कृपाराम का सोरठा ही समझते हैं–

मिनखां घणां न मांन, मांन रहे हेकण मनां।
जीतौ जुध जापांन, रूस तणै बळ राजिया।।

सोरठों के अतिरिक्त कवि का लिखा एक ग्रन्थ “चाळक नेची माता” भी उपलब्ध है जो एक नाटक ग्रन्थ है। इसकी भाषा प्रौढ़ एवं परिमार्जित है। कवि द्वारा किया गया प्रकृति वर्णन भी स्वाभाविक एवं सजीव है। प्रातःकाल का वर्णन देखिये–

मिळत ओक निस चरण, कोकनद मधुप कोक जिम।
सुमन बास दिन कर प्रकास, छुटत अकास तिम।।
इधि अमांम झल्लरी दमांम, विधि विधि नह बज्जत।
सिव झिली कोसिक सिगाळ, सुर नाहिन सज्जत।।

दयाळदास– रामस्नेही साधुओं ने भी राजस्थानी साहित्य में अपना योगदान दिया है। रामस्नेही साधु और उनके अनुयायी निर्गुण परमेश्वर को राम के नाम से मानते हैं। इन साधुओं में रामचरणजी, हरिरामदासजी, दरियावजी आदि उल्लेखनीय हैं। राजस्थानी साहित्य में दयाळदासजी का नाम इनकी रचनाओं के लिये विशेष महत्त्व का है। ये भक्त कवि रामदासजी के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1816 में हुआ था। पिता की भांति इन्होंने भी अपनी भक्ति सम्बन्धी रचनाओं द्वारा अपनी भक्ति एवं काव्य-शक्ति का परिचय दिया। इनका रचा हुआ “करुणा सागर” बहुत प्रसिद्ध ग्रन्थ है। रामस्नेही सम्प्रदाय के अनुयायियों में इसका विशेष आदर है। “करुणा सागर” के अतिरिक्त इनके रचे हुए भक्ति सम्बन्धी अनेक फुटकर पद भी प्राप्त हैं जिनमें निर्गुण भक्ति की अविरल धारा बही है। इनकी भक्ति-भावना निम्न पद में देखें–

सजनी म्हारी रांम सभा वलिहारी ए।
रांम सनेही परचै हरिजन चरण कमळ बळिहारी ए।
तन मन धन निछरावळ करसां अठ सिधि नव निधि सारी ए।
रचना ब्रहमंड सजूं संजीवन अरपूं वार हजारी ए।
सत गुरु सें मैं उरण नहीं जिण दिया रांम-धन भारी ए।
द्याल बाळ नित लेऊं बलैया निभज्यौ टेक हमारी ए।

मनसारांम (मंछ कवि)– मध्यकालीन साहित्य में केवल रसाप्लावित वीर एवं श्रृंगारिक रचनायें ही नहीं हुईं अपितु इस काल में कई उच्च कोटि के रीति ग्रंथकारों ने उत्तम रीति ग्रंथों का निर्माण कर साहित्य को अमूल्य निधि अर्पित की है। इस काल के रीति ग्रंथकारों में मनसाराम उर्फ मंछ कवि का नाम उल्लेखनीय है। इनका जन्म जोधपुर नगर के शाकद्वीपी ब्राह्मण बखशीरामजी के घर संवत् 1827 वि. में हुआ। बाल्यावस्था में इन्होंने विद्या अपने चाचा हाथीराम के पास ही ग्रहण की। ये जोधपुर के महाराजा मानसिंह, जो स्वयं काव्य-प्रेमी थे, के ही समकालीन थे। इन्होंने अपनी सुन्दर रचनाओं के फलस्वरूप महाराजा से बहुत अधिक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त किया।

इन्होंने श्री रामचन्द्र का यश-वर्णन करते हुए रीति ग्रंथ “रघुनाथ रूपक गीतां रौ” का निर्माण किया। यह ग्रंथ छंदशास्त्र का उत्तम ग्रंथ होते हुए भी राम-यश वर्णन के लिए अधिक प्रसिद्ध है। सभी वर्णन राजस्थानी के प्रसिद्ध छंद “गीत” में ही किया गया है। इसी विशेषता के कारण कवि ने ग्रंथ का नाम भी “रघुनाथरूपक गीतां रौ” रक्खा–

इण ग्रंथ मो रघुनाथ गुण
अत भेद कविता भाखियौ।

इण हीज कारण नांम औ
“रघुनाथ रूपक” राखियौ।।[1]

इसी ग्रंथ में कवि ने अपने काव्य-चातुर्य से डिंगल भाषा की कविता की रीतियां, छंद-भेद, छंद-लक्षण, अलंकार, गुण-दोष आदि का समावेश कर दिया है। यद्यपि कवि की यह एक ही रचना है परन्तु इसने कवि को अमर कर दिया है। ग्रंथ की भाषा अत्यंत प्रौढ़ एवं पूर्ण परिमार्जित साहित्यिक डिंगल भाषा है। ग्रंथ में प्रसाद गुण अधिक होने और भाषा-प्रवाह होने के कारण काव्य की दृष्टि से भी यह सुन्दर बन पड़ा है। सम्भवतः आज इसकी व्यापक प्रसिद्धि का भी यही कारण हो। इनके सम-सामयिक कवि उत्तमचंद भंडारी ने इनके विषय में जो कविता कही उससे कवि की उस समय की प्रतिष्ठा का पता लगता है–

आछौ कीध इसोह, रस ले साहित सिंधु रौ।
जग सह पियण जिसोह, रूपक रांम पयोध रुख।।
मनसांरांम प्रबंध मझ, राखे मनसारांम।
कियौ भलौ हिज कांम कवि, कियौ भलौ हिज कांम।

“रघुनाथ रूपक गीतां रौ” के सम्बन्ध में डॉ. ग्रियर्सन ने इंपीरियल गजेटियर की दूसरी जिल्द के 11 वें अध्याय में जो अपने विचार प्रकट किये हैं उससे कवि की इस कृति के महत्त्व का पता चलता है–

“…The most admired Dingala work is the ‘Raghunath Roopak’ of Mansa Ram, written at the commencement of the nineteenth century. It is a prosody with copious original examples, so arranged that they give a continuous history of Ram.”

ग्रन्थ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कवि ने अपनी रचना के लिए सोलहवीं शताब्दी से चली आ रही भाषा का ही अनुकरण किया है। ग्रन्थ में कला पक्ष एवं भाव पक्ष दोनों ही बहुत सुन्दर बन पड़े हैं। परंपरागत डिंगल की विशेषतायें यत्र-तत्र खूब झलकती हैं। ग्रन्थ का एक गीत देखिये–

।।गीत जात सपंखरौ।।
अंगां ऊसंसे सवायौ तायौ सुणै वैण रांणवाळा,
बडाळां छोह में छायौ चखां चोल व्रन्न।

कळेसां अघायौ लेण रटक्कां सजोर काथैं,
कटक्कां रांम रै माथै आयौ कुंभक्रन्न।।1

अछेहौ बदन्नां वांणी बोलतौ पुलस्त अंसी,
क्रोधाळ त्रसूळ तसां तोलतौ करूर।

मिळे मूंछ भूहारां डोलतौ आकारीठ महां,
गरीठ दोयणां हिया छोलतौ गरूर।।2

उमंगे रढ़ाळा छूटे सोहड़ां काकुस्थवाळा,
अताळा सजूटे तेण सांमूहां अडील।

हुवै चुरा पव्वै कीसा विछूटे उडल्ला हूंत,
फूटै काच सीसा जांणे कुंभाथळां फील।।3
लचै चील्हारांव सीस हजारूं ढ़ाळवा लागा,
दिगीस ठाळवा लागा दिसावा दुझाल।

लेवा मुंड सुरांगणा भूतेस चालवा लगां,
खंचे रथां दिवेसां भाळवा लागा ख्याल।।4

[1] नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित "रघुनाथ रूपक गीतां रौ" पृ. 284.

बांकीदास– परंपरागत चारण शैली एवं प्राचीन डिंगल भाषा के रचनाकारों में कविराजा बांकीदास का नाम अग्रगण्य है। इनका जन्म जोधपुर राज्यान्तर्गत पचपद्रा परगने के भांडियावास ग्राम में संवत् 1838 वि. में हुआ था। ये आशिया शाखा के चारण फतहसिंह के पुत्र थे। बाल्यावस्था में अपने गाँव में ही कुछ शिक्षा ग्रहण कर ये जोधपुर आ गये जहाँ रायपुर के ठाकुर अर्जुनसिंह ने इनकी शिक्षा की व्यवस्था की। यहाँ पर इन्होंने काव्य, व्याकरण, इतिहास आदि विभिन्न विषयों का अध्ययन किया और अवधि समाप्त होने पर रायपुर चले गये।

संवत् 1860 में जब ये पुनः जोधपुर आये तो यहाँ इनकी मुलाकात आयसजी देवनाथजी, जो जोधपुर के तत्कालीन महाराजा मानसिंह के गुरु थे, और विद्या के परम रसिक और गुणग्राही थे, से हुई। देवनाथजी बांकीदास की अद्भुत काव्य-शक्ति से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें महाराजा मानसिंह के पास भेज दिया। महाराजा मानसिंह स्वयं काव्य-प्रेमी एवं विद्वान् थे। वे बांकीदास की कविता से बड़े प्रसन्न हुए और इन्हें अपना काव्य-गुरु बना लिया। कालान्तर में महाराजा ने इन्हें कविराजा की उपाधि, पांव में सोना, लाख पसाव आदि देकर खूब सम्मानित किया और इनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई। महाराजा ने अपने गुरु-शिष्य के सम्बन्ध को सूचित करने के अभिप्राय से कागजों पर लगाने की मोहर (जो आज तक कविराजा के वंशजों के पास सुरक्षित है) रखने की आज्ञा दी जिस पर निम्न बरवै जाति का छंद खुदा हुआ है–

श्रीमान् मान धरणि पति, बहु गुन रास।
जिण भाषा गुरु कीनौ बांकीदास।।

कविराजा डिंगल भाषा के पूर्ण विद्वान् और आशु कवि थे। इनकी स्मरणशक्ति भी अपूर्व थी। इन्होंने भिन्न- भिन्न विषयों पर कविता की है। विषयगत शब्द-चयन भी अनूठा है। कवि ने अपनी रचना में मुख्य छंद दोहा, सोरठा तथा गीत आदि का प्रयोग बड़ी कुशलता के साथ किया है। काव्य की भाषा अत्यन्त प्रौढ़, परिमार्जित एवं प्रसादगुणयुक्त है। अलंकारों के प्रयोग से उसमें विशेष लोच, लावण्य एवं आकर्षण आ गया है। भाषा की सरलता का उदाहरण देखिये–

सादूळौ लाजै ससां, घात करण धिरतांह।
कूंभाथळ खाय चौ-पल, गज मोती खिरतांह।।

मरणौ लाजम मांमलै, धार अणी चढ़ धाप।
पड़णौ सांकळ पींजरै, सिंहां वडौ सराप।।

पग पग कांटा पाथरै, वादीलौ वनराव।
होणौ ज्यूँ त्यूं होवसी, दिये न हीणौ दाव।।

सादूळौ वन साहिबौ, खाटे पग पग खून।
कायरड़ा इण कांम नूं, जंबक कहै जबून।।

कविराजा की वीररसात्मक उक्तियां, जो अत्यन्त प्रभावोत्पादक एवं कलात्मक हैं, देखते ही बनती हैं–

सूतौ थाहर नींद सुख,सादूलौ बळवंत।
वन कांठै मारग बहै, पग पग हौल पड़ंत।।

घाल घणां घर पातळां, आयौ थह में आप।
सूतौ नाहर नींद सुख, पोहरौ दिये प्रताप।।

कविराजा ने अपने जीवनकाल में अनेक ग्रंथों की रचना की। इनके ग्रंथों के आधार पर इनका रचनाकाल संवत् 1860 से सं. 1890 है। इनके रचे निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैं–

1. सूर-छतीसी, 2. सीह-छतीसी, 3. वीर-विनोद, 4. धवळ-पचीसी, 5. दातार-बावनी, 6. नीति- मंजरी, 7. सुपह छतीसी, 8. वैसक-वारता, 9. मावड़िया-मिजाज, 10. क्रपण-दरपण, 11. मोह-मरदन, 12. चुगल-मुख-चपेटिका, 13. वंस-वारता, 14. कुकवि-बतीसी, 15. विदुर-बतीसी, 16. भुरजाळ-भूसण, 17. गंगालहरी, 18. जेहल जस-जड़ाव, 19. कायर-बावनी, 20. झमाल नखसिख, 21. सुजस छतीसी, 22. संतोस बावनी, 23. सिद्ध राव छतीसी, 24. वचन विवेक पच्चीसी, 25. क्रपण पच्चीसी, 26. हमरोट छत्तीसी, 27. स्फुट संग्रह, 28. क्रस्णचंद्र-चंद्रिका, 29. विरह चंद्रिका, 30. चमत्कार चंद्रिका, 31. मांनजसो मंडन, 32. चंद्रदूसण दरपण, 33. वैसाख वारता संग्रह, 34. स्री दरबारी कविता, 35. रस तथा अलंकार ग्रंथ, 36. व्रत्तरत्नाकर भासा व्याख्या, 37. महाभारत छंदोऽनुवाद, 38. गीत वा छंदां रौ संग्रह, 39. ऐतिहासिक वारता संग्रह, 40. अंतरलापिका, 41. थळवट पच्चीसी।

इन ग्रंथों के अतिरिक्त कविराजा ने अनेक फुटकर गीतों की भी रचना की जो पूर्ण रूप से काव्य-कला-कलित, भावापन्न एवं स्फूर्तिवर्द्धक हैं। इनकी रचना प्राचीन परम्परागत वीररसात्मक डिंगल के आधार पर ही हुई है।

रांमदांन लाळस– ये जोधपुर राज्य के निवासी फतहदान के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1818 में हुआ था। जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने इनकी कविता से प्रभावित होकर इन्हें तोळेसर नामक गांव प्रदान किया था। यह घटना सं. 1865 की है। इसी तिथि के अनुसार इनका रचनाकाल संवत् 1865 के आसपास ही माना जाता है। संवत् 1882 में इनका देहान्त हो गया।

इनके रचित तीन ग्रंथ हैं–1. भीम प्रकास, 2. करणी-रूपक, 3. खीचियों का इतिहास।

“भीम प्रकास” में महाराणा भीमसिंह के वैभव-वर्णन के साथ कुछ मेवाड़ का इतिहास भी वर्णित है। इसमें कुल 175 छंद हैं। कहीं-कहीं बीच में गद्यबद्ध वर्णन भी मिलता है। इसकी भाषा कुछ इस प्रकार की है–

असंक सेन आरंभ बोल नकीब बळोबळ।
गहरां थाट गैमरां चपळ हैमरां चळोबळ।
भाल तेज भळहळै ढ़ळै बिहुंबै पख चम्मर।
दिन दूलह दीवांण ए चढ़ियौ छक ऊपर।
तिण वार आप दरियाव तट विडंग छंडि जगपति बियौ।
दीवांण “भीम” गणगौर दिन एम रांण आरंभियौ।।

दूसरे ग्रन्थ “करमी रूपक” में करणी देवी का चरित्र एवं इतिहास वर्णित है और “खीचियों के इतिहास” में खीची शाखा के चौहानों का क्रमबद्ध इतिहास लिखा है। ग्रंथों में शुद्ध डिंगल भाषा का प्रयोग हुआ है।

महाराजा मांनसिंह– ये जोधपुर के महाराजा थे। इनका जन्म संवत् 1839 में हुआ था और 21 वर्ष की अवस्था में (सं. 1860) जोधपुर की राज्यगद्दी पर बैठे। ये स्वयं एक अच्छे विद्वान और काव्य-रचना में प्रवीण कवि थे। कविता-प्रेमी एवं सरस्वती-उपासक होने के कारण इन्होंने अपने राज्यकाल में काव्य-कला को विशेष प्रोत्साहन दिया। इन्होंने भागवत की मारवाड़ी भाषा में सुन्दर टीका की है। इसके अतिरिक्त मौलिक ग्रंथों की रचना भी की है। ये डिंगल तथा पिंगल दोनों ही भाषाओं में रचना करते थे। नाथ सम्प्रदाय के प्रति अधिक श्रद्धा होने के कारण इनकी रचनाओं में इसी सम्प्रदाय की महिमा को अधिक स्थान दिया गया है।

राजस्थानी की उपलब्ध रचनाओं में उनकी काव्य-कला एवं भाव-मौलिकता वस्तुतः सराहनीय है। महाराणा भीमसिंहजी की प्रशंसा में लिखा यह गीत उदाहरण के लिए देखिये–

हेमगर जसा डुंगरां,
नदियां नद रोकियौ नहीं।

सुसबद तूझ तणौ सिसोदा,
मावै नह दुनियांण मही।।1

है नभ जितै अहिमकर हिमकर,
नरपुर अतै रहण री नीम।

महत सुजस विसतार न मावै,
भरतखंड मझ रांणा भीम।।2

गुण में जण जण कंठ गवीजै,
नरमळ ज्यूं नरझर में नीर।

जग मांझळ वसतार घणै जस,
हुऔ अमावड़ दुआ हमीर।।3

अड़सी सुत कीरत दिन ऊगै,
परसण घण जोजन पारंभ।

एक खंड की हुय अमावड़,
अन खंडां मावणौ असंभ।।4

महाराजा मानसिंह केवल कवि ही न थे, अपितु कवियों एवं विद्वानों का पर्याप्त आदर करते ते। इन्होंने अपने दरबार में एक बार सत्ताईस कवियों को एक-एक हाथी एवं लाख पसाव प्रदान किया था। साहित्य से विशेष प्रेम होने के कारण इन्होंने अपने किले में “पुस्तक प्रकास” नामक पुस्तकालय की स्थापना की। इसमें 1678 संस्कृत पुस्तकों तथा 1700 राजस्थानी एवं हिन्दी की हस्तलिखित प्रतियों का बड़ा सुन्दर संग्रह है। कविता के साथ इन्हें चित्रकला का भी विशेष शौक था। अपने “पुस्तक प्रकास” में इन्होंने विविध चित्रों का संग्रह करवा कर तत्कालीन कला एवं संस्कृति को सुरक्षित रखा। संवत् 1900 वि. में इनका देहान्त हो गया।

सांईदीनजी– सांईदीनजी, जो अपने छोटे नाम “दीनजी” के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, उदयपुर राज्य के कैलाशपुरी ग्राम के निवासी थे। इनके जन्म एवं मृत्यु के संवत् का ठीक-ठीक पता नहीं लगता। ये जाति के लुहार बताये जाते हैं। अपने जन्मस्थान के बारे में दीनजी स्वयं एक स्थान पर लिखते हैं–

“गुरु स्थान गिरनार, हौं उदैपुर देस एकलिंग वासी।”

दीनजी एक चमत्कारिक सिद्ध हो चुके हैं। मेवाड़ के महाराणा भीमसिंहजी इन्हें बहुत मानते थे। सिद्ध पुरुष होने के साथ-साथ ये एक प्रतिभावान कवि भी थे। पढ़े-लिखे विशेष न होने के कारण इनकी रचना साधारण बोलचाल की राजस्थानी में ही है। आध्यात्मिक चिन्तन ही इनका विषय था, अतः इनकी कविता में ब्रह्म का ही वर्णन है जो रहस्यवाद से परिपूर्ण है। इनका रचनाकाल सं. 1860 के आसपास ही माना जाता है। ब्रह्म या अध्यात्म सम्बन्धी इनके रचे हुए छंद “सांईंदीन के रेखते” के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक “रेखते” में इनके विचार देखिये–

दीन देख संसार विचार किया,
संसार तौ रैन का सपना है।

जांण बूज जंजाळ में कौन पड़ै,
तेहुं काळ की झाळ में तपना है।

देख पयारे हुसियार रै’णा,
इस जुग में कोई न अपणा है।

सांईदीन कहै मन मांन मेरा,
जुग जुग जीवां तोही खपणा है।

नवळदांन लाळस– ये जोधपुर राज्य में शेरगढ़ परगने के जुडिया ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम रिवदान था। बाल्यावस्था में ही इनके माता-पिता का देहान्त हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण पाटोदी ठाकुर के यहाँ हुआ। ऊपर वर्णित सिद्ध “सांईंदीन” पाटोदी ठाकुर के पास आया-जाया करते थे अतः ठाकुर ने नवलदान को शिक्षा ग्रहण करने हेतु सांईंदीन के सुपुर्द कर दिया। अतः इन्होंने अपनी शिक्षा सांईंदीन से ही प्राप्त की। तत्कालीन आहोर का ठाकुर अनाड़सिंह सांईंदीन का परम भक्त था और वह प्रायः सांईंदीन को अपने यहीं रखता। सांईंदीन ने नवलदान की मेधा-शक्ति एवं काव्य-रुचि से प्रभावित होकर उन्हें आहोर ठाकुर के पास ही रख दिया। जोधपुर के महाराजा भीमसिंह ने मानसिंह के विरुद्ध जो इस समय जालोर के किले में था अपनी सेना भेजी। मानसिंह के सभी हितैषी उसकी सहायता के लिए जालोर पहुंचे। इस समय नवलदान भी आहोर ठाकुर के साथ मानसिंह के पास गये। वहाँ अपनी कविता से इन्होंने अच्छा सम्मान प्राप्त किया। मानसिंह के जोधपुर की गद्दी पर आसीन होने पर ये भी जोधपुर आ गये और यहीं रहने लगे। “आबू वर्णन” इनकी राजस्थानी की सुन्दर कृति है। महाराजा ने इन्हें भी एक हाथी और लाख पसाव प्रदान किया था। इसके अतिरिक्त संवत् 1874 में नैरवा नामक ग्राम भी प्रदान किया। आबू वर्णन में से एक “रोमकंद” छंद देखिये–

बौहौ फूल हुबास जहुड़िये डंबर,
ताज कदम सरोह तठै।

सावत्रीये धाय चंपेलिए साटै,
जाय खिजूरिये केळ जठै।

केवड़ा अहवेल कणेर अणकळ
कंज समूलीये पार किसौ।

अनड़ां सिरताज वणै गिर आबूये,
जांण धराज सुमेर जिसौ।।

उदयरांम– कवि उदयराम जोधपुर राज्य के थबूकड़ा गांव के निवासी थे। जोधपुर के काव्य-प्रेमी महाराजा मानसिंह के समय में ही ये विद्यमान थे। महाराजा ने जिन सत्ताईस कवियों को एक-एक हाथी और लाख पसाव प्रदान किया था उनमें ये भी सम्मिलित थे।[1] इनका अधिक समय कछभुज के राजा भारमल तथा उनके पुत्र देसल द्वितीय के पास व्यतीत हुआ। इसीलिए इन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना “कविकुळ-बोध” में इन दोनों की प्रशंसा की है।

“कविकुळ-बोध” कवि की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। छन्दशास्त्र का यह उत्तम ग्रन्थ है। इसमें गीतों का वर्णन और उनके भेद और जथायें आदि का वर्णन विशिष्ट प्रकार एवं वैज्ञानिक रूप से किया हुआ है। डिंगल गीतों के प्रसिद्ध ग्रंथ “रघुनाथ रूपक” में केवल 72 जाति के गीतों का वर्णन है परन्तु “कविकुळ-बोध” में कवि ने 84 प्रकार के गीतों का उल्लेख किया है।

इसमें काव्य में प्रयुक्त होने वाले नौ रसों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। रस-व्याख्या के अन्तर्गत कवि ने विभावों तथा अनुभावों का भी सुन्दर ढंग से विवेचन किया है। रसों में आने वाले दोषों को भी उदाहरण सहित प्रस्तुत करने का कवि ने सफल प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त कवि ने उक्त ग्रंथ में “उकतों” तथा जथाओं का विवरण देकर डिंगल-पिंगल के महत्त्व को प्रकट किया है। समस्त ग्रंथ 10 तरंगों में विभक्त है। छन्द-शास्त्र सम्बन्धी तरंगों के पश्चात् अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन देकर कवि ने अवधानमाळा, एकाक्षरी कोश तथा अनेकार्थी कोश देकर अपने पूर्ण एवं दृढ़ भाषा-अधिकार का परिचय दिया है।

ग्रंथ की भाषा विशुद्ध साहित्यिक डिंगल है जो तत्सम शब्दों की प्रचुरता लिए हुए है। संस्कृत शब्दों की अधिकता होते हुए भी सुन्दर शब्द-चयन एवं भाषा में प्रवाह होने के कारण भाव बोधगम्य है। ग्रन्थ का एक गीत उदाहरण के लिए यहां प्रस्तुत किया जाता है–

सम सुं निस, निस सुं सस सोभा,
सस निस सुं द्वय गयण सुणाय।

वारज जळ जळ सुं दुत वारज,
जळ वारज सर प्रभा सुणाय।।1

वनता वर वर सुं दुत वनता,
वर वनता प्रभता घर बार।

कंकण नग नग सुं दुत कंकण,
नग कंकण दुत कण निहार।।2

गुणियण ग्रंथ ग्रंथ दुत गुणियण,
गुणियण ग्रंथ प्रभा जग ग्यांन।

न्रप सुं निपुण निपुण सुं न्रपता,
न्रप कव सुं दुत छमा निदांन।।

“देसळ” कुळ कुळ सुं दुत देसळ,
कुळ देसळ जस काछ प्रकास।

भाव प्रकास जथा गुण भारी।
उदैरांम जस कियौ उजास।।

[1] हमारे संग्रह में महाराजा मानसिंह के समय के इन कवियों का एक चित्र सुरक्षित है।

किसना आढ़ा– पूर्व के पृष्ठों में हमने इस शताब्दी में रचे जाने वाले श्रेष्ठ रीति ग्रंथों में “रघुनाथरूपक गीतां रौ” तथा “कविकुळ-बोध” आदि का उल्लेख कर साहित्य के उत्थान एवं विकास में इनके महत्त्व को प्रकट किया है। इसी श्रृंखला में कवि “किसना आढ़ा” अपनी श्रेष्ठ कृति “रघुवरजस प्रकास” द्वारा एक कड़ी और जोड़ने में सफल होते हैं। कवि किसना आढ़ा राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि दुरसाजी के वंशजों में थे। इनके पिता का नाम दूल्हजी था, जिनके छः पुत्रों में से ये तीसरे पुत्र थे। “रघुवरजस प्रकास” में कवि ने अपना वंश-परिचय दिया है–

दुरसा घर किसनेस, किसन घर सुकवि महेसर।
सुत महेस खुंमाण, खांन साहिब सुत जिण घर।।
साहिब घर पनसाह, पना सुत दूल्ह सुकव पुण।
दूल्ह घरे षट पुत्र, दांन जस किसन बुधोमण।।
सारूप चमन मुरधर उतन, परगट नगर पांचेटियौ।
चारण जात आढ़ा विगत, किसन सुकवि पिंगळ कियौ।।

किसना आढ़ा का रचनाकाल संवत् 1880 के आसपास है। ये मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह के आश्रित कवि थे। इनके रचे दो ग्रंथ उपलब्ध हैं–1. “भीम विलास” और 2. “रघुवरजस प्रकास”। “भीम विलास” महाराणा भीमसिंह की आज्ञा से सं. 1879 में लिखा गया था जिसमें उक्त महाराणा का जीवन-वृत्त है। “रघुवरजस प्रकास” राजस्थानी भाषा का छंद-रचना का उत्कृष्ट लाक्षणिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी व राजस्थानी के छंदों का मौलिक रचना में विषद विवेचन है। छंद-रचना के नियमों व लक्षणों का वर्णन सरल, प्रवाहमय एवं प्रसादगुणयुक्त भाषा में होने के कारण यह एक सफल रचना बन पड़ी है। छंदों के वर्णन में कवि ने अपनी रामभक्ति का पूर्ण परिचय दिया है। रामगुणगान ही कवि का मुख्य ध्येय था, अतः छंद-रचना के लक्षणों के साथ-साथ रामगुण-वर्णन करते हुए कवि ने एक पंथ दो काज की कहावत को पूर्ण रूप से चरितार्थ किया है। मनसाराम कृत “रघुनाथ रूपक” में रामकथा रामायण की भांति क्रमबद्ध चलती है। परन्तु किसनाजी ने अपने उक्त ग्रंथ में मुक्तक रूप से राम-महिमा का वर्णन किया है। छंद लक्षण जैसे अरुचिकर विषय को कवि ने अति सरस बना कर रख दिया है।

पूर्वोल्लिखित अन्य छन्द शास्त्र सम्बन्धी रचनाओं–पिंगळ प्रकास, लखपत पिंगळ, हरि पिंगळ, रघुनाथ रूपक, कविकुळ-बोध आदि में इतना विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं हुआ है जितना आलोच्य ग्रंथ “रघुवरजस प्रकास” में मिलता है। इसमें कवि ने 91 गीतों का वर्णन किया है। केवल गीतों का ही नहीं, गीतों के विभिन्न अंगों का वर्णन भी बड़े सुन्दर एवं विस्तृत ढंग से किया गया है। वस्तुतः यह ग्रंथ कवि की उच्च काव्य-प्रतिभा का पूर्ण परिचायक है।

इस ग्रंथ की एक विशेषता यह है कि इसमें चित्र काव्य का भी उल्लेख मिलता है। संस्कृत व ब्रज भाषा में चित्र काव्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है, परन्तु अद्यावधि डिंगल गीतों के प्राप्त लाक्षणिक ग्रन्थों में चित्र काव्य सम्बन्धी विवरण नहीं मिलता। “रघुवरजसप्रकास” में एक “जाळीबंध वेलियौ सांणोर गीत” का चित्र-काव्य के रूप में उदाहरण मिलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य के गीतों में चित्र-काव्य की रचना प्रारम्भ हो गई थी।

सम्पूर्ण ग्रंथ में प्रसाद गुण का पूर्ण रूप से निर्वाह हुआ है। भाषा की सरलता के कारण ही समस्त ग्रंथ में प्रवाह एक सा रहा है। गीतों में प्रयुक्त “वयण सगाई” से उनमें विशेष आकर्षण उत्पन्न हो गया है। ग्रंथ का एक गीत देखिये–

।।गीत पंखाळौ“।।
दसरथ न्रप नंदण हर दुख दाळद,
मिटण फंद जांमण मरण।

कर आणंद वद नित “किसना”,
चंद रांम वाळा चरण।।

दीनानाथ अभै पद दांनंख,
भांनख अंतक समर भर।

मांनख जनम सफळ कर मांगण,
धांनख धर पद सीसधर।।

सुरसर सुजळ न्रमळ संजोगी,
दळ मळ अघ ओघी दुख दंद।

साझ कमळ पद रांम असोगी,
मन अलियळ भोगी मकरंद।।

उपरोक्त दोनों ग्रंथों के अतिरिक्त कवि की अनेक फुटकर कवितायें तथा गीत भी प्राप्त हैं। इनकी काव्य-शक्ति पर प्रसन्न होकर महाराणा भीमसिंह ने इनको सीसोदा गाँव प्रदान किया था।

रायसिंह सांदू– जिस प्रकार कवि कृपाराम के सोरठे “राजिया के सोरठे” के नाम से राजस्थानी साहित्य में प्रसिद्धि पा चुके हैं, उसी प्रकार रायसिंह सांदू के “मोतिया के दूहे” भी अधिक ख्याति-प्राप्त हैं। रायसिंह सांदू का जन्म जोधपुर राज्य के बाली परगने में मिरगेसर ग्राम में संवत् 1850 में हुआ था। ये परम ईश्वर-भक्त थे. इनकी रचना में इनकी सात्विक भक्ति स्पष्ट रूप से झलकती है।

ये एक बार उदयपुर राज्य के रूपनगर ठिकाने के ठाकुर नवलसिंह के पास गये। वहीं ये अस्वस्थ हो गये। ठाकुर ने मोतिया नामक सेवक को इनकी सेवा में नियुक्त कर दिया। मोतिया सेवक ने इनकी सेवा, जब तक वे पूर्ण स्वस्थ नहीं हो गये, जी-जान से की। रायसिंह उसके सेवा-भाव से अत्यधिक प्रभावित हुए और उसके प्रति उसी समय निम्न दोहे कहे–

जगपत दीधौ जोय, रूपनगर “नवलेस” रै,
किणी ठिकांणै कोय, मींढ़ न किंकर मोतिया।।1
केइ केइ मोती कीध, तकलीणा घर घर तिके।
अधके तोल अबींद, माधव घड़ियौ मोतिया।।2

इसके बाद इसी मोतिया को सम्बोधित कर इन्होंने अनेक दोहे कहे, जो अपनी सरलता एवं सरसता के कारण जन-जन में प्रचलित हो गये। इन दोहों में वर्णित अन्योक्ति विशेष रूप से आकर्षित करती है। इनका रचनाकाल उन्नीसवीं शताब्दी का अन्तिम चरण ही माना जा सकता है। संवत् 1918 में इनका देहावसान हो गया। इनके कुछ दोहे देखिये–

सारै दुख सहियौ, नवग्रह बांधे नाखिया।
रांमण नां रहियौ, माथा दस ही मोतिया।।
नागौ गयौ निरधार, तागौ रहियौ न तेण रै।
लेगौ वीसल लार, माया सांसौ मोतिया।।
कासूं काज करेह, सिंधुर बाधा सांकळां।
भगवत पेट भरेह, मण नित चहिए मोतिया।।
भटकै कर कर भेख, घर घर अलख जगावतां।
दुनियां रा ठग देख, मळसी पनिया मोतिया।।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्य कवि

उम्मेदरांम (सं. 1809), देवीदास खिड़िया (सं. 1807 से 15), अमरसिंह (सं. 1817),, नंदलाल (सं. 1825), मोतीचंद (सं. 1836-45), अरजुनजी बारहठ (सं. 1842), उम्मेदसिंह सांदू (सं. 1847), चंडीदास (सं. 1849-90), उदयचंद भंडारी (सं. 1860), हाथीरांम कल्ला (सं. 1860), मुनि गुणचंद (सं. 1870), नागजी (सं. 1870-78), भोपाळदांन सांदू (सं. 1880), उदयचंद यति (सं. 1880)

उपरोक्त फुटकर कवियों के अतिरिक्त इस शताब्दी में और भी कुछ प्रसिद्ध कवि हुए हैं जिनका ठीक-ठीक संवत्-काल ज्ञात नहीं होता। ऐसे ही कवि महाराजा मानसिंह के रचनाकाल (सं. 1860-1900) के समय अपनी रचनाओं के कारण प्रसिद्ध थे जिनकी सूची निम्न है–

कुसळजी रतनू, गुमांनजी, पनजी आढ़ा, बुधजी आसिया, सुरतौ बोगसौ, महादांन महड़ ू , मोतीरांम, लक्ष्मीनारायण सेवक, तिलोक सेवक, दौलतरांम सेवक, संतोकीरांम, मनोहरदास, बखसीरांम, गाडूरांम सेवक, ताराचंद, रिझावर आदि-आदि।

राजस्थानी साहित्य का मध्ययुग वस्तुतः इस साहित्य के उत्थान का युग था। पूर्व के पृष्ठों में इस युग के प्रदत्त साहित्य के परिचय से यह स्पष्ट हो ही गया कि जिस प्रचुर मात्रा एवं विविधता में इस काल में साहित्य का निर्माण हुआ वह अन्य किसी काल में न हो सका। ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक, लौकिक आदि विभिन्न शाखाओं में ओजयुक्त वीररस, लावण्य एवं माधुर्ययुक्त श्रृंगार रस, निष्ठायुक्त भक्ति-रस के साथ-साथ छन्द- शास्त्र के लाक्षणिक ग्रंथ एवं अनेकानेक प्रबन्ध-काव्य, मुक्तक-काव्य, फुटकर गीत, लोक साहित्य आदि का सृजन हुआ। साहित्य के इस महत्त्वपूर्ण युग का सूत्रपात उस समय से होता है जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजस्थानी भाषा में कुछ-कुछ प्रौढ़ता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। यही भाषा इस युग में आगे चल कर उच्च काव्य प्रतिभासम्पन्न कवियों एवं साहित्यकारों की लेखनी से पूर्ण परिमार्जित होकर युग के समूचे साहित्य में धाराप्रवाह के रूप में बही है।

कवि की रचना काल-प्रसूत होती है और उसमें तत्कालीन समाज की संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब झलकता है। इस काल के साहित्य का सर्वांगीण रूप से अध्ययन करने पर यह सत्य उतरता है। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में वीर-रस-प्रधान साहित्य की अधिक रचना हुई। इसमें केवल उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं का ही साहित्यिक वर्णन नहीं अपितु जनजीवन की वास्तविक स्थिति एवं तत्कालीन चरित-नायकों के उज्ज्वल चरित्र का प्राणवान चित्रण मिलता है। ये वीररसात्मक रचनायें ही इस तथ्य का प्रमाण हैं कि राजस्थानी वीर-रस वर्णन के लिये अत्यन्त उपयुक्त भाषा है। निस्सन्देह कान्हड़दे प्रबन्ध, राउ जैतसी रौ छंद, हालां झालां रा कुण्डळिया, झूलणा दीवांण प्रतापसिंहजी रा, कुंडळिया कल्ला रायमलोत रा, वचनिका राठौड़ रतनसिंह महेसदासोत री आदि ग्रंथ तथा अखौ भाणावत, गोरधनजी बोगसौ, सूरायच टापरिया, महाराजा प्रथ्वीराज, दुरसा आढ़ा प्रभृति कवियों के गीत तथा फुटकर रचनायें वीर-रस के बोलते हुए प्रमाण हैं।

परवर्ती काल में भी वीररस की श्रेष्ठ रचनायें होती रहीं परन्तु आलोच्य काल के मध्य भाग में ही साहित्यकारों का ध्यान साहित्य की विभिन्न विधाओं की ओर आकृष्ट हो गया था। इसी के फलस्वरूप धीरे-धीरे इसी काल में साहित्य के विविध विषयों पर भी श्रेष्ठ ग्रंथ रचे गये। उत्तर भारत में व्याप्त एवं विवर्द्धित संत साहित्य की धारा ने राजस्थानी संतों को भी प्रभावित किया और जंभसागर, सिद्धनाथ री वांणी, हरि रस, मीरां पदावली, विवेक वारता री नीसांणी, रुक्मणी हरण, हरिपुरुष री वांणी, रांमरासौ आदि भक्ति की भिन्न धाराओं से सम्बन्धित श्रेष्ठ ग्रंथ एवं अलूनाथ, जग्गा खिड़िया, सांयाजी झूला, ओपा आढ़ा, ईसरदास प्रभृति भिन्न-भिन्न भक्त कवियों के उत्तम छप्पय कवित्त, गीत आदि जनसाधारण के मध्य आये। इन संतों एवं भक्त कवियों ने अपनी वाणी, पदों एवं अन्य प्रकार की रचना के लिए अत्यन्त सरस एवं सरल राजस्थानी का प्रयोग किया। इससे अनेक भक्तों की वाणी एवं पद जन-जन के कंठ-हार हो गये और शताब्दियां गुजर जाने के बाद भी धरोहर के रूप में जन-समुदाय के बीच सुरक्षित चले आ रहे हैं।

इस काल में रची जाने वाली श्रेष्ठ रचनाओं के कारण ही राजस्थानी साहित्य अपने विकास की चरम सीमा को पहुँच रहा था। प्रारंभिक काल में यद्यपि कुछ प्रणय-कथायें श्रृंगार रस के साहित्य के रूप में हमारे समक्ष आईं तथापि इस काल की श्रृंगारिक रचना पृथ्वीराज राठौड़ कृत “किसन रुक्मणी री वेली” एक अनुपम कृति ही नहीं, इस काल का गौरव भी है। ऐसी ही रचनाओं से भाषा को पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त हुई। इस समय तक भाषा को जो उच्चस्तरीय रूप प्राप्त हुआ उसका निर्वाह इस काल के अन्तिम समय तक पूर्ण रूप से होता रहा। भाषा को यह स्वरूप देने में इस काल के रीति ग्रंथकारों का हाथ भी महत्त्वपूर्ण रहा है। श्रेष्ठ रीति ग्रंथकारों ने छंद-शास्त्र सम्बन्धी उच्च कोटि की रचनायें प्रस्तुत कर साहित्य को अमूल्य निधि भेंट की है। पिंगळ सिरोमणी, पिंगळ प्रकास, लखपत पिंगळ, हरि पिंगळ, रघुनाथ रूपक गीतां रौ, रघुवरजस प्रकास, कविकुळ बोध आदि लाक्षणिक ग्रंथों में गीतों, छंदों, रसों, जथाओं, उकतों, अलंकारों आदि की जो सुन्दर विवेचना हुई है वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रत्येक ग्रंथ अपने आप में एक पूर्ण एवं मौलिक रचना है।

राजस्थानी जैन साधुओं, मुनियों तथा श्रावकों ने भी विविध प्रकार की रचनाओं का निर्माण कर मध्यकालीन साहित्य के विकास में अपना सराहनीय सहयोग प्रदान किया। इन्होंने केवल अपनी धर्म- सम्बन्धी रचनायें ही न कीं परन्तु इनकेप्राप्त ग्रन्थों में छन्द ग्रन्थ, कोश, अलंकार और श्रृंगार सम्बन्धी ग्रंथ भी उपलब्ध हैं। इनकी रचनाओं में शांत रस की जिस अखंड धारा के दर्शन हुए हैं वह अन्यत्र सुलभ नहीं। युग की मांग के अनुसार अनेक जैन कवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा जन-जीवन में आध्यात्मिक भक्ति एवं वैराग्य का प्रेरणा स्रोत बहा कर उन्हें विलास की ओर से हटा कर धर्माभिमुख किया है। जैन कवियों की कुछ रचनायें तो साहित्य का प्राण बन चुकी हैं। अनेक जैन कवियों ने साहित्य-निर्माण के साथ-साथ प्राचीन ग्रंथों की राजस्थानी में टीकायें कर जैनेतर साहित्य का प्रचार किया और अपने भंडारों में सुन्दर संग्रह किया। वस्तुतः जैन संतों एवं कवियों का हमारे साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके साहित्य का अध्ययन कर मूल्यांकन करने से निश्चित ही राजस्थानी साहित्य का महत्त्व बढ़ेगा।

साहित्य कभी किसी जाति विशेष या समाज विशेष का नहीं होता। इसका अधिकार और इसका प्रभाव सार्वभौम होता है। मध्ययुगीन साहित्य की यही विशेषता है। बड़े से बड़े महाराजा से लेकर साधारण से साधारण व्यक्ति की रचनायें इस काल में प्राप्त होती हैं। इस युग में जहाँ एक ओर काव्य-प्रेमी एवं विज्ञ महाराजाओं ने स्वयं काव्य-रचना कर और अपने काल के कवियों को विविध प्रकार से प्रतिष्ठित कर साहित्य-सृजन को प्रोत्साहन दिया, वहाँ जनसाधारण के बीच सरल से सरल व्यक्ति ने अपनी काव्य-शक्ति द्वारा अपने भावों को रचनाबद्ध कर उन्हें जन-जन के गले का हार बना दिया।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि मध्यकाल राजस्थानी साहित्य के इतिहास में न केवल अपनी बहुसंख्यक रचनाओं तथा विभिन्न साहित्यिक विधाओं की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है वरन् काव्य-कला की सर्वांगीण उत्कृष्टता का श्रेय भी इसी काल को है। उत्कृष्ट काव्य-रचनाओं पर स्थानाभाव के कारण संक्षेप में ही प्रकाश डाला जा सका है, पर आशा है इनके साहित्यिक महत्त्व का अनुमान पाठकों को इस विवेचन से अवश्य हो जायगा।

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