सबदकोस – राजस्थानी साहित्य का परिचय (भाग-३)

<<भाग-२<<

आधुनिक काल (वि.सं. 1900 से वर्तमान काल तक)

साहित्य में कालजनित परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन अवश्य आता है परन्तु इसकी गति अति धीमी होती है। प्रारम्भ में परिस्थितियों का प्रभाव तत्कालीन समाज पर पड़ता है जिससे सामाजिक गतिविधियों में परिवर्तन उपस्थित होता है। यही प्रभाव शनैः शनैः साहित्यकारों के साहित्य में प्रतिबिम्बित होता है। यह भी सत्य है कि समाज सदैव एक ही परिस्थिति में नहीं रहता। संसार की गतिशीलता के साथ-साथ सामाजिक परिस्थितियाँ भी स्वयं परिवर्तनशील हैं। मध्यकाल के संघर्षपूर्ण वातावरण में जीवन की अनिश्चितता बढ़ गई और संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। इसके प्रभाव से आदिकालीन साहित्यिक परम्परा धीरे-धीरे लुप्त होती नजर आई और मध्यकाल के अर्द्ध भाग तक इसी परिवर्तन का प्रभाव उस समय के साहित्य पर पूर्ण रूप से छा गया। मध्यकाल का संघर्ष भी स्थिर न रह सका। आगे चल कर राजनैतिक परिवर्तनों के कारण सामाजिक, धार्मिक आदि विभिन्न परिवर्तन होते रहे और उनका स्वरूप उस समय रचे जाने वाले साहित्य में दृष्टिगोचर होने लगा। यही कारण है कि राजस्थानी साहित्य में मध्यकाल की रचनाओं में जिस वीरता के दर्शन होते हैं और जो भक्तियुक्त शान्त रस का प्रवाह मीरां, ईसरदास, केसवदास गाडण, दादूदयाल और हरिपुरुष की शैली में मिलता है वह कालान्तर में नहीं है। अतः स्पष्ट है कि साहित्य में भी शैली विशेष के प्रवाह का समय होता है जो पूर्णरूपेण समाज की तत्कालीन परिस्थितियों और आवश्यकताओं पर ही आधारित होता है।

19वीं शताब्दी के अंतिम काल में समूचे भारतवर्ष में बहुत बड़ा राजनैतिक परिवर्तन आया। मुगल सल्तनत के पतन के पश्चात् ईश्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के विशाल भू-खंड पर यहाँ की डावांडोल परिस्थितियों से लाभ उठा कर कब्जा कर लिया था। इतना ही नहीं, वे अपने अधिकार को साम, दाम दंड, भेद आदि कई प्रकार की नीतियों का सहारा लेकर और भी दृढ़ बनाने में लगे हुए थे। अंग्रेज जनरलों ने भारतीय सेनाओं के बल-बूते पर ही भारत को दासता की श्रृंखलाओं में जकड़ लिया। राजस्थान मरहठों के आक्रमणों से बहुत कमजोर हो चुका था और यहां के शासकों की आपसी फूट ने भी उनकी शक्ति को जर्जरित कर दिया था। अतः अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति के बल पर यहां के शासकों की परिस्थितियों से पूरा लाभ उठाया और उनके साथ सन्धि आदि कर के अपने अधीन कर लिया। मरहठों से मुकाबिला करने का वायदा भी अंग्रेजों ने उनके साथ किया। इतना होते हुए भी राज्य-सत्ता में उनका हस्तक्षेप सहज ही में हो गया हो ऐसी बात न थी। संघर्ष ही जिनका जीवनोद्देश्य रहा हो वह जाति एकाएक समर्पण कर दे, ऐसा संभव नहीं था। अतः कई एक शासकों व बहादुर व्यक्तियों ने अवसर पड़ने पर विदेशी सत्ता का वीरतापूर्वक मुकाबिला किया। ऐसे वीरों में बूंदी के बलवंतसिंह हाड़ा का संघर्ष इतिहास में सदा अमर रहेगा। इसी तरह भरतपुर के शासक रणजीतसिंह ने लॉर्ड लेक के साथ जो दृढ़ता के साथ युद्ध किया वह भी उल्लेखनीय है। पर अंग्रेजों ने इस प्रकार के संघर्षों के बावजूद भी यहाँ की नाजुक परिस्थितियों से पूरा लाभ उठाया और राजस्थान की राज्य-सत्ता पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया।

भारतवर्ष में ईष्ट इण्डिया कम्पनी के प्रभाव से अंग्रेजी सता कायम हो जाने पर भी भारतवासियों में स्वतंत्रता की आग जो अब भी चिंगारी के रूप में शेष थी वही चेतना का झोंका पाकर चमक उठी। परिणामस्वरूप 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वि.सं. 1914 (सन् 1857) में स्वतन्त्रता संग्राम की देशव्यापी आग भभक उठी। इस स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और तांतिया टोपे जैसे स्वतंत्रता-प्रेमी वीरों ने किया। उसका प्रभाव राजस्थान पर भी पड़ा। आउवा ठाकुर खुशहालसिंह तथा गूलर के ठाकुर विशनसिंह मेड़तिया ने अंग्रेजों की खिलाफत करने में कोई कसर उठा न रखी और कोटा आदि स्थानों पर भी अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने का पूरा प्रयत्न किया गया। पर अंग्रेजों ने देश की आपसी फूट से लाभ उठा कर शीघ्र से शीघ्र इस बढ़ती हुई अग्नि को दबा दिया और इसके तुरन्त बाद ही ब्रिटेन की सम्राज्ञी विक्टोरिया ने भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अंग घोषित कर दिया। इसके पश्चात् समस्त भारतवर्ष पर अंग्रेजी सत्ता दृढ़ता से कायम हो गई। राजस्थान में भी उनका रेजीडेण्ट रहने लगा और सन्धिपत्र के अनुसार राजस्थान के राज्यों में अंग्रेजों की हुकूमत का हस्तक्षेप होने लगा।

अंग्रेज अपनी राज्य-सत्ता कायम रखने के लिए यहां की राजकीय शक्ति को ही अपने अधिकार में नहीं रखना चाहते थे। इनकी दृष्टि और समझ बड़ी गहरी थी इसलिए इन्होंने अपनी संस्कृति का प्रभाव भी यहाँ की संस्कृति पर डालना प्रारंभ किया और यहां के लोगों के लिए ऐसी शिक्षा-प्रणाली की व्यवस्था की जो उनके वफादार नौकर और अंग्रेजी संस्कृति के प्रशंसक पैदा कर सके। राजस्थान के शासकों को तो उन्होंने राजनैतिक विषमताओं से निश्चिन्त ही नहीं किया वरन् अपनी संस्कृति में उन्हें रंगने की भी पूरी चेष्टा की और इसमें वे सफल भी हुए। अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थपाना के पीछे भी इसी उद्देश्य का रहस्य छिपा हुआ था। शासक वर्ग के पीछे-पीछे यहाँ के बड़े-बड़े जागीरदार और धनी लोग भी उसी पथ का अनुकरण करने लगे। संघर्ष का समय समाप्त हो चुका था अतः शासक वर्ग तथा धनी वर्ग ऐश-आराम में लीन हो गया और साथ ही साथ अपनी संस्कृति तथा देश-प्रेम को भुलाता गया। शासक वर्ग का जो अपनी प्रजा के साथ निकट संबंध था उसमें भी धीरे-धीरे शिथिलता आती गई और दुराव होता गया। अंग्रेज अपनी कानूनी व्यवस्था में बड़े पटु थे। उन्होंने कानून एवं अपनी कूटनीति के माध्यम से हर मनुष्य की मिल्कियत तथा उसके माली अधिकारों को सुरक्षित करने की उत्तम व्यवस्था की और सरकारें आपसी सम्बन्धों पर नहीं वरन् कानून के बल पर चलने लगीं।

सैंकड़ों वर्षों से चारण कवियों का जो सम्बन्ध शासक वर्ग के साथ तथा अन्य लोगों के साथ बना हुआ था वह एकाएक शिथिल हो गया। इसके दो मुख्य कारण थे। एक तो यह कि अब वह संघर्ष का समय न रह गया था जिसमें कि वे अपने वीरों को देश और धर्म की रक्षा के लिए ललकारते और दूसरा यह कि अंग्रेजों ने अपनी गंभीर कूटनीति के आधार पर शासक वर्ग को इस तरह अपनी संस्कृति में जकड़ लिया था कि उनके पास काव्य आदि सुनने की फुर्सत नहीं रह गई थी और न वे उसकी आवश्यकता ही महसूस कर सकते थे। ऐसी स्थिति में चारण कवियों ने भी अपना रुख बदल दिया। अब उनका न तो पहिले का सा सम्मान ही रह गया था और इस नये परिवर्तन में उन्हें काव्य-कला के बल पर न कोई आर्थिक लाभ ही होता था। चारणों के अतिरिक्त राजपूत, मोतीसर, भोजक ब्राह्मण आदि अन्य जातियाँ भी डिंगल काव्य के सृजन में सैकड़ों वर्षों से अपना योग देती आई थीं पर इस प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन के कारण उनमें भी अन्तर आ गया था। राजस्थानी साहित्य में चारण- काव्य की परम्परा इस प्रकार यहां आते-आते शिथिल हो गई। बूंदी के कविराजा सूर्यमल 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में अंतिम महान् कवि हुए। वे जैसे उत्तम कवि थे वैसे उद्भट विद्वान भी। उनकी कविता में मध्यकालीन डिंगल का गौरव एक बार पुनः अपनी उत्कर्षता पर आ गया। “वंश भास्कर” के अतिरिक्त उनकी “वीर सतसई” डिंगल-काव्य का उत्कृष्ट नमूना है। संवत् 1914 के स्वतंत्रता संग्राम के समय अवसर की अनुकूलता देख राजस्थान के शासकों व वीरों को उनकी प्राचीन वीरता एवं गौरव का स्मरण दिलाने हेतु ही उन्होंने वीर शैली में इस रचना द्वारा राजस्थान की वीरता को ललकारा ता। “वीर सतसई” के दोहे मध्यकालीन साहित्यिक परम्परा से प्रभावित हैं, फिर भी उनमें युग की नवीनता झलकती है। कवि की ललकार रोम-रोम में उत्साह उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ है–

मूंछ न तोड़ौ कोट में, कढ़ियां छोडै काळ।
काळां घर चेजौ करे, मूसा पण मूंछाळ।।

इकडंकी गिण अेक री, भूलै कुळ साभाव।
सूरां आळस एस में, अकज गुमाई आव।।

तन दुरंग अर जीव तन, कढ़णौ मरणौ हेक।
जीव बिणट्ठां जे कढ़ौ, नांम रहीजै नेक।।

जिण बन भूल न जावता, गैंद, गवय, गिड़राज।
तिण बन जंबुक ताखड़ा ऊधम मंडै आज।।

कविराजा सूर्यमल के पश्चात् डिंगल-काव्य-परम्परा अधिकाधिक शिथिल होती ही गई, परन्तु बारहठ केसरीसिंह की रचना में यह अन्तिम लौ एकबारगी अपनी समस्त शक्ति ग्रहण कर क्षण भर के लिए प्रज्वलित होकर सदैव के लिए लुप्त हो गई। भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन ने दिल्ली में दरबार आयोजित करने के लिये भारत के समस्त नरेशों को फरमाम भेजा। उदयपुर के महाराणा फतहसिंह भी दरबार में सम्मिलित होने के लिए रवाना हो गये। प्राचीन परम्परा एवं मर्यादा के प्रेमी ठाकुर केसरीसिंह बारहठ को यह मेवाड़ की आन के विरुद्ध लगा। उन्होंने तत्काल ही महाराणा को मेवाड़ के गौरव की स्मृति दिलाने हेतु “चेतावणी रौ चूंगट्यौ” नामक एक दोहों का संग्रह पत्र के रूप में लिख भेजा।[1] उनकी यह रचना केवल 13 दोहों की है परन्तु उसमें प्राचीन काव्य-परम्परा की आत्मा बोलती है। इसका प्रभाव सीधा महाराणा के हृदय पर हुआ। महाराणा वायसराय के दरबार में सम्मिलित न हुए। इस प्रकार वे अपनी परम्परागत मर्यादा को निभाने में समर्थ हुए। इसीलिए राजस्थानी साहित्य में इन दोहों का ऐतिहासिक महत्त्व है।

[1] पग पग भम्या पहाड़, धरा छांड राख्यौ धरम।
   (ईसूं) महारांणा" र मेवाड़, हिरदे बसिया हिन्द रै।।1

   घण घलिया घमसांण (तोई) रांण सदा रहिया निडर।
   (अब) पेखंतां फुरमांण, हलचल किम फतमल हुवै।।2

   गिरद गजां घमसांण, नहचें धर माई नहीं।
   (ऊ) मावै किम महारांण, गज दो सै रा गिरद में।।3

   ओरां ने आसांण, हाकां हरवळ हालणौ।
   (पण) किम हाले कुळ रांण, (जिण) हरवळ साहां हंकिया।।4

   नरियंद सह नजरांण, झुक करसी सरसी जिकां।
   (पण) पसरेलौ किम पांण, पांण छतां थारौ "फता"।।5

   सिर झुकिया सह साह, सींहासण जिण सांम्हने।
   (अब) रळणौ पंगत राह, फाबै किम तोने "फता"।।6

   सकळ चढ़ावें सीस, दांन धरम जिणरौ दियौ।
   सो खिताब बख्सीस, लेवण किम ललचावसी।।7
  
   देखेला हिंदवांण, निज सूरज दिस नेह सूं।
   पण तारा परमांण, निरख निसांसा न्हांकसी।।8

   देखे अंजस दीह, मुळकेलौ मन ही मनां।
   दंभी गढ़ दिल्लीह, सीस नमंतां सीसवद।।9

   अंतबेर आखीह, "पातल" जो बातां पहल।
   (वे) रांण! सह राखीह, जिणरी साखी सिर जटा।।10

   कठिन जमांनौ कोल, बांधै नर हीमत बिना।
   (यो) बीरां हंदौ बोल, "पातल" "सांगे" पेखियौ।।11

   अब लग सारां आस, रांण रीत कुळ राखसी।
   रहौ साहि सुखरास, एकलिंग प्रभु आपरै।।12

   मांन मोद सीसोद! राजनीत बळ राखणौ।
   (ई) गवरमिंट री गोद, फळ मीठा दीठा फता।।13

जिस समय अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा के माध्यम से अंग्रेज अपनी भाषा का प्रचार यहाँ कर रहे थे उसी समय उत्तरी भारत में भारतेन्दु ने हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। खड़ी बोली में गद्य रचना होती थी पर पद्य के लिए अभी तक ब्रज का ही प्रयोग होता था। ब्रज-काव्य की रचना राजस्थान में बहुत पहिले से ही भक्ति-काव्य के रूप में होती आई थी। यहीं वृन्द जैसे भक्त कवि ने सुन्दर भक्ति की रचनायें और बिहारी ने रीतिकाल में “बिहारी सतसई” जैसी अलंकृत कलाकृति ब्रज को भेंट की थी। अतः इस समय में आकर यहां के कवि ब्रज की ओर फिर आकृष्ट हुए और इसके माध्यम से भी काव्य-रचना करना पांडित्य का एक प्रमाण माना जाने लगा। सूर्यमल जैसे डिंगल आदि अनेक भाषाओं के प्रकांड पंडित ने भी अपने “वंश भास्कर” में ब्रज अथवा पिंगल का बहुत प्रयोग किया है। ऐसी स्थिति में डिंगल में काव्य-रचना अधिक परिमाण में नहीं हो सकी। उत्तरी भारत में धीरे-धीरे हिन्दी का प्रचार बढ़ता ही गया और राजस्थान में भी शिक्षा-दीक्षा का माध्यम इसी भाषा को बनाया गया। इस कार्य में उत्तरप्रदेश से आये हुए अध्यापकों का भी काफी हाथ रहा। यह सब कुछ होने के बावजूद भी हिन्दी अथवा ब्रज भाषा यहां की मातृभाषा राजस्थानी का स्थान नहीं ले सकी। शहरों के नागरिकों और छोटे से शिक्षित वर्ग तक ही हिन्दी का पठन-पाठन सीमित रहा। आजादी के पश्चात् ज्योंही भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण की नवीन लहर उठी, सभी लोग अपनी-अपनी भाषा और उसके अतीत गौरव की ओर पूर्ण ध्यान देने लगे। राजस्थान के डिंगल साहित्य के अभ्युत्थान के अभिप्राय से प्राचीन साहित्य की खोज की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा और अनेक प्राचीन ग्रंथों का सम्पादन तथा प्रकाशन किया जाने लगा जिससे इस भाषा की अभिव्यक्ति-क्षमता और अन्य कई साहित्यिक विशेषताओं से विद्वान प्रभावित हुए और यहाँ के नवीन लेखकों को राजस्थानी भाषा के माध्यम से साहित्य-सृजन करने की प्रेरणा भी मिली। आजादी के संघर्ष के दौरान में भी कई बार राजस्थानी में क्रांति के स्वर सुनाई पड़ते थे पर अब व्यवस्थित रूप से राजस्थानी में लेखन-कार्य प्रारम्भ हुआ और अनेक संस्थायें और लेखक इस ओर गतिशील हैं।

यहाँ हम आधुनिक काल के कुछ विशिष्ट कवियों का परिचय देकर अन्य कवियों की नामावली प्रस्तुत कर रहे हैं।

रामनाथ कविया– राजस्थानी साहित्य में दोहा शैली में रचना करने की परम्परा में रामनाथ कविया का नाम उल्लेखनीय है। इनका जन्म सं. 1865 में “चोखां का बास” (सीकर) में हुआ था। इनके द्वारा लिखे गए “द्रोपदी-विनय” सम्बन्धी सोरठे बहुत ही प्रसिद्ध हैं जो “द्रोपदी-विनय” अथवा “करुण बहत्तरी” के नाम से प्रकाशित भी हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा समय-समय पर फुटकर दोहे व सोरठे भी कहे गये हैं क्योंकि इनकी यह विशेषता थी कि ये पात्र को प्रत्यक्ष देख कर तत्काल अपने भाव व्यक्त कर देते थे। इनका रचनाकाल बीसवीं सदी का प्रारम्भ ही माना जा सकता है। इनकी काव्य-शैली निम्न उदाहरण में देखिये–

व्यास बिगाड़्यौ वंस, कैरव निपज्या जेण कुळ।
असली ह्वेता अंस, सरम न लेता सांवरा।।
सासू मंत्रज साज, पूत जण्या जे पार का।
ज्यांरी पारख आज, साची ह्वैगी सांवरा।।
मो मन पड़ियौ मोच, आव कह्या आयौ नहीं।
साड़ी रौ नहं सोच, सोच विरद रौ सांवरा।।

सती नारी के आक्रोश की अच्छी व्यञ्जना इन सोरठों द्वारा हुई है। भाषा अत्यन्त सरल एवं प्रवाहमय है।

सूर्यमल्ल मिश्रण– इस परिवर्तन काल के सर्वोत्कृष्ट कवि सूर्यमल्ल मीसण (मिश्रण) हुए हैं। इनका जन्म बूंदी में वि.सं. 1872 कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा को चंडीदानजी के घर में हुआ था।[1] चंडीदानजी स्वयं एक अच्छे कवि थे। राजस्थानी साहित्य में उनके भी अनेक ग्रंथ प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। माता-पिता का प्रभाव सूर्यमल्ल पर पर्याप्त रहा और इसी कारण वे अपने जीवन में एक सफल कवि ही नहीं अपितु महाकविराजा की उपाधि से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। इनकी सर्वोत्कृष्टता का प्रमाण इनका साहित्य तो है ही, फिर भी इनके विषय में विद्वानों द्वारा दी गई सम्मतियों का यहाँ उल्लेख करना अनुपयुक्त न होगा। रघुवीरसिंह के शब्दों में “साहित्य के क्षेत्र में महाकवि सूर्यमल्ल का एकछत्र शासन था।” मोतीलाल मेनारिया के मतानुसार “परिवर्तनकाल में सबसे बड़े कवि बूंदी के सूर्यमल्ल हुए जिनको चारण लोग अपनी जाति का सर्वश्रेष्ठ कवि मानते हैं।” डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के विचारानुसार “सूर्यमल्ल अपने काव्य और कविता को Lay of the last Minstrel. बना गये और वे स्वयं बने Last of the Giants.”[2]

राजस्थानी भाषा के कवि तो अनेक हुए हैं किन्तु सूर्यमल्ल के समान विद्वान कदाचित् ही कोई हुआ हो। साधारणतः उस काल के समस्त कवि कुछ न कुछ कम-अधिक विद्वान हुआ ही करते थे तथापि ज्ञान की दृष्टि से सूर्यमल्ल वास्तव में सूर्य ही थे। छंद-शास्त्र, धर्म-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र, काम-शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, शब्द-शास्त्र आदि अनेक शास्त्रों में ज्ञान होना ही इनकी बहुज्ञता का द्योतक था। इतने विषयों में जानकारी रखने वाला अन्य कवि शायद ही राजस्थानी साहित्य के इतिहास में मिल सके। राजस्थानी के लिए यह गौरव की बात है कि सूर्यमल्ल जैसे विद्वानों ने इसे गौरवान्वित किया।

सूर्यमल्लजी के लिखे दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं। एक “वंश भास्कर” एवं दूसरा “वीर सतसई”। “वंश भास्कर” एक बहुत बड़ा गद्य-पद्य-बद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ है जो चार जिल्दों में प्रकाशित हो चुका है। “वंश भास्कर” के एक टीकाकार श्री कृष्णसिंह ने इन्हें सच्चा इतिहास-लेखक लिखा है। कविराजा श्यामलदास ने भी अपने “वीर विनोद” में “खुद बूंदी के एक बड़े मौतबर सत्यवक्ता कवि चारण” से सम्बोधित किया है। इतिहास की दृष्टि से “वंश भास्कर” कितना सही है, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है “सूर्यमल्ल ने वंश भास्कर नामक विस्तृत पद्यात्मक ग्रन्थ लिखा जिसमें दिए हुए चौहानों तथा हाडों के इतिहास का गद्यात्मक सारांश बूंदी के पंडित गंगासहाय ने “वंश प्रकाश” नाम से प्रसिद्ध किया है, वही बूंदी का इतिहास माना जाता है। सूर्यमल्ल एक अच्छा कवि था परन्तु इतिहासवेत्ता न होने से उसने उक्त पुस्तक में प्राचीन इतिहास भाटों की ख्यातों से ही लिया है। उसमें सैकड़ों कृत्रिम पीढ़ियां भर दी हैं और वि.सं. 1584 (ई. सन् 1527) तक के सब संवत् तथा ऐतिहासिक घटनाएं बहुधा कृत्रिम लिखी हैं। उस समय तक का इतिहास लिखने में विशेष खोज की हो, ऐसा पाया नहीं जाता। कवि का लक्ष्य कविता की ओर ही रहा, प्राचीन इतिहास की विशुद्धि की ओर नहीं।”[3]

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस ग्रन्थ का स्थान चाहे जो हो परन्तु यह तो निश्चित रूप से सत्य है कि यह साहित्य की एक उत्कृष्ट कृति है। कवि ने अपने ज्ञान के आधार पर वंश-भास्कर में संस्कृत, प्राकृत तथा मरुदेशीय आदि विभिन्न भाषाओं का भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रयोग किया है। इन भाषाओं के सामंजस्य के प्रभाव से कहीं-कहीं भाषा जटिल भी हो गई है।

कटिल्ल कर्णिकावली भय ह्रदावली भये।
अरिष्ठ के अपष्ठ व्रंद लोम कंद उन्नये।।

बनै अरी पलास कांन अंद नाग वल्लरी।
कलेज पीलु पर्णिका कसेस तोर इक्करी।।

मिश्र-बन्धुओँ ने लिखा है कि सूर्यमल्ल के वंश भास्कर द्वारा हमारे यहाँ कथा-विभाग की अच्छी पूर्ति हुई है। इनका कविता-चमत्कार अच्छी श्रेणी का है। ग्रन्थ से कवि का पांडित्य भली भांति प्रदर्शित होता है। इससे इनकी सत्यप्रियता का पूरा प्रमाण मिलता है। भाषा राजपूतानी, बुंदेलखंडी और प्राकृत मिश्रित है।

इनका दूसरा ग्रंथ “वीर सतसई” इस युग का सर्वश्रेष्ठ वीर-रसात्मक ग्रन्थ है। यह समस्त ग्रन्थ सरल एवं प्रसादगुणयुक्त प्रवाहमय राजस्थानी में रचा गया है। लोकप्रियता की दृष्टि से सूर्यमल्ल की “वीर सतसई” को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। संकीर्ण भावों से परे सार्वजनीन भावों का चित्रण “वीर सतसई” की एक अद्वितीय विशेषता है। इसमें कवि का पांडित्य नहीं प्रकट होता। इसमें कोई कलाबाजी नहीं अपितु कला है। इस संबंध में डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने लिखा है–“मेरे विचार में “वंश भास्कर” जैसा वृहत् ग्रंथ भविष्य में जनता के लिए नहीं रहेगा, पर “वीर सतसई” के दोहे राजस्थानी का अस्तित्व जब तक रहेगा तब तक अमर रहेंगे। इस दोहा-पुस्तिका में राजस्थानियों की साहित्यिक रुचि विराजती है।”

सूर्यमल्ल अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे और वह समय देश का महान् संक्रमण काल था। विदेशी सत्ता का प्रभुत्व अधिकाधिक बढ़ता जा रहा था। उस समय ऐसी शक्ति का अभाव अनुभव किया जा रहा था जो अपनी प्रेरणा से बिखरी हुई राजपूत शक्ति को एक सूत्र में बांध कर विदेशियों के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए खड़ी कर दे। युग-प्रतिनिधि कवि इस ओर प्रयत्न करने का बीड़ा न उठाते तो वे संभवतः अपने कर्त्तव्य से च्युत होते। “सतसई” के दोहों में जागरण का यही महामंत्र फूंका गया है। आरम्भ में ही कवि ने संकेत किया है–

बीकम बरसां बीतियौ, गणचौ चंद गुणीस।
बिसहर तिथ गुरु जेठ बदि, समय पलट्टी सीस।

“सतसई” में राजपूती वीरत्व का गुणगान अवश्य है किन्तु काव्य-चातुर्य के कारण कहीं भी किसी जाति विशेष की ओर स्पष्ट संकेत नहीं किया गया है। अतः स्पष्टतः “सतसई” में वर्णित भावनायें एवं वीर चेष्टायें किसी भी आदर्श वीर की चेष्टायें व भावनायें मानी जा सकती हैं। देश के युवक, युवतियों में मरण की सार्थकता का अमोघ मंत्र फूंक-फूंक कर कवि ने देश-रक्षा के निमित्त उत्सर्ग होने का आह्वान किया था। इन दोहों में मर-मिटने की उत्कट भावना है, हृदय को वीरत्व से उद्वेलित करने की अतुल शक्ति है।

“सतसई” की भाषा आधुनिक है। प्राचीन शास्त्रीय डिंगल के स्थान पर इसमें बोलचाल की भाषा का ही अधिकतर प्रयोग हुआ है। “सतसई” की लोकप्रियता का संभवतः यही कारण है। कहीं-कहीं प्राचीन डिंगल के अनुरूप विभक्ति-प्रयोग हुआ है किन्तु वहाँ भी सीधे-सादे शब्दों में कवि ने बोलचाल की भाषा में बहुत कुछ कह दिया है–

आज घरे सासू कहै, हरख अचांणक काय।
बहू बळेबा हूलसै, पूत मरेबा जाय।।

देख सहेली मो धणी, अजकौ बाग उठाय।
मद प्यालां जिम एकलौ, फौजां पीवत जाय।।

धीरा-धीरा ठाकुरां, जमी न भागी जाय।
धणियां पग लूंबी धरा, अबखी ही घर आय।।

इस सरल भाषा में कवि ने अपने ग्रंथ में अद्भुत वीरत्व का चित्रण किया है। वीरत्व का परिचय पराक्रम, साहस, धैर्य, स्फूर्ति, उदात्त भावना, सहिष्णुता आदि से ही मिलता है। अतः वीर के चरित्र-चित्रण में कवि ने उसकी बाह्य-आंतरिक मनोवृत्तियों तथा कार्य-कलाप का सुन्दर वर्णन कर अपनी सूक्ष्म निरीक्षण की अद्भुत शक्ति का परिचय दिया है। “सतसई” के दोहों में योद्धा के बाह्य-जगत् की क्रिया एवं वृत्ति के साथ उसकी आंतरिक वृत्ति का जो सुन्दर सम्मिश्रण है वह अन्यत्र सुलभ नहीं। उदाहरणस्वरूप कुछ दोहे देखिये–

जिम-जिम कायर थरहरै, तिम-तिम फैले नूर।
जिम-जिम बगतर ऊबड़ै, तिम-तिम फूलै सूर।।

सांम्है भालै फूटतौ, पूग उपाड़ै दंत।
हूं बळिहारी जेठ री, हाथी हाथ करंत।।

कंकांणी चंपै चरण, गीधांणी सिर गाह।
मो बिण सूतौ सेज री, रीत न छंडै नाह।।

उल्लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त कविराजा सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा लिखे गए फुटकर गीत भी बड़ी मात्रा में मिलते हैं। प्राचीन चारण शैली के आधार पर ही उन्होंने गीतों की रचना की है। उनका रचा हुआ निम्न गीत देखिये–

दगौ बिचारै फेरियौ अंगरेजां लोगां चौगड़द्दौ,
तासा बंबी झडंदा तेड़ियौ नाग ताय।

भाळ घांचौ फेरियौ खैह री हूंत छायौ भांण,
बांघलौ केहरी “चैन” घेरियौ बलाय।।1

माचै खाग झाटां राचै तंवाई छ खंडां माथै,
रत्रां आट पाटां नदी बहाई रोसाग।

पाथ थाटां जंग रूपी कुबांणा नवाई पांणा,
सत्राटां बेढ़ियौ थाटां, सवाई “सौभाग”।।2

सुणै घोर तासां आसमांण लागियौ सीस,
सत्रां धू “चैन” रौ खाग बागियौ समूल।

कोपै “हण” आसुरां विभाड़वा आगियौ किनां,
सिंधुर पाड़ेबा सूतौ जागियौ सादूळ।।3

देखतां एहबौ जंग धड़क्कै आगरौ दिल्ली,
बंबी जैत माग रा रड़क्कै बारंबार।

झड़क्कै खाग रा बाढ़ भड़क्कै कायरां झुंड,
हमल्लां नाग रा माथा रड़क्कै हजार।।4

इस महाकवि का निधन वि.सं. 1925 को हुआ। इनके देहान्त पर पूर्व-उल्लिखित रामनाथ कविया द्वारा कहे गए मर्मस्पर्शी मरसियों में कितनी सत्यता है–

मिळतां कासी मांह, कवि पिंडतां सोभा करी।
चरचा देवां चाहि, सुरग बुलायौ “सूजड़ौ”।।1

निज छळती गुण नाव, मीसण “छौ” खेवट मुदै।
अब के हकण उपाव, सुकवी मरतां “सूजड़ा”।।2

करती ग्रब कविराज, मीसण नित थारौ मना।
सुरसत दुचित समाज,सुकवी मरतां “सूजड़ा”।।3

मुदै गरुड़ खग मौड़, मेर पहाड़ां मांन जै।
मीसण कविंदा मौड़, सुरग पहूंतौ “सूजड़ौ”।।4

थई म्रत्यु थारीह, कुण मेटे करतार सूं।
खतम लगी खारीह, सुणता कांनां “सूजड़ा”।।5

जिण सूं ऊजळ जात, दिस-दिस सारै दीसती।
रैणव थारी रात, सुकवि न जनम्यौ “सूजड़ा”।।6

[1] वीर सतसी, सम्पादक : श्री कन्हैयालाल सहल, भूमिका, पृ. 12.
[2] डिंगल साहित्य, डॉ. जगदीशप्रसाद श्रीवास्तव, भूमिका, पृ. 59.
[3] राजपूताने का इतिहास--ले. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, द्वितीय भाग, पृ. 558.

स्वरूपदास– ये देथा शाखा के चारण मिश्रीदान के पुत्र थे। इनके पूर्वज ऊमरकोट के रहने वाले थे परन्तु सराइयों द्वारा लूट-खसोट के कारण इनके पिता अपने भाई परमानन्द को साथ लेकर अजमेर राज्य के बड़ली गांव में आ गये और वहीं रहने लगे। स्वरूपदास के बचपन का नाम शंकरदान था। इन्होंने अपनी शिक्षा अपने चाचा परमानन्द से ही ग्रहण की। वेदान्त के प्रभाव से इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अतः शिक्षा की समाप्ति के बाद देवलिये ग्राम में एक दादूपंथी साधु के पास जाकर स्वयं दादू-पंथी साधु बन गए। इससे इनके चाचा को बड़ी निराशा हुई। इसी पर क्षोभ प्रकट करते हुए उन्होंने स्वरूपदास को एक पत्र में लिखा–

कीधौ थौ की कौल, कह पाछौ कासूँ कियौ।
बेटा थारा बोल, सालै निस दिन “संकरा”।।

स्वरूपदास का मालवे में बहुत सम्मान था। यहाँ पर ये प्रायः “अन्नदाता” के नाम से ही पुकारे जाते थे। एक बार रतलाम के राजा बलवंतसिंह ने मरते समय इनको निम्न दोहा कहा–

धारी चरणां धांम, बळवंत रै चितयौं बदे।
सेवग रौ सतरांम, अनदाता छै अबै।।

इस पर स्वरूपदास ने निम्न उत्तर दिया–

मांणक हूंत अमोल, अंत तणौ सतरांम यह।
“बळवंत” थारा बोल, खारा निस दिन खटकसी।

ये डिंगल, पिंगल एवं संस्कृत आदि भाषाओं के विद्वान थे। हिन्दू धर्म-शास्त्रों का भी इनको अच्छा ज्ञान था। राजस्थानी के साथ ब्रज भाषा में भी इनकी अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं। इनका “पांडव यशेन्दु चंद्रिका” एक सफल काव्य है। यद्यपि ग्रंथ ब्रज भाषा का है तथापि स्थान-स्थान पर राजस्थानी में भी वर्णन मिलता है।

डिंगल के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिश्रण इनके समकालीन थे और इनके प्रति बड़ी श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते थे। कई विद्वान तो इन्हें सूर्यमल्ल का गुरु भी मानते हैं। संवत् 1920 में ये स्वर्गलोक सिधारे। रतलाम नरेश बलवंतसिंह की मृत्यु पर इनका राजस्थानी में कहा हुआ मरसिया उदाहरण के लिए प्रस्तुत है–

केई अलापता राग पात कीरति गावता केई,
सुणावत केई विप्र सभा में सलोक।

भलौ भाई कळ तौने आवतां न लागी भेला।
प्रथीनाथ “बळूंतेस” जावतां प्रलोक।।

थंड देख रंकां तणा उछाळब द्रब्रां थेली,
सुद्रसां भाळबा रोर गाळब सहीप,

फीलां सीस चढ़ौ मारू प्रजा ने पाळबा फेरू,
माळबा देस में पाछा पधारौ महीप।।

x x x

छुटौ चखां नीर सतरांम रै करंता चेला,
“सरूप” गुरु की छाती उझेळ समंद।

जांमी आज छोड़ मोने अकेला कठीने जाबौ,
कोयला विरंगा हेला दे रही कंबंध।।

सम्मानबाई– आधुनिक काल के कवियों के अन्तर्गत सम्मानबाई का नाम भी उल्लेखनीय है। ये प्रसिद्ध कवि रामनाथ कविया की सुपुत्री थीं। स्त्री कवियों में इनका स्थान बहुत ऊंचा है। ये ईश्वर की अनन्य भक्त थीं। इन्होंने अपना समस्त जीवन हरि-स्मरण में ही व्यतीत किया। हरि-भक्ति में इन्हें पति-सहयोग भी पूर्ण रूप से मिला। इसी से प्रभावित होकर इन्होंने “पति सतक” की रचना की जिसमें अपने पति के गुणों की प्रशंसा की है। इनकी दूसरी रचना “क्रस्ण बाळ लीला” है जिसमें इनके भक्ति सम्बन्धी बड़े अनूठे पद हैं। इनकी भाषा में तत्कालीन परिवर्तनों का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। “सोळौ” इनकी राजस्थानी की अनुपम कृति है। इसी का एक उदाहरण देखिये–

रांम बनूं छै रूपाळौ,
बनाजी नै नैण नजर भर न्हाळौ।

कसूंबल पाग कैसरिया जांमूं,
तुररा किळंगी वाळौ।

नैण सलूण झौंकत ड्योढ़ौ,
बिच अण अणियाळौ।

वय किसोर सरब भांति सुहावै,
सहज सलूणौ काळौ।

करत मरोड़ मधुर पग धरत,
चलत मनौ मन मतवाळौ।

वंकोई चालै टेढ़ोई झोंकै,
लुळि-लुळि बनि दिस न्हाळौ।

कहत “समांन” कंवर दसरथ रौ,
वींद बडौ चिरताळौ।

दसरथ सुवन अयोध्या का राजा,
कंवर कौसल्या वाळौ।

भूप उदार तिलक रघुकुळ कौ,
चहुं पुर कौ उजियाळौ।।

गणेशपुरी– इस परिवर्तन-काल में सूर्यमल्ल की प्रेरणा से प्रेरित होने वाले कवियों में गणेशपुरी का नाम भी उल्लेखनीय है। इनका जन्म संवत् 1883 में जोधपुर राज्य के अन्तर्गत “चारणवास” गांव में हुआ था। ये पदमजी रोहड़िया चारण के पुत्र थे। बचपन से ही डिंगल भाषा के प्रति इनकी रुचि अधिक थी। यह बात प्रचलित है कि एक बार “जसवंत जसौ भूषण” के रचयिता कविवर मुरारीदानजी से इनका अलंकारों पर शास्त्रार्थ हुआ था। गणेशपुरी भी पंडित थे, परन्तु अपने क्षेत्र में मुरारीदानजी का प्रभाव होने के कारण लोगों ने मुरारीदानजी का ही पक्ष लेकर गणेशपुरी को पराजित घोषित कर दिया। इससे उनके हृदय पर बड़ी ठेस पहुंची और इन्होंने संन्यास धारण कर लिया और इसके बाद काशी में 10 वर्ष तक रह कर विद्याध्ययन किया। काशी से लौटने पर कविराजा सूर्यमल्ल के पास कुछ समय तक रहे। इसके पश्चात् ये जोधपुर आये और मुरारीदानजी से शास्त्रार्थ करने को कहा परन्तु मुरारीदानजी ने संन्यासियों से शास्त्रार्थ न करने की बात कह कर उसे टाल दिया।

गणेशपुरी एक सुयोग्य साहित्य-सेवी और काव्य-कुशल व्यक्ति थे। इनके रचे हुए तीन ग्रंथ प्राप्त हैं।

1. वीर विनोद, 2. जीवन मूल और 3. मारू महरांण।

“मारू महरांण” “काव्य प्रकाश” और “साहित्य-दर्पण” के ढंग पर लिखा गया राजस्थानी का विशाल लाक्षणिक ग्रंथ है। इनकी कवितायें एवं गीत प्राचीन परंपरागत डिंगल का अच्छा नमूना हैं। आधुनिक काल में होते हुए भी इनकी कविता पर वर्तमान दृष्टिकोण की छाप नहीं है। भावों की स्पष्टता एवं शब्द-सौष्ठव इनकी कविता का विशेष गुण है, किन्तु आधुनिक काल में भी उसी प्राचीन परंपरागत भाषा व शैली में होने के कारण इनकी कविता जन-साधारण के हृदय को स्पर्श नहीं कर सकी। केवल काव्य-प्रेमियों के सम्मुख काव्य-कला का सुन्दर नमूना बन कर रह गई। इनके रचे एक गीत का उदाहरण देखिये–

।।गीत।।
सिव सादत सीस फूल रा सहजां,
देख मठोड़ां सला दबै।

“वाघ” सुतन रघुवर जस वातां,
फतैपेच रै फैल फबै।।1

“दूदा” सरब जगत नैं दीठां,
ठहरै दांन मांन मन ठीक।

कळव्रछ सिवी नरेस करणसा,
करण फूल कीमत कोड़ीक।।2

पर दुख काटण तणा प्रवाड़ां,
जांणै जीवण जुवा-जुवा।

वीर उभै बाजूबंध विधरा,
हातम विक्रम न्रपत हुवा।।3

कटक जेमल फतमल व्हा कंकण,
चंद लखौ हत फूल सचौ :

जगत सुपह द्रढ़ भगत तणौ जस,
ओपै अमळ आरसी…। 4

भाऊ न्रप सिवराज भुजाळा,
हद गज रा गज देवणहार।

“मांन” भूप “बळवंत” महाराजा,
हुवा हमेल अनै चंद्रहार।।5

लंगर अवर लाज रा लंगर,
नळ धीरज धरन नूपर वीर।

मारू तूं मो मत महळी रै,
हुवौ तेवटौ हेल-हमीर।।6

शिवबख्श पाल्हावत– शिवबख्श का जन्म जयपुर राज्यान्तर्गत हणोतिया ग्राम में वि.सं. 1899 में हुआ था। ये पाल्हावत शाखा के चारण रामसुख के पुत्र थे और प्रसिद्ध कवि रामनाथजी कविया के दोहित्र थे। बाल्यकाल में ही पितृविहीन होने के कारण ये अपने ननिहाल अलवर आ गए। इनके नाना स्वयं काव्य-प्रेमी थे, अतः उनका प्रभाव शिवबख्श पर भी पड़ा। ये भी नाना का अनुकरण कर कविता करने लगे और शीघ्र ही डिंगल के ज्ञाता हो गये।

प्रारम्भ में ये थाणा के ठाकुर हनुमंतसिंह के कृपापात्र थे। यहाँ ठाकुर के लड़के मंगलसिंह से इनकी गाढ़ी मैत्री थी। मंगलसिंह अलवर के महाराजा शिवदानसिंह द्वारा गोद ले लिए गए और कुछ समय बाद ही शिवदानसिंह की मृत्यु के पश्चात् वे अलवर के महाराजा बन गये। शिवबख्शजी भी थाणा से अलवर आ गये और यहीं काव्य- रचना करने लगे। कुछ समय पश्चात् महाराजा से अनबन होने के कारण ये अलवर त्याग कर वृन्दावन चले गये और वहीं रह कर इन्होंने “वृन्दावन शतक” की रचना की।

महाराजा मंगलसिंह की मृत्यु के पश्चात् ये वृन्दावन से अपने गाँव आये। यहीं पर इन्होंने “झमाळ अलवर सड्रितु वर्णन” ग्रंथ रचा। उपरोक्त ग्रंथों के अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ “झमाळ जूनिया” और “तवारीख अलवर” और मिलते हैं। “सड्रितु वर्णन” में नायिका-भेद पर भी इन्होंने कुछ लिखा है किन्तु प्रकृति-वर्णन सजीव एवं स्वाभाविक है। वर्षा के बाद धरा की मनोहर छवि निम्न उदाहरण में देखिये–

हरिया तरु गिरवर हुवा, पांघरिया बन पात।
सर तालर भरिया सुजळ, बसुधा सबज बनात।।

बसुधा सबज बनात बिछायत ज्यौं बणीं।
जिलह ओस कंण जोति कि नां हीरा कणीं।।

इंद बधू अणपार क बसुधा बिथरी।
मनु तूटी मणि माळ, मदन महिपत्त री।।

वीर-रस-वर्णन तो प्रायः चारणों की पैतृक सम्पत्ति है। शिवबख्श का वीर-रस-वर्णन भी अनूठा है। इन्होंने वीर वचन शिकार के पशु सूअर, सिंह आदि से ही कहलाये हैं। सिंह द्वारा कायर के प्रति कहे वीर वचन निम्न उदाहरण में देखें–

इसा बचन सुणि ऊठियौ, अंग मौड़ै असळाक।
बाघ कहै सुण बाघणी, तजणौ खेत तलाक।।

तजणौ खेत तलाक, कहाऊं केहरी।
सहौ गरज नहिं सीस, क माथै मेहरी।।

मरण तणौ भय मांनि, भोमि तजि भागवै।
बाघ जनम बेकाज, लाज कुळ लागवै।।

यद्यपि अलवर नरेश से इनका सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया था परन्तु थाणा ठाकुर से आपका सम्बन्ध पूर्ववत् ही बना रहा। संवत् 1956 में थाणा ठाकुर साहब की अलवर स्थित हवेली में ही इनका देहान्त हो गया।

राव बख्तावर– राव बख्तावर का जन्म संवत् 1870 में उदयपुर राज्यान्तर्गत बसी ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सुखराम था जो बसी के ठाकुर अर्जुनसिंह के पूर्ण कृपापात्र थे। राव बख्तावर का जन्म-नाम मोडजी था। इनके बाल्य-काल में पिता की मृत्यु हो जाने के कारण बसी के ठाकुर अर्जुनसिंह ने इन्हें पुत्रवत् समझ सभी प्रकार से सुयोग्य बनाया। संवत् 1909 में गांव के पारस्परिक झगड़े के सम्बन्ध में ये उदयपुर में आये। यहां इनकी भेंट महाराणा स्वरूपसिंह से हुई। महाराणा ने इनकी कविता तथा वाक्य-चातुरी से प्रसन्न होकर वेतन पर अपने पास रख लिया और कालान्तर में मिहारी तथा डांगरी ग्राम प्रदान कर इनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई। इन्हीं महाराणा ने मोडजी से इनका नाम बख्तावरजी रखा। महाराणा की आज्ञा से इन्होंने “स्वरूप यस प्रकास” ग्रन्थ की रचना की जिसमें अन्योक्ति कवित्तों की बाहुल्यता है। महाराणा स्वरूपसिंह के बाद भी तीन महाराणाओं के समय में इनकी प्रतिष्ठा पूर्ववत् बनी रही। संवत् 1951 में इनका देहावसान हो गया।

अपने काल में होने वाले सभी महाराणाओं की प्रशंसा में इन्होंने ग्रंथ लिखे। इनके लिखे निम्न 11 ग्रंथ हैं[1]

1. स्वरूप यस प्रकास, 2. सम्भू यस प्रकास, 3. सज्जन यस प्रकास, 4. फतह यस प्रकास, 5. सज्जन चित्र-चंद्रिका, 6. केहर प्रकास, 7. रसोत्पत्ति, 8. संचारणव, 9. अन्योक्ति प्रकास, 10. रागनियां री पुस्तक, 11. सांमंत प्रकास।

इन ग्रंथों में “केहर प्रकास” सबसे बड़ा और श्रेष्ठ ग्रंथ है, जो ग्रंथकर्ता के प्रपौत्र कवि राव मोहन द्वारा ही सम्पादित हो चुका है। “केहर प्रकास” में केसरीसिंह और उनकी प्रेयसी कमल प्रसन्न के प्रणय का वर्णन है। इसमें 1486 छंद हैं। भाषा आधुनिक बोलचाल की राजस्थानी है। वर्णन बड़ा ही रोचक और कलापूर्ण है। इसी ग्रंथ के मिलन प्रकरण का एक उदाहरण देखिये–

उसै कंवर झंकियौ असांइ सदन बागर सूत।
कंवळ दसी झांकर कही, आकुण गजब अभूत।।
कंवळ जिकण पुळ कंवर री, सुरत झंकण फिर सार।
झंके मुड़े फिर आ झंके, लिलचावण ले लार।।
झंक्यौ कंवर जद झोक सूं, सांगे अतरे साद।
कहियौ ओ पात्यौ कियौ, अमे घड़ी दिन आध।।
कंवर गयौ पांत्यौ कहत, लगन कंवळ री लाय।
कंवळ हुई अंदर कुळफ, बीज सनेह बुहाय।।

[1] "केहर प्रकास" सं. कवि रावमोहन, ग्रन्थकर्ता का परिचय, पृ. 3-4.

ऊमरदांन लाळस– राजस्थानी काव्य की नवीन धारा में विशिष्ट योगदान देने वालों में कविवर ऊमरदांन लाळस का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों का सरस राजस्थानी में अनुपम चित्र प्रस्तुत कर राजस्थानी साहित्य जगत् में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। ये एक जन्म-सिद्ध कवि थे और इनमें प्रायः वे सभी गुण विद्यमान थे जो एक प्रतिभाशाली कवि में होने चाहिएँ। इस समय तक प्रायः समस्त राष्ट्र में सुधारवाद की एक प्रबल लहर प्रवाहित हो चुकी थी। भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनेक सुधारवादी रचनायें ही जन-जीवन के समक्ष प्रस्तुत की जा रही थीं। कविवर ऊमरदान भी इसी नवीन विचारधारा के व्यक्ति थे। इन्होंने भी समयानुसार परिस्थिति को समझाते हुए समाज-सुधार की विवेचना सरस राजस्थानी में की। आपका जन्म संवत् 1908 में जोधपुर राज्यान्तर्गत फलोदी तहसील के ढाढ़रवाळा ग्राम में हुआ था। इनके पिता बख्शीरामजी संस्कृत एवं राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। ऊमरदानजी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर इन्हीं के पास हुई थी। माता-पिता का सुख इनके भाग्य में नहीं था, अतः दुर्भाग्यवश बाल्यकाल में ही ये अपने पारिवारिक सुख से वंचित हो गये। इसके बाद ये रामस्नेही साधुओं के सम्पर्क में आ गये और अन्त में संवत् 1936 में जोधपुर में मोती चौक रामद्वारा के साधु के शिष्य हो गये। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है–

ऊमर सत उगणीस में, बरस छतीसै बीच।
फागण अथवा फरवरी, निरख्या सतगुरु नीच।।

इस दोहे में सत्गुरु के साथ नीच शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दोहा ऊमरदानजी द्वारा बाद में लिखा गया होगा। “ऊमर-काव्य” में भी यह दोहा “संत-असंत सार” के साथ ही लिखा हुआ है। संवत् 1940 में जब ऋषि दयानन्द मारवाड़ में आये तब उनसे प्रभावित होकर श्री ऊमरदान ने साधु सम्प्रदाय छोड़ दिया और गार्हस्थ्य जीवन प्रारम्भ कर दिया। स्वामी दयानन्द के प्रभाव से ये कट्टर आर्यसमाजी हो गये और इसी कारण जहाँ भी इन्होंने तनिक अवगुण अथवा बुराई देखी उसी ओर कस-कस कर व्यंग-बाण मारने में तनिक भी संकोच नहीं किया। इस प्रकार की इनकी रचना कुछ लोगों द्वारा सभ्य रुचि के प्रतिकूल समझी गई, परन्तु ऊमरदानजी को इसकी तनिक भी परवाह नहीं थी। व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष इनके प्रति कैसे विचार रखता है, इस ओर इनका तनिक भी ध्यान न था। अपने स्वयं के सम्बन्ध में, इसी प्रसंग में, इन्होंने लिखा है–

जोगी कहौ भव भोगी कहौ,
रजयोगी कहौ कौ केसेई हैं।

न्यायी कहौ अन्यायी कहौ,
कुकसाई कहौ जग जैसेइ हैं।

मीत कहौ वो अमीत कहौ,
ज्युं पलीत कहौ तन तैसेइ हैं।

ऊत कहौ अवधूत कहौ,
लो कपूत कहौ, हम हैं सोई हैं।।

इन्होंने विभिन्न विषयों पर अपनी कवितायें लिखी हैं। “संत कसौटी” को छोड़ कर प्रायः इनकी सभी फुटकर कविताओं का संग्रह “ऊमर-काव्य” के नाम से प्रकाशित हो चुका है। सुधारवादी दृष्टिकोण होने के कारण आपकी कविताओं के प्रसंग भी तत्कालीन समाज में प्रचलित दोष एवं कुरीतियों से ही सम्बन्धित हैं। मादक द्रव्यों के सेवन के प्रति ये पूर्ण विरुद्ध थे। अतः स्थल-स्थल पर इनकी कविता में बुराइयों का स्पष्ट वर्णन मिलता है। रामस्नेही साधुओं की भी इन्होंने निःसंकोच निन्दा की है। संत शब्द को बदनाम करने वाले असंतों की भी खूब खबर ली है–

गुरु आप अज्ञांनी जुगत न जांणी,
चेला मुक्त चहंदा है।

करणी रा काचा साध न साचा,
बाचा बहोत बकंदा है।

अंधै कौ अंधा धर के कंधा,
चल कर पार चहंदा है।

नगटा निरदावे जमपुर जावे,
खररर खाड खपिंदा है।

कविवर ऊमरदान की रचना यद्यपि साधारण बोलचाल की राजस्थानी में है, फिर भी उसमें अनेक संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे उनके संस्कृत भाषा के ज्ञान का भी परिचय मिलता है। इनकी समस्त रचनाओं में चलती भाषा का अधिक प्रयोग होने के कारण प्रायः सभी रचनायें साधारण जन-जीवन के बीच अधिक प्रसिद्ध हो गई हैं। कवि ने सरल एवं सरस भाषा में बड़ा ही सजीव वर्णन किया है। संवत् 1956 में मारवाड़ में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। जन-जीवन की दशा बड़ी दयनीय हो गई। इन्हीं सभी विषम परिस्थितियों एवं जन-जीवन की हीन दशा का बड़ा ही मार्मिक एवं सजीव वर्णन कवि ने “छपना री छोरा रौळ” नामक रचना में किया है। काव्य के पठन मात्र से आँखों के समक्ष चित्र सा उपस्थित हो जाता है। अकाल के दुष्प्रभाव से हुई ग्रहिणियों की दुर्दशा का कारुणिक चित्रण देखते ही बनता है–

आती ओलण नैं अंबक दळ आयौ,
छाती छोलण नैं छपनौ छित छायौ।

जावक पावक जिम रंडातक जीवै,
सातां ठोड़ां सूं चंडातक सीवै।

आधी उगळांची कांचळियां आधी,
बिलिये चूंड़ी बिन चींथरियां बाधी।।

सोनूं रूपौ तन पोठी सुपनैं में,
छल्ले बींटी बिन दीठी छपनै में।

काजळ टीकी बिन फीकी द्रग कोरां,
सधवा बिधवा बिच बिवरो नहिं सोरां।

महला मुरधर री तरसै अन तांईं,
तीजै पोरां तक बीजै दिन तांईं।

नांखै नीसासा आसा अड़ियोड़ी,
पामर पुरुखां रै पांनैं पड़ियोड़ी।

ऊजळ मळ संकुळ पीठी उबटांणी,
“करडै लो” साथे अैरण कूटाणी।

कळियां कूंला री कादै में कळगी,
विखहर संगत सूं पीपळियां बळगी।

महाराज चतुरसिंह– भक्त-कवि महाराज चतुरसिंह का जन्म मेवाड़ के राजघराने में करजाळी की हवेली, उदयपुर में संवत् 1936 में हुआ था। इनके पिता महाराज सूरतसिंह करजाळी जागीर के स्वामी और मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह के भाई थे। महाराज चतुरसिंह अपने पिता के चार पुत्रों में सबसे छोटे थे। इनकी रुचि बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर झुकी हुई थी। अध्ययन की ओर इनका झुकाव विशेष था। विभिन्न भाषाओं के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी तथा उर्दू आदि अन्य भाषाओं का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था।

आपका विवाह अठारह वर्ष की आयु में हुआ था। इनके दो कन्यायें भी हुईं। परन्तु दस वर्ष बाद ही इनकी धर्मपत्नी का देहान्त हो गया। इससे इनकी विरक्ति और भी बढ़ गई और इसके बाद इन्होंने अपना अधिक समय योगाभ्यास, ईश-भजन, शास्त्राध्ययन तथा पुस्तकें लिखने में ही बिताया। आपने अनेक पुस्तकों की रचना की जिनमें से कई प्रकाशित हो चुकी हैं। ये ईश्वर के अनन्य उपासक और भक्त-कवि थे। मीरां के बाद मेवाड़ में यही इतने लोकप्रिय भक्त-कवि हो गए हैं। आपने राजस्थानी और ब्रज भाषा दोनों में ही कविता की है। इनकी भाषा सरल बोलचाल की भाषा ही है जो अत्यन्त मधुर एवं भावपूर्ण है। इन्होंने जो कुछ लिखा वह स्वयं की आत्मानुभूति के आधार पर ही लिखा है। इसलिए इनकी रचना मौलिक बन पड़ी है। इनकी रचनाओं में 1. भगवद्गीता की गंगाजळी टीका, 2. परमारथ विचार, 3. योग सूत्र की टीका, 4. मांनव मित्र रांमचरित्र वारता, 5. दुरगा सप्तसती वारता, 6. अलख पचीसी वारता, 7. चतुर चिंतामणि, 8. महिम्नस्तोत्र आदि की सुन्दर रचनायें हैं।

जहां मीरां अपने आराध्यदेव की सेविका (चाकर) बनने की हार्दिक कामना करती है वहां महाराज चतुरसिंह अपने आपको अपने उपास्यदेव की चाकरी में ही रत मानते हैं। इस भाव को उन्होंने कितनी सरल अभिव्यक्ति से प्रकट किया है–

म्हें तौ छांजी चाकर वांका,
म्हें तौ ठेठ जनम जनम का,

बाज राज लीला रे म्हें तौ,
सदा पागड़े लागां।

मौलिकतापूर्ण एवं भावमयी होने के साथ-साथ इनकी रचना सदुपदेशों से भी ओतप्रोत है जो मानव जीवन को उच्चादर्शों के दर्शन कराती है। ऐसे ही भावमय पद का एक उदाहरण देखिये–

रे मन छन ही में उठ जांणौ।।टेर।।
ईं रौ नी है ठोड ठिकांणौ, अरे मन छन ही में उठ जाणौ।
साथै कंईं न लायौ पेली, नी साथै अब आंणौ।
वी वी आय मळेगा आगे, जी जी करम कमांणौ।।1
सौ सौ जतन करे ईं तन रा, आखर नी आपांणौ।
करणौ व्है सो झटपट कर लै, पछे पड़ै पछतांणौ।।2
दो दन रा जीवा रे खातर, क्यूं अतरौ ऐंठांणौ।
हाथां में तौ कंई न आयौ, वातां में बेकांणौ।।3
कणी सीम पै गांम वसावै, कणी नीम कमठांणौ।
ई तौ पवन पुरुख रा मेळा, “चातुर” भेद पछांणौ।।4

सामन्ती घर में जन्म लेकर और विलास के हास में अपना पालन-पोषण पाकर भी इन्होंने सदैव सरल एवं सात्विक जीवन व्यतीत किया। घर पर रहते हुए जब इन्हें अपने अध्ययन एवं आध्यात्मिक चिन्तन में बाधा प्रतीत हुई तो इन्होंने घर भी छोड़ दिया और उदयपुर से 16 मील की दूरी पर नउबा ग्राम के पास एक स्थान पर कुटिया बना कर रहने लगे। यहीं संवत् 1996 में अपनी जीवन-लीला समाप्त की।

उपरोक्त वर्णित कवियों के अतिरिक्त आधुनिक काल में अनेक कवियों ने भी अपनी विभिन्न रचनायें प्रस्तुत कर राजस्थानी साहित्य को जीवन-दान देने में अपना सहयोग दिया। आज भी अनेक कवि इस ओर सतत् प्रयत्नशील हैं। विषय-विस्तार-भय से नीचे इन कवियों के नाम मात्र देकर ही संतोष करना पड़ रहा है–

चंडीदांन (कोटा), प्रतापकुंवरी बाई (जाखण, जोधपुर), गोपाळ कविया (चोखां का बास, शेखावाटी), मुरारिदांन (बूंदी), गुलाबजी (बूंदी, बिड़दसिंह (अलवर), केसरीसिंह (सोन्याणा, उदयपुर), मुरारिदांन आसिया (जोधपुर), अम्रतलाल माथुर (कुचेरा, जोधपुर), गणेसदांन (जोधपुर), महादांन (पारलू, जोधपुर), जैतदांन (मथानिया, जोधपुर), किसोरदांन (लोळावस, जोधपुर), जुगतीदांन (बोरूंदा, जोधपुर), सेवादास (जोधपुर), पुरोहित केसरीसिंह (तिंवरी, जोधपुर), पाबूदांन आसिया (भांडियावास, जोधपुर), मोडजी आसिया (भांडियावास, जोधपुर), राघूदांन सांदू (मिरगेसर, जोधपुर), चिमनदांन रतनू (विंडलिया, जोधपुर), फतहकरण (ऊजळां, जोधपुर), क्रस्णसिंह सोदा (शाहपुरा), मोडजी महियारिया (उदयपुर), बालाबक्स पाल्हावत (हणूतिया, जयपुर), बळवंतसिंह रोहड़िया (माहुद, अलवर), रांमनाथ रतनू (किशनगढ़), मुरारीदांन (आंगदोस, जोधपुर), लिखमीदांन बारहठ (आंगदोस, जोधपुर), कांनीदांन (देशनोक, बीकानेर), हिंगळाजदांन कविया (सेवापुरा, जयपुर), नाथूदांन बारहठ (शेरगढ़, जोधपुर), सेरजी बारहठ (भाखरी, जोधपुर), भगवांनजी रतनू (लालपुरा, जोधपुर), भावनादास साधु (जोधपुर), किसोरसिंह वार्हस्यपत्य (शाहपुरा), धूड़जी मोतीसर (जुडिया, जोधपुर), पन्नारांमजी (जोधपुर), प्रभुदांन (भांडियावास, जोधपुर), चौथमलजी जैन साधु।

नाथूदांन (उदयपुर), राव मोहनसिंह (उदयपुर), नैनूरांम संस्करता (बीकानेर), मुरारिदांन कविया (जयपुर), अक्षयसिंह रतनू (जयपुर), देवकरण बारहठ (इन्दोकली, जोधपुर), कन्हैयालाल सेठिया (बीकानेर), रेवतदान (मथानिया, जोधपुर), गजानन (रतनगढ़, बीकानेर), चन्द्रसिंह बीका (बिरकाळी, बीकानेर), उदयराज उज्जळ (ऊजळां, जोधपुर), नारायणसिंह भाटी (माळूंगा, जोधपुर), मनोहर शर्मा (जयपुर), मेघराज मुकुल (बीकानेर), लक्ष्मणसिंह रसवन्त (जाळसू, जोधपुर), कल्यांणसिंह राजावत (चितावा, नागौर), रेंवतसिंह भाटी (नरवर, किशनगढ़), भीम पांडिया (बीकानेर), सोहनलालजी तेरापंथी, प्रभुदांन (मथानिया, जोधपुर), किसोर कल्पनाकांत (रतनगढ़, बीकानेर), क्रस्णगोपाळ कल्ला (मेड़ता, जोधपुर), गणपति स्वांमी (पिलाणी, जयपुर), गणेसीलाल व्यास (जोधपुर), गंगारांम पथिक (बीकानेर), चंडूदान सांदू (हिलोड़ी, नागौर), भरत व्यास (चुरू, बीकानेर), मरुधर म्रदुल (जोधपुर), माधव शर्मा (चुरू, बीकानेर), राज श्री “साधना” (कोटा), रामदेव आचार्य (बीकानेर), रावत “सारस्वत” (चूरू, बीकानेर), विस्वनाथ शर्मा “विमलेश” (झुंझुनू, जयपुर), सक्तिदांन कविया (बिराही, जोधपुर), सोभागसिंह सेखावत (भगतपुरा, सीकर), रामसिंघ सोलंकी (उदयपुर), हणूंतसिंह देवड़ा (राणीवाड़ा, जालोर)।

राजस्थांनी गद्य साहित्य

विद्वानों ने प्राचीन एवम् आधुनिक भाषाओं के अध्ययन में राजस्थानी को भी पर्याप्त महत्त्व दिया है, किन्तु उनका यह आधार राजस्थानी की काव्यगत विशेषताओं तक ही सीमित रहा। गद्य की दृष्टि से भी राजस्थानी एक समृद्ध भाषा है; इस तथ्य की ओर सम्भवतया उनका ध्यान ही नहीं गया। राजस्थान के विद्वानों ने भी इसे प्रकाश में लाने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। यहां के अधिकांश आधुनिक विद्वानों ने भी सम्भवतः भाषायी एकता को पुष्ट करने की दृष्टि से अथवा किन्हीं अन्य कारणों से प्रायः हिन्दी भाषा में ही गद्य निर्माण किया है। इसका परिणाम राजस्थानी के लिए अत्यन्त हानिकर सिद्ध हुआ है। तत्कालीन राजभाषा आयोग ने अपने प्रतिवेदन में राजस्थानी को स्वतंत्र प्रांतीय भाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया, यद्यपि इस प्रतिवेदन के पहले बड़े-बड़े भाषाविद् राजस्थानी को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकार कर चुके हैं।

सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया” में राजस्थानी को एक पृथक् साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकार किया है। डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या[1] तथा डॉ. एल.पी. तैस्सितोरी ने भी इसे केवल बोलियों का समूह न मान कर हिन्दी से स्वतन्त्र एवं भारतीय आर्य-भाषाओं के परिवार की एक समृद्ध भाषा माना है।

हमारा उद्देश्य इस विवाद में पड़ने का नहीं। तथापि यह निस्संदेह सत्य है कि राजस्थानी में विपुल काव्य-निधि के अतिरिक्त गद्य साहित्य की परम्परा भी बहुत प्राचीन एवम् समृद्ध रही है।

इसके समुचित प्रकाशन एवम् अध्ययन के अभाव में ही प्रायः लोगों की इस प्रकार की धारणा-सी बन गई है कि राजस्थानी में गद्य साहित्य नगण्य अथवा गौण है। आधुनिक युग में राजस्थानी गद्य की स्थिति बड़ी चिंतनीय रही है, इसे राजस्थानी साहित्य की सेवा करने वाले लेखकों ने भी अनुभव किया है। यद्यपि इस स्थिति में अब बहुत अन्तर आ चुका है, कई व्याकरण प्रकाशित हो चुके हैं, कोश का निर्माण भी हो चुका है, राजस्थान निवासी अपनी भाषा की रक्षा के प्रति अधिक जागरूक हैं, राजस्थानी की सूक्ष्म बारीकियों का अनुसंधान किया जा रहा है, एवम् उस पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किए जा रहे हैं, और आधुनिक लेखक भी इसी भाषा में कहानी, उपन्यास आदि लिख रहे हैं।

जो लोग राजस्थानी के सम्बन्ध में यह भ्रामक धारणा रखते हैं कि राजस्थानी का अर्थ विभिन्न बोलियों का समूह मात्र है तथा उसमें गद्य का एकस्तरीय रूप नहीं है, उनकी यह धारणा प्राचीन राजस्थानी गद्य (ख्यात, बातें) का अध्ययन करने पर अवश्य मिट जानी चाहिये। मुहणौत नैणसी जालोर का निवासी था, कविराजा बांकीदास जोधपुर के रहने वाले थे, दयाळदास ने अपनी ख्यात बीकानेर में बैठ कर लिखी थी और कविराजा सूर्यमल बून्दी के निवासी थे, किन्तु इनके लिखे गद्य में विशेष अन्तर नहीं है। राजस्थानी भाषा की एकरूपता का इससे बढ़ कर अन्य कौनसा प्रमाण हो सकता है।

आज के साहित्य में गद्य की प्रधानता है, किन्तु प्राचीन साहित्य में गद्य का ऐसा प्रचलन नहीं था। राजस्थानी में गद्य का प्राचीन रूप मिलता है, किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वह साहित्य का उतना प्रभावशाली वाहन नहीं रहा जितना कि पद्य।

राजस्थानी गद्य के विकास पर दृष्टि डालते समय हम विषय-क्रम (यथा–ख्यात, बात आदि) का वर्गानुसार उल्लेख न कर के कालक्रमानुसार ही विकास-क्रम का विवेचन करेंगे।

चौदहवीं शताब्दी से राजस्थानी गद्य-रचना की परम्परा स्पष्ट रूप से देखने में आती है। गद्य लिखने की परम्परा इससे भी प्राचीन अवश्य थी पर उसके उदाहरण बहुत अल्प मिलते हैं।[2] चौदहवीं शताब्दी के प्राचीनतम गद्य के दो उदाहरण हमें उपलब्ध हैं। पहला उदाहरण एक गोरखपंथी गद्य ग्रंथ में मिलता है। हिन्दी साहित्य के सभी इतिहासकारों ने गोरखपंथी की रचना के रूप में निम्नलिखित अवतरण उद्धृत किया है।

“श्री गुरु परमानन्द तिनको दडवंत है। हैं कैसे परमानन्द आनन्द स्वरूप हैं सरीर जिन्हि को। जिन्ही के नित्य गायै तै सरीर चेतन्नि अरु आन्नदमय होतु हैं। मैं जु हौं गोरिख सो मछंदरनाथ को दडवंत करत हौं। हैं कैसे वे मछंदरनाथ। आत्मा ज्योति निस्चल है अन्तःकरन जिनिकौ अरु मूल द्वार तै छइ चक्र जिनि नाकी तरह जानै। अरु जुग काल कल्प इनिकी रचना तत्व जिनि गायौ। सुगंध कौ समुद्र तिनि कौ मेरी दंडवत। स्वामी, तुमै तौ सत्गुरु अम्है तौ सिख सब्द एक पूछिबौ, दया करि कहिबौ मनि न करिबौ रोस।

उपरोक्त अवतरण में “पूछिबौ” “कहिबौ” “करिबौ” आदि के प्रयोगों के कारण इसके रचयिता को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने राजस्थान का निवासी माना है।[3] पूर्वी राजस्थान में आज भी क्रियाओं के अंत में “बौ” लगाने की प्रथा है। किन्तु इन्हीं प्रयोगों को देख कर कुछ बंगाली विद्वानों ने अनुमान किया है कि इसकी भाषा पर पूर्वी बंगाल की भाषा का प्रभाव पड़ा है। नाथपंथी साधक प्रायः देशाटन करते रहते थे। अतः उनकी भाषा पर अनेक स्थानों की भाषाओं का प्रभाव पड़ना सम्भव है। अधिकतर विद्वानों ने उपरोक्त अवतरण को ब्रजभाषा का नमूना माना है। वास्तव में यह ब्रजभाषा का ही उदाहरण है। प्राचीन राजस्थानी में वाक्यों का संगठन इस ढंग का नहीं मिलता।

चौदहवीं शताब्दी का एक और गद्य का उदाहरण श्री मोतीलाल मेनारिया ने प्राचीन राजस्थानी गद्य के नमूने के रूप में अपनी “राजस्थानी भाषा और साहित्य” नामक पुस्तक में उद्धृत किया है–

“ज्ञानाचारि पुस्तकं पुस्तिका संपुट संपुटिका टीपणां कबली उतरी ठवणी पाठा दोरी प्रभृति ज्ञानोपकरण अवज्ञा, अकालि पठन अतिचार, विपरीत कथनु उत्सूत्र प्ररूपणु अश्रद्धधांन–प्रभृतिकु आलोयहु।“–आराधना[4] (संवत् 1330)

श्री संग्रामसिंह द्वारा रचित “बाल शिक्षा व्याकरण” में भी राजस्थानी गद्य के उदाहरण पाये जाते हैं। इस ग्रंथ का रचनाकाल संवत् 1336 है। यद्यपि यह संस्कृत व्याकरण का ग्रंथ है तथापि समझाने के लिए इसमें राजस्थानी गद्य के शब्द-समूह का प्रयोग किया गया है।

पद्य की तरह राजस्थानी गद्य के भी प्रारंभिक विकास में जैन विद्वानों का विशेष हाथ रहा है। संवत् 1411 के गद्य का एक उदाहरण एक जैन आचार्य द्वारा लिखा मिलता है। इसे राजस्थानी गद्य के नमूने के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

ग्रामि एक अति दरिद्रता करी दुक्खित डोकरी एक हूंती। हंसउ इसइ नामि तेहनउ दीकिरउ एकु हुंतउ। सु आजिविका कारणि ग्राम लोक तणा वाछरू चारतउ। अनेरइ दिनि संध्या समइ उद्यान-वन हूंतउ वाछरू ले आवतउ हूंतउ सु सर्पि डसिउ, मूर्च्छा आवी; तिहाईजि महाविखवेग संगनु हूँतउ हेठउ ढलिउ। जिम कास्तु निस्चेस्टु हुयइ तिम थाई मही पीठि पड़िउ। किणिहि एकि ग्राम माहि आवी करि डोकरि आगइ करिउ–ताहरउ दीकिरउ सरपि डसिउ। बाहिरि अचेतनु थाई पड़िउ छइ।” तरुणप्रभाचार्य [5] संवत् (1411)

पन्द्रहवीं शताब्दी में राजस्थानी गद्य में दो प्रकार की लिपि का प्रयोग होता था। पहले प्रकार में महाजनी लिखावट होने से मात्राओं आदि का बहुत कम प्रयोग किया जाता था। राव चूंडा के समय का (वि.सं. 1478) एक ताम्रपत्र बड़ली ग्राम में प्राप्त हुआ है। इसमें तत्कालीन महाजनी लिखावट का प्रयोग किया गया है–

श्री राव चूंडाजी रो दत बड़ली गांव।
प्रोयत सादा नै दीधौ संवत् 14 व…
रस आठतरो काती सुद पूनम रै।
दिन बार सूरज पुस्करजी माथै।
पुण्यारथ कीदौ महाराज चूंडाजी।
दुवौ तेवीस हजार वीगा जमीनी।
म समेत ईस्वर प्रीतये
गांव दीधौ हिन्दू नै गऊ मुसलमा
सूर माताजी चामुंडाजी सूं बेमुख
आल-औलाद अणारी कोई गोती पोतौ।
ईस्वर सूं बेमुख प्रोयत सादा बै।[6]

दूसरे प्रकार की लिपि काफी साफ-सुथरी और स्पष्ट होती थी।

शैली की दृष्टि से भी यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आगे जाकर गद्य की दो प्रमुख शैलियाँ बन गई थीं–जैन शैली तथा चारण शैली। इस समय का एक विशिष्ट ग्रंथ “प्रथीचंद चरित” अपर नाम “वाग्विलास” जैनाचार्य माणक्यसुन्दर सूरि द्वारा रचा हुआ मिलता है। इसका रचनाकाल संवत् 1478 है। इसमें वर्णन बड़ा सजीव, कथात्मक एवं महत्त्वपूर्ण है। लोक-भाषा में वर्णनों का ऐसा सुन्दर संदर्भ ग्रंथ सम्भवतः अन्य नहीं है। इसमें पृथ्वीचन्द्र के चरित्र की अपेक्षा वाग्विलास रूप-चमत्कारिक वर्णनों की ही प्रधानता के कारण रचयिता ने ही सार्थक नाम “वाग्विलास” स्वयं रखा है। ग्रन्थ प्रायः तुकान्त गद्य में लिखा गया है, जिसे पढ़ते समय काव्य-का सा आनन्द प्राप्त होता है। उस समय में ऐसे ग्रंथ का निर्माण वास्तव में राजस्थानी गद्य साहित्य की समृद्धि का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। ग्रन्थ की भाषा भी अपेक्षाकृत परिमार्जित एवं सुन्दर है। उदाहरण के रूप में एक-दो वर्णन देखिये–

[1]  "वस्तुतः भाषा-शास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो राजस्थानी, कोसली या अवधी, भोजपुरी या मैथिली आदि बोलियां नहीं, भाषायें ही हैं।"--राज भाषा आयोग का प्रतिवेदन,पृ. 238.
[2]  शिलालेख, ताम्रपत्र आदि के रूप में कहीं-कहीं प्राचीन राजस्थानी गद्य के नमूने आज भी उपलब्ध होते हैं। यहां एक 13वीं शताब्दी का शिलालेख प्रस्तुत कर रहे हैं जो बीकानेर के नाथूसर गांव में उपलब्ध हुआ है।
    प्रलेख का मूल पाठ--
    पंक्ति  -- 1-- समत 1280 बेरखे मती माह सुद्ध 2 राग--
    ,,    -- 2-- ड कुसलो गारधनत काम यायो छै गा धनैस--
    ,,    -- 3-- सर माह. रगड़ कुसलो रणधीर त झुझार
    ,,    -- 4-- हवा छै पाता अरषीयो रै बैरे महे कम या--
    ,,    -- 5-- या भटी कस(ल) संघ अखराज तरै म
    ,,    -- 6-- ह डऊ ।।काम यया छ। --"वरदा" पृष्ठ 3, वर्ष 4, अंक 3
[3]   हिंदी साहित्य का इतिहास--आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।
[4]   प्राचीन गुजराती गद्य-संदर्भ--मुनि जिनविजय, पृष्ठ 218-219.

[5] "षडावश्यक बालावबोध"--रचयिता खरतरगच्छाचार्य तरुणप्रभ सूरि, संवत् 1411.
[6] मारवाड़ का इतिहास, प्रथम भाग, लेखक--विश्वेश्वरनाथ रेऊ, पृष्ठ 65 से उद्धृत।

मरहट्ठ देस वरणण–

जिण देसि ग्राम अत्यन्त अभिराम। भलां नगर जिहां न मागीयइ कर। दुर्ग जिस्यां हुई स्वर्ग। धान्य न निपजइ सामान्य। आगर, सोना, रूपा तणा सागर। जेइ देस माहि नदी बहीइं, लोक सुषहं निर्वहइ। इसिउ देस पुण्य तणउ निवेश गरुअउ प्रदेश। तिणि देस पहठाणपुर पाटण वर्तइं, जिहां अन्याय न वर्तइं। जीणइ नगरि कउसीसे करी सदाकार पाषलि पोढ़उ प्राकार, उदार प्रतोली द्वार। पाताल भणी धाई, महाकाय षाइ, समुद्र जेहनु भाई। जे लिइ केलास पर्वत सिउंवाद, इस्या सर्वग्य देव तणा प्रासाद। करइ उल्लास, लक्षेस्वरी कोटिध्वज तणा आवास। आणंदइ मन, गरुडं राजभवन। उपारि उदंड सुवर्ण्णमय दंड, ध्वजपट लहलहई प्रचंड।

वास्तव में राजस्थानी साहित्य की उत्पत्ति और विकास में जैन धर्म का बहुत हाथ रहा है। विकासोन्मुख राजस्थान का प्राचीन रूप हमें उस समय के जैन आचार्यों की भाषा में मिलता है। इस पर विशेष कर नागर अपभ्रंश का अधिक प्रभाव है। वाग्विलास के सात-आठ साल बाद ही संवत् 1485 में हीरानंद सूरि द्वारा लिखा गया “वस्तुपाल तेजपाल रास” नामक ग्रन्थ की भाषा से यह स्पष्ट हो जाएगा–

इसउ एक श्री सत्रुंजय तणउ विचारु महिमा नउ भण्डरु मंत्रीस्वर मन माहि जाणी उत्सरंग आणी। यात्रा उपरि उद्यम कीधउ, पुण्य प्रसादन नउ मनोरथ सिधउ।

इस समय की भाषा के “कीधउ” (कोधौ) “सिधउ” आदि रूप विशेष रूप से दृष्टव्य हैं। “उ” का प्रयोग प्रायः शब्दांत में प्रचुरता के साथ मिलता है।

इस समय में अनेक जैनेतर (चारण शैली) रचनाओं का भी निर्माण हुआ है। संवत् 1485 में रची गई “अचळदास खीची री वचनिका” इनमें प्रमुख है। इसके रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। श्री अगरचंद नाहटा एवं श्री मोतीलाल मेनारिया ने इसे पंद्रहवीं शताब्दी का ग्रंथ माना है। श्री मेनारिया ने इसका रचनाकाल स्पष्ट रूप से 1485 ही दिया है।[1] परंतु डॉ. रामकुमार वर्मा ने संवत् 1615 माना है।[2] हमारे दृष्टिकोण से इस ग्रंथ की रचना संभवतः पंद्रहवीं शताब्दी में हुई है। डॉ. तैस्सितोरी का मत भी इसी का समर्थन करता है।[3] इसका रचयिता शिवदास चारण कवि था। उसने इस ग्रंथ में गागरौन के खीची शासक अचळदास की उस वीरता का वर्णन किया है जो उन्होंने मांडल के पातिशाह के साथ युद्ध में दिखलाई थी। उस युद्ध में अचळदास वीरगति को प्राप्त हुए। शिवदास ने यह सब आंखों-देखा वर्णन किया है। ग्रंथ में पद्य के साथ-साथ वात रूप गद्य भी पाया जाता है। यह गद्य सर्वत्र तुकांत नहीं है। उस काल की रचना का यह अच्छा उदाहरण है।

“तितरइ वात कहतां वार लागइ। अस्त्री जन सहस चाळीस कउ संघाट आइ संप्राप्ती हुवइ छइ। बाळी-भोळी अबळा-प्रउढ़ा सोडस-वारखी-राणी रवताणी बहदा-बहदी ही आपणा देवर जेठ भरतार का सत देखती फिरइ छइ।

इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ में तुकांत गद्य का भी उदाहरण मिलता है जो काव्य का सा आनन्द देता है–

“पगि पगि पउलि हस्ती की गज घटा, ती ऊपरि सात-सात सइ धनक-धर सांवठा। सात-सात ओलि पाइक की बइठी, सात-सात ओलि पाइक की उठी। खेडा उडण मुद फरफरी चुहंच की ठांइ ठांइ ठररी इसी एक त्यापट उडि चत्र दिसी पडी, तिण वाजि तकइ निनादि घर आकास चडहडी। बाप बाप हो! थारा आरंभ पारंभ लागि गढ़ लेयण हार किना। बाप बाप हो! थारा सत तेज अहंकार, राइ द्रुग राखणहार।

संवत् 1512 में “कान्हडदे प्रबंध” की रचना हुई। इसमें भी पद्य के बीच-बीच में कहीं-कहीं गद्य मिलता है–

“वाघवालिया च्यारि च्यारि विलगा छइ। किरि जाणीइ आकासि तणा गमन करसि। अथवा पाताल तणां पाणी प्रगटावसि। ते घोड़ा गगोद कि स्नांन कराव्या तेह तणि सिरि श्री कमलि पूजा कीधी। तेह तणि पूठि बावनो चंदन तणा हाथी दीधा। तेह तणि पूठि पंच वर्ण पाखर ढाळी। किसी पखर–रणपखर, जीणपखर, गुडिपखर,लोहपखर, कातलीयालीपखर।

उस समय की साहित्यिक भाषा एवं बोलचाल की अथवा ताम्रपत्रों की भाषा में पर्याप्त अंतर दृष्टिगोचर होता है। संवत् 1516 में जोधपुर के महाराजा राव जोधाजी ने श्रीपति के पुत्र रिषभदेव को, जो जाति का सारस्वत ब्राह्मण था और जिसका अवट्रंक ल्होड़ ओझा था, पुरोहितपन का ताम्रपत्र कर दिया था। उस ताम्रपत्र से उस काल की भाषा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है–

“महारावजी श्री जोधाजी वचनायते तथा कनोज सूं सेवग लूंब रिसी जातऐ सारसुत ओजो ल्होड़ सेवा लेनै आयौ सु राठौड़ वंस रा सेवग ऐ है। ठेटु कदीम सूं मुलगायां रौ सेवगपणौ इणारौ है। पहरी वंस रै माताजी श्री आदपंखणीजी चक्रेश्वरीजी पछै राव श्री धूहड़जी नूं वर दीधौ नै नाग रा रूप सूं दरसण दीधौ तरै नागणैचियां कहांणी सु धूहड़जी रो तांबापत्र ओझा रिषभदेव श्रीपत रा बेटा कनै थौ सु वाचनै मैं ही तांबापत्र कर दीधो। इण मुजब राठौड़ बंस रो सवगपणे रो लवाजमो जाया परणियो नेग दापो राजलोक रावळै करै सु वरत वडुलियो सरबेत रणां रो नेग है नै राठौड़ वंस गोतमस गोत्र अकरूर साखा री लार इतरा जणा छै। पीरोत सेवड़ ओजा सेवग लोड मथरेण रुदर देवा। सो देस परदेस मांहरी आल ओलाद पीढी दर पीढी ओजा रिषभदेव री।[4]

मुसलमानी शासन के कारण अरबी-फारसी के भी कई शब्द बोलचाल की भाषा में प्रवेश पा गये हैं। उपरोक्त ताम्रपत्र में भी कदीम, लवाजमौ, आल-औलाद आदि शब्दों का प्रयोग विशेष रूप से दृष्टव्य है।

श्री मेनारिया ने “राजस्थानी भाषा और साहित्य” में संवत् 1532 के लगभग लिखे गये एक ताम्रपत्र का उल्लेख किया है–

“धरती वीघा तीन सै सुर प्रब में उदक आधाट श्री रामार अरपण कर देवाणी सो अणी जमी रौ हांसल भोग डंड वराड लागत वलगत कुडा नवाण रुख वरख आंबा महुड़ा मेर को खड़म सरब सुदी थारा बेटा पोता सपुत कपुत खायां पायां जायेला।[5]

जैन धर्म के उद्धारक भगवान् महावीर ने लोक-भाषा में अपने प्रवचन किये और परवर्ती जैनाचार्यों ने भी लोक-भाषा का सदा आदर किया और उसमें निरन्तर साहित्य-निर्माण करते रहे। अतएव लोक-भाषा के क्रमिक विकास के अध्ययन की सामग्री केवल जैन साहित्य में ही सुरक्षित है। जैन आचार्यों ने लोक-भाषा में केवल रचनाएँ ही नहीं कीं, अपितु उन रचनाओं को सुरक्षित रखने का भी महान् प्रयत्न किया। जैन भंडारों में से बहुत से ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध हुए जिनकी प्रतियां अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होतीं।

जैन भण्डारों से उपलब्ध सोलहवीं शताब्दी में रची गई दो-तीन रचनाओं का उल्लेख करना यहां अनुचित न होगा। जैसलमेर के जैन भण्डार से 16वीं शताब्दी के आरम्भ में लिखा गया एक विशिष्ट वर्णनात्मक ग्रन्थ अपूर्ण रूप में प्राप्त हुआ है, जिससे तत्कालीन भाषा पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इनमें से कुछ वर्णन तो संस्कृत में हैं किन्तु अधिकांश वर्णन राजस्थानी में ही लिखा गया है।

[1] राजस्थानी भाषा और साहित्य--पं. मोतीलाल मेनारिया, पृ. 100.
[2] हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास--डॉ. रामकुमार वर्मा, तृतीय संस्करण, पृष्ठ 178.
[3] A descriptive Catalogue of Bardic and Historical Mss. Pt. J. Bikaner State, Fasc. I., P. 401.
[4] मारवाड़ का संक्षिप्त इतिहास--ले. रामकरण आसोपा, पृ. 185 से उद्धृत।
[5] राजस्थानी भाषा और साहित्य--पं. मोतीलाल मेनारिया, पृ. 274.

रसवति वरणन–

उपलइ मालि प्रसन्नइ कालि। भला मंडप निपाया, पोयणी नै पांनै छाया। केसर कुंकम ना छड़ा दीधा। मोती ना चौक पूर्या। ऊपरि पंचबरणा चंद्रवा बांध्या, अनेक रूपे आछी परियछीना रंग साध्या। फूलां ना पगर भर्या, अगर ना गंध संचर्या। धांन गादी चातुरि चाकला, बइसण हारा बइठा पाताळा। सारुवा घाट मेलाव्या आगलि पाट। ऊंची आडणी, झलकती कुंडली। ऊपरि मेलाव्या सुविसाळ थाळ, वाटा, वांटली सुवरणमई कचौळी। रूपा नी सीप ढूकी, इसी भांत मूकी।

इस काल में तुकांत गद्य वाले और विशिष्ट वर्णनात्मक गद्य ग्रन्थ राजस्थान में निरन्तर बनते रहे हैं। राजस्थानी की इस परम्परा पर संस्कृत के काव्यकार बाण की रचना में भाषा की चित्रोपमता, लय-समन्वित विचारों की नूतन परम्परा तथा अलंकरणप्रियता अधिक है। दंडी की भाषा शिष्ट, स्निग्ध एवं शान्त है। पद-विन्यास की प्रौढ़ता अनूठी लाक्षणिकता, सजीव मूर्तिमता का समावेश, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का मनोरम प्रयोग आदि विशेषताएँ दण्डी के साहित्य में बहुलता से मिलती हैं। राजस्थानी गद्य-काव्यों में भी अलंकरणप्रियता अधिक है। संस्कृत में ऐसे गद्य के लिए जिसमें अनुप्रासों और समासों की अधिकता हो एवं जिसमें पद्य का सा आनन्द आवे, वृतगंधी का उल्लेख किया गया है। गद्य की भाषा हमारे जीवन के अधिक समीप है, अतः अत्यधिक भावुक हृदय कविजन, जिन्हें छन्दों की कृत्रिमता प्रिय नहीं है, इसी के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करते हैं, किन्तु उस समय के साहित्य पर पड़ा हुआ पद्य का विशाल प्रभाव, उन्हें पद्य के समीप रहने की ही प्रेरणा देता था। अतः गद्य होते हुए भी उनके पढ़ने और सुनने में पद्य के समान आनन्द या रस प्राप्त होता है। ऐसे गद्य- काव्यों का यह निष्कर्ष निकालना ठीक न होगा कि पद्यबद्ध रचना के क्षेत्र में असफल होने पर ही कविगण गद्य का आश्रय लेते हैं। पद्यबद्ध रचना के क्षेत्र में पूर्ण सफल व्यक्ति ही गद्य-काव्य-क्षेत्र में उतर सकते हैं। गद्य की स्वाभाविकता ने जहां लेखकों को गद्य लिखने के लिए प्रोत्साहित किया वहां पद्य की एक लय, एक ध्वनि, एक आश्रय की सता का भी उन्होंने उपयोग किया। यह वह समय कहा जा सकता है जब कि गद्य पद्य से अलग होने का प्रयत्न कर रहा था किन्तु पद्य के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त अभी तक न हो सका था। सम्भवतः गद्य-काव्यों की इतनी प्राचीन परम्परा आधुनिक समय में प्रचलित अन्य भाषाओं में नहीं मिलती।

सोलहवीं शताब्दी के उत्तरकाल में निर्मित दो और पद्यानुकारी कृतियों का उल्लेख हम यहां कर रहे हैं। ये दोनों राजस्थानी साहित्य-भाग 2, में प्रकाशत हो चुकी हैं।[1] जैसा कि हम लिख चुके हैं, ये रचनाएँ गद्य में होने पर भी पद्यात्मक शैली से प्रभावित हैं–

1. पहिलउ दामा पुरोहित तणी नगरी श्री तिमरी आविया, पइसा रा मोटइ मंडाण कराविया, जांगी ढोल झालरि संखि वादित्र बजाविया, बिहुं पासे पटकूल तणा नेजा लहकाविया, पगि पगि खेला नचाविया, तणिया तोरण बंधाविया। गीत गान कीधा पून कळस सूहव सिरि दीधा; भला मंगळीक कीधा। घरि-घरि गूडि ऊछळी, श्री संघ तणी पूगी रळी। दाहौ तरसौ वरसां तणी कांण भागी, पुण्य तणी वेली वधिवा लागी। सरव..का भेळउ हुयउ। अभंग जोड़ी वडा बंधव श्री सूजा सहित राउल सातल वणवितउ सोभइ।

2. मिळिया ओसवाळ, श्रीमाळ, ढिलीवाळ, खंडेलवाळ, गुजराती, मेवाती, जैसलमेरा, अजमेरा, भटनेर, सिंधू, बहुतेरा, गोडवाड़ा, मेवाड़ा, मारुआड़ा, महेवेचा, कोटड़ेचा, पाटणेचा, मांड्या सोवन पाट, धवळिया मंदिर हाट, फूल बिखेर्या वाट, एकन हुवा महाजन-तणा घाट, ढमक्या ढोल निसाण, ऊमटिया खरतर नां खुरसांण, ऊझव करइ जिणराज ठाकुर सुजाण। वाजिवा लागा तूर, ऊपना आणंद पूर, भट्ट थट्ट लहइं कूर कपूर, याचक आपइ आसीस लहइं बोल बंभीस, न करइ लगाइ रीस, पूगी मनइ जगीस, पूत कळस ले नारी आवइ, धवळ मंगळ गावइ, मोतिए गुरुइ वधावइ, ऊपरि अति बहुमूल, उतारइ सोवन फूल, उछाळइ चावळ, फूआ वेळाउळ, जाणिवा लागा राउळ, जिसा गयणि गाजइ बादळ, तिसा रळी रळी रणकइ मादळ, चउपट चडसाळ वाजइ ताळ कंसाळ।

[1] ये दोनों रचनाएँ संवत् 1548 एवम् 1566 के मध्य में रची गई हैं। पहली रचना में जैसलमेर के राव सातल का परिचय दिया गया है एवम् दूसरी रचना में खरतरगच्छाचार्य श्री शान्तिसागर सूरिजी के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालने के साथ ही तत्कालीन जोधपुर नरेश की वीरता एवम् उदारता का उल्लेख है।

धीरे-धीरे गद्य का विभिन्न रूपों में विस्तार होने लग गया था। आवश्यकतानुसार विभिन्न विचार-प्रवाह के रूप में गद्य का प्रयोग किया जाने लगा। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी में विभिन्न रूपों में गद्य-लेखन आरंभ हो चुका था। वात, ख्यात, पीढ़ी, वंसावली, टीका, वचनिका, हाल, पट्टा, बही, शिलालेख, खत आदि के माध्यम से समाज के संघर्षपूर्ण तत्वों, सौन्दर्य-भावनाओं, सृजनात्मक प्रवृत्तियों तथा अन्य कितने ही कार्य-व्यापारों का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन विभिन्न विषयों के संबंध में मुन्शी देवीप्रसाद ने “चांद” (मारवाड़ी अंक) नवम्बर 1929 में “भाट और चारणों का हिन्दी भाषा सम्बन्धी काम” नामक एक लेख में लिखा था–

“ये लोग पद्य को “कविता” और गद्य को “वारता” कहते हैं। “वारता” ग्रंथ “वचनका” “वात” और “ख्यात” कहलाते हैं। “वचनका” और “ख्यात” इतिहास के और “वात” किस्से-कहानी के ग्रंथ हैं। इनमें गद्य और पद्य दोनों प्रकार की कविताएँ हैं। “वचनका” और “ख्यात” में बनावट का भेद होता है। “वचनका” में तुकबंदी होती है, “ख्यात” में नहीं होती पर उसकी इबारत सीधीसादी होती है।”

समृद्धता की दृष्टि से राजस्थानी का वात साहित्य सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। राजस्थान में कहानी लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन समय से चली आ रही है। संपूर्ण वात साहित्य के प्रकाश में न आने के कारण अधिकांश विद्वान वातों की विशिष्ट विशेषताओं के संबंध में अनभिज्ञ ही रहे। यही कारण है कि अधिकतर विद्वानों ने इन बातों का विषय (रईसों, नबाबों आदि के अवकाश के क्षणों में मनोरंजन हेतु) प्रेम एवं अतिरंजित एवं आकस्मिक घटनाओं से परिपूर्ण ही माना है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने “हिन्दी साहित्य” नामक पुस्तक में राजस्थानी गद्य साहित्य के विषय में लिखा है–“ब्रजभाषा की भाँति ही राजस्थानी में ख्यात, वात और वार्ताओं का साहित्य थोड़ा बहुत बनता रहा। मुगल दरबार में “किस्सागोई” नाम की एक विशेष प्रकार की कला का जन्म हो चुका था। मुगल काल के अंतिम दिनों में तो “किस्सागोई” या “दास्तानगोई” एक पेशे का रूप धारण कर चुकी थी। किस्सा-गो लोग अवकाश के क्षणों में बादशाहों, नबाबों और अन्य रईसों का मनोरंजन किया करते थे। इन कहानियों का प्रधान विषय प्रेम हुआ करता था और अतिरंजित एवं आकिस्मक घटनाओं से वर्ण्य-विषय को आकर्षक बनाने की चेष्टा भी होती थी। राजपूत दरबारों में भी इनका थोड़ा-बहुत अनुकरण होने लगा, इसी कारण राजस्थानी भाषा में भी “किस्सागोई” का साहित्य बनता रहा। परन्तु जिस प्रकार राजपूत कला मुगल कला से प्रभावित होकर भी भीतर से संपूर्ण रूप से भारतीय बनी रही, उसी प्रकार यह आख्यान साहित्य भी संपूर्ण रूप में भारतीय ही बना रहा।”

इस सम्बन्ध में एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि राजस्थानी वात साहित्य पर मुगल काल में प्रचलित किस्सागोई का असर भले ही पड़ा हो किन्तु राजस्थानी में वात साहित्य सम्बन्धी रचनाएँ मुगलों के भारत में आने से पहले ही निर्मित होती रही हैं। अतः राजस्थान की कहानी कहने और लिखने का विचार नितान्त मौलिक है। “वात” शब्द भी कहानी का उपयुक्त पर्याय नहीं है। “वात” शब्द में कहानी के अन्तर्गत वर्णित की जाने वाली सम्पूर्ण रोचकता, कहने वाले की विज्ञता और सुनने वाले के जिज्ञासापूर्ण आग्रह का एक मिश्रित भावसृजन निहित है। विषय की दृष्टि से भी राजस्थानी वार्ताओं का प्रेम, वीर, हास्य एवं शान्त रस के अन्तर्गत वर्गीकरण किया जा सकता है। श्री रावत सारस्वत ने विभिन्न दृष्टियों से “वातों” का जो वर्गीकरण किया है[1] वह राजस्थानी वात साहित्य को पूर्णरूपेण समझने में सहायक होगा।

1. कथानक की दृष्टि से

(क) ऐतिहासिक–राव रिणमल री वात, पाबूजी री वात, कानड़दे री वात, नापै सांखळे री वात, राव अमरसिंहजी री वात आदि।

(ख) अर्द्ध ऐतिहासिक–गोगैजी री वात, सयणी चारणी री वात, जोगराज चारण री वात, राजा मांनधाता री वात, पीरोजसाह पातिसाह री वात, मूमल री वात आदि।

(ग) काल्पनिक–वात ठग री बेटी री, पदमकळा री वात, फोगसी एवाळ री वात, कोड़ीधज री वात, चंदण मळयागिरि री वात आदि।

(घ) पौरांणिक–सोमवती अमावस री कथा, बुधास्टमी व्रत कथा, राजा नळ री वात, दुआरका महातम री वात, रांमनवमी री कथा आदि।

2. विषय की दृष्टि से

(क) प्रेम–सोरठ री वात, ऊमादे भटियांणी री वात, ढोला मरवण री वात, वींझरै अहीर री वात, रांणै खेतै री वात, सोना री वात आदि।

(ख) वीर–जगदे पँवार री वात, सोनिगरै मालदे री वात, राव चूंडै री वात, डाढाळे सूर री वात, राजा प्रथीराज चौहांन री वात, गौड़ गोपाळदास री वात आदि।

(ग) हास्य–च्यार मूरखां री वात, गोदावरी नदी रै जोगी री वात, मांमै भांणजै री वात, राजा भोज और खापरियै चोर री वात, बीरबळ री वात आदि।

(घ) शान्त–राजा भोज री पनरमी विद्या री वात, भांडण गांम रै पीर री वात, रांमदास वैरावत री आखड़ियां, रांमदे तुंवर री वात आदि।

3. भाषा के प्रभाव की दृष्टि से

(क) राजस्थांनी–नागौर रै मामले री वात, सूरां अर सतवादियां री वात, सांईं री पलक में खलक बसै तैं री वात, राजा भीम सूं जुध कियौ तैं री वात आदि।

(ख) उर्दू मिश्रित–कुतबदी साहिजादै री वात, देहली री वात, लुकमांन हकीम री आपणै बेटे कूं नसीहत आदि।

(ग) ब्रजभाषा मिश्रित–नासिकेत री कथा, पूरणमासी री कथा आदि।

(घ) गुजराती मिश्रित–अंजना सती री वात।

4. रचना प्रकार की दृष्टि से

(क) गद्यात्मक–सूरिजमल हाडै री वात, राजा करणसिंहजी री कंवरी री वात आदि।

(ख) गद्य पद्यात्मक–रतना हमीर री वात, नागजी नागमती री वात, पना वीरमदे री वात आदि।

(ग) पद्यात्मक–विद्याविळास चौपई, नळ दमयंती चौपई, सनिस्चरजी री कथा, ढोला मारवणी चौपई आदि।

5. शैली की दृष्टि से

(क) घटनात्मक–पातिसाह औरंगजेब री हकीकत, जैपुर में सैव वैस्णवां रौ झगड़ौ हुयौ तैंरौ हाल आदि।

(ख) वर्णनात्मक–खीची गंगेव नींबावत रौ बेपारौ, लूणसाह री वात रौ वखांण आदि।

(ग) विचारात्मक–माघ, पिंडत, राजा भोज, डोकरी री वात, जसनाथ जाट री वात।

6. उद्देश्य की दृष्टि से

(क) व्यक्ति चित्रण–हरराज रै नैणां री वात, हरदास ऊहड़ री वात, ऊदै उगणावत री वात, महाराजा पदमसिंह री वात आदि।

(ख) समूह दर्शन–भायलां री वात, बूंदेलां री वात, सांचौर रै चहुवांणां री वात, गढ़ बांधव रै धणियां री वात।

(ग) समय व स्थान विशेष का वर्णन–राव बीकै बीकानेर बसायौ तैं समै री बात, रांणै उदैसिंह उदयपुर बसायौ तैं समै री वात, अणहलवाड़ा पाटण री वात आदि।

उपरोक्त वर्गीकरण के साथ इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि राजस्थानी वात-साहित्य इतना विस्तृत तथा विविधतापूर्ण है कि उसका पूर्ण वैज्ञानिक वर्गीकरण करना साधारण रूप में सम्भव नहीं है।

“राजस्थानी साहित्य में मोटे तौर पर दो प्रकार की बातें मिलती हैं। एक तो वे बातें जिनका लिपिबद्ध स्वरूप बन गया है और जिनकी भाषा-शैली में स्थायी रूपगत विशिष्टता प्रकट होती है। दूसरे वर्ग के अन्तर्गत वे बातें आती हैं जिनका कोई एक शैलीगत रूप लिपिबद्ध नहीं हो सका, किन्तु वे अभी तक लोगों की जबान पर ही हैं। इस दूसरे प्रकार की वातों को लोक-कथाओं के नाम से भी पुकारा जाता है।”[2]

[1] राजस्थान भारती, वर्ष 3, जुलाई 1951.
[2] परम्परा--राजस्थानी वात संग्रह, भूमिका, पृष्ठ 12.

राजस्थानी लोक-कथाओं की दृष्टि से भी बहुत समृद्ध है। राजस्थान के भूतकालीन इतिहास की गौरव कथायें आदि विविध रसों से परिपूर्ण होकर लोककथाओं के रूप में प्रचलित हो गई हैं। ग्राम-ग्राम में इन लोक-कथाओं की समृद्ध स्मृतियाँ और रसात्मक श्रुतियाँ प्रचलित हैं और नाना जनों के स्मरण और कण्ठ में रम रही हैं। स्थानीय प्रभावों के कारण उनमें अधिक विभेद पाया जाता है और लिपिबद्ध बातों में जहाँ घटनाओं का एक रूढ़ रूप परिपाटी से चला आ रहा है वहाँ इन वातों (लोक-कथाओं) में परिवर्तन के लिए सदैव गुंजाइश रहती है। वातों की रचना-प्रणाली पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जायगी।

यद्यपि राजस्थानी की प्राचीन वातों में आधुनिक साहित्य की कहानियों में मिलने वाला सूक्ष्म तत्वों का चित्रण, पात्रों का वैज्ञानिक चरित्र-लेखन तथा कहानी लेखक के विस्तृत अध्ययन की सारगर्भित मार्मिक उक्तियों आदि का अस्तित्व आदि नहीं मिलता तथापि राजस्थानी वातों की अपनी एक विशिष्ट शैली है।

घटना-बाहुल्य राजस्थानी वातों की प्रमुख विशेषता है। इनमें पाठकों को मन्त्रमुग्ध करने की अपूर्व क्षमता है। बीच-बीच में जहाँ भी अवसर प्राप्त होता है वहीं प्रकृति की अनुपम छटा, नगर की विशालता एवं सम्पन्नता, दुर्ग की अभेद्यता, युद्ध की भयंकरता, वीरों का रण-कौशल, हाथी-घोड़ों के लक्षण, अस्त्र-शस्त्रों की विशेषताएँ, नायिका का सौन्दर्य, उसके श्रृंगारिक उपकरणों आदि का बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। ये वर्णन इतने सजीव एवं मार्मिक हैं कि पाठकों के कल्पना पटल पर सजीव चित्र उपस्थित कर देते हैं। वात कहने वाले या लिखने वालों की दृष्टि इतनी पैनी हो गई है कि वे अत्यंत सूक्ष्म तत्वों का निर्देश करना भी नहीं भूले हैं। उदाहरण के रूप में जहाँ मृगया का वर्णन हो रहा है वहाँ एक-एक क्षण के परिवर्थन के सुन्दर चित्र हैं। किसी सरस विषय को वे और भी मनोरंजक बना देते थे। कुछ रचनाएँ तो ऐसी हैं जिनमें शताब्दियों का इतिवृत्त ठूंस दिया गया है एवं उनका लिपिबद्ध रूप सैकड़ों पृष्ठों में जाकर समाप्त होता है। किन्तु कुछ रचनाओं में थोड़े से समय में घटित होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं का भी अत्यन्त विशद वर्णन है : सोलहवीं शताब्दी में[1] रची गई “खीची गंगेव नींबावत रौ दो-पहरौ” इसका सुन्दर उदाहरण है। इसमें खीची-वंशीय नींबा के पुत्र गंगेव की एवं उनके साथियों की एक दिन की दिनचर्या का वर्णन है जिसमें दुपहर का वर्णन प्रधान है। छोटे-छोटे वाक्यों की सुन्दर योजना के कारण गंभीर भावों की आलोचना तथा सूक्ष्म तत्वों का चित्रण बड़ा सुन्दर बन पड़ा है। इसी वात का एक उदाहरण देखिये–

“तठा उपरायंत मोदियां नै हुकम हुवौ छै। भूंजाई सारू सारी ही वसत सीधौ मीठांण वेसवार सरब लेय राती-नाडी चालज्यौ, म्है सिकार रम उण नाडी आवां छां। सू मोदी भोई तो पाधरा नाडी रै मारग वहीर हुवा छै। आप रमणै“र मारग भाखरां नै खुडां रै मारग चालिया छै। घोड़ां रा पोडां सूं जमी गूंज रही छै। खेह री डोरी आकास नै जाय लागी छै। घूघरमाळ घोड़ां री वाज रही छै। हींस कळळ होफ हुयनै रही छै। वहलियां रा घूघरां जंगां रौ झमकार हुयनै रह्यौ छै। वहलां रा वांस पइयां रौ खड़बड़ाट हुयनै रह्यौ छै। होकांरा हुयनै रह्या छै। सहनायां में मलार राग हुयनै रह्यौ छै। निसांण मुंहडै आगै फरहरनै रह्या छै। नकीब, चोपदार नजर दौलत। सू सूरज री किरण नै वरछियां री एकै किरण हुयनै रही छै। इसौ समीयौ वणनै रह्यौ छै।

वर्णन परंपरागत होते हुए भी इसकी सरसता में कमी नहीं आ पाई है। व्यक्ति-चित्रण भी इन व़ातों में बड़े सुन्दर ढंग से उपस्थित किया जाता है। इसी “खीची गंगेव नींबावत रौ बेपारौ” नामक व़ात में खीची गंगेव के व्यक्तित्व का रेखाचित्र देखिये–

“तठा उपरांयत गंगेव नींबावत बाहर पधारै छै, सू किण भांत रौ छै? ऊगतौ सूरज, पावासर रौ हांस, कुंवरांपत कुंवर, जळहर जबाध भोगी भैंवर, कसतूरियौ म्रिघ, लांघियौ सिंघ, सीळ गंगेव, दुरजोधन अहमेव, जुजठळ ज्यू साच, दुरवासा वाच, ग्यां रौ गोरख, सहदेव ज्यूं सारी वात समरथ, अरजुन ज्यूं बांण, करण ज्यूं दांन पांण, वत्तीस आखड़ी रौ निवाहणहार, वैरियां विभाड़णहार, पर- भोम पंचायण, घण दियण, जस लियण, कळायरौ मोर, सूंधै भीनै गात, केसरिया पौसाख कियां, पांच हथियारां बाधां आंण घोड़ै असवार हुवै छै।

प्रायः सभी व़ातों में तत्कालीन समाज की परिस्थितियों का सुंदर चित्रण मिलता है। इन वातों से मध्यकालीन राजस्थान के बहुत बड़े समाज के सामाजिक एवं राजनैतिक वातावरण, आमोद-प्रमोद, रूढ़ि-निर्वाह, जीवन सिद्धान्तों आदि पर प्रकाश पड़ता है। वर्णनों की सजीवता, औत्सुक्य का निर्वाह, लयात्मक भाषा में काव्य का सा आनंद और सामाजिक सत्य की अभिव्यक्ति आदि के कारण सैकड़ों वर्षों से ये बातें राजस्थान के लोगों को अत्यन्त प्रिय रही हैं।

सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक राजस्थानी का गद्य साहित्य काफी उन्नति कर चुका था। सुसंगठित भाषा में उपमाओं, दृष्टान्तों और उत्प्रेक्षाओं एवं अतिशयोक्तियों का अत्यन्त सुन्दर प्रयोग होने लगा था। रूढ़ उपमानों के अतिरिक्त अन्य कितने ही नये मौलिक उपमानों का भी प्रयोग हुआ है। पद्य के समान गद्य में भी नख-शिख वर्णन राजस्थानी व़ातों में पाया जाता है। सोलहवीं शताब्दी[2] का ही इस संबंध में गद्य का एक और उदाहरण देखिये–

तठा उपरांति करि नै राजां न सिलामति नख सिख सूधौ सिणगार वखांणीजै छै। वासिगां सारीखी पहपवेण ऊपरि सीसफूल मोतिआं रौ वणाव वणी नै रहियौ छै। पूनिमचंद सो मुक सोळै कळा संपूरण विराजिऔ छै। तिलक बीच बिंदी झिख नै रही छै। कवांण ज्यां बाकी भ्राहां भमर विलसी विराज नै रहिया छै। म्रिघ नैणां त्रिखां भलकां ज्यों जळवालिआं टोए अणिआळो काजळ ठांसियौ छै सू आसी नासिका बीच बेसर बणी, उजळै पाणी नरमदा मोती प्रोया सू लटकि नै रहिआ छै। बिचै लाल मणी झळक रही छै।” –राजांन राउत रौ वात-वणाव।

राजस्थानी व़ातों की यह परम्परा आधुनिक काल तक निर्बाध गति से चली आ रही है। सोलहवीं शताब्दी के बाद भी साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत सी सुन्दर बातें लिखी गईं, जिनका हम आगे यथास्थान उल्लेख करेंगे।

व़ात साहित्य के अतिरिक्त उस समय “वंसावळी” या “पीढ़ियावळी” भी लिखी जाती रही, जिनका साहित्य की अपेक्षा इतिहास की दृष्टि से अधिक महत्त्व है। वंसावळी या पीढ़ियावळी में पीढ़ियाँ दी जाती हैं, जिनके साथ में व्यक्तियों का संक्षिप्त या विस्तृत परिचय भी प्रायः रहता है। विविध जातियों की वंशावलियाँ भाट, मथेरण आदि जाति के व्यक्तियों द्वारा लिखी जाती रही है। बीकानेर के जैन संग्रहालयों में इस प्रकार की लिखी गई वंशावलियाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। “बच्छागत वंसावळी, राठौड़ वंस री विगत आदि वंशावळियाँ तो इतिहास की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। विविध राज्यों की लिखी हुई अधिकांश पीढ़ियावलियाँ आधुनिक समय में उपलब्ध नहीं हैं। जो मिलती हैं उनसे ही राजस्थान के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

संवत् 1600 के लगभग की लिखी गई “राठौड़ों की वंशावळी” से उस समय की भाषा एवं वंशावलियाँ लिखने के ढंग की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

“पछै मुलतान री फौजाँ नै दिली री फौजां ले नै राउ चूंडै उपर नागौर आयौ। राउ चूंडौ नागोर मारिया पछै केल्हण अपूठौ आयौ।–राठौड़ां री वंसावळी (सं. 1600)

पन्द्रहवीं शताब्दी के “बालावबोध” लिखने की परंपरा भी अभी तक जैन लेखकों में चली आ रही थी। बालक भी सरलता से समझ सकें, इस तरह की टीका को “बालावबोध” कहा गया है।[3] संवत् 1600 की लिखी गई “मुनिपति चरित्र बालावबोध” की एक प्रति हमारे देखने में आई है। भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ काफी महत्त्वपूर्ण है। इसकी भाषा का एक उदाहरण देखिये–

साकत (साकेत) नगर चंद्रावतंसक राजा। तहनइ (तेहनइ) बि भार्या। एक सुदर्शना। बीजी पद्मावती। सुदर्शना ना बि पुत्र। सागरचंद्र। मणिचंद्र। पद्मावती ना बि पुत्र। गुणचंद्र। बालाचंद्र। चंद्रावतंसक राजा इंदीवउ दखी। (देखी) अभिग्रह लीधउ। जां ए दीवउ बलि सिइ तांमइ का सगन पाखिउ। दासिइं च्यारइ पुहर दीवउ सींचिउ। राजानउं सयरालाही (लोही) भरिउं। मूरछा आवी। आकुल हुउ। मरीादवालां कि गिाराज परीघउ मिलिउ। (मरी देव लोकि गिरोज परीघउ मिलिउ)

इस समय की बोलचाल की भाषा में अरबी-फारसी का प्रयोग बढ़ता जा रहा था। शासन-कार्यों में भी फारसी-मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग होता है। बारहठ लक्खा द्वारा संवत् 1642 में कुलगुरु गंगारामजी को बादशाह अकबर की ओर से दिये गये ताम्रपत्र की भाषा के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी–

[1] राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग 1, प्रकाशक--राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर में प्रकाशित अगरचंद नाहटा का एक लेख, पृ. 24 के आधार पर।
[2] राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग 1, प्रकाशक--राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर--में प्रकाशित श्री अगरचंद नाहटा का एक लेख, पृष्ठ 34 के आधार पर।
[3] परंपरा, भाग 9-10 "नीतिप्रकास" में प्रकाशित श्री अगरचंद नाहटा का एक लेख--"राजस्थानी भाषा में अनुवाद की परम्परा", पृष्ठ 172.

परवाना

लीखावतां बारहठजी श्री लखोजी समसत चारण वरण वीसजात्रा सीरदारां सूं श्री जेमाताजी की बाचज्यो अठे तषत आगरा श्रीपातसाजी श्री 108 श्री अकबर साहजी रा हजुरात दरीषांना माहीं भाट चारणां रा कुळ री नंदीक कीधी जण वषत समसत राजेसुर हाजर था वां का सेवागीर वी हाजर था जकां सुण अर मो सु समंचार कह्या जद सब पंचां री सला सु कुलगुरु गंगारांमजी प्रगणै जेसलमेर गांव जाजीयां का जकाने अरज लीष अठे बुलाया गुर पधार्या श्री पातसाहजी नी रुबकारी में चारण उत्पत्ती सास्त्र सिवरहस्य सुणायौ पंडतां कबुल कीधो जण पर भाट झुटा पड्या गुरां चारण वंस री पुषत राखी नीराजस सारां बुतासु सीवाय बंदगी कीधी ओर मारा बुता माफक हाती लाष पसाव प्रथक दीधो गांव की अेवज बावन हजार बीगा जमी ऊजेण के प्रगने दीधी जकण रो तांबापत्र श्री पातसाहजी का नांव को कराय दीधो अण सवाय आगा सुं चारण वरण समसत पंचां कुल गुरु गंगारामजी का बाप दादा ने व्याव हुअे जकण में कुल दापा रा रुपीया 17।।) ओर त्याग परट हुवे जीण मां मोतीसरां को नांवो बंधे जीण सु दुणौ नांवो कुल गुरु गंगारांम का बेटा पोता पायां जासी संमत 1642 रा मती माहा सूद 5 दसकत पंचोली पन्नालाल हुकम बारठजी का सु लीखी तखत आगरा समसत पंचां की सलाह सू आपांणौ यां गुरां सू अधीकता दुजौ नहीं छै।[1]

परवर्ती काल में राजस्थानी गद्य में साधारणतः दो प्रकार की पुस्तकें लिखी गईं–कुछ स्वतंत्र ग्रंथ तथा कुछ साहित्यिक ग्रंथ की टीकाएँ, अनुवाद आदि, स्वतंत्र ग्रंथों के अन्तर्गत इस समय में रचा गया “दलपत विळास” का उल्लेख आवश्यक है। इसकी रचना रायसिंहजी के समय में संवत् 1621 से 1668 के बीच किसी समय हुई थी[2] क्योंकि इसमें संवत् 1632 तक की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। इस ग्रन्थ की भाषा का एक उदाहरण देखिये–

“एक अमरै कल्याणमलोत पातिसाही साढि ली हुती। ताहरां कुंवर श्री दळपतजी नूं राजाजी कहाड़ि मेल्हियो जु ऐ सांढि घेराए। अर इणनूं काढे परहा धरती महा अमरै नूं। ताहरां इसड़ै सै टांणै कुंवर श्री दळपतिजी बीकानेर थी चढि अर इयां सांमहा पधारिया। आंबासर महा करि, सोहवै महा करि सिंधू पधारिया। सिंधू ओथ खबरि पाई जु एथि तो नैड़ा सा नहीं। ताहरां सिंधू हुता कूच करि अर बाढसरि पधारिया। ओथि राघवदास रा आदमी खोसाखूंदी करता हुता सु कुंवर श्री दळपतजी झलाड़िया।

दूसरे प्रकार के ग्रन्थ अनुवाद एवं टीका के रूप में मिलते हैं। अनेक साहित्यिक ग्रंथ (जिसमें अधिकतर काव्य ग्रंथ ही होते थे) जो साधारण जन के लिये सहज रूप में बोधगम्य नहीं होते थे, उनकी उस समय में प्रचलित सरल गद्य में टीका प्रस्तुत की जाती थी जिससे जन-साधारण भी उन काव्य-ग्रंथों का रसास्वादन कर सकें। राजस्थानी अनुवादों की विविध शैलियां पाई जाती हैं। वे अनुवाद या टीकाएँ जो जैन ग्रंथों या जैन विद्वानों के किये हुए हैं, उन्हें प्रधानतया “टब्बा”, “बालावबोध” और “वार्तिक” के नाम से ही संबोधित किया गया है। “टब्बा” संक्षिप्त शब्दानुवाद का द्योतक है। अनुवाद अनेक प्रकार के पाये जाते हैं जिनमें शब्दानुवाद, छायानुवाद प्रधान रूप से उल्लेखनीय हैं। विस्तृत विवेचन को टीकाओं की संज्ञा मिल जाती है। इस काल में अनेक ग्रंथों की टीकायें लिखी गईं। प्रथीराज की “वेलि” पर लिखी गई आठ-दस टीकायें मिलती हैं, उनमें प्राचीनतम रूप में उपलब्ध टीका का उदाहरण हम यहां दे रहे हैं जो संभवतः संवत् 1683 का है–

“बलि को बंधणहार। सब ही बात सामरथ। श्री क्रसण रुखमणीजी बांह पकड़ि रथ उपरि बैसाणी। तबै बाहर वाहर हुई। कहण लागा जु कोई होय सु दौड़िज्यौ। हरणाखी कहतां रुकमणीजी हरि कहतां क्रस्ण हरि ले गयौ। –वेलि क्रिसण रुखमणी री टीका (संवत् 1683)

इन टीकाओं के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं के ग्रंथों का भी राजस्थानी में अनुवाद किया गया। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं में रचित ग्रंथों को समझना जब जन-साधारण के लिए अत्यन्त कठिन हो गया तब प्रचलित भाषा में उनके अनुवाद की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। यद्यपि प्रारम्भ में अधिकांश अनुवाद जैन आचार्यों द्वारा किए हुए ही मिलते हैं तथापि जैनेतर अनुवाद भी बाद में सैकड़ों की संख्या में उपलब्ध होते हैं। इनमें “भागवत दसम स्कंध भासा”, “महाभारत भासा”, “गरुड़ पुरांण भासा” आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

मुस्लिम संस्कृति एवं साहित्य के प्रसार के कारण फारसी भाषा के भी अनेक ग्रंथों का अनुवाद राजस्थानी में किया जाने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी तक तो यह परंपरा बहुत ही बढ़ गई थी।

टीकाओं एवं अनुवादों के अतिरिक्त सत्रहवीं शताब्दी के परवर्ती काल तक गद्य काव्य का रूप भी काफी निखर चुका था। भाषा में लालित्य की मात्रा कुछ अधिक दृष्टिगोचर होने लगी थी। वर्णन बड़े सुन्दर होते थे। सत्रहवीं शताब्दी में लिखित एक वर्णनात्मक ग्रन्थ में विरहिणी का वर्णन देखिये–

“हारु त्रोड़ती, वलय मोड़ती। आभरण भांजती, वस्त्र गांजती। किंकणी कलाप छोड़ती, मस्तक फोड़ती। वक्षस्थल ताड़ती, कंचउ फाड़ती। केश कलाप रोलावती, प्रथ्वी तलि लोटती। आंसूकरी कंचुक सींचती, डोडली दृष्टि मींचती। दीन वचन बोलती, सखीजन अपमानती। थोड़इ पांणी माछळी जिम तालोचलि जाती, सोक विकल जाती, सोक विकल थाती। क्षणि जोयइ, क्षणि रोयइ। क्षणि हसइ, क्षणि रूसइ। क्षणि आक्रंदइ, क्षणि निंदइ। क्षणि मूझइ, क्षणि बूझइ। तेह तनु संतापइ चंदणु। कमळनाल पुण मेलइ जाल। चंद्रकांति ज्वलइ, पुस्प स्यया बलइ। हार भावइ अंगारु, कदलीहर, मानइ जमहर, जे जल सीकर ते उद्वेग कर। जउ सीतलोपचार, ते करइ विकार। इणि परि प्रज्वलित, स्ेनह पटल, विरहानल नीपजइ।[3]

[1] नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग 1, संवत् 1977 में प्रकाशित "चारणों और भाटों का झगड़ा" नामक लेख, पृ. 131-134 से उद्धृत।
[2] राजस्थान भारती, भाग 2, अंक 1, जुलाई 1948, पृ. 51.

[3] राजस्थान साहित्य संग्रह, भाग 1, प्रकाशक : राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर, जोधपुर में प्रकाशित अगरचंद नाहटा के एक लेख के पृ. 22 पर दिया गया उद्धरण।

जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि सत्रहवीं शताब्दी तक मुगलकालीन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का प्रभाव राजस्थान की भाषाओं एवं बोलियों पर भी पर्याप्त रूप से पड़ने लगा था। उस समय की वे वार्तायें अथवा लोक-कथायें जो बोलचाल की भाषा में लिखी जाती रहीं, उनमें अरबी-फारसी के शब्द निस्संकोच रखे गये हैं। ये कथाएँ साहित्यिक निपुणता या चमत्कार की दृष्टि से नहीं लिखी गईं। सत्रहवीं शताब्दी की लिखित “कुतबदीन साहिजादै री वारता” का एक उद्धरण देखिये–

“एक दिवस पीरोजसाह का उमराव दांनसमंद की बेटी साहिबां खुलावती थी, ढ़ढ़णी खुस्याल भइ महरवांन हुई कर कहण लागी–अरे साहिबां तूझ कूं उपगार करूंगी इहै खूब ममां क्या उपगार करैगी उपगार करती है हमारै वडां बुढु कै नांम लेती है।

साधारणतः लोक-कथाओं का निर्माण जन-साधारण के लिये ही किया जाता था, अतः उन कथाओं की रचना प्रायः बोलचाल की भाषा में ही की जाती थी। अरबी-फारसी शब्दों का प्रचलन बोलचाल की भाषा में निरन्तर बढ़ता ही जा रहा था। लेखक प्रायः अरबी-फारसी के अच्छे जानकार भी होते थे। अतः बाद की “वातों” में अरबी-फारसी का प्रयोग बड़ा सुव्यवस्थित ढंग से हुआ। “वातों” में इन शब्दों के प्रचुर प्रयोग का दूसरा कारण इन लोक-कथाओं का कई वर्षों तक लिपिबद्ध नहीं होना भी है। लिपिबद्ध न होने से इनका स्वरूप स्थिर न रह सका और कालान्तर में इनकी भाषा अरबी-फारसी शब्दों से प्रभावित होती गई और जब इनको लिपिबद्ध किया गया तब तक ये शब्द इन वातों में अपनी जड़ जमा चुके थे। “वात” के लेखकों ने जहाँ मुसलमानी पात्रों का वर्णन एवं कथानक प्रस्तुत किया है वहाँ उसके अनुरूप अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी किया है जिससे वर्णन में अत्यंत स्वाभाविकता बनी रहती है–

नबाब मुहीम सर कर पदमपुरे सूं पाव कोसेक गांव थौ उणमें आ उतरियौ थौ। इतरै उण बखत रा ढोल नगारा बाजिया जिका सुणर पूछी–आज भाई के पुरे में ढोल नगारे जो बाजे हैं सो किसी की सादी है या कोई कुंवर पैदा हुवा है या किंही ऊपर फतह हासिल की है? सो जाय सताब खबर लेय आवौ। जणां आदमी खबर नुं गयौ। आदमी तुरत आय सारी खबर सुणाई।” –महाराजा श्री पदमसिंह री बात

प्राचीन राजस्थानी का गद्य अनेक रूपों में मिलता है। वातें, लोक-कथायें, वंशावलियाँ आदि का उल्लेख हम कर चुके हैं। संवत् 1715 में एक और प्रमुख “वचनिका” का निर्माण हुआ। इसके पहले शिवदास चारण द्वारा “अचळदास खीची री वचनिका” लिखी जा चुकी थी जिसका उल्लेख हम यथास्थान कर चुके हैं। उसी परंपरा में जग्गा खिड़िया ने “वचनिका राठौड़ रतनसिंघ जी री महेसदासोत री” की रचना की किन्तु शिवदास के निर्दिष्ट मार्ग पर चल कर भी जग्गा साहित्यिक दृष्टि से उससे आगे निकल गया। भाषा की दृष्टि से इसका रूप शिवदास की वचनिका से अधिक सुधरा हुआ है। इसमें गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग बड़े सुंदर ढंग से किया गया है। प्रबंध काव्यों में पद्य के साथ ही साथ गद्य के प्रयोग की परंपरा भी राजस्थानी साहित्य में काफी समय से चली आ रही है। संभवतः यह प्रणाली संस्कृत के चम्पू ग्रन्थों से ली गई है। इस प्रकार के गद्य ग्रन्थों में ये गद्य खंड विभिन्न नामों से मिलते हैं, यथा–वचनिका, वारता, दवाबैत आदि।

1. वारता– औरंगसा पातसा आसुर अवतार। तपस्या के तेज पुंज एक से विसतार। माप का विहाई सा प्रताप का निदांन। मारतंड आगे जिसी जोतसी जिहांन।–राजरूपक (सं. 1787)

2. दवाबैत– ऐसा गढ जोधांण और सहर का दरसाव जिसके चौतरफ कौं वागीचूं का डंबर और दरियाऊं का वणाव। पहिले वागीचूं की सोभा कहिके दिखाया पीछे दरियाऊं की तारीफ जिसके गुन गाया। सो कैसे कहि दिखाया जळ निवांणुं का निवास रतिराज का वास। गुलजार के रस नैं होजूं का वणाव। इंद्रलोक सा उदोत अवासूं का दरसाव।–सूरजप्रकास (सं. 1787)

“वचनिका” ग्रन्थ में एक-एक चरित्रनायक का विवरण और यश-वर्णन रहता है। “रघुनाथ रूपक” इत्यादि छंद-शास्त्रीय ग्रंथों में गीतों आदि का विवेचन करने के साथ वार्ता, वचनिका, दवावैत आदि गद्य रूपों के भी लक्षण उदाहरण सहित दिए हैं। उसमें गद्य के दो भेद माने हैं–दवाबैत और वचनिका। इन दोनों के भी दो-दो भेद किये गये हैं–दवाबैत के शुद्धबंध और गद्यबंध तथा वचनिका के पद्यबंध और गद्यबंध। मंछ कवि द्वारा लिखे गये दवाबैत की व्याख्या करते हुए उसके टीकाकार श्री महताबचंदजी खारैड़ ने लिखा है–“दवाबैत कोई छंद नहीं है, जिसमें मात्राओं, वर्णों अथवा गणों का विचार हो। यह अंत्यानुप्रासरूप गद्य जाल है। अंत्यानुप्रास, मध्यानुप्रास और किसी प्रकार का सानुप्रास या यमक लिया हुआ गद्य का प्रकार है। यह संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू और हिन्दी भाषा में भी अनेक कवियों और ग्रंथकारों द्वारा प्रयोग में लाया हुआ मालूम देता है। आधुनिक लल्लूलालजी के “प्रेमसागर” आदि ग्रंथों में तथा उर्दू के “बहारवेखिजा”, “नोवतन” आदि ग्रंथों में तथा फारसी के ग्रंथों में देखा जाता है। यह दवाबैत दो प्रकार की होती है–एक शुद्धबंध अर्थात् पद्यबंध जिसमें अनुप्रास मिलाया जाता है और दूसरी गद्यबंध जिसमें अनुप्रास नहीं मिलाते हैं।

इस सम्बन्ध में श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा अपने एक लेख में दी गई टिप्पणी भी उल्लेखनीय है[1] — “रघुनाथरूपक में वचनिका और दवाबैत के जो भेद बताये गये हैं, उनके नामों में थोड़ा उलटफेर हो गया है, गद्यबद्ध को पद्यबद्ध और पद्यबद्ध को गद्यबद्ध कह दिया गया है। टीकाकार ने जो टिप्पणियाँ दी हैं वे भी भ्रांतिपूर्ण हैं। शुद्ध विवेचन इस प्रकार है–वचनिका के दो भेद होते हैं–(क) पद्यबध (या पदबद्य), जिसमें मात्राओं का नियम होता है। इसके दो भेद होते हैं–1. जिसमें आठ-आठ मात्राओं के तुक-युक्त गद्य खंड हों और 2. जिसमें बीस-बीस मात्राओं के तुक-युक्त गद्य खंड हों। (ख) गद्यबद्ध जिसमें मात्राओं का नियम नहीं होता। इसके भी दो भेद होते हैं–3. वारता (कहीं-कहीं तुकान्त गद्य के लिये भी वात, वार्ता या वार्तिक नाम का प्रयोग देखा जाता है) या साधारण गद्य 4. तुक युक्त गद्य। दवाबैत के भी इसी प्रकार दो भेद होते हैं–1. पद्यबद्ध (या पदबद्ध) इसमें चौबीस-चौबीस मात्राओं के तुकयुक्त गद्य खंड होते हैं; 2. गद्यबद्ध–इसमें तुकयुक्त गद्य खंड होते हैं, मात्राओं का नियम नहीं होता। दवाबैत और वचनिका में क्या अन्तर है, यह अभी तक समझ में नहीं आ पाया है। वचनिका के चतुर्थ भेद और दवाबैत के द्वितीय भेद में कोई अन्तर नहीं दीख पड़ता। उपलब्ध दवाबैतों की भाषा राजस्थानी से प्रभावित खड़ी बोली हिंदी है जबकि वचनिकाओं की राजस्थानी।”

संवत् 1715 में रची गई “राठौड़ रतनसिंघजी महेसदासौत री वचनिका” इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। चारण कवियों और काव्य-रसिकों में वचनिका का अत्यधिक मान और सत्कार रहा है। यह एक प्रबंध काव्य है। उस काल के अन्य ग्रंथों के समान वचनिका में भी विदेशी (अरबी-फारसी) शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु उनकी संख्या बहुत ही कम है। डिंगल के कुछ विशिष्ट ध्वन्यानुकरण-मूलक शब्द भी काफी मात्रा में पाये जाते हैं। यथा–गड़गड़, हड़बड़, धड़ड़ि, खाटरखड़ि, क्रहक्रह, चड़च्चड़, झाटझड़ि, धड़धड़, कणकण, कळळ, सळस्सळि, टळट्टळि खड़क्खड़ आदि। संस्कृतमूलक कुछ शब्द तत्सम रूप में भी आये हैं। इस ग्रंथ का एक अतुकांत गद्य का उदाहरण देखिये–

इणि भांति सूं च्यारि रांणी त्रिण्ह खवासि द्रव्य नाळेर उछाळि वळण चाली। चंचळां चढि महा सरवर री पाळि आइ ऊभी रही। किसड़ी हीक दीसै। जिसड़ौ कीरतियां रौ झूंबकौ। कैं मोतियां री लड़ी। पवंगां सूं उतरि महा प्रवीत ठौडि ईसर गौरिज्या पूजी। कर जोड़िकहण लागी। जुग जुग औ हीज धणी देज्यौ। न मांगां वात दूजी। पछै जमी आकास पवन पाणी। चंद सूरज नूं। प्रणाम करि। आरोगी ढोळी परिक्रमा दीन्ही। पछै आप रै पूत परिवार नै छेहली सीख मति आसीस दीन्ही।
–वचनिका राठौड़ रतनसिंघजी री (सं. 1715)

वात और वचनिका के अतिरिक्त राजस्थानी गद्य साहित्य के विकास में ख्यातों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। साहित्यिक दृष्टि के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन ख्यातों का महत्त्व बहुत अधिक है। राजस्थानी में “ख्यात” शब्द प्रायः इतिहास के पर्याय रूप में ही प्रयुक्त होता रहा है। “ख्यात” संस्कृत के “ख्याति” शब्द का रूपान्तर मात्र है।[2] अठारहवीं शताब्दी में कई ख्यातें लिखी गईं। वैसे क्रमबद्ध इतिहास लिखने की परंपरा प्राचीन भारत में नहीं मिलती, किन्तु मुगलकाल में लिखी गई फारसी तवारीखों के प्रभाव के कारण लोक-भाषाओं में इतिहास लिखने का प्रयत्न किया गया। सम्राट अकबर को इतिहास से बड़ा प्रेम था। उसने अपने समय में इतिहास लेखन को बहुत महत्त्व दिया। अब्बुल फजल द्वारा “अकबर नामा” एवं “आइने अकबरी”, अब्दुल कादिर बदऊनी कृत “तारीखे बदऊनी” निजामुद्दीन द्वारा “तबकाते अकबरी” आदि प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ इसी समय लिखे गये। स्थानीय राजाओं ने भी इतिहास-लेखन के महत्त्व को समझा एवं इसके लिखाने की आवश्यकता अनुभव करने लगे। सम्राट ने भी राजपूत राजाओं को इसके लिये प्रेरित किया। इसके बाद प्रायः प्रत्येक राजपूत राजा के समय में नियमपूर्वक ख्यातें लिखी जाती रहीं। राजस्थानी का प्राचीनतम ख्यात साहित्य प्रायः इसी समय से मिलना आरंभ होता है। वास्तविक एवं प्रामाणिक गद्य साहित्य का उदाहरण इन्हीं ख्यातों में मिलता है। ये ख्यातें विभिन्न लोगों द्वारा लिखी जाती रहीं। कुछ ख्यातें तो राज्य की ओर से नियुक्त ख्यात-लेखकों द्वारा लिखी गईं। इन ख्यातों में अपने स्वामी के प्रति प्रशंसायें ही अधिक हैं, आलोचनायें कम। इस दृष्टि से इनका साहित्यिक मूल् चाहे कितना ही क्यों न हो, ऐतिहासिक मूल्य अवश्य कुछ कम हो जाता है। इन राजकीय ख्यात-लेखकों के अतिरिक्त कुछ व्यक्तियों ने स्वतंत्र रूप से भी ख्यातें लिखीं। इतिहास की दृष्टि से ये ख्यातें ही अधिक प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें नैणसी, दयाळदास व बाँकीदास के नाम प्रमुख रूप से लिये जा सकते हैं।

[1] राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग 1, प्रकाशक : राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर, जोधपुर, में प्रकाशित "राजस्थांनी गद्य काव्य की परम्परा" नामक श्री अगरचन्दजी नाहटा द्वारा लिखे गये एक लेख में दिये गये फुट नोट के आधार पर।
[2] नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग 1, में प्रकाशित "विविध विषयों" के अंतर्गत "चारण" पर विचार प्रकट करते हुए श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने मुरारि कवि के नाम से श्लोक दिया है--
      चर्चाभिश्चारणानां क्षिति रमण, परां प्राप्य संमोदलीलां।
      मा कीर्तेः सौविदल्ला नवगणय कवि प्रात वाणी विलासान्।।
      गीतं ख्यातं न नाम्ना किमपि रघुपतेरद्य यावत्प्रसादा।
      द्वाल्मीकेरेव धात्रीं धवलयति यशोमुद्रया रामभद्रः।।
   इसमें "ख्यात" शब्द का प्रयोग है, अतः ऐसा माना जा सकता है कि "ख्यात" शुद्ध तत्सम शब्द है।

ख्यातें प्रायः दो ढंग से लिखी जाती रहीं। एक तो वे जो लगातार इतिहास के रूप में लिखी गईं एवं जिनमें साधारणतया क्रम-भंग नहीं होता। इसके अंतर्गत “दयाळदास री ख्यात” मानी जा सकती है। दूसरे प्रकार की वे ख्यातें हैं जिनमें क्रमबद्ध इतिहास के स्थान पर क्रमरहित फुटकर बातें पाई जाती हैं। कुछ बातें उनमें बड़ी भी होती हैं एवं कुछ बातें नितांत छोटी एक डेढ़ लाइन में ही समाप्त होने वाली होती हैं. अगर इन बातों को क्रम से लगा दिया जाय तो भी इनसे कोई श्रृंखलाबद्ध इतिहास नहीं बनता। दूसरी श्रेणी के अंतर्गत “बाँकीदास की ख्यात” की गणना की जा सकती है।

आधुनिक समय में लिखे गये मुगलकालीन इतिहास प्रायः मुसलमानी तवारीखों को आधार मान कर ही लिखे गये हैं, अतः ये इतिहास बहुत कुछ अधूरे, भ्रमात्मक एवं एकपक्षीय ही कहे जा सकते हैं। राजस्थानी ख्यातों से सहायता लेकर इन भूलों एवं अधूरेपन को दूर किया जा सकता है, किन्तु अद्यावधि इनका उपयोग नाम मात्र के लिये ही हुआ है। संभवतः इसका प्रमुख कारण इन ख्यातों का शीघ्र प्रकाशित न होना भी हो। ख्यात-लेखकों को विभिन्न विषयक सामग्री खोजने तथा उसे उचित रूप में उपस्थित करने के लिये अथक परिश्रम करना पड़ा है, किन्तु खेद है कि उनके इस कठोर परिश्रम का अभी तक उचित मूल्यांकन नहीं किया गया।

ख्यातों में गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग किया गया है तथापि पद्य की मात्रा बहुत कम है। ख्यात-साहित्य की इस परंपरा में मुँहणौत नैणसी द्वारा संवत् 1719 में लिखी ख्यात बहुत महत्त्वपूर्ण है। नैणसी की ख्यात में बातें बहुत बड़ी-बड़ी हैं जो कई पृष्ठों तक चलती हैं। अगर इन बातों को क्रम से व्यवस्थित कर दिया जाय तो उनसे क्रमवार इतिहास बन जाता है।

“मुंहणौत नैणसी की ख्यात” राजस्थानी गद्य की अत्यन्त प्रौढ़ और उत्कृष्ट रचना कही जा सकती है। इस ख्यात के गद्य का एक नमूना देखिये–

माछळां रा मगरा सूं उतर नै सहर छै। दीवांण रा मोहल पीछोळा री पाळ ऊपर छै। मोहलां थी आथवण नूं तळाव लगतौ सहर छै। कोस दो रै फेरै छै। सहर री एक कांनी माछळा रौ मगरौ छै। एकण कांनी खरक दिस सिंसरवा रौ मगरौ छै। तळाव घणौ भरीजै तरै पांणी मगरै तांईं जाय छै। तळाव में पांणी माछळा रा मगरा रौ, सीसरवा रा मगरा रौ घणौ आवै छै। तळाव निपट वडौ छै। मांहे मगरमछ रहे छै। तळाव ऊंडौ घणौ छै। ते तळाव री मोरी छूटै छै। तिण थी घणी धरती दोळौ फिरै छै। तिणरौ घणौ हासल हुवै छै।

कालक्रम की दृष्टि से अठारहवीं शताब्दी के परवर्ती काल में ख्यात साहित्य के अतिरिक्त परंपरागत गद्य- काव्य के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। इनमें “सभाश्रृंगार” नामक ग्रंथ की एक प्रति संवत् 1762 की मिली है। यद्यपि सोलहवीं शताब्दी में गुजराती राजस्थानी से अलग हो चुकी थी तथापि इस पर गुजराती का थोड़ा बहुत प्रभाव मालूम देता है। इस ग्रंथ का वर्षाकाल का एक वर्णन देखिये–

बरखाकाल हूउ, वहितौ रहिउ कुयउ, वावि पाणी भरता रया। बादल उनया। मेघ तणा पाणी वहै, पंथी गांमइ जाता रहै। पूरव ना वाजइ वाय लोक सहु हरखित थाय। आकास धड़हड़ै, खाळ खड़हड़ै। पंखी तड़फड़इ, वडा मांणस लड़थड़इ, काठ सड़इ, हाळी हळ खड़इ। आपणा धरि कादम फेड़इ, बीजा काज मेड़इ। पार पार न लीइं, साध विहार न करीइं। अनेक जीव नीपजै, विविध धान्य ऊपजै। लोकनी आस पूजै, गाय भैंस दूजै।

इस समय की दवाबैत के रूप में लिखी गद्य रचनायें भी मिलती हैं। उदाहरण के लिये मालीदास भाट द्वारा रचित “नरसिंहदास गौड़ की दवाबैत” का एक उदाहरण देखिये–

“रंग छहरते हैं। कपड़े पहरते हैं तोसक सील्यावता है। हजूरी पावता है। चढ़ते उतरते पाव दे सलांम करांवदे है। जरबफत पाटता है। अंबर फटते हैं। सभा बिराजती है। कीरत राजते हैं। घोड़े फिरते हैं। पायक अड़ते हैं। गुणीजण राग घटता है। वह वखत वणता है। सोभा बणती है। श्री दीवांण पधारते हैं। दुसमण को जारते हैं। देसौं दूर डरते हैं। साहौ काम सरते हैं। कवीसुर बोलते हैं। भरणा खोलते हैं। काम का सूरत। जेतला दिहाड़ा तेतला प्रवाड़ा। जग जेठराज नरसिंह जेत, कवि मालीदास कहै दबावैत।”

इस दवाबैत के अतिरिक्त संवत् 1772 में बनाई गई कुछ और दवाबैत भी मिलती हैं जिनमें रामविजय उपाध्याय द्वारा रचित जैनाचार्य जिनसुखसूरिजी की दवाबैत तथा जिनलाभसूरि दवाबैत प्रमुख है। इस काल का दवाबैत-साहित्य बहुधा जैन-आचार्यों द्वारा ही रचा गया है।

इस काल में संस्कृत गद्य ग्रंथों के कुछ अनुवाद भी किये गये। संवत् 1773 में लिपिबद्ध “बैताळ पच्चीसी” की भाषा का उदाहरण देखिये–

वार्त्ता– तीयैं विस्वनाथ रौ दरसन कर बैठौ इतरइ एक नाइका वहिल हूं ऊतरि स्नांन करि पूजा करि चाली। तितरइ एक वर दीठी कवर नुं कवरी यइ दीठौ मांहोमाहि निझर मिली कांम रा बांण लागा उन्मादन सोखण, संदीपन, मोहन, तापन ए पांच बांण कांम रा नाइका रा हीया मांहि चुभीया तरै कुळ री मर्यादा छोडि लाज दूर करि सील कनार इधरि समस्या करि संकेत स्थान कह्या–एक कमळ हाथ मांहे लीयौ हंतौ माथइ लगाइ पछै कांने लगायौ, कांनां थी दांते लगायौ, दांतां थी पगे लगायौ, पगां थी हीयइ धरि चालती हुई, वांसइ राजा पुत्र विरह करि पीड़ित हुइउ तरइ प्रधांन…

संवत् 1800 के बाद गद्य साहित्य का विस्तार द्रुत गति से हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसे बहुत से लेखक हुए जिन्होंने उत्कृष्ट कोटि का गद्य साहित्य लिखा। शैील की विविधता की दृष्टि से भी इस काल का विशेष महत्त्व है।

संवत् 1800 के गद्य का एक उदाहरण श्री मेनारिया ने राजस्थानी भाषा और साहित्य में दिया है–

“पछै बामण सोदौ ले नै तळाव उपर रोटी करवा बैठौ। जठे तळाव री तीर एक मीडक आयौ। आवे न बांमण थी कही। देवता तोहे तौ में अठे कदी नहीं देख्यौ। तू कठे जाअ है। जदी बांमण कहै। हूँ उजीण रहौ छूँ नै गयाजी जांऊ छूँ।

भाषा की दृष्टि से यह उदाहरण उन्नीसवीं शताब्दी के परवर्ती काल का मालूम होता है। संवत् 1800 तक गद्य साहित्य में इतनी आधुनिकता नहीं आने पाई थी।

कविराजा बाँकीदास द्वारा संवत् 1860 में लिखी गई ख्यात राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर से प्रकाशित हो चुकी है। इसमें छोटी-छोटी फुटकर बातों का संग्रह है। लगभग 2776 बातें इसमें संग्रहीत हैं। राजपूताने के समस्त राज्यों एवं मुगल बादशाहों के इतिहास सम्बन्धी अनेक फुटकर नोट इसमें भरे पड़े हैं। ख्यात की भाषा का एक उदाहरण दृष्टव्य है–

“अकबर री मा मक्का वगेरै मकां-सरीफ ज्यांरी ज्यारत करण गयी। पातसाह मिरजा सरफुद्दीन नुं साथै मेलियौ। अेक पीर विलायत में जिण री ज्यारत सुहागवती करै, विधवा न करै। ज्यारत करण वास्तै विधवा अन्य पुरख सूं अवध करि निका पढ़ लै। उण पीर री ज्यारत करण नूं अकबर री मा मिरजा सरफुद्दीन साथ निका पढ़ी। दिली अकबर री मा पाछी आयी। जद आ वात सुणी अकबर फुरमायो–आगै तौ सरफुद्दीन हमारा चाकर रहा, अब हमारा बाबा है।

उन्नीसवीं शताब्दी का वात साहित्य के विकास की दृष्टि से काफी महत्त्व है। इस शताब्दी के आरंभकाल (संवत् 1812) में लिपिबद्ध “श्री ढोलामारूजी री वारता” नामक एक ग्रन्थ जोधपुर के “पुस्तक प्रकाश” में वर्तमान है। ग्रन्थ प्रायः दोहों-सोरठों में ही लिखा गया है किन्तु बीच-बीच में कुछ फुटकर गद्य भी दिया गया है–

“जण गांम ऐवाळ रहँतौ हुतौ अण गांम ऐक लुगाई रौ नांम मांरूणी हुंती। ऐवाळ जांणीयो वा मारू। ऐवाळ कहण लागो मारू तो माहरा साथ मांह छै। काले म्हारी छाळ चारती हुंती।

“ढोला मारू री वात” की एक और लिपिबद्ध प्रतिलिपि संवत् 1872 की मिलती है। इस काल के गद्य का क्रमशः विकास समझने में इसका उदाहरण भी सहायक होगा–

“पिंगळ राजा सांवतसी देवड़ा नै आदमी मेल कहायौ–अबै थै आणौ करौ। तद सांवतसी घणौ ही विचारियौ पण बात बांध कोई बैसे नहीं। कुंवरि नै ऊझणौ दे मेली जे। तद ऊंठ, घोड़ा, रथ, सेजवाळ, खवास, पासवांन, साथे हुवा सो उदैचद खमै नहीं। वाट रोक्या छै। अनरथ होय, माल जाय। तरै सांवत सी आदमी ने कह्यौ–जै मारग विखम छै। आप छांनै परधांन मेलौ तौ आणौ करां। कुंवरि नै घरे पहुंचायां पछै सारी बात सोरी छै। इतरौ कहि आदमी नै सीख दीधी।

उपरोक्त दोनों उदाहरणों की तुलना से यह स्पष्ट है कि जहां पहले उदाहरण में प्राचीनता की छाप स्पष्ट है वहाँ पिछले उदाहरण में भाषा आधुनिकता की ओर बढ़ती हुई दिखाई देती है। “रहंतौ हुतौ” “चारती हुंती” आदि प्रयोग आधुनिक वातों में नहीं मिलते, अगर मिलते भी हैं तो उनकी संख्या नगण्य है। अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग प्रायः बढ़ता जा रहा था। संभवतः इसका कारण यह था कि उस समय राजस्थान के अधिकतर रजवाड़ों का शासन-संबंधी कार्य प्रायः फारसी के माध्यम से ही संपन्न होता था।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि इस शताब्दी में वात रचनाओं में विविध शैलियों का प्रयोग किया गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई “डाढ़ाळा सूर की वात” इस सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वात में वीरोचित कार्यों का आरोपण एक सूअर परिवार पर किया गया है। “डाढ़ाळा सूर” की वीरता अपने युग की वीर भावना के अनुकूल एवं अनुरूप है। किन्तु जहाँ किसी ऐतिहासिक कथा में “वीरता” पात्रों एवं घटनाक्रम में निहित रहती है, वहां इस वात में “वीरता” को अमूर्त तत्व के रूप में ही ग्रहण किया जा सकता है। संभवतः प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई यह पहली रचना है, इस कारण इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। सूअर की व्यवहारगत और स्वभावजन्य परिस्थितियों के आधार पर मानवोचित वीरभाव की अभिव्यंजना जैसी सुन्दर इस वात में बन पड़ी है, वैसी संभवतया अन्य किसी प्रकाशित वात में नहीं पायी जाती। किसी ने इस वात के सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है कि “प्रतीक के ही कारण इस कथा में एक प्रकार से सत्य का विरूपात्मक प्रयोग हुआ है और यह “विरूप” एक वीर सूअर परिवार के प्रतीक रूप में स्थापित किया गया और सफलतापूर्वक निभाया भी गया।[1] यह वात भी संभवतया उन्नीसवीं शताब्दी के परवर्ती काल में लिपिबद्ध की गई जान पड़ती है। इस वात की भाषा का एक उदाहरण देखिये–

पाव कोसे‘क गया जद डाढ़ाळौ बोलियौ–भूंडण, महा सूरवीर रौ खेतरिण रौ छोडियौ आछौ नहीं. घावां बड़ो धरम छै और म्हारौ सरीर सूं सभार छै। काल्ह पग पसार थे म्हे मरीस तौ अगत जायसै, मौनूं अगत होयसी, थांनूं बड़ौ महणौ होसी। राव बडौ रजपूत छै, सूरवीर छै। पाछौ जाय कांम आयसूं तौ गत होयसी। राव रौ चित्त सांत होवै। मोनूं फेर इसौ सापुरुख कोई मारणेहारौ नहीं मिळसी तींसूं राजी होय मोनूं सीख देवौ जे कांम आवूं।

[1] "परंपरा" के "राजस्थानी बातां" नामक अंक में श्री कोमल कोठारी द्वारा लिखे गये एक लेख के आधार पर।

उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम गद्य लेखक कविराजा सूर्यमल्ल हुआ। अपने वृहत् ग्रंथ “वंशभास्कर” में इन्होंने गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग किया है। साहित्यिक रूप में इन्होंने संस्कृतनिष्ठ राजस्थानी का प्रयोग किया। “वंशभास्कर” की भाषा में प्रसाद गुण का अभाव है, वह अत्यन्त गूढ़ और क्लिष्ट है, यहां तक कि टिप्पणी से भी आशय सुगमता से नहीं खुलता। संभवतया प्राचीन परंपरागत क्लिष्ट राजस्थानी का यह अंतिम उदाहरण है। भाषा में संस्कृत के तत्सम रूपों का प्रयोग प्रचुरता के साथ हुआ है–

सो राजा नै आपरा प्रांण रौ औषध अनंगसेना जांणि अवरोध जाय रांणी रै अरथ निवेदन कीधौ। रांणी तो कळिजुग रो रूप एहा अभिरूप अवनीस रौ तिरस्कार करि सुद्धांत रै आश्रित अनेक जन रहै जिकां में कोई दो ही लोक रो खोवणहार ठाळियो जिण री संगति रै प्रभाव स्वर्ग लोक रा मार्ग मुद्रित कराय कुंभीपाक रो निवास भाळियो सो आपरा स्वामी रो दीधो अपूर्व चमत्कारिक फळ रांणी अनंगसेना नैं जाररै भेट कीधौ।

साहित्यिक भाषा एवं लोकभाषा में सदैव से अंतर रहता चला आया है, अतः कविराजा ने जिस भाषा का अपने गद्य में प्रयोग किया है, वह जन-साधारण में प्रचलित भाषा से काफी दूर थी. उस समय में जन-साधारण के प्रयोग में आने वाले गद्य के नमूने के रूप में नामली ठाकुर साहब बखतावरसिंहजी को चैत्र शुक्ला नवमी संवत् 1915 के दिन सूर्यमल्ल द्वारा लिखे गये एक पत्र के कुछ अंश उद्धृत कर रहे हैं–

“धार सों तथा आमझरा सों अंग्रेज को कांईं कसूर बणि आयो सो बीसा बिक दस्तूर लिखावसी और राजसिंह के साथ पत्र गयो तीमें धरम के निमित्त युयुत्सा को प्रश्न लिख्यौ छै तींकौ भी प्रत्युत्तर लिखायो नहीं सो अब ज्यां-ज्यां की जसी जसी तरह दीसती होय सो लिखावसी–म्लेच्छां को इरादो अस्यो दीसै छै कि अब कै रह्या तो ईं आर्यावत हैं परतंत्र करि ही देसी अर ठिकाणौ कोई भी हिंदू कै न रहसी परंतु परमेश्वर की इच्छा आर्य न राखबा की दीसै छै क्योंकि अबार क्षत्रियां ने प्रतिकूल बातां छै जे सब अनुकूल दीस रही छै तीसों भावी विपरीत ही जाण्यो पड़ै छै और अठी का तरफ को वरतमांन जांणसी कि इंगरेज की फोज अजमेर सूं कोटे लड़ाई पर आई छै। गोरां तो सोळासै छै अर काळा हजार च्यार के अनुमान छै परन्तु मन में बदल्या हुवा दीसै छै…।

बीसवीं सदी के आरम्भ में दयाळदास सिंढ़ायच द्वारा “राठौड़ां री ख्यात” नाम से एक वृहत् ग्रंथ रचा गया, जिसका कुछ अंश अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर से प्रकाशित भी हो चुका है। दयाळदास की भाषा एवं ख्यात के सम्बन्ध में डॉ. दशरथ शर्मा लिखते हैं–

‘We might regard Dayaldas Sindhayach as the last of the great bardic chroniclers of Bikaner. With the advance of the western system of education and increasing materialism their days were speedily coming to an end. Dayaldas however was an honoured courtier, trusted adviser and emissari besides being a state chronicler. He was no Abul Fazl; but his position in the state affairs was high enough to suggest some comparison with that great historian of the Mugal period. Like him Dayaldas Sindhayach was an erudite scholar. He was an accomplished rhetorician, a writer of excellent Marwari, only a little inferior to that of Nainsi Munnot.’

दयाळदास की भाषा सीधी-सादी किन्तु प्रवाहपूर्ण है। उसका उद्देश्य साहित्यिक ग्रंथ लिखना नहीं था। उसने इतिहास लिखा, परन्तु उसमें प्रयुक्त राजस्थानी गद्य उस समय के गद्य साहित्य पर प्रकाश डालता है। दयाळदास की ख्यात में प्रयुक्त गद्य का एक उदाहरण देखिये–

“पीछै आलमगीरजी हाथी सूं उतरिया, अरु फौज मांय फिरै है। आप रा काम आया तथा घायलां नूं देखै है। आपरी तरफ रां नू उठावै है, पाटा बांध जाबतौ करावै है, तथा डोलियां मैं घालै है, वा साह सूजै री तरफ रां नूं मारै है। अरु बूंदी रा राव राजा सत्रसालजी घावांपूर हुवा पड़िया है। जिसै आलमगीरजी गया। सूं मूहड़ै ऊपर हाथ फेरियौ। अरु पांणी पायौ। सावचेत कर अमल दियौ। तद चेतौ हुवौ, पछै आलमगीरजी फुरमायौ जो रावजी अरज करौ।

दवाबैत, वचनिका आदि के रूप में बीसवीं शताब्दी में बहुत कम लिखा गया। दवाबैत, वचनिका, वारता आदि प्राचीन राजस्थानी की शैली रही है। आरंभिक काल में कुछ कवियों ने इनमें रचनायें कीं, किन्तु वे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त न कर सकीं। इनमें गोपाळदास कविया रचित “शिखर वंसोत्पत्ति वारतिक” (संवत् 1926) तथा “लावारासा” और कविराव बख्तावर द्वारा रचित “केहर प्रकास” (संवत् 1936) की गणना की जा सकती है। ये तीनों ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। इनकी भाषा प्राचीन परंपरागत राजस्थानी का अनुकरण करती सी मालूम होती है, यथा–

“स्यांम ताज कफनी कमंडल में नीर। डाटी सुपेत सेख सुवरण सरीर।। मोकल राव आतौ देखि माथा कौं नवायौ, सांई स्यां भुरांनी सेख नामी पंथ पायौ। जंगल में चरे छी सो अव्याई झोटी आई, मोकल का कनां सू सेख चीपी में दुहाई।” –शिखर-वंशोत्पत्ति

“पुत्री जिणरे कंवलप्रसण रूप री निधांन। सुकेसिया सूं सवाई साव रंभा रे समान। साहित्य श्रृंगार काव्य जबानी पर कहे। रमाताल परिजंत संगीत में रहे। वीणांधर सहजांई गावे किण भांत। तराज पर नहं आवे नारद वीणां री तांत। जिणने सुण्यां कोकिला मयूर लाज भाग जावे। कुरंग औ भमंग वन पाताल सुँ आवै।

“सुघड़ जठे बोली या नवेली सहज सारे ही सिधावज्यौ। पण बाग वन सरोवर कदे भी मत जावज्यौ। जावेला बाग तो पिक सुक अली उड़ जावसी ने बिंबफल श्रीफल अनाड़ सेवां जो सुखावसी, जावेला जो वन तो खंजन कपोत चोध चूरेला।” –केहर-प्रकाश

इन सबको श्लोक की तरह मात्राओं आदि के प्रतिबंध से रहित गद्य ही समझना चाहिये। आधुनिक काल में इस प्रकार की रचनाओं का निर्माण नहीं होता।

उपरोक्त लिखे गये गद्य के विकास-क्रम पर दृष्टि डालते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्राचीन राजस्थानी में जहां कहीं भी गद्य का उपयोग हुआ, वहाँ वह वैज्ञानिक या विचारात्मक रूप में न होकर सीधे सादे कथात्मक रूप में हुआ। उस काल के गद्य के लिये सीधी एवं सरल शैली ही उपयुक्त समझी जाती थी क्योंकि तब तक उसके सामने गहन एवं सूक्ष्म विचारों की अभिव्यक्ति का अवसर ही उपस्थित न हुआ था। संभवतया इसी कारणवश भाषा में अंतर्निहित व्यञ्जना शक्ति भी पूर्ण रूप से प्रदर्शित न हो सकी थी। किन्तु भारतीयों की चिन्तन- शक्ति पर जब से पाश्चात्य योरोपीय विचारधारा का प्रभाव पड़ा तब से भाषा के विकास के लिये भी एक नये युग का सूत्रपात हो गया। एक बंगाली लेखक द्वारा सूत्र रूप में कहा गया यह ठीक ही मालूम देता है कि “अंग्रेजी के साथ-साथ भारत में गद्य का आविर्भाव हुआ, कविता की जगह तर्क ने ले ली।” इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है, किन्तु यह तो मानना पड़ेगा कि गद्य के आधुनिकीकरण में पाश्चात्य शिक्षा का बहुत कुछ हाथ रहा है।

भारत के पराधीनताकाल में जो राष्ट्रीयता की लहर उठी उसके कारण स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिये देश की एकता पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। “एक भाषा, एक राष्ट्र” की आवश्यकता को कुछ लोगों ने महसूस किया। जातीय एवं प्रांतीय बंधन तोड़ कर लोग राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने लगे। संभवतः इसी कारणवश बीसवीं शताब्दी में राजस्थानी में गद्य-निर्माण एक तरह से अवरुद्ध हो गया। राजस्थान में हिन्दी गद्य का निर्माण एवं विकास होने लगा। कविराजा श्यामलदास, शिवचंद्र भरतिया, मुन्शी देवीप्रसाद, पं. लज्जाराम, पं. रामकर्ण, पुरोहित हरिनारायण, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पं. सूर्य्यकरण प्रभृति कई विद्वान हिन्दी के अच्छे गद्य-लेखक हो गये हैं। इनमें से शिवचंद्र भरतिया एवं पं. रामकर्ण ने राजस्थानी में भी गद्य लिखा किन्तु हिन्दी गद्य के मुकाबले इसकी मात्रा अत्यन्त अल्प रही। शिवचंद्र भरतिया ने तो राजस्थानी में तीन नाटकों का भी निर्माण किया। राजस्थानी गद्य के इतिहास में संभवतः नाटक रचना पहली बार इनके द्वारा ही हुई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राजस्थानी के साहित्यकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। अब राजस्थानी गद्य साहित्य के पुनर्निर्माण का प्रयत्न चारों ओर से हो रहा है। यह शुभ लक्षण है। भारतीय आर्य भाषा के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान झ्यूल ब्लॉक (Jwes Bloch) ने एक स्थान पर कहा था कि “भारतीय आर्य भाषाओं के समक्ष जब आधुनिक शिक्षण-व्यवस्था की सार्वजनीन स्वीकृति के फलस्वरूप वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति का प्रश्न उपस्थित हुआ तब एक कठिन समस्या खड़ी हो गई, क्योंकि देशी भाषायें तब तक ऐसे विषयों के पूर्णतया प्रकाशन के लिये संपूर्ण रूप से समृद्ध माध्यम न बन सकी थीं और उपयुक्त वैज्ञानिक और पारिभाषिक शब्दावली की कमी के साथ-साथ अधिकांश भाषाओं का लड़खड़ाता सा एवं अनिश्चित गद्य-विन्यास भी इस असामर्थ्य का कारण था।” इसके साथ ही डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या का यह कथन नितांत सत्य है कि “यदि नव्य भारतीय आर्य भाषाओं में एक सरल और शक्तिशाली गद्य शैली का आविर्भाव शीघ्र ही हो गया होता तो भारतीय चिन्तन के पुनर्निर्माण में बड़ी भारी सहायता मिलती और उनको लेकर भारतीय मानसिक जागृति का उदय भी कितना ही पहले हो गया होता।” राजस्थान एवं राजस्थानी गद्य के लिये भी ये कथन अक्षरशः सही उतरते हैं। फिर भी आधुनिक काल में किये जा रहे प्रयत्नों को देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि राजस्थानी गद्य साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है।

राजस्थानी लोक-साहित्य

राजस्थानी भाषा और तत्सम्बन्धी साहित्य के विवेचन के उपरान्त राजस्थानी लोक-साहित्य का भी संक्षिप्त विवेचन राजस्थानी संस्कृति एवं साहित्य के पूर्ण परिचय में सहायक सिद्ध होगा। हम यह बता आये हैं कि राजस्थानी साहित्य अत्यंत समृद्ध तथा विविधतापूर्ण है, परंतु यहाँ का लोक-साहित्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसकी अपनी मौलिक विशेषतायें हैं जिसके अध्ययन के बिना राजस्थानी भाषा के साहित्य का सम्पूर्ण चित्र हम प्रस्तुत नहीं कर सकते। इस लोक-साहित्य की महत्ता स्वीकार करते हुये श्री नारायणसिंहभाटी लिखते हैं “कि मरुभूमि के सौरभ की जो ताजगी आज भी इस लोक-साहित्य में है वह न बड़े-बड़े प्रबंध-काव्यों के अलंकृत छंदों में और न इतिहास तथा ख्यातों की जिल्दों में ही ढूंढ़ने से मिल सकती है। यहां का लोक-साहित्य जन-जीवन से सिंचित उस कुसुम के समान है जिसका रंग समय के आतप से आज तक नहीं मुर्झाया, न जिसके सौरभ में ही कोई कमी आई है। यह लोक साहित्य मरुभूमि के निवासियों की रागात्मक प्रवृत्तियों का वह कोश है जो लिपिबद्ध न होने पर भी सांस्कृतिक इतिहास की वास्तविकता को बड़ी खूबी के साथ अपने में संजोये हुए है।”[1] “लोक” की वास्तविक संस्कृति उसके कंठस्थ साहित्य में निहित होती है। अतः “लोक” शब्द की व्याख्या के अभाव में लोक- साहित्य का ज्ञान सर्वथा अपूर्ण है। यह “लोक” शब्द अत्यन्त प्राचीन है जिसका प्रयोग वैदिक काल से निरन्तर रूप में होता चला आ रहा है। वेद, उपनिषद्, गीता आदि सभी में इसकी व्याख्या हुई है।[2] डॉ. वासुदेवशरण के शब्दों में “लोक” हमारे जीवन का महासमुद्र है; उसमें भूत, भविष्य, वर्तमान सभी कुच संचित रहता है। “लोक” राष्ट्र का अमर स्वरूप है; “लोक” कृत्स्न-ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है। अर्वाचीन मानव के लिए “लोक” सर्वोच्च प्रजापति है। लोक, लोक की धात्री सर्व भूतमाता, प्रथिवि और लोक का व्यक्त रूप मानव यही हमारे नए जीवन का अध्यात्म शास्त्र है। इसका कल्याण हमारी मुक्ति का द्वार और निर्माण का नवीन रूप है। लोक-पृथिवी-मानव, इसी त्रिलोकी में जीवन का कल्याणतम रूप है।”[3] स्पष्ट है कि “लोक” भू-भाग पर व्याप्त साधारण जन-समाज है, जिसे आज हम संस्कृति की संज्ञा देते हैं वह “लोक” से भिन्न नहीं है। भारतीय समाज में नागरिक एवं ग्रामीण दो भिन्न संस्कृतियों का उल्लेख किया जाता है परन्तु “लोक” दोनों ही संस्कृतियों में विद्यमान है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने परिष्कृत एवं संस्कृत लोगों के प्रभाव से दूर अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त लोगों को ही लोक की संज्ञा दी है।

उन्होंने लिखा है–“लोक” शब्द का अर्थ “जान-पद” या “ग्राम्य” नहीं है बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। ये लोग नगर में परिष्कृत, रुचि-संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं।[4] इससे स्पष्ट है कि इस भू-भाग पर रहने वाला वह जन-समुदाय जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर रह कर अपनी पुरातन सभ्यता को प्रवहमान करता हुआ जीवन-निर्वाह करता है “लोक” कहलाता है। इन्हीं लोगों का साहित्य “लोक-साहित्य” कहा जाता है। यह साहित्य प्रायः मौखिक होता है जिसकी भाषा बोलचाल की भाषा ही होती है। यह श्रुतिनिष्ठ अवस्था में परम्परागत रूप से चला आता है। “आधुनिक साहित्य की नवीन प्रवृत्तियों में “लोक” का प्रयोग गीत, वार्ता, कथा, संगीत, साहित्य आदि से मुक्त हो कर साधारण जन-समाज, जिसमें पूर्व संचित परम्परायें, भावनायें, विश्वास और आदर्श सुरक्षित हैं तथा जिसमें भाषा और साहित्यगत सामग्री ही नहीं अपितु अनेक विषयों के अनगढ़ किन्तु ठोस रत्न छिपे हैं, के अर्थ में होता है।”[5] स्पष्टतः “लोक” शब्द हमारी व्यापक एवं प्राचीन परम्पराओं की सुरक्षित निधि एवं अर्वाचीन संस्कृति के विकास का प्रतीक है।

प्राचीन भारतीय साहित्य से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस देश में वैदिक काल से ही लोक-जीवन में संस्कृति की दो पृथक् धाराओं का प्रवाह होता रहा है– (i) शिष्ट संस्कृति, एवं (ii) लोक संस्कृति। शिष्ट संस्कृति से अभिप्राय उस परिष्कृत एवं सुसभ्य वर्ग की संस्कृति से है जो अपने बौद्धिक विकास के उच्चतम शिखर पर पहुंचा हुआ था और अपनी ज्ञान-प्रतिभा के कारण समाज का नेतृत्व कर रहा था। लोक-संस्कृति से अभिप्राय उस साधारण जन-समाज की संस्कृति से है जो अपने जीवन की प्रेरणा “लोक” से ही प्राप्त करती थी। जिसका बौद्धिक विकास सामान्य धरातल पर ही था। इन दोनों संस्कृतियों के सम्बन्ध में डॉ. बलदेव उपाध्याय का यह कथन उल्लेखनीय है कि लोक-संस्कृति शिष्ट-संस्कृति की सहायक होती है। किसी देश के धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों तथा क्रिया-कलापों के पूर्ण परिचय के लिए दोनों संस्कृतियों में परस्पर सहयोग अपेक्षित रहता है। इस दृष्टि से अथर्ववेद, ऋग्वेद का पूरक है। ये दोनों संहितायें दो विभिन्न संस्कृतियों के स्वरूप की परिचायिकाएँ हैं। अथर्ववेद लोक-संस्कृति का परिचायक है तो ऋग्वेद शिष्ट संस्कृति का। अथर्ववेद के विषयों का धरातल सामान्य जन- जीवन है तो ऋग्वेद का विशिष्ट जन-जीवन है।[6]

[1]   हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडस भाग--(राजस्थानी लोक-साहित्य), पृ. 427.
[2]    (i) वही--प्रस्तावना, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, पृ. 1-2.
      (ii) भारतीय लोक-साहित्य : डॉ. श्याम परमार, पृ. 9-10.
[3]   सम्मेलन पत्रिका (लोक संस्कृति विशेषांक) सं. 2010 में पृ. 65 पर प्रकाशित "लोक का प्रत्यक्ष दर्शन" नामक लेख से।
[4] डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी : "जनपद" वर्ष 1, अंक 1, पृ. 65.
[5] भारतीय लोक-साहित्य--श्याम परमार, पृ. 11.
[6] काशी विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित "समाज" वर्ष 4, अंक 3 (1958) पृष्ठ 446.

हमारी भारतीय संस्कृति सम्पूर्णतः इस देश की साधारण जनता पर आधारित है जो यहाँ के गांवों, वनों एवं पर्वतों पर निवास करती है। उसमें भारतीय लोक-जीवन का आदर्श है। लोक-संस्कृति प्रकृति की गोद में पलती है। जन-साधारण के आचार-विचारों में वह प्रतिबिम्बित होती है। लोक-संस्कृति की श्रेष्ठता से समाज को बल एवं प्रेरणा प्राप्त होती है। “लोक-संस्कृति वस्तुतः आदिम मानव की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है; वह चाहे दर्शन, धर्म, विज्ञान, तथा औषधि के क्षेत्र में हुए हो, अथवा सामाजिक संगठन तथा अनुष्ठानों में, अथवा विशेषतः इतिहास, काव्य और साहित्य के उपेक्षाकृत बौद्धिक प्रदेश में सम्पन्न हुई हो।”[1] लोक-संस्कृति को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है[2]

1. लोक-विश्वास और अंध-परम्पराएँ। 2. रीति-रिवाज तथा प्रथाएँ। 3. लोक साहित्य।

लोक-साहित्य लोक-संस्कृति का ही एक अंग है, उसका एक अंश है। हम जो कुछ सोचते हैं, करते हैं, गाते हैं, रोते हैं उन सबका प्रतिबिम्ब हमारे लोक-साहित्य में मिलता है। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार “लोक साहित्य में पिछड़ी जातियों में प्रचलित अथवा अपेक्षाकृत समुन्नत जातियों के असंस्कृत समुदायों में अवशिष्ट विश्वास, रीति-रिवाज, कहानियाँ, गीत तथा कहावतें आती हैं। प्रकृति के चेतन तथा जड़जगत के सम्बन्ध में, भूत-प्रेतों की दुनिया तथा उनके साथ मनुष्यों के सम्बन्धों के विषय में जादू, टोना, सम्मोहन, वशीकरण, ताबीज, भाग्य, शकुन, रोग तथा मृत्यु के सम्बन्ध में आदिम तथा असभ्य विश्वास इसके क्षेत्र में आते हैं। और भी इसमें विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यकाल तथा प्रौढ़ जीवन के रीति-रिवाज तथा अनुष्ठान और त्यौहार, युद्ध, आखेट, मत्स्य व्यवसाय, पशुपालन आदि विषयों के भी रीतिरिवाज और अनुष्ठान इसमें आते हैं तथा धर्म-गाथायें, अवदान (लीजेण्ड), लोक कहानियां, गीत, साके (बैलेड) किंवदन्तियां, पहेलियां तथा लोरियां भी इसके विषय हैं।”[3] इससे स्पष्ट है कि लोक-साहित्य के अंतर्गत स्त्रियों, पुरुषों एवं बच्चों का संपूर्ण गद्य तथा पद्य वाङ्मय आ जाता है। जीवन के विभिन्न बंटवारों के अवसर पर गाये जाने वाले गीत, ऋतु-परिवर्तन तथा खेतों की बोआई, निराई आदि के समय हृदय में उमड़ती हुई भावनाओं का पद्यमय लययुक्त प्रकटीकरण, प्रेम-व्यापार में कोमल भावनाओं की सरस अभिव्यक्ति, वृद्ध दादियों, नानियों, माताओं तथा बुजुर्गों द्वारा कही जाने वाली कहानियां एवं छोटी-छोटी कथायें जन-साधारण के अनुरंजन के लिए खेले गये सांग या नाटक, अपने दैनिक जीवन में जन-जन द्वारा प्रयुक्त कहावतें एवं मुहावरे, छोटे-छोटे बच्चों द्वारा खेल-खेल में गाई जाने वाली लययुक्त तुकबंदियां सभी कुछ लोक साहित्य के अंतर्गत आते हैं। इस दृष्टि से लोक-साहित्य का क्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है।

प्राचीन काल में जब कि मनुष्य पूर्णतया प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता था, वह आडम्बर तथा कृत्रिमता से कोसों दूर था। वह सरल, सहज एवं स्वाभाविक वृत्ति का प्राणी था। उस समय भी उसका अपना साहित्य था जो स्वाभाविकता, स्वच्छंदता तथा सरलता से पूर्ण पगा हुआ था। वह आधुनिक साहित्य की भांति कथाओं के अनेक प्रकार के शिल्प-विधान तथा अलंकारों के भार से दबा हुआ न था। वह साहित्य उतना ही स्वाभाविक था जितना जंगल में खिलने वाला फूल, उतना ही स्वच्छंद था जितना आकाश में विचरने वाली चिड़ियां, उतना ही सरल तथा पवित्र जितनी गंगा की निर्मल धारा। उस साहित्य का अवशिष्ट तथा सुरक्षित अंश ही आज हमें लोक- साहित्य के रूप में उपलब्ध होता है।[4]

डॉ. श्याम परमार ने लोक-साहित्य का विस्तार निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया है[5]

यह सम्पूर्ण साहित्य प्रायः मौखिक होता है, अतः अनेक विद्वानों के मतानुसार इसे “साहित्य” की संज्ञा न देकर वाङ्मय ही कहा जा सकता है। लोक-साहित्य न किसी व्यक्ति विशेष द्वारा ही निर्मित होता है और न किसी व्यक्ति विशेष की निधि होता है। उसके पीछे अटूट परम्परा होती है जो समाज से अविच्छिन्न होती है। उसकी अभिव्यक्ति सामूहिक होती है। लोक की मानसिक सम्पन्नता एवं समाज की आत्मा को अभिव्यक्त करने वाली मौखिक अभिव्यक्तियां ही लोक-साहित्य की निधि हैं। डॉ. उपाध्याय के शब्दों में “सभ्यता के प्रभाव से दूर रहने वाली अपनी सहजावस्था में वर्तमान जो निरक्षर जनता है, उसकी आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ-हानि, सुख-दुख आदि की अभिव्यंजना जिस साहित्य में प्राप्त होती है, उसी को लोक-साहित्य कहते हैं।” इस प्रकार लोक-साहित्य जनता का वह साहित्य है जो जनता द्वारा जनता के लिए लिखा गया हो।[6] वस्तुतः सर्व- साधारण जनता जो कुछ सोचती है, जिन भावों की अनुभूति करती है उसी की अपने विविध कार्य-कलापों में नानाविध रूप से अभिव्यक्ति इस साहित्य में उपलब्ध होती है। हम मोटे रूप से उपलब्ध होने वाले समूचे लोक- साहित्य को मुख्यतः निम्न पाँच भागों में विभक्त कर सकते हैं–

1. लोक गीत
2. लोक गाथा
3. लोक कथा
4. लोक नाट्य
5. लोक सुभाषित

लोक-साहित्य के अध्ययन की सुविधा हेतु हम उपरोक्त पाँचों विभागों का क्रमशः विवेचन करने का प्रयास करेंगे।

[1]  (i) ए हैंड बुक आव फोक लोर--सोफिया बर्न।
    (ii) ब्रज लोक साहित्य का अध्ययन--डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 4-5.
[2] सोफिया बर्न द्वारा "ए हैंड बुक आव फोक लोर" में दिए गए वर्गीकरण पर आधारित।
[3] ब्रज लोक साहित्य का अध्ययन--डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 4-5.
[4] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास--षोडश भाग, प्रस्तावना पृष्ठ 15.
[5] भारतीय लोक साहित्य--डॉ. श्याम परमार, पृष्ठ 21.
[6] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास--षोडश भाग, पृ. 16.

लोक गीत– किसी भी जाति या प्रांत के लोक गीत वहां की जनता की औसत रागात्मक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी सहज संगीतात्मक उर्मियों में वहां का जीवन-सागर तरंगित होता हुआ प्रतीत होता है। प्रारम्भ में मानव के उल्लसित मन से मधुर संगीत-लहरी के साथ जो भावफूट पड़े होंगे वही उसके गीत हो गए। तभी से लेकर आज तक मनुष्य निरन्तर रूप से उल्लसित जीवन के आह्लाद को प्रकट करने, सुख की अनुभूति करने तथा जीवन में बढ़ती हुई विषाद-रेखा को क्षीण करने, दुख-दर्द को भुलाने, अपना समय सुहावना बनाने आदि के लिए अपने हृदयगत भावों को ऐसे ही गीतों की लड़ियों में संजो कर अभिव्यक्त करता आया है। राजस्थान इस दृष्टि से बहुत धनी है। “जीवन के हर महत्त्वपूर्ण कार्य में गीत का स्थान है। बच्चा गर्भ में होता है तभी से गीत गाये जाते हैं। जन्म की खुशी गीतों में ही व्यक्त होती है। बच्चा बीमार होता है तो गीतों के माध्यम से ही देवता मनाये जाते हैं और अनेक संस्कार गीतों के बिना संभव कहां हैं। विरह के क्षणों में व्यथित हृदय का बोझ इन्हीं गीतों में उँडेल कर हलका करते हैं। मरण के पश्चात् गंगा माता की अभ्यर्थना तक में गीतों के बिना काम नहीं चल सकता। कहने का तात्पर्य यह कि पूरा जीवन ही गीतमय है। जीवन के हर मार्मिक क्षण का स्पंदन इन गीतों की रागिनियों में मुखरित हो उठा है।”[1]

विभिन्न साहित्यकारों ने इन लोक गीतों का वर्गीकरण अपने-अपने दृष्टिकोण से किया है। कुछ विद्वानों के अनुसार किये गए निम्न पांच भेद वैज्ञानिक एवं उचित प्रतीत होते हैं–

(i) संस्कार सम्बन्धी गीत–

(क) जन्म सम्बन्धी संस्कारों के गीत।

1. सीमंतोन्नयन के गीत,
2. प्रसव सम्बन्धी गीत,
3. चरुवा गीत,
4. नामकरण, अन्नप्राश, झडूले तथा कर्ण-छेदन के गीत,
5. पलने के गीत।

(ख) उपनयन तथा विद्यारम्भ संस्कारों के गीत।

(ग) विवाह संस्कार के गीत।

1. सामान्य गीत,
2. कन्या पक्ष के गीत,
3. वर पक्ष के गीत,
4. भांवरी पड़ने के गीत,
5. समधियों के गीत,
6. बना,
7. द्विरागमन के गीत।

(घ) मृत्यु सम्बन्धी गीत।

(ii) व्यवसाय सम्बन्धी गीत–

(क) जीविका सम्बन्धी गीत।

1. नृत्य तथा नाट्य गीत,
2. रातीजगा, कथा गीत, पौराणिक भजन, हरजस आदि,
3. पवाड़ा तथा अन्य विविध।

(ख) व्यवसाय करते समय श्रम-परिहार निमित्त गाने के गीत।

1. कृषि सम्बन्धी, ऊँट वालों के, चरवाहों के,
2. कुआं चलाने के बारेती गीत, कुअे पर पानी भरने वालियों के गीत,
3. चक्की और चरखे के गीत,
4. अन्य व्यवसाय, मजदूरी आदि करने वालों के गीत।

(iii) आवसरिक गीत–

(क) ऋतु सम्बन्धी गीत।

(ख) मेले, त्यौहारों और व्रत सम्बन्धी गीत।

1. होली के, गवर के, घुड़ले के तथा आखातीज, श्रावणी तीज, कजली तीज आदि के गीत,
2. कार्तिक और माघ स्नान के गीत।

(ग) देवी देवताओं के गीत।

1. देव चरित तथा देवी चरित,
2. पौराणिक और सिद्ध पुरुषों के गीत,
3. सतियों और पितरों के गीत।

(घ) आस्था और भजन आदि के गीत।

1. भजन, हरजस, सबद, संतवाणी,
2. तीर्थयात्रा-सम्बन्धी गीत।

(iv) पारिवारिक गीत–

(क) श्रृंगार रस के गीत।

1. प्रोषित पतिका स्वकीया–काछबियौ, रांणौ, पिणियारी, कुरजां, झीणी केसर, ओळूं, मोरली आदि,
2. उत्कंठिता स्वकीया–जलौ, बिलालौ आदि,
3. संयोगिता स्वकीया–कूकड़लौ, दारूड़ौ आदि,
4. वियोग पक्ष के गीत।

(ख) भाई, बहन, ननद, भावज आदि सम्बन्धों के गीत।

(ग) दाम्पत्य जीवन के गीत।

(घ) भोज्य पदार्थों के गीत।

(v) फुटकर–

(क) देश सम्बन्धी–जोधांणौ, बीकांणौ, उदियांणौ।

(ख) ऐतिहासिक–नथमलजी, दूदा मेड़तिया, अमरसिंह राठौड़, पाबू धांधल, हुड़िया कौ नन्द जी।

(ग) बाल गीत।

(घ) विविध–मूमल, मधकर, दिवलौ, ऊंट, सूवटौ, कूऔ, नींबड़ी, केवड़ौ।

लोक गीतों में विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति बड़े सुन्दर ढंग से हुई है। राजस्थानी के काजळियौ, पिणिहारी आदि गीत श्रृंगार के अच्छे उदाहरण हैं। निहालदे नामक लोक गीत में करुण रस की निष्पत्ति हुई है। ओळूं एवं कुरजां आदि गीतों में करुण रस का प्रबल प्रवाह प्रवाहित होता है। पुत्री की विदाई का अवसर वस्तुतः बड़ा ही दुखदायी होता है। परिवार के आम्र-वन की मधुर कोयल माता-पिता, भाई बहिनों का प्यार छोड़ कर पति के साथ ससुराल के लिये विदा होती है तो गीत गाने वाले एवं सुनने वाले अनायास ही अश्रु विगलित हो उठते हैं। ऐसे गीत बड़े ही करुणापूर्ण तथा हृदय-विदारक होते हैं। “आऊवा” संबंधी लोक गीतों में वीर रस का परिपाक हुआ है। लोक-देवी-देवताओं संबंधी गीत शांत रस के अच्छे उदाहरण हैं। इसी दृष्टि से विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति करने वाले गीतों को रसानुभूति की प्रणाली के अंतर्गत रक्खा गया है।

लोक-जीवन का प्रकृति के प्रति वैयक्तिक नहीं, सामूहिक संबंध रहता है। अतः लोकगीतों में प्रकृति का चित्रण सामूहिक भावना का ही प्रतीक होता है। प्रकृति उनकी साहित्यिक अनुभूतियों को उभारती है। बरसाती बादलों को देख कर लोक जीवन में सामूहिक प्रतिक्रिया होती है। अतः खेती के समय बादलों की घन-घटाओं को देख कर उनका मन उल्लसित हो उठता है। ऐसे समय में गाये गये गीत ऋतु-संबंधी गीतों के अंतर्गत रक्खे जा सकते हैं। कृषि-कर्म, ऋतु-परिवर्तन, देव पूजा, प्रकृति पूजा, पशु पूजा, और वीर पूजा से संबंधित अनेक उत्सव त्यौहारों के रूप में भी मनाये जाते हैं। गणगौर, घुड़लौ, लोरियौ का गीत, होली, लूअर आदि गीत ऐसी ही जन- भावनाओं को प्रदर्शित करते हैं। प्रायः ये सब जन-कल्याण की मांगलिक भावना पर आधारित होते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न व्रतों के अवसर पर भी स्त्रियों द्वारा गीत गाये जाते हैं। इन गीतों को “ऋतुओं तथा व्रतों के क्रम” के अंतर्गत रक्खा जा सकता है।

कुछ लोक गीत परंपरा से गाने वाली जातियाँ घर-घर जाकर त्यौहारों के अवसर पर या यों ही मनोरंजन के लिये सुनाया करती हैं। जाति या पेशेवर इन गायकों की गायन-शैली में और परिवार की गायन-शैली में काफी अंतर होता है। इन जातियों के गानों में केवल लोककला के ही तत्व समाहित नहीं होते अपितु शास्त्रीयता का भी पूरा पुट रहता है, फिर भी इन्हें लोकगीतों की श्रेणी में ही गिना जाना चाहिये, ताकि उनमें अभिव्यक्त भावों का रूप, औसत सामाजिक व्यक्ति की चेतना का अंश है। ढोली, ढाढ़ी, मिरासी, मांगणियार, फदाळी, कलावत, लंगा आदि अनेक जातियाँ इस प्रकार के गीतों के गाने का व्यवसाय करती हैं, यद्यपि आधुनिक समय में यह जातिगत व्यवसाय निरन्तर कम होता जा रहा है।

लोक-जीवन में श्रम का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन के अनेक कार्यों में मनुष्य को श्रम करना पड़ता है। श्रम करते समय परिश्रमजन्य क्लांति को दूर करने के लिये गीतों का आश्रय लिया जाता है। खेती या अन्य श्रम संबंधी सामूहिक आयोजनों में काम की निमग्नता के बीच सामूहिक ध्वनियों के रूप में कविता के बोल स्वयमेव मुखरित हो उठते हैं। राजस्थानी में “भणतें” बहुत प्रसिद्ध हैं। मानव-श्रम के साथ मानव-गीत संगीत का मधुर मिश्रण अनोखा है। कुओं से पानी खींचते समय, हल जोतते समय और ऊँटों की लम्बी कतार तथा बैलों की बाळद के लम्बा रास्ता तय करते समय जो गीत गाये जाते हैं उनमें मानव श्रम एवं मानव का हृदय दोनों मिलकर गातें हैं। ऐसे गीतों को श्रम-सम्बन्धी गीतों के अंतर्गत रखा जा सकता है।

लोक गीतों का यह वर्गीकरण अंतिम नहीं है। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, विभिन्न लेखकों ने लोक गीतों का वर्गीकरण अपने-अपने दृष्टिकोण से किया है। श्री रामनरेश त्रिपाठी ने[2] 11 श्रेणियों में और श्री सूर्यकरण पारीक ने[3] 29 श्रेणियों में लोक गीतों का विभाजन किया है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने “हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास” षोडश भाग, की प्रस्तावना में लोक गीतों के श्रेणी-विभाजन का एक वृक्ष प्रस्तुत किया है।[4] अपने इस वर्गीकरण के लिए उनका मत है कि यह वर्गीकरण वैज्ञानिक है क्योंकि लोक गीतों की समस्त विधाएँ इसमें अंतर्भुक्त हो जाती हैं। इस देश के किसी भी प्रदेश के लोक गीतों के भेद तथा प्रभेद रक्खे जा सकते हैं।

संभवतया उनका यह वर्गीकरण ब्रज, मैथिल, भोजपुरी आदि उत्तरप्रदेशीय लोक गीतों को दृष्टिगत रख कर किया गया है। राजस्थानी लोक गीतों की दृष्टि से यह वर्गीकरण भी अधूरा ही कहा जायगा। लोक गीतों की दृष्टि से राजस्थानी बहुत समृद्ध भाषा है। उपरोक्त वर्गीकरण में यद्यपि अधिकांश राजस्थानी गीतों का समावेश हो जाता है, तथापि कुछ गीत ऐसे हैं जिनका उल्लेख इस वर्गीकरण में नहीं किया गया है। ऋतु-संबंधी वर्गीकरण में “सियाळौ”, “सांवण” आदि अन्य ऋतुओं के गीत भी राज्सथान में बहुत लोकप्रिय हैं। व्रत-सम्बन्धी गीतों में तीज, गणगौर, करवाचौथ आदि के गीतों का समावेश इसमें नहीं किया गया है। राजस्थान में अहीर, दुसाधों, चमारों, कहारों, धोबियों आदि के कोई विशेष गीत प्रचलित नहीं हैं। यहाँ लोक गीतों को गाने वाली कुछ पेशेवर जातियाँ हैं जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। श्रम-संबंधी गीत राजस्थान में “भणत” के नाम से प्रसिद्ध हैं। फिर भी अन्य वर्गीकरणों की अपेक्षा उपरोक्त वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक है। अतः अब हम इन्हीं वर्णित पाँचों विभागों की क्रमशः विवेचना प्रचलित एवं प्रसिद्ध लोक गीतों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए करेंगे।

[1] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, राजस्थानी लोक साहित्य--नारायणसिंह भाटी, पृष्ठ 436.
[2]   "कविता कौमुदी"--पं. रामनरेश त्रिपाठी, भाग 5, पृष्ठ 45.
[3]   "राजस्थानी लोकगीत"--श्री सूर्यकरण पारीक, पृष्ठ 22-25.
[4]   हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, प्रस्तावना, पृ. 55-56.

1. संस्कार सम्बन्धी गीत

भारतीय लोक-जीवन जन्म से मृत्यु तक विभिन्न कालों में विभाजित है। इन कालों के लिये विभिन्न संस्कारों का आयोजन किया गया है। हर संस्कार के साथ संगीत की मधुर स्वर-लहरियाँ हमारे साथ चलती हैं। गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक षोडश संस्कारों का विधान किया गया है तथापि इनमें पुत्र-जन्म, जनेऊ, विवाह, गौना, मृत्यु आदि प्रधान संस्कार माने जाते हैं।

(i) पुत्र-जन्म–

इसके अंतर्गत गर्भाधान, गर्भिणी की शरीर-यष्टि, प्रसव-पीड़ा, दोहद, छठी आदि से सम्बन्धित गीत आते हैं। किसी नव-विवाहिता वधू के प्रथम बार गर्भाधान होना अत्यन्त मंगलमय माना जाता है। गर्भाधान से सम्बन्धित गीतों में गर्भवती स्त्री के शरीर में होने वाले (नौ मास तक) परिवर्तनों का बड़ा वैज्ञानिक वर्णन होता है। गर्भवती स्त्री जिन अभिलषित वस्तुओं को खाने की इच्छा करती है, उनका भी बड़ा रोचक वर्णन राजस्थानी गीतों में पाया जाता है–

पै’लौ मास उलरियौ ए जच्चा वें रौ आळसिये मन जाय।
दूजौ ए मास उलरियौ ए जच्चा वेंरौ थूँकतड़े मन जाय ए।
अलबेली ए जच्चा चांदी रे प्याले केसर पावसां।। टेक
नखराळी ए जच्चा पांनां रे बरक चढ़ावसां।
तीजौ मास उलरियौ ए जच्चा नींबूड़े मन जाय।
चौथौ मास उलरियौ ए जच्चा लाडूड़े मन जाय ए।। अल.।

राजस्थानी में “दोहद” के गीतों की यह परम्परा नवीन नहीं है। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने भी सुदक्षिणा के दोहद का बड़ा सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है। 1 प्रायः सभी प्रदेशों के लोक गीतों में दोहद का रोचक वर्णन मिलता है। राजस्थान में गर्भवती की इच्छा-पूर्ति कराना बड़ा महत्त्वपूर्ण एवं पुण्य कार्य माना जाता है। गर्भावस्था के आठवें मास में स्त्रियाँ “अजमौ” गाती हैं। नववधू गर्भवती है, पति कार्यवश परदेश जा रहा है। पति की अनुपस्थिति में अजवाइण आदि की व्यवस्था कौन करेगा? क्या होगा?

थेइज ओ केसरिया सायब गांव सिधाया ओळगणी,
सिधाया ओ अजमौ कुण मोलावे ओ राज!
थेइज ओ मांनेतण रांणी हालरियौ जिणजौ,
धेनडियौ जिणजौ ओ अजमौ म्हारा भाबोसा मोलावे ओ राज!

[1] न मे ह्रिया शंसति किञ्चिादीप्सितं
   स्पृहावती वस्तुषु केषु मागधी।
   इति स्म पृच्छत्यनुवेलमादृतः
   प्रिया सरवीमुत्तर कोशलेश्वरः।। 
     ~~रघुवंश--315

पुत्र-जन्म से सम्बन्धित गीतों को दो भागों में बाँटा जा सकता है–(क) जन्म से पूर्व के गीत, एवं (ख) जन्म के बाद के गीत। पुत्र-जन्म से संबंधित उपरोक्त गीत जन्म से पूर्व के गीत कहे जा सकते हैं। पुत्र-जन्म का उत्सव सबसे मंगलमय उत्सव माना जाता है, अतः जन्मोत्सव बड़े हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है। राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में पुत्र-जन्म से संबंधित अनेक गीत प्रचलित हैं। जन्म से पूर्व प्रसव-वेदना से पत्नी व्याकुल हो रही है। पति बाहर चौपड़ खेलने में मस्त है। पत्नी पति को दाई बुलाने के लिये सूचना देना चाहती है। क्या कहे? कैसे कहे?–

ओ राजा सार रमता पीव थें पासा दूर धरौ वे हां
ओ राजा सार धरौ चित्रसाळ पासा रंग मे’ल धरौ वे हां
ओ राजा जाजम देवौ उठाय साथीड़ां ने सीख देवौ वे हां
ए म्हारी सदा सवागण नार थांरे कांईं हुयौ वे हां
ओ राजा लाज सरम री बात पियाजी ने कांईं केवूं वे हां
ए गोरी थारौ म्हारौ जिवड़ौ एक दोनूं बिच कोण सुणे वे हां
ओ राजा धसमस दूखै पेट कमर में चीस चले वे हां
ओ राजा होय घुड़लै असवार दाईजी ने लेण चालौ वे हां…

राजस्थान में पुत्र के जन्म पर उत्सव मनाया जाता है। किन्तु पुत्री का जन्म अधिक अच्छा नहीं माना जाता। पुत्रवती स्त्री का आदर अधिक होता है। लोक गीतों में इसकी झलक अनायास ही मिल जाती है। मोढ़े पर बैठे हुए पति-पत्नी बातें कर रहे हैं। पत्नी पूछ रही है कि अगर मेरे लड़की हुई तो तुम मेरा प्यार किस प्रकार करोगे?–

जी ओ धण मुढलै पिव पालिंगै।
तौ दोय जणां ए मतौ उपाइयौ।
जी पिया जै म्हारै जलमेगी धीय।
तौ किसड़ा लाड लडावस्यौ जी।
जी गोरी जै थां रे जलमेगी धीय।
तौ खाट पिछोकड़ै घलावस्यां जी।
लाडू खारे लूण का जी।
पड़दौ दां काळी कांमळी जी।
मुख सैं कदेय नीं बोलस्यां जी।
ए म्हे सिधारांगा चाकरी जी।
थांने भेजां थां रे बाप के जी।।

पुत्र-जन्म के बाद कुछ दिनों तक लगातार गीत गाये जाते हैं। इस सम्बन्ध में अनेक गीत प्रचलित हैं। जन्म के छठे दिन विशेष रूप से उत्सव मनाया जाता है। उस दिन सन्तानोत्सव से सम्बन्धित गीत गाये जाते हैं। विभिन्न लोक गीतों के संग्रहों में इस समय गाये जाने वाले कई गीत प्रकाशित हो चुके हैं।

जन्मोत्सव पर प्रसूता स्त्री को पीली चूनर ओढ़ाते हैं। इसे “पीळौ ओढ़ाना” कहते हैं। राजस्थान में “पीळौ” सौभाग्यवती एवं पुत्रवती स्त्री का मांगलिक परिधान है। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ नववधुओं एवं बहुओं को “पीळा ओढ़ने” का आशीर्वाद देती हैं। लोक गीतों में भी इस पीळी चूनर की सुंदरता का वर्णन किया गया है–

उदयपुर से तौ सायबा पीळौ मंगाऔ जी
तौ नांनी-सी बंधण बंधाऔ गाढ़ा मारूजी!
पीळा तौ पल्ला साहेबा बंधण बंधावौ जी
तौ अदबिच चांद छपावौ गाढ़ा मारूजी!
पीळौ तौ ओढ़ म्हारी जच्चा पोढ़ेजी
बड़ी तौ सराही सहर सराही गाढ़ा मारूजी!
पीळौ तौ ओढ़ म्हारी जच्चा महल पधारी जी
तौ कोई हे सपूती निजर लगाई गाढ़ा मारूजी!…

इसी प्रसंग में “लोरी” सम्बन्धी लोक गीतों की विवेचना भी अप्रासंगिक न होगी। राजस्थानी लोक गीतों में “लोरी” का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। माता पालने में ही वीर-लोरियाँ सुना कर शिशु में शौर्य व बलिदान के संस्कारों का बीजारोपण करती है।[1] आसपास की प्रकृति, पशु-पक्षी, वनस्पति आदि से प्रथम बार परिचय कराती है–

गीगा ने खिलायी ए चिड़कली
गीगा ने खिलायी ऐ!
गीगा रोवै च्याऊं म्याऊं
गीगा ने हँसायी, ए चिड़कली, गीगा ने खिलायी ऐ!
पगां अक वांधूं घूघरणा थारै

गळ मोतीड़ा रौ हार, ए चिड़कली, गीगा ने खिलायी ऐ…

इस सम्बन्ध में “गाडूलौ” नामक लोकगीत भी राजस्थान में बहुत प्रसिद्ध है। स्नेहमयी माता खाती से कह रही है कि मेरे पुत्र के लिये एक सुन्दर-सा गाडूला (गाड़ी–जिसके सहारे बच्चे चलना सीखते हैं) बना कर लाओ–

सुण सुण रे खाती रा बेटा, गाडूलौ घड़ ल्याय।
गाडूलौ घड़ ल्याव, म्हारै गीगा के मन भाय।
आंम कौ गाडूलौ घड़ ल्याव, चाँदी का पात चढ़ाय।
सोने की, खाती रा बेटा, कील ठोकाय।
सुण सुण रे खाती रा बेटा, गाडूलौ घड़ ल्याय।।…

[1] मि.-- इला न देणी आपणी, हालरिये हुलराय।
         पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई माय।। --सूर्य्यमल मिश्रण

(ii) उपनयन संस्कार–

इसे “जनेऊ” कह कर भी पुकारते हैं। “जनेऊ” शब्द यज्ञोपवीत का अपभ्रंश रूप है। मनु ने द्विजों के लिये यज्ञोपवीत आवश्यक माना है। अन्य जातियों के लिये भी विभिन्न आयु तथा विभिन्न अवसर पर यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है। जनेऊ के गीतों में उन विधि-विधानों का उल्लेख पाया जाता है जो संस्कार में पाये जाते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार के समय यज्ञोपवीत धारण करने वाला पूजा-विधान के पश्चात् अपने निकट सम्बन्धियों से भीख मांगने की रस्म पूरी करता है। उसी समय स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत देखिये–

गळे जनेऊ लाडा पाटके री डोरी
भिक्षा पुरसे बहू सुरजजी री गोरी
गळे जनेऊ लाडा पाटके री डोरी
भिक्षा पुरसे बहू ब्रह्माजी री गोरी
गळे जनेऊ लाडा पाटके री डोरी
भिक्षा पुरसे बहू ब्रह्माजी री गोरी
गळे जनेऊ लाडा पाटके री डोरी
भिक्षा पुरसे बहू महादेवजी री गोरी
गळे जनेऊ लाडा पाटके री डोरी
भिक्षा पुरसे बहू… सुखदे गोरी।।

(iii) विवाह–

विवाह संपूर्ण मानव जाति का एक पवित्र एवं प्रधान संस्कार माना जाता है। विभिन्न देशों में विवाह के भिन्न- भिन्न तरीके प्रचलित हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार राजस्थान में “चँवरी” में वर-वधू द्वारा अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करना (भाँवरे पड़ना) विवाह का सबसे मुख्य कार्य है।

राजस्थान में मंगलकारक देवता के रूप में गणेशजी का स्मरण किया जाता है अतः प्रत्येक मंगल कार्य के आरंभ में विनायक (गणपति) का आह्वान किया जाता है। विवाह-सम्बन्धी समस्त संस्कारों के पहले विनायकजी के गीत गाये जाते हैं। इस सम्बन्ध में क्षेत्र-भेद की दृष्टि से राजस्थान में अनेक गीत प्रचलित हैं, किन्तु सभी में सकल सिद्धि और मंगलदायक विनायक का स्मरण किया जाता है जिससे समस्त संस्कार बिना किसी विघ्न-बाधा के कुशलपूर्वक संपन्न हो सकें, क्योंकि श्री विनायक को “विघ्नहरण एवं मंगलकरण” माना जाता रहा है–

गढ़ रणत भंवर सूं आवौ विनायक
करौ नी अणचींती विड़दड़ी।
विड़द-विनायक दोनूँजी आया
आय तौ उतरिया हरिये वाग में।
ढूँढ़त ढूँढ़त नगरी जी ढूँढ़ी
कोई, घर तौ वतावौ लाडले रे बाप रौ।
ऊँची सी मेडी, लाल किंवाड़ी
केळ झबरकै लाडले रे वारणे।
प’लौ तौ वासौ सरवर वसियौ
सरवर भरियौ ठंडे नीर सूं।
भरियौ तौ सरवर लेवै रे हिलोळा
नीर भरै पणिहारियाँ।
दूजौ तौ वासौ वाड़्यां जी वसियौ
वाड़्यां तौ छायी फळ फूलां सूं।
अगणौ तौ वासौ ग्वाड़ां जी वसियौ
ग्वाड़ां तौ भरी धोळी धेनां सूं…!

विवाह के अधिकतर गीत वर एवं कन्या दोनों पक्षों में समान रूप से गाये जाते हैं। विनायक-पूजा के पश्चात् प्रति दिन रात्रि में वर की प्रशंसा में गीत गाये जाते हैं। ऐसे गीतों को “बनड़े” कहते हैं। कहीं-कहीं बोली-परिवर्तन के कारण इन्हें सांझी के गीत भी कहते हैं। राजस्थानी में “बनड़े” का अर्थ “दूल्हा” होता है। इन गीतों में वधू की ओर से वर से अनेक प्रकार की प्रार्थनायें की जाती हैं–बारात कैसी हो? बराती कैसे हों?–

सिरदार बनांजी हस्ती थे लाइजौ हे कजळी देस रा
उमराव बनांजी घुड़ला थे लाइजौ हे खुरसांणी देस रा
सिरदार बनांजी सेवरिये झबूके ओ आभा बीजळी
उमराव बनांजी सोनौ थे लाइजौ हे लंकागढ़ देस रौ
उमराव बनांजी रूपौ थे लाइजौ हे ऊजळपुर देस रौ…

विवाह के अवसर पर अनेक प्रकार के रीति-रस्म होते हैं। वर-वधू के तेल चढ़ाना, उबटन करना इनमें प्रमुख है। “उबटन” को राजस्थानी में “पीठी” कहते हैं। सोलह श्रृंगारों में उबटन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे शरीर की एवं मुख की कान्ति बढ़ कर रंग निखरने लगता है। विवाह के अवसर पर राजस्थान में “पीठी” का आम रिवाज है। वर या कन्या के “पीठी” करते समय स्त्रियाँ गीत गाया करती हैं–

गहुँ ए चिणां रौ ऊबटणौ, मांय चमेली रौ तेल
अब लाडौ बैठ्यौ ऊबटणे।।1
आऔ म्हारी दाद्यां निरखलौ, आऔ म्हारी मांयां निरखल्यौ
थां निरख्यां सुख होय, अब लाडौ बैठ्यौ ऊबटणै।।2
तो कर लाडा उबटणौ, थारा ऊबटणा में बास घणी
थारी दाद्यां संजोयौ ऊबटणौ, थारी मांयां संजोयौ ऊबटणौ।।3
कोई तेल फुलेल चम्पेल घणी, चम्पा री कळियां सुगंध घणी
लाडा रा मन में खांत घणी।।4

गीतों में हास्य का पुट देने या वर के साथ विनोद करने का अवसर प्रायः स्त्रियाँ निकाल ही लिया करती हैं। ऐसी दशा में किसी गीत के साथ दो चार पंक्तियाँ वे अपनी ओर से भी जोड़ दिया करती हैं, यद्यपि विनोद के सिवाय उनका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता–

चंपळे री चोसठ कळियां ए, वनौ पूरै वनी री रळियां ए।
वनड़े रे हाथ पतासा ए, वनौ करै वनी सूं तमासा ए।
वनड़े रे हाथ में डोरी ए, वनड़े सूं वनड़ी गोरी ए।
वनड़े रे हाथ में कूंची ए, वनड़े सूं वनड़ी ऊँची ए।

राजस्थान के विवाह संबंधी लोक गीतों में “वनड़ौ”, “वनौ”, “लाडौ” आदि शब्द वर के लिये एवं “वनड़ी”, “वनी”, “लाडी” आदि शब्द वधू के लिये प्रयुक्त होते हैं। प्रत्येक रस्म के लिये अनेक गीत मिलते हैं, किन्तु प्रायः भाव उनमें एकसा ही पाया जाता है। बरात के चढ़ते समय दूल्हा घोड़े पर चढ़ता है, उस समय भी गीत गाये जाते हैं–

घोड़ी बाँधौ अगर रे रूँख, चंनण रे रूँख
मोड़ दरवाजे चंपे री दोय कळियाँ बे
घोड़ी चढ़सी वसदेवजी रौ नंद, पून्यौ रौ चंद
हीराँ रौ हार, मथराजी रौ वासी बे
धन धन हो गोरा स्रीक्रस्न केसरिया कँवर
थाँरे सेवरौ बँधावाँ बे
ठाकुर आया, ठाकुर केळ करै किललोळ करै
थाँरे बाबेजी री डोढ़ी बे
धन-धन ए बहू वसदेव री
केसरिया कँवर जिण स्रीक्रस्ण जायौ बे।

इसी प्रसंग में इन गीतों की एक मुख्य विशेषता का उल्लेख कर देना आवश्यक है। राजस्थान में इन संस्कार- संबंधी सभी गीतों को स्त्रियाँ ही गाती हैं। गाने में पुरुषों का भाग नहीं होता।

बारात जब वधू के द्वार पर पहुँच जाती है तो वर “तोरण” का अभिवादन करता है। इस अवसर पर दूल्हा तलवार एवं वृक्ष की टहनी से तोरण को स्पर्श करता है। विवाह के निमित्त औपचारिक रूप से आने का वर का यह प्रथम अवसर होता है, अतः “कांमण” द्वारा वधू उसी समय वर को वश में करने का प्रयत्न करती है। आरंभ में ही किया गया प्रयत्न अधिक फलदायक होता है। “कांमण” शब्द संस्कृत के “कार्मणं” का ही अपभ्रंश रूप है। कार्मण का अर्थ है–“जादू-टोना या वशीकरण”। इस अवसर पर “कांमण” गीत गाने का अभिप्राय दूल्हे पर वशीकरण करना होता है। इसीलिए “कांमण गीतों” के साथ-साथ कुछ “कांमण” क्रियायें भी की जाती हैं। संभवतया यहाँ प्रेम के जादू से मतलब है। “कांमण” विभिन्न तरीकों से किया जाता है। कुछ जातियों में “तोरण” स्पर्श करते समय वर के ऊपर वधू द्वारा मंत्रित “कपासिया” आदि वस्तुयें फेंकी जाती हैं। वर के मित्र हाथ में ढाल लेकर उन वस्तुओं से “वर” की रक्षा करते हैं जिससे “वर” वधू के वशीभूत होने से बच जाय। इस समय स्त्रियाँ भी गाने लगती हैं–

तोरण में आया राईवर, थरहर कंप्या राज
बूझाँ सिरदार वनी ने, कांण कूण कर्या छै राज
म्हे नहिं जांणां, म्हाँ रा खाती कांमणगारा राज
खाती कौ नेग चुकास्याँ, कांमण ढीला छोडौ राज
छोड्यां न छूटै, राईवर, करड़ा घुळया छै, राज…

इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि “प्रकृतिस्वरूपा स्त्री प्रेम की आदि-शक्ति है। वह अपने प्रेम से पुरुष को वशीभूत कर लेती है। यही प्रेम का ‘वशीकरण’ है–जादू है। इसी को ‘कांमण’ कहा है, जिसके आंतक से पुरुष राईवर थर-थर कांपने लगता है। फिर यौवन की प्रथम आभा से स्त्री में एक और शक्ति का प्रकाश होता है, जिसके आगे पुरुष का पुरुषत्व मोम होकर पिघल जाता है। प्रेम और वशीकरण जितना ही ज्यादा प्रभावशाली हो, ‘कांमण’ जितना ही ज्यादा घुले उतना ही अच्छा।”[1]

[1] "राजस्थान के लोक गीत"--प्रथम भाग, संपादक--ठाकुर रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी। पृष्ठ 156 में दिया गया "कांमण" गीत का भावार्थ एवं टिप्पणी।

इस प्रकार विवाह के छोटे-मोटे प्रायः सभी रीति-रस्मों पर स्त्रियाँ गीत गाया करती हैं। इस संबंध में विभिन्न लोकगीतों के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। इन रीति-रस्मों के अतिरिक्त विवाह संबंधी कुछ साधारण गीत भी प्रचलित हैं। कन्या अपने पिता से निवेदन करती है कि देश के बजाय भले ही मुझे परदेश में देना पर “वर” मेरी जोड़ी का देना। वर न काला हो, न गोरा हो, न लम्बा हो, न ठिंगना हो–

काची दाख हेठे वनड़ी पांन चावै, फूल सूँघै
करै ए बाबेजी सूँ वीनती
बाबाजी, देस देता परदेस दीज्यौ
म्हाँरी जोड़ी रौ वर हेरज्यौ
काळौ मत हेरौ, बाबाजी, कुळ ने लजावै
गोरौ मत हेरौ, बाबाजी, अंग पसीजै
लाँबौ मत हेरौ, बाबा साँगर चूँटै
ओछौ मत हेरौ, बाबा बावन्यूँ बतावै।
ऐसौ वर हेरौ, कासी रौ बासी
बाई रे मन भासी, हसती चढ़ आसी
हँस खेल, ऐ बाबेजी री प्यारी वनड़ी
हेर्यौ ए फूल गुलाब रौ।

वर के प्रति कन्या की यह इच्छा कितनी स्वाभाविक है। आज कितने माता-पिता अपनी कन्या की इच्छा को ध्यान में रख कर उसका विवाह करते हैं?

राजस्थान में “चँवरी” में साधारणतया सात भाँवरे पड़ने की प्रथा नहीं है। इस समय यहां चार भाँवरे ही पड़ते हैं तथा प्रत्येक भाँवर (फेरा) के साथ स्त्रियाँ गा उठती हैं–

पै’लौ फेरौ ले म्हारी लाडौ वाई दादोसा ने लाडली
दूजौ फेरौ ले म्हारी लाडौ वाई बाबोसा ने लाडली
अगणौ फेरौ ले म्हारी लाडौ वाई वीरोसा ने लाडली
चोथौ फेरौ लियौ म्हारी लाडौ होइए पराई ए
हळवां हळवां चाल म्हारी लाडौ हँसेला सहेलियाँ।

विवाह के अवसर पर “भात” या माहेरा भरना” राजस्थान की एक महत्त्वपूर्ण प्रथा है। घर पर पुत्र या पुत्री का विवाह निश्चित होने पर बहन अपने भाई तथा माता-पिता को निमंत्रण देने के लिए स्वयं अपने पति के साथ पीहर जाती है। भाई-बहिन का निमंत्रण स्वीकार कर विवाह-संस्कार के दिन अपने कुटुम्बी जनों को साथ लेकर अपनी बहिन के घर पहुँचता है और वहाँ अपनी शक्ति के अनुसार बहिन और बहिन के परिवार को पहरावनी देता है। इस अवसर पर वह कुछ नकद द्रव्य भी सहायता के रूप में देता है। भाई के न होने पर निकट सम्बन्धी ही माहेरा भरता है। विवाह-संस्कार के दिन प्रत्येक बहिन अपने भाई की तीव्र उत्कण्ठा के साथ प्रतीक्षा करती है। “माहेरा” लेकर भाई के आने का समाचार सुन लेती है तो वह अपने आपको बड़ी भाग्यशालिनी समझती है। विशेष प्रसन्नता के कारण प्रेमाश्रु रोके नहीं रुकते। माहेरा भरने के समय इसी सम्बन्ध के गीत गाये जाते हैं। विवाह के अवसर पर बहिन अपने भाई की प्रतीक्षा में कितनी उत्सुकता दिखाती है और भाई के आ जाने पर भाई के हाथ से चूनड़ी ओढ़ने की इच्छा कितने उल्लसित मन से प्रकट करती है, वह निम्न गीत में देखिये–

उड वायसड़ा म्हारा, पीयर जा, नूंत पियर रा भातवी जे।

x x x

झीणी-झीणी, रे वीरा, उडै छै खेह, वादळ दीसै धूंधळा जे।
बळदां री, रे वीरा, वाजी छै टाळ, गाड चरखता म्हे सुण्या जे।
म्हारे वीरेजी रा चमक्या छै सेल, भावजां रा चमक्या चूड़ळा जे।

x x x

भारत रे वीरा भावज ने ओढ़ाय, म्हांने घण मोलां री चूनड़ी जे।
सुसराजी ने, वीरा, थिरमौ ओढ़ाय, सासूजी ने साड़ी सांपड़ जे।
म्हारा जेठां ने, वीरा, साल दुसाल, देवरां ने पिचरंग मोळिया जे।
म्हारी नणद ने दिखणी रौ चीर, देराण्यां-जेठाण्यां ने पीळा पोमचा जे।।

(iv) गौना–

“गौना” शब्द संस्कृत के “गमन” का विकृत रूप है। प्रायः बड़ी आयु में विवाह होने पर कन्या को विवाह के दूसरे दिन ही विदा कर दिया जाता है किन्तु छोटी आयु में विवाह होने पर जब तक कन्या युवा नहीं हो जाती, उसे ससुराल नहीं भेजा जाता। कुछ जातियों में तो “गौने” की प्रथा-सी हो गई है। उनमें कन्या चाहे जितनी बड़ी या छोटी हो–विवाह के कुछ अवसर बाद ही उसे ससुराल भेजा जाता है। विवाह के समान इसे भी धूमधाम से मनाया जाता है। राजस्थान में इसे “मुकलावा” भी कहते हैं।

कन्या की विदाई का दृश्य वस्तुतः बड़ा करुणामय होता है। इतने वर्षों तक पाली-पोसी कन्या को अपने से अलग करना साधारण जन के लिये बड़ा ही कठिन होता है, फिर भी इस कार्य को तो उसे संपादित करना ही होता है। समाज का नियम ऐसा ही है। ऐसे समय गाये गये गीतों को राजस्थानी में “ओळूं” कहते हैं। “ओळूं” का शाब्दिक अर्थ है “याद”, यद्यपि “याद” शब्द पूरी तरह से “ओळूं” के भावों को प्रदर्शित नहीं करता। इन गीतों के भाव इतने करुण होते हैं कि सुन कर हृदय थाम कर आँसू रोकना कठिन हो जाता है। स्त्रियाँ गाती हुई प्रेम-विह्वल हो जाती हैं और उनकी आँखों से अश्रुओं की झड़ी लग जाती है। पुरुषों की आँखें भी छलछला आती हैं, क्योंकि गाने वाली स्त्रियों की सिसकियाँ, गीत के शब्द और संगीत को और भी हृदयस्पर्शी बना देती हैं और सुनने वाले भी अश्रुविगलित हो उठते हैं–

म्हे थाँ ने पूछां म्हारी धीवड़ी
म्हे थाँ ने पूछाँ म्हारी बाळकी
इतरौ बाबैजी रौ लाड, छोड’र बाई सिध चाल्या?
म्हे रमती बाबोसा री पोळ
म्हे रमती बाबोसा री पोळ
आयौ सगेजी रौ सूवटौ, गायड़मल ले चाल्यौ।
म्हे थाँ ने पूछां म्हाँरी धीवड़ी
इतरौ माऊजी रौ लाड छोड’र बाई सिध चाल्या…?

कई गीतों में कन्या की उपमा कोयल से दी जाती है। कोयल वसन्त की दूतिका है। कोयल के छोड़ जाने पर उपवन का वसन्त नहीं रहता। लाड़-प्यार से पाली हुई कन्या के पति-गृह चले जाने पर माता-पिता का घर सूना हो जाता है और समस्त वातावरण विषादमय हो जाता है। विवाहोपरान्त कन्या की विदाई के समय सखी- सहेलियाँ उदास हो रही हैं, क्योंकि उनके उपवन की कोकिला अब विदा ले रही है। सभी उस समय सजल नेत्र हो जाते हैं और विदा होती हुई कन्या को सम्बोधित कर गद्गद् कण्ठ से कहते हैं–मेरे उपवन की कोकिला, तू यह उपवन छोड़ कहाँ चली?

वनखंड री ए कोयल, वनखंड छोड कठै चाली?
थारी आळे दीवाळे गुडियाँ धरी
वनखंड री ए कोयल, वनखंड छोड कठै चाली?
थारी साथ सहेल्यां उणमणी
वनखंड री ए कोयल, वनखंड छोड कठै चाली?
थारी माऊजी थारे विन उणमणा
थारी छोटी बैनड़ रोवै अकेलड़ी
वनखंड री ए कोयल, वनखंड छोड कठै चाली?
थारौ वीरौ सा फिरै छै उदास विलखत थारी भावजड़ी
वनखंड री ए कोयल, वनखंड छोड कठै चाली?…

2. व्यवसाय सम्बन्धी गीत

(i) श्रम गीत–राजस्थान एक शुष्क प्रदेश होने के कारण यहाँ का जीवन बड़ा कठोर है। यहाँ के लोगों को अपनी जीविका के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है। कृषि ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय होने के कारण यहाँ का “लोक” सदैव से ही परिश्रम में पलता आया है। श्रम के साथ मानव-गीत-संगीत का साहचर्य अनोखा है। कठोर परिश्रम की अथक थकान को संगीत की मधुर लहरियाँ क्षण भर में दूर कर देती हैं। गीतों की स्वर-लहरी के साथ श्रमिक अपने अंगों के परिचालन को एक कर देता है और उसी आनन्द में बिना थकान महसूस किए लम्बे समय तक कार्य में जुटा रहता है। इसी अभिप्राय से खेतों में हल चलाते हुए, कुओं से पानी खींचते हुए, फसल को काटते हुए और उसी प्रकार श्रम का अन्य कार्य करते हुए लोग अपने गीतों की मधुर ध्वनि से ही अपने समय को रंगीन और सुखमय बनाते हैं। गीत की मधुर ध्वनि में वे अपने श्रम के कष्टों को भूल कर कार्य में लवलीन हो जाते हैं। राजस्थान में एक विशेष लय के साथ ही श्रमगीत गाये जाते हैं। ऐसे गीतों को यहाँ “भणतें” कहते हैं। इन भणतों की संख्या राजस्थानी लोक साहित्य में बहुत ही कम है। जो कुछ है उसी को घुमा-फिरा कर श्रम के विभिन्न अवसरों पर गाया जाता है। नीचे दी गई एक भणत का एक उदाहरण देखिये–

रांमयौ भणलौ रे भाई!
सांवण रा सरड़ाटा ओ भाई!
भादवै रा लो’र ओ भाई!
सांवण पै’ली तीज ओ भाई!
सहियां राखी तीज ओ भाई!
सहियां हींडौ हींडै ओ भाई!
सींगाटी रा साठ ओ भाई!
पूठै रा पचास ओ भाई!
बूंदी री बंदूक ओ भाई!
सीरोही तरवार ओ भाई!
गेंडासाही ढाल ओ भाई!

पुरुषों की भांति स्त्रियाँ भी श्रम के समय अपने गीतों द्वारा अपने श्रम को सरल बना देती हैं। घर तथा कृषि में अनेक प्रकार के कार्यों को करने के लिये श्रम में जुट जाती हैं। चरखा कातते समय उनके द्वारा गाया जाने वाला गीत देखिये–

चाल रे चरखला, हाल रे चरखला!
कातण वाळी छैल छबीली बैठी पीढ़ौ ढाळ।
म्हीं म्हीं पूणी कातै, लाम्बौ काढ़े तार
चाल रे चरखला, हाल रे चरखला!

गीत की स्वर-लहरी के साथ चरखे का तकुआ घूमता रहता है और स्त्रियाँ पूणी पर पूणी कातती जाती हैं, अघाने का नाम तक नहीं। श्रम-गीत की राग, श्रमिक एकाकी हो या सामूहिक रूप में, दोनों ही परिस्थितियों में अलापी जाती है, श्रम को हल्का बनाने के लिए। भणतें निश्चित रूप से श्रम के समय ही गाई जाती हैं परन्तु इनके अतिरिक्त श्रृंगारिक, धार्मिक या ऋतु-सम्बन्धी गीत भी श्रमिक लोग अपने मन को बहलाने के लिए गा उठते हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ श्रम के समय भजन या हरजस भी गाती हैं, या फिर अपनी वय के अनुसार श्रृंगारिक, ऋतु-सम्बन्धी तथा प्रेम- सम्बन्धी गीत भी गा लेती हैं।

(ii) जीविका सम्बन्धी गीत–

राजस्थान के कुछ लोक-गीत यहाँ के क्वचित लोगों की जीविका के साधन बन चुके हैं। यहाँ की कुछ विशेष जातियों के लोग, जिनका व्यवसाय ही लोक गीत गाना है, वे अपने यजमानों के यहां भिन्न-भिन्न अवसरों, उत्सवों या आयोजनों पर या एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते हुए जन-समुदाय के समक्ष गीत गा कर अपनी जीविका उपार्जित करते हैं। ऐसे गीतों में धार्मिक, श्रृंगारिक और ऐतिहासिक गीतों का विशेष स्थान है। अवसर की उपयुक्तता के अनुसार ये लोग वैसे ही गीत गाते हैं। श्रृंगारिक गीतों में दाम्पत्य जीवन के संयोग एवं वियोग-श्रृंगार सम्बन्धी या लोक समाज में प्रचलित प्रणय-कथा सम्बन्धी गीत ही अधिक गाये जाते हैं जिनमें जलौ, काजळियौ, मूमल, कसूंबौ, मधकर, काछबियौ, नागजी, आभल खींवजी रा गीत, बाघौ- भारमली रा गीत, ढोला मारू रा गीत आदि प्रसिद्ध हैं। धार्मिक गीतों में भक्ति-सम्बन्धी हरजस, भजन तथा भक्त चरित्र के साथ पाबूजी रा गीत, बगड़ावतां रा गीत, रामदेवजी रा गीत, तेजाजी रा गीत भी गाये जाते हैं। इन गीतों में धार्मिक महत्त्व के साथ ऐतिहासिक घटनायें भी सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार इन गाने वाली जातियों के ऐतिहासिक गीतों में डूंगजी जवारजी, दूदौ मेड़तियौ, अमरसिंह राठौड़, रतन रांणौ, जोरजी आदि गीत प्रसिद्ध हैं। ऐसे गीतों के उदाहरण विषय-सम्बन्धी वर्गों में भी दिये गये हैं। यहाँ गाने वाली जातियों द्वारा गाया जाने वाला प्रसिद्ध “मूमल” गीत प्रस्तुत करते हैं–

काळी रे काळी काजळिये री रेखड़ी रे
हाँ जी रे, काळोड़ी कांठळ में चमकै बीजळी
म्हांरी वरलाळे री मूमल हालै नी ए आलीजे रे देस।
न्हायौ मूमल माथियौ रे मेट सूं
हां जी रे, कड़ियां तौ राळ्या मूमल केसड़ा
म्हारी जग मीठी मूमल, हालै नी ए आलीजे रे देस।
सीसड़लौ मूमल रौ सरूप नारेळ ज्यूं
हां जी रे, केसड़ला माड़ेची रा वासग नाग ज्यूं
म्हांरी जग वाळी ए मूमल, हालै नी ए अमरांणे रे देस।
नाकड़लौ मूमल रौ खांडइये री धार ज्यूं
हाँ जी रे, दाँतड़ला ऊजळ-दंती रा दाड़म बीज ज्यूं
म्हांरी हरियाळी ए मूमल, हालै नी ए रसीले रे देस।
पेटड़लौ मूमल रौ पींपळिये रे पांन ज्यूं
हाँ जी रे, हिवड़लौ मूमल रौ सांचे ढाळियौ
म्हांरी हरियाली ए मूमल, हालै नी ए अमरांणे रे देस।
जाँघड़ली मूमल री देवळिये रे थंभ ज्यूं
हां जी रे, साथळड़ी सपीठी पींडी पातळी
म्हांरी मोड़ेची मूमल हालै नी ए आलीजे रे देस।
जायी रे मूमल इये लोद्रवांणे रे देस में
हां जी रे, मांणी रे मूमल ने रांणे महंदरे
म्हांरी जेसांणे री मूमल, हाले नी ए अमरांणे रे देस।

राजस्थान में मुख्यतया गाने वाली जातियां–ढोली, ढाढ़ी, मिरासी, मांगणियार, फदाळी, कलावत और कव्वाल, लंगा, पातर, कंचनी, नट आदि हैं। इन जातियों के लोग प्रायः किसी वाद्य-यन्त्र की धुन के साथ लोक गीतों को गा कर ही अपनी जीविका प्राप्त करते हैं। इन लोगों के द्वारा गाये जाने वाले गीतों में कुछ विशेष गीत विशेष जाति से ही सम्बन्ध रखते हैं। ढोली माताजी की रात जगाते हैं। लंगा जाति के लोग सुबह लाखा फूलांणी, बाघा कोटड़ा, दोपहर को “सारंग” और संध्या को “श्याम कल्याण” गाते हैं। इसी प्रकार का इनमें विधान है। थोरी, भील या नायक–पाबूजी, गोगाजी आदि के गीत गाते हैं। फदाळी लोग मुसलमानों के धार्मिक उत्सवों के समय हरे व लाल झंडे लेकर गाते हुए जुलूस निकालते हैं। पीर और मीर आदि की आराधना के लिए जाते समय भी मुसलमान इनको गाने के लिए आमंत्रित करते हैं।

3. आवसरिक गीत

(i) ऋतु संबंधी गीत–विभिन्न ऋतुयें मनुष्य के आसपास उल्लासमय वातावरण का सृजन करती हैं।वसंत एवं वर्षा ऋतु इनमें मुख्य है। वर्षा ऋतु में भी सावन का महीना लोक गीतों का प्रमुख विषय रहा है। उमड़ते-घुमड़ते बादल, उनमें चमकती बिजली, चारों ओर फैली हुई हरियाली अनायास ही मन मोह लेती है। गृहस्थ के सब सदस्य कृषि-कार्य में उल्लास एवं हर्ष के साथ लगे रहते हैं–

झिरमिर-झिरमिर मेहूड़ौ वरसै, बादळियौ घररावै ए!
जेठजी तौ म्हांरा बोझा काटै
परण्यौ हळियौ बावै ए!
झिरमिर-झिरमिर मेहूड़ौ वरसै, बादळियौ घररावै ए!
देवर म्हांरौ करै अळसौटी
जेठांणी रोटी ल्यावै ए!
झिरमिर-झिरमिर मेहूड़ौ वरसै, बादळियौ घररावै ए!
बाळकियौ भतीजौ म्हारौ रेवड़ चरावै
नणदल गायां घेरै ए!
झिरमिर-झिरमिर मेहूड़ौ वरसै, बादळियौ घररावै ए…!

हे पपीहा! तेरे बोलने का समय यही है। जेठ का महीना बीत गया है। लूएँ बंद हो गई हैं। आषाढ़ भी उतर गया है। सावन लग चुका है। काली घटाओं से आकाश आच्छादित हो रहा है। रे पपीहा, यही अवसर तेरे बोलने का है। लोक गीतों में इन भावों का बड़ा सुन्दर चित्रण मिलता है–

रुत आई रै पपइया थारै बोलण री रुत आई रै
जेठ मास री लूवां रै बीती, अब सुरंगी रुत आई
रुत आई रै पपइया थारै बोलण री रुत आई।
असाढ़ उतरियौ, सांवण लाग्यौ, काळी घटा घिर आई
रुत आई रै पपइया थारै बोलण री रुत आई।
कदेसक झोला चलै सूरियौ, धीमी-धीमी पुरवाई
रुत आई रै पपइया, थारै बोलण री, रुत आई…।

श्रावण मास के तीज सम्बन्धी गीत (कजली) भी इसी के अंतर्गत आते हैं। इनमें श्रृंगार रस के उभय पक्ष– संयोग तथा वियोग की झांकी देखने को मिलती है। तीज के अवसर पर किसी पेड़ की डाल पर रस्सियों का झूला डाल कर लड़कियां झूला झूलती हैं। मंद-मंद बहते समीर एवं पृथ्वी से उठती हुई सोंधी-सी सुगंध चारों ओर फैली हरियाली के बीच झूला झूलने का आनंद तो अवर्णनीय है। ऐसे समय प्रत्येक कन्या का मन झूला झूलने का करता है। लड़की अपनी माँ से कहती है–ए माँ! चंपा के बाग में झूला डाल दो, नवेली तीज आ गई। मेरी सहेलियों के अपने घर में हिंडोले हैं परन्तु मेरे नहीं है। मैं आज झूला झूलने गई तो मुझको किसी ने नहीं झुलाया–

ए मा, चंपा वाग में हींडौ घला दे
तीज नुहेली आई।
ए मा,और सहेल्याँ रे घर रौ हींडौ
म्हारे हींडौ नांहीं।
ए मा, हींडे हींडण गयी आज मैं
कोइयन हींडै हिंडाई
सारी सहेल्याँ मैं सूँ मुख ज मोड़्यौ
बिनां हींड्याँ ही आई।
ए मा, चंपा वाग में हींडौ घला दै
तीज नुहेली आई!

वर्षा के पश्चात् शीत ऋतु आई। सर्दी के कारण शरीर का अंग-प्रत्यंग काँप रहा है। राजस्थानी के “सियाळौ” नामक लोक गीत में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है–

कस्या रे नगर सूं आयौ रे सियाळौ
तो घर कूंणी जी रे जाइयौ भंवर जी
यो जाड़ौ सेलीवाळा ने लागै
धार नगर सूं आयौ रे सियाळौ
तो घर रावजी रे जाइयौ भंवरजी
यो जाड़ौ सेलीवाळा ने लागै
सोना री सगड़ी जड़ाऊ रा दूद्या
तोई म्हारौ जाडौ नहीं जाइयौ भंवर जी!

शीत के बाद वसंत ऋतु का पर्दापण होता है। वसंत का सब से मुख्य एवं प्रिय त्यौहार है होली। प्रायः सभी लोग इसे बड़े उत्साह एवं उल्लास से मनाते हैं। होली एवं फाल्गुन का यह उल्लास एक स्थान पर ही सीमित नहीं है, सार्वत्रिक है। फाल्गुन मास में राजस्थान के किसी भी कोने में आपको “चंग” की ध्वनि सुनाई पड़ेगी। फाल्गुन के गीत स्त्री एवं पुरुष दोनों में प्रचलित हैं। दोनों समान रूप से गाते हैं। गीत भी दोनों के अलग-अलग होते हैं। स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीत पुरुषों से भिन्न होते हैं।

होली के अवसर पर “लू’र” एवं “घूमर” का राजस्थानी लड़कियों में बहुत प्रचलन हैं। “होली के समय बालिकाएँ और स्त्रियाँ, गहनों और वस्त्रों से सज-धज कर, मिल-जुल कर, गाती-बजाती, खेलती-कूदती और नाचती हैं। “लू”र” एक नाच का नाम है जिसमें स्त्रियाँ हाथ बाँध कर (मिला कर) चक्राकार नाचती हैं। इसको “लूंबर” अथवा “घूमर” भी कहते हैं। कहीं-कहीं पर डंडो की ताल “डांडिया” पर भी नाच होता है। गुजरात में इस प्रकार के नृत्य का अधिक प्रचार है, जैसे “गरवा”। ऐसे गीतों में गंभीर और सूक्ष्म भावों अथवा कथानकों के स्थान पर खुला और सादा सार्वजनिक आल्हाद का व्यापक भाव रहता है। कल्पना की उड़ानों की यहां आवश्यकता नहीं होती। इस खुलेपन, सादगी और सार्वजनिक उदार भावना की काव्य-जगत में कितनी कमी है, सच्ची प्राकृतिक कविता के रसिक ही जानते हैं।”[1]

[1] "राजस्थान के लोक गीत"--प्रथम भाग, संपादक : ठाकुर रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी, पृष्ठ 99-100 में दिया गया गीत का भावार्थ एवं टिप्पणी।

“लू’र” एवं “घूमर” के साथ गाये जाने वाले अनेक गीत राजस्थान में प्रचलित हैं। एक गीत देखिये–

होळी आई, ए सहेल्याँ मिल खेलाँ लू’र। होळी आई ए!
कोई-कोई ओढ़्याँ झीणी-झीणी चूनड़,
कोई-कोई ओढ़्याँ दिखणी चीर। होळी आई ए!
होळी आई, ए सहेल्याँ मिल खेलाँ लू’र। होळी आई ए!
कोई-कोई पहर्‌याँ रिमझिम बिछिया,
कोई-कोई पहर्‌याँ पायलड़ी। होळी आई ए!
होळी आई, ए सहेल्याँ मिल खेलाँ लू’र। होळी आई ए!…

होली के गीतों में उल्लास तथा आनंद की अभिव्यक्ति हुई है। इनमें मस्ती का भाव पाया जाता है। “फाग खेलना” या “गेर रमना” राजस्थान में होली के अवसर पर एक मुख्य मस्तीभरा कार्य है। राजस्थान में इन “फाग खेलने” से सम्बन्धित गीत भी काफी प्रचलित हैं, किन्तु ऐसा मालूम होता है कि इन पर “ब्रज की होली” का प्रभाव है। गोरे-गोरे बदन पर रंग की पिचकारी डालने से नायिका पूरी भीग गई है। घूँघट एवं वस्त्र सारे शरीर से चिपक गये हैं, कंचुकी का रंग कच्चा होने से बिखर गया है, ये सब भाव सूर द्वारा व्यक्त पदों में भी मिल जाते हैं। ब्रज के लोक गीतों में ऐसे भाव आज भी पाये जाते हैं। राजस्थानी का ऐसा ही एक लोक गीत इस प्रकार है–

माथा में मैंमद हद के बिराजे तौ रखड़ी की छिब न्यारी जी
म्हाँरा झिलता जोबन पर किण डारी
पिचकारी जी म्हें तौ सगळी भींज गई,किण डारी
ज्यां डारी ज्यां ने मोहे बतावौ नींतर द्योंगी मैं गाळी जी
म्हारा गोरा सा बदन पर किण डारी
बूजी-सा का जाया, बाई-सा का बीरा
तोरा जांन डारी पिचकारी जी मैं तो सगळी भींज गई
ऐसी डारी कांनां ने कुंडळ, हद के बिराजे तौ झुटणां की छिब न्यारी जी।…

लोक गीतों में “बारहमासी” गीतों का भी अपना स्थान है। इन गीतों में प्रायः विप्रलम्भ श्रृंगार ही अधिक पाया जाता है। किसी विरहिणी नायिका के “बारह मासों” में अनुभूत वियोगजन्य दुःखों का वर्णन इसमें रहता है। इनके नैसर्गिक सौन्दर्य के सामने कीट्स के हल्के पैर, गहरे नील रंग की बनफशा-सी आँखें, काढे हुए बाल, मुलायम पतले हाथ, श्वेत कंठ और मलाईदार वक्ष-प्रदेश वाली नायिका भी फीकी पड़ जाती है।[1] इन लोक गीतों का प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुतः प्रभावशाली है। इन “बारहमासी” लोक गीतों का आरंभ विभिन्न समय में होता है। इनके गाने का कोई निश्चित नियम नहीं है। कुछ गीत आषाढ़ या श्रावण मास से आरम्भ होते हैं तो कुछ गीत चैत्र से। इस सम्बन्ध में कोई शास्त्रीय नियम भी नहीं है। डॉ. रघुवंश के अनुसार इनके आरम्भ करने की तीन प्रमुख रीतियाँ हैं–“एक में वर्णन चैत्र से आरम्भ होता है, दूसरी में आषाढ़ से और तीसरी में अवसर के अनुसार।”[2] राजस्थानी में “बारहमासे” प्रायः पावस ऋतु से ही आरम्भ होते हैं।

राजस्थानी के अतिरिक्त हिन्दी, ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी आदि में “बारहमासे” की यह परंपरा खूब प्रचलित है। सुप्रसिद्ध प्रेममार्गी कवि जायसी ने भी नागमती के विरह का वर्णन “बारहमासा” के माध्यम से किया है।[3] दूसरी भाषाओं की अपेक्षा राजस्थानी में इन “बारहमासों” का प्रचलन कुछ कम है। यह भी संभव है कि ब्रज के प्रभाव से ही राजस्थानी लोक गीतों में “बारहमासे” आये हों। राजस्थानी लोक गीतों के सभी संग्रह में मिला कर भी एक या दो से अधिक “बारहमासे” नहीं मिलते।

इन “बारहमासी” गीतों में प्रत्येक मास का वर्णन क्रम से किया जाता है। हर मास की रूपरेखा संक्षेप में दी जाती है, किन्तु इस बात का अवश्य ध्यान रक्खा जाता है कि जिन उपकरणों से ऋतु-वर्णन की योजना की जाती है वे प्रचलित और सर्वानुभूत हों। विरहिणी उन्हीं को लेकर अपने प्रवासी प्रियतम को स्मरण करती है। इसी प्रकार ऋतुओं पर मानवी भावों का पूर्ण आरोप होता है।[1]

[1] "मैथिली लोक गीत"--रामइकबालसिंह "राकेस", पृ. 360.
[2] "प्रकृति और हिन्दी काव्य"--डॉ. रघुवंश, पृ. 402.
[3] "पद्मावत"--मलिक मुहम्मद जायसी, नागमती, वियोग खंड।

[1] "भारतीय लोक-साहित्य"--डॉ. श्याम परमार, पृ. 111.

राजस्थानी “बारहमासा” का एक उदाहरण देखिये जिसमें पावस से वसंत ऋतु तक का अत्यन्त मार्मिक वर्णन हुआ है–

भादू वरखा झुक रही, घटा चढ़ी नभ जोर
कोयल कूक सुणावती, बोले दादुर मोर
ए जी सिरकार पपैऔ पिव पिव सब्द सुणावे मेरे प्रांण!
चमचम चमके बीजुली, टप टप बरसे मेह
भर भादूं बिलखत तजी, भलौ निभायौ नेह
जी सिरदार चतर चौमासे में घर आवौ ओजी मेरे प्रांण!
आसोजां में सीप ज्यौं, प्यारी करती आस
पिव पिव करती धण कहे, प्रीतम आए न पास
जी उमराव इंद्रजी ओलर ओलर आवे ओजी मेरे प्रांण!
करूं कड़ाई चाव से, तेरी दुरगा मांय
आसोजां में आय के,जो प्रियतम मिळ जाय
जी महारांणी थारे सुवरण छत्र चढाऊं मेरे प्रांण!
कातिक छाती पर कठिन, पिया बसे जा दूर
लालच के बस होय के, बिलखत छोडी दूर
जी उमराव धण थारी ऊभी काग उडावे मेरे प्रांण!…

(ii) त्यौहार एवं पर्व सम्बन्धी गीत–

हमारे त्यौहार और पर्वों के तो लोक गीत प्राण हैं। गणगौर का त्यौहार राजस्थान में बड़े ठाट से मनाया जाता है। “गौरी” को कन्या-जीवन का आदर्श माना गया है। चूंकि उपयुक्त पति की प्राप्ति के लिए “गौरी” ने कठिन व्रत किया था, अतः उपयुक्त पति की प्राप्ति के लिये कन्याएँ भी गौरी की पूजा एवं व्रत करती हैं। इसमें काष्ठ या मिट्टी से बनी गौरी की मूर्ति की पूजा की जाती है। चैत्र शुक्ला तृतीया अथवा चतुर्थी को मेले के दिन “गौरी” की सवारी किसी जलाशय पर ले जाई जाती है। लोक गीतों की मधुर झंकार के साथ सारा वातावरण हर्ष एवं आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है–

हे गवरल, रूड़ौ है नजारौ तीखौ है नैणाँ रौ
गढाँ हे कोटाँ सूं गवरल ऊतरी
हो जी, बैंरे हाथ कँवळ केरौ फूल
हे गवरल, रूड़ौ है नजारौ तीखौ है नैणाँ रौ।
सीस हे नाळेराँ गवरल सारियौ
हो जी, बैंरी वेणी छै वासग नाग
हे गवरल, रूड़ौ है नजारौ तीखौ है नैणाँ रौ।
भँवारे हो भँवरौ गवरल हे फिरै
होजी, बैंरी लिलवट आँगळ च्यार
हे गवरल, रूड़ौ है नजारौ तीखौ है नैणाँ रौ…।

उपयुक्त पति पाने के लिए कन्यायें गौरी का व्रत रखती हैं। लोक गीतों में उनकी यह भावना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उदाहरणस्वरूप एक लोक गीत देखिये जिसमें गौरी से प्रार्थना की गई है कि मुझे–मेड़ी पर बैठ कर मद पीने वाला, सुन्दर घुड़सवार, टेढ़ी पगड़ी बांधने वाला तथा मंद-मंद चाल चलने वाला सुन्दर सा वर देना। किन्तु–चूल्हे का चाँद, हँडिया का अमीर, नौ थाल भर कर राबड़ी पी जाने वाला, सोलह रोटियां खा जाने वाला पेटू वर मत देना–

मेड़ी बैठ्यौ मद पीवै अे, लीला केरौ असवार
खाँगी बाँधै पागड़ी ए, मधरी चालै चाल
कड़ मोड़ घोड़े चढै ए, चाल निरखतौ जाय
ओ वर देयी, माता गोरल ए, म्हे थाँ ने पूजण आय।
चूल्हे केरौ चाँद ए, हाँडी कौ हमीर
नौ थाळाँ पीवै रावड़ौ ए, सोळा रोटी खाय
बो वर टाळी माता गोरल ए, म्हे थां ने पूजण आय!

गौरी-पूजन करने वाली कन्यायें “घुड़ला” भी घुमाती हैं। “घुड़ला” एक छोटा सा छिद्रों वाला घड़ा होता है जिसमें दीपक जलता रहता है। इस घुड़ले को सिर पर रख कर स्त्रियां गीत गाती हैं। इन गीतों के पीछे एक ऐतिहासिक सन्दर्भ भी है। गौरी-पूजन को जाती हुई कन्याओं को “घुड़ले खां” नामक यवन ने अपहरण करने की चेष्टा की थी। जोधपुर नरेश सातळजी ने घुड़लेखाँ को मार कर उन कन्याओं का उद्धार किया था, उसी की स्मृति स्वरूप तीरों द्वारा छिदे हुए सिर के रूप में मिट्टी का छिद्रों वाला घड़ा लेकर गीत गाती हुई लड़कियां घूमती हैं–

घुड़लौ घूमेला जी घूमेला, घुड़ले रे बांधौ सूत
घूड़लौ घूमेला, सवागण बारे आय, घुड़लौ घूमेला
प्रतापजी रे जायौ पूत, घुड़लौ घूमेला जी घूमेला
सवागण बारे आय, घुड़लौ घूमेला जी घूमेला
तेल बळे घी लाव, घुड़लौ घूमेला जी घूमेला
मोत्यां रा आखा लाव, घुड़लौ घूमेला जी घूमेला।

वसंत ऋतु में आने वाला चैत्र मास युवकों एवं युवतियों के लिये मस्ती का संदेश लेकर आता है। चैत्र मास में अनेक त्यौहार मनाये जाते हैं। “गणगौर” एवं “घुड़ले” का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं। इसी मास में “लोटियौं” का मेला भी भरता है। कुमारियाँ व विवाहिता स्त्रियाँ रिक्त कलश (लोटे) लेकर किसी सरोवर अथवा कुएँ पर जाती हैं। वहाँ जल देवता की पूजा करती हैं तथा जल से भरे हुए कलश लेकर वापिस लौटती हैं। उस अवसर पर निम्नलिखित गीत गाया जाता है–

दळ बादळ बिच चमके जी तारा
सांज समै पिव लागै जी प्यारा
कांईं रे जबाब करूं रसिया!
जाब करूँली, जबाब करूंली
आलीजे री सेजां में रींझ रहूंली
कांईं रे मिजाज करूं रसिया।1
मांथा रौ रस मैं’मद लीवौ
मैं’मद रौ रस राजींदे लीयौ
कांईं रे गुमांन करूं रसिया
कांईं रे मिजाज करूं रसिया
हां रे मद-छकिया सेजां में रीझ रहूंली
कांईं रे जबाब करूं रसिया।2

प्रत्येक मास में कोई न कोई पर्व आकर हमारी धार्मिक भावनाओं को जागृत किया करता है। विभिन्न पर्वों, उत्सवों, व्रतों आदि के अवसर पर प्रायः स्त्रियाँ मिट्टी के छोटे से कूंडे में गेहूँ या जौ बो देती हैं। इनके बढ़े हुए अंकुरों को ̶#8220;जँवारा” कहते हैं। गौरी-पूजन तथा दुर्गा-पूजा के समय तो प्रायः “जँवारों” की भी पूजा की जाती है। इन जँवारों से सम्बन्धित लोक गीत भी राजस्थान में प्रचलित हैं। ऊँचे टीले पर लहलहाते हुए हरे- हरे “जँवारे” हैं, नीचे हरिण जौ चर रहे हैं। गौरी कहती है–हे ब्रह्मा जी के पुत्र ईसर जी, इस वन के हरिणों को हटाओ तो! ईसर जी उत्तर देते हैं–हे मेरी सुन्दर गौरी, मैं क्यों हटाऊँ, मेरी बहन सुभद्रा तो ससुराल में है। पत्नी के प्रति यह विनोदपूर्ण संकेत है कि यदि उसको अपने “जँवारों” को मृगों से बचाना है तो वह अपने भाई को क्यों नहीं बुला लेती। पति भाई का काम क्यों करे?[1]

ऊँचे मगरे ए जी म्हाँरा हरिया जँवारा
लुळिया जँवारा, नीचे मिरगा जव चरै
मिरगा घेरौ नी, ब्रह्मांजी रा ईसरजी
घेरौ नीं वन रा मिरगला!
म्हें क्यूँ घेराँ, ए म्हाँरी गवर साँवळड़ी
गवर पातळड़ी,बाई म्हाँरी सोदरा सासरै
मिरगा घेरौ नी, वसदेवजी रा स्रीकिसनजी
घेरौ जी वन रा मिरगला!
म्हें क्यूँ घेराँ, ए म्हाँरी रुकमण साँवळड़ी
रुकमण पातळड़ी, बाई म्हाँरी सोदरा सासरै।

[1] "राजस्थान के लोक गीत"--प्रथम भाग, सं. ठा. रामसिंह एम.ए., सूर्यकरण पारीक एवं नरोत्तमदास स्वामी, पृ. 47 पर दिये गये "जँवारा" गीत का भावार्थ।

(iii) देवी-देवताओं सम्बन्धी गीत–

भारतीय संस्कृति के आधार पर यह स्पष्ट है कि यहाँ का नारी जीवन धार्मिक वृत्ति से सदैव ओत-प्रोत रहा है, इसीलिए स्त्रियों को धर्म एवं संस्कृति की रक्षिका कहा गया है। भारत में व्याप्त संत-परंपरा का प्रभाव स्त्रियों पर भी स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। नारी भावुक-हृदया होती है, अतः धार्मिक बातों का प्रभाव उस पर बहुत शीघ्र और अधिक होता है। राजस्थान के लोक-जीवन में भी धर्म का सब से अधिक प्रभाव है। आज के वैज्ञानिक युग में भी यहां का जन-जीवन धर्माभिमुख है। धार्मिक परम्परा को निरन्तर रखने में यहां की स्त्रियों का भी महत्वपूर्ण हाथ रहा है। स्त्रियों के धर्म-संबंधी हार्दिक उद्गार उनके गीतों के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहे हैं। भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, जिनके प्रति जन-साधारण की थोड़ी-बहुत भी श्रद्धा रही है, के गीत आज भी परम्परा के रूप से गाये जाते हैं। इन गीतों में यहां के लोक की धार्मिक वृत्ति का बोध होता है।

राजस्थान में भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की मान्यता है। इनमें माताजी, भैरूंजी, बालाजी, सेडळ माता आदि अनेक लोक गीतों में प्रसिद्ध हैं। स्त्री-समाज में इनसे सम्बन्धित अनेक गीत प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए बालाजी अर्थात् हनुमानजी का एक गीत देखिये–

कूण चिणायौ, ओ बाला जी, थांरौ देवरौ जी?
कूण दिरायी गज-नींव?
बाबा बजरंग जी रौ बंगळौ हद वण्यौ।
राजाजी चिणायौ म्हारौ देवरौ
सेवगां दिरायी गज-नींव
बाबा बजरंग जी रौ बंगळौ हद वण्यौ।

***

वाग विधूंस्या लंका दळमळी
सार्‌या राजा रांमचंद्र का कांम
बाबा बजरंग जी रौ बंगळौ हद वण्यौ।
धन माता अंजनी की कूख
उण जायौ हणवंत पूत
बाबा बजरंग जी रौ बंगळौ हद वण्यौ।

देवी-देवताओं के गीतों के सम्बन्ध में यहां रात्रि-जागरण का भी बहुत प्रचार है। इसे “रातिजगा” कहते हैं। अनेक मांगलिक अवसरों तथा “पुत्र-जन्म”, “विवाह”, “तीर्थयात्रा का प्रीति-भोज”, “व्रत आदि का उजवणा” आदि आवश्यक रूप से इसका आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त “सती की मनौती” या किसी देव या देवी विशेष के लिए तिथि निश्चित कर रात्रि-जागरण का आयोजन किया जाता है। रात्रि-जागरण में पूर्ण रात्रि भर देवी- देवताओं सम्बन्धी गीत गाते हुए जगते रहने के कारण इसे “रातिजगा” कहते हैं। साधारणतः “रातिजगा” का आयोजन स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है, फिर भी शनिवार, मंगलवार या अन्य किसी दिन अथवा ग्रहण, अमावस्या, पूर्णिमा आदि के अवसर पर उस दिन के इष्टदेव के नाम पर पुरुष भी किसी मंदिर में या घर पर ही एकत्रित होकर रात्रि-जागरण करते हैं।

कई बार लोग रामदेवजी, गोगाजी, भैरूंजी, माताजी आदि के जागरण अपने-अपने इष्टदेव के अनुसार करवाते हैं। रामदेवजी का जागरण करने को “कांमड़” आते हैं। ऐसे जागरण को “जमौ” कहते हैं। यह भांबियों द्वारा ही किया जाता है। “माताजी” के भोपे माताजी की रात जगाते हैं। “गोगाजी” की रात उनके भक्त “गोगानवमी” को जगाते हैं। इन “रातिजगों” में प्रायःसगुण एवं निर्गुण दोनों ही प्रकार की भक्ति के पद और भजन गाये जाते हैं।

प्रायः सभी प्रकार के रात्रि-जागरणों में सर्वप्रथम गणेशजी की स्तुति की जाती है–

गौरी कौ नंद गणेस मनावां
हिड़दै में सारद माई, रै”जी…
निवन करां म्हारै गुरां पीरां नै
गुरु म्हांनैं ग्यांन बताई
मेरे दिल का दाग परै कर भाई, रै जी…!

गणेशजी की स्तुति के बाद अपने इष्टदेव या देवी-संबंधी गीत गाये जाते हैं। कुछ जातियों में “पितर” को भी मान्यता दी जाती है। शुभ अवसरों पर यथा–पुत्र-जन्म, विवाह, तीर्थयात्रा या कोई लाभ-प्राप्ति पर “पितरेस्वर” के निमित्त भी रात्रि-जागरण किया जाता है। यह केवल स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है एवं कुछ चुने हुए गीत ही गाये जाते हैं जो “पितरों” से सम्बन्धित होते हैं। कुछ स्त्रियां इस प्रकार के गीत गाने का व्यवसाय ही किया करती हैं। कुछ पारिश्रमिक पर इन्हें रात्रि-जागरण के लिये बुला लिया जाता है।

गंगा-यात्रा के बाद किए गए रात्रि-जागरण में अधिकतर गंगाजी-संबंधी ही गीत गाये जाते हैं। इसी प्रकार हनुमानजी, रामदेवजी, पाबूजी, गोगाजी, भैरूंजी, माताजी आदि के निमित्त किए गये जागरण में इन्हीं देवताओं से सम्बन्धित गीत अधिकतर गाते हैं। अन्य भजन भी गाये जा सकते हैं किन्तु आरम्भ उन विशिष्ट गीतों से ही किया जाता है।

रात्रि-जागरण के समाप्त होने पर ब्राह्म मुहूर्त्त में प्रभातियां गाई जाती हैं। प्रभात के समय जब जागने का समय होता है, तब यह गाया जाता है। इस सम्बन्ध में भी अनेक गीत प्रचलित हैं। ऐसे ही एक गीत का उदाहरण देखिये–

अंबर जाग्या देवी-देवता
धरती जाग्यौ वासग नाग
झालर तौ बाजी राजा रांम की।
मंडप में काळी माता जाग्या
पुरी में जगनाथ बाबौ जाग्या
बंगळे में हणमांन बाबौ जाग्या
परींडे में पितर देवता जाग्या
मिंदर में सती माता जाग्या

मठ में भैरूँ बाबौ जाग्या
पा’ड़ां में बदरीनाथ जाग्या
परबत में मालकेत जाग्या
जाँके पीठ वसै सकराय
झालर तौ बाजी राजा रांम की।

रात्रि-जागरण के अतिरिक्त साधारण समय में भी देवी-देवताओं के गीत गाये जाते हैं। आदिम अवस्था में मानव का विश्वास था कि देवी-देवताओं के मनाने से प्राकृतिक बाधायें एवं रोग आदि से मुक्ति मिल जाती है। यही भाव थोड़े बहुत प्रभाव से अभी तक चला आ रहा है। चेचक की बीमारी को आधुनिक युग में खतम-सा ही कर दिया गया है तथापि आज भी स्त्रियों का विश्वास है कि शीतलादेवी की प्रार्थना करने से उसे शांत किया जा सकता है। चेचक की इस देवी के प्रति उसने अपनी पुत्र-भावना प्रगट कर के उसे माता के रूप में ग्रहण किया है और सामूहिक भाव से एक निश्चित वार तथा तिथि मुकर्रर कर के इसे त्यौहार के रूप में सामाजिक मान्यता प्रदान की है। बच्चे को माता (शीतला) निर्विघ्न निकल जाय, इसके लिये मां सेडळ माता (शीतला देवी) की अनेक बलइयाँ लेती हैं[1]

जद म्हांरी माता तूठण लागी
बाजर को सो बीज, बला ल्यूं सेडळ माता ए!
जद म्हांरी माता भरणै लागी
मक्कै को सो बीज, बला ल्यूं सेडळ माता ए!
जद म्हांरी माता मांन लियौ ए
सोयौ सारी रात, बला ल्यूं सेडळ माता ए!
भरिये कूंडाळे धोकसी जी
नांनड़ियै री माय, बला ल्यूं सेडळ माता ए!

इस प्रकार अनेक देवी-देवताओं-सम्बन्धित गीत राजस्थान में प्रचलित हैं।

[1] परंपरा--वर्ष 1, अंक 1, अप्रैल 1956, पृष्ठ 132.

(iv) व्रत तथा उपासना सम्बन्धी गीत–

भारतीय शास्त्रों का ऐसा विश्वास है कि व्रतोद्यापन, स्नान, देव-दर्शन आदि पुण्य कार्य स्त्रियों को अवश्य करते रहना चाहिए। इससे उन्हें योग्य एवं मनचाहे पति तथा श्रेष्ठ घरबार मिलते हैं। तुलसी-व्रत का भी इस दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। यद्यपि तुलसी वृक्ष का पूजन प्रायः सभी स्त्रियों द्वारा किया जाता है, तथापि कुमारी कन्याएँ तथा नवविवाहिता वधुएँ इसका विशेष रूप से व्रत रखती हैं। यह व्रत कार्तिक मास में किया जाता है। प्रति वर्ष कार्तिक शुक्ला एकादशी को समस्त भारत में तुलसी-शालिग्राम विवाह-समारोह भी मनाया जाता है। इस विवाह के सम्बन्ध में राजस्थान में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक लोक गीत में शालिग्राम के प्रति तुलसी के विवाह की इच्छा प्रकट की गई है–

चाँद तौ बाबुल घट बढ़ ऊगै तौ–
सूरजजी रै किरणां घणैरी हौ रांम!
ईसर तौ सोळा दिन आवै तौ–
सिवजी कै जटा ए घणैरी हो रांम!
विरमा बाबाजी वेद पढ़ावै तौ–
विनायक कै सूंड बडैरी हो रांम!
किसन बाबाजी गायां चरावै तौ–
ए बर म्हांनै ना भावै हो रांम!
म्हांनै म्हारौ साळगरांम बर हेरौ तौ–
बै म्हारी ओड़ निभावै हो रांम!

राजस्थानी लोक गीतों में तुलसी वृक्ष का पीपल एवं वट वृक्ष से भी अधिक महत्त्व माना गया है। आस्तिक नर-नारी प्रातःकाल स्नान के बाद तुलसी के दर्शन करना एवं तुलसी-पत्र लेना अपना परम धर्म समझते हैं। कार्तिक मास में हर शाम को बाला बालिकाएँ तुलसी के वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करती हैं एवं दीपक जलाती हैं। सात्विक जीवन व्यतीत करने वाली कन्या को ही सुन्दर एवं श्रेष्ठ पति प्राप्त होता है, इसकी झलक अनायास ही लोक-गीतों में मिल जाती है। तुलसी कहती है कि हे बहनों–

चैतां में ए भैंणां गौरल पूजी तौ
निरणी ऊठ संवारी हो रांम!
वैसाखां ए भैंणां बड़ पीपळ सींच्या तौ–
स्यौ पर लोटौ ढाळयौ हो रांम!
जेठां में ए भैंणां जेठुड़ा घाल्या तौ–
बिन मांग्यौ पांणी पायौ हो रांम!
पगल्यां सूं ए भैंणां पग ना धोयौ तौ–
दिवलै सूं दिवलौ न जोयौ हो रांम!
आलौ ए भैंणां पीपळ न काट्यौ तौ–
बैठी गउ न सताई हो रांम!
भूखा बिपर न ठाया ए भैंणां तौ
कुंवरी कन्या न मारी हो रांम!
अतणां तौ ए भैंणां जप तप कीन्या तौ–
जद ए किसन वर पायौ हो रांम!

कार्तिक मास में अनेक प्रकार के व्रत करने का विधान है। शास्त्रों में कार्तिक मास की पवित्रता के वर्णन के साथ ही स्नान का भी विशेष महात्म्य बताया है।[1] कहा जाता है कि ब्रह्मचर्यपूर्वक नियमित स्नान करने से बड़ा फल होता है। धार्मिक पर्व और त्यौहार मनाने में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ विशेष उत्साह रखती हैं।[2] यद्यपि शास्त्रों में स्त्री एवं पुरुष वर्ग, दोनों के लिये ही कार्तिक स्नान की समान विधि निर्दिष्ट है, तथापि पुरुष तो कोई विरला ही चार घड़ी के तड़के उठ कर विधि के अनुसार स्नान करने का कष्ट करता होगा। शरद् पूर्णिमा से कार्तिक स्नान आरंभ किया जाता है। प्रति दिन ब्राह्म मुहूर्त्त में विभिन्न गीतों के साथ कार्तिक स्नान किया जाता है–

सात सयां रै झूमखै राधा न्हांवण चाली ओ रांम!
आडा किसन जी फिर गया, थांनै जांण न देस्यां ओ रांम!
थारा जी बरज्या न रै”वां, म्हारी सास खिनाया ओ रांम!
खोल्या जी स्याळू स्यावटा, राधा जळ में पधारी ओ रांम!
लीन्या किसन जी कापड़ा, जाय कदम चढ़ बैठ्या ओ रांम!
देद्यौ किसन जी कापड़ा, लज्जा राखौ म्हारी ओ रांम!

थांरा जी कपड़ा जद देवा, जळ सैं होज्याओ न्यारा ओ रांम!
जळ सैं न्यारा ना होवां, थे पुरुख म्हे नारी ओ रांम!…

स्नान के अनन्तर वे पथवारी के चारों ओर एक साथ बैठ जाती हैं और वहां उनके गीतिमय स्तोत्रों की धारा प्रवाहित होती है–

पथवारी तूं पथ की ए रांणी, बाट चढ़ी जस देय
जस की माय कंवळ की रांणी, नारायण सैं हेत
हेत बड़ौ क करतार बड़ौ म्हांरौ पिता बडौ संसार
ऊगंतै सूरज मिळैं चकवा मिळै चकवी–गऊ बंधन छोडद्यौ
थारी करी सेवा स्यांमसुंदर राधा प्यारी किसन प्यारी!

इसके अतिरिक्त वट-पूजा, करवाचौथ, बछ-बारस, ऊबछठ आदि अनेक व्रतों से सम्बन्धित लोक गीत राजस्थान में प्रचलित हैं।

[1]  न कार्तिकसमो मासो न काशी सदृशी पुरी।
    न प्रयागसमं तीर्थं न देवः केशवात्परः
    प्रातः स्नानं नरो यो वै कार्त्तिके श्री हरिप्रिये।
    करोति सर्वतीर्थेषु यत्स्नात्वातत्फलं लभेत्।।
    कार्त्तिकं सकलं मासं नित्यस्नायी जितेन्द्रियः।
    जपन् हविष्यभुक् शान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
[2]  कार्तिक स्नान के राजस्थानी महिला लोक गीत--पं. झाबरमल शर्मा, मरु भारती, वर्ष 6, अंक 1, पृष्ठ 24.

4. पारिवारिक गीत

राजस्थान में पारिवारिक जीवन से संबंधित लोक गीत भी अनेक प्रचलित हैं। इन लोक गीतों में पति-पत्नी के संबंधों को लेकर अतुलनीय एवं अनोखा साहित्य रचा गया। यह वस्तुतः सत्य है कि लोक गीत की एक-एक बहू के चित्रण पर रीतिकाल की सौ-सौ मुग्धाएँ, खण्डिताएँ और धीराएँ निछावर की जा सकती हैं, क्योंकि ये निरालंकार होने पर भी प्राणमयी हैं और वे अलंकारों से लदी हुई होकर भी निष्प्राण हैं। ये अपने जीवन के लिए किसी शास्त्र विशेष की मुखापेक्षी नहीं हैं और अपने आप में परिपूर्ण हैं।[1] लोक गीतों के मुख्य विषयों में पति-पत्नी का कोमलतम और स्नेहपूर्ण सम्बन्ध भी है। राजस्थानी का प्रसिद्ध लोक गीत “पणिहारी” इसी एकनिष्ठ प्रेम का सुन्दर उदाहरण है।

[1] पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी।

विवाह के पश्चात् सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाने के लिए पति को नौकरी पर जाना पड़ता है। अगर नौकरी नहीं भी हो तब भी पत्नी से अलग होने का कोई न कोई अवसर तो आता ही है। राजस्थानी लोक गीतों में तो ऐसे अनेक गीत मिल जाते हैं जिनमें पत्नी अपने पति को किसी प्रकार कुछ देर रोकने के लिए मिन्नतें करती है। “एक थंभियौ महल” एवं “कसूंबौ” आदि लोक गीत दाम्पत्य जीवन के संयोग पक्ष की मधुरिमा को व्यक्त करते हैं। पत्नी अपने पति को नौकरी पर जाने से रोकना चाहती है किन्तु लाख मना करने पर भी पति कर्तव्य-पालन के लिए चला जाता है। ऐसे भी लोक गीत मिलते हैं जिनमें पत्नी अपने पति से निवेदन करती है कि तुम नौकरी कहीं पास में ही कर लो जिससे शाम होते ही घर लौट आया करो। तुम्हें किसने यह बात सुझाई? नौकरी पर जाने की सीख तुम्हें किसने दी? जिन साथियों ने तुम्हें ऐसी सीख दी उन पर बिजली गिरे, उन्हें काला साँप डसे। प्रश्नोत्तर का यह एक सुंदर गीत है–

नैड़ी तौ नैड़ी करजौ पिया चाकरी जी
सांझ पड़्यां घर आय, जावौ गोरी रा बालमा जी!
कुणी तौ चाळा थांने चाळिया जी, कुणी थांने दीवी सीख
अब घर आय जावौ गोरी रा बालमा जी!
साथीड़ा चाळा गोरी चाळिया जी, रावजी दीवी म्हांने सीख
अब घर आय जावौ गोरी रा बालमा जी!
साथीड़ा पै पड़जौ ढोला बीजळी जी, रावजी नै खाज्यौ काळौ साँप
अब घर आय जावौ आसा थांरी लग रही जी!…

अपने वैवाहिक जीवन में एकनिष्ठता के लिए स्त्री-पुरुष में परस्पर आकर्षण बनाये रखना होता है। अतः विवाह के आरंभ के दिनों में स्त्री के सौन्दर्य एवं पुरुष की पौरुष शक्ति का भी महत्त्व है। लोक गीतों में इन दोनों सुन्दरताओं का वर्णन हुआ है। “रैणांदे” और “मूमल” नामक लोक गीतों में स्त्री-सौन्दर्य का अत्यन्त सुंदर वर्णन है। पति-पत्नी के एकनिष्ठ प्रेम का भी लोक गीतों में पर्याप्त वर्णन रहता है। उदाहरण के लिए एक लोक गीत देखिये जिसमें प्रेयसी अपने प्रिय से उपवन में आकर मिलने की प्रार्थना कर रही है। पपीहे की पुकार मिलनोत्कण्ठा को तीव्र कर रही है किन्तु प्रिय पूर्व विवाहित है। उसमें स्वकीया के प्रति निष्ठा है–

भँवर म्हारे बागां आजौ जी
बागां फिरूं अकेली, पपैयौ बोल्यौ जी!
सुंदर गोरी किस विध आवां जी
म्हांकी परणी करै लड़ाई, पपैयौ बोल्यौ जी!
भंवर थांकी परणी मरज्यौ जी
बागां फिरूं अकेली पपैयौ बोल्यौ जी
सुंदर गोरी के थेंईं मरज्यौ जी
म्हांकी परणी वंस वधावै, पपैयौ बोल्यौ जी!
म्हांकी परणी पूत खिलावै, पपैयौ बोल्यौ जी!

लोक गीतों में मुख्यतया स्त्री को ही केन्द्र समझ कर उसको पीहर की परिस्थितियों में तथा ससुराल की परिस्थितियों में रखा गया है, जिससे कि सभी पारिवारिक सम्बन्धों पर लोक गीतों की मान्यताएँ स्पष्ट हो सकें। ससुराल में जहाँ वधू, भावज, माता, देवराणी, जेठाणी आदि के अनेक रिश्तेदारों के रूप में रहना पड़ता है, वहाँ पीहर में वह पुत्री, बहिन, नणद, भाणजी आदि के रूप में होती है। इन सम्बन्धों के पीछे समाज के विकास का तथा आर्थिक, नैतिक एवं वैधानिक मान्यताओं व धारणाओं का जाल-सा बिछा रहता है। पीहर तथा ससुराल दोनों से सम्बन्धित अनेक गीत राजस्थान में मिलते हैं। उदाहरण के लिए “घूघरी” नामक लोक गीत को लिया जा सकता है। एक स्त्री के बच्चा हुआ। उसके घर “घूघरी” बना कर बाँटी गई। नाई ने जली हुई पेंदी की घूघरी उसकी नणद के यहाँ भी भेज दी। स्त्री को मालूम होने पर वह पति से जिद करने लगी कि नणद के यहाँ भेजी गई घूघरी लौटा लाओ। तंग आकर बेचारा भाई अपनी बहिन के ससुराल घूघरी लौटा लाने के लिए गया। सीधे सरल भाई ने कह दिया– “हे प्यारी बहिन, तुम्हारी भाभी ओछे घर की लड़की है। वह तुमसे घूघरी वापिस माँगती है।” बहिन को भी अपने भाई की प्रतिष्ठा का ख्याल है। घूघरी बच्चे खा चुके थे, अतः उसने सोने की घूघरी बनाई और उस पर चाँदी के बड़े-बड़े दाने रक्खे और भाई को देने पीहर गई और शिष्ट व्यंग कसा–

नीसर भावज बाहर आव
थारी पाछी ल्याया घूघरी, जी म्हांरा राज
लीनौ भावज पल्लौ ए पसार
कोई गज कौ काढ़्यौ घूंघटौ, जी म्हांरा राज
जे म्हे होता निरधणियां घर नार
थारी किस विध ल्याता घूघरी, जी म्हांरा राज
थारी किस विध ल्याता घूघरी, जी म्हांरा राज

भाई-बहिन के मधुर प्रेम-संबंधी चित्र भी राजस्थानी लोक गीतों में उपलब्ध होते हैं। बड़ी बहिन एवं छोटे भाई के प्रेम एवं विनोद का एक सुंदर उदाहरण देखिये–

मोरिया वागाँ वागाँ जाय नै
काची कुळियाँ लायी रे, धन मोरिया
काची नै कुळियाँ रा गजरा गुंथाया, रे धन मोरिया

गजरा गुंथाय नै गवराँ बाई-सा” रै मेली, रे धन मोरिया
बाई-सा” बड़ा है, म्हाँरा गजरा पाछा मेलै रे धन मोरिया
गजरा गुंथाय नै सोदरा बाई-सा” मेली, रे धन मोरिया
बाई-सा” बड़ा है, म्हाँरा गजरा पाछा मेलै, रे धन मोरिया!

राजस्थान का एक प्रसिद्ध गीत है “कुरजाँ”। इस गीत को विरहिणी नायिका अपने प्रियतम के लिए भी गाती है और इसी गीत के भाव बदल कर बहिन अपने भाई की प्रतीक्षा में भी गाती है। गीत के भाव इतने सबल, सशक्त और मनोहर हैं कि पीहर की याद में किसी भी बालिका के सहजात मन का सहज अनुभव किया जा सकता है।[1]

[1] परंपरा--वर्ष 1, अंक 1, अप्रेल 1956, पृष्ठ 117.

परिवार के कार्यों की अभिव्यक्ति भी इन लोक गीतों में बहुत ही सुन्दर ढंग से हुई है। राजस्थान में कृषि ही जीविका का रूप प्रमुख साधन है। परिवार के सभी सदस्य, चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री, चाहे पुत्री हो अथवा वधू, छोटा हो या बड़ा, सभी कृषि-कार्य में उत्साह से अपना हाथ बँटाते हैं। कोई हल चलाता है तो कोई “वोझा” काटता है, कोई कुआं चलाता है तो कोई फसल काटता है, कोई घर के मवेशी चराता है तो कोई भोजन ही लाता है। अनेक गीतों में इन्हीं कार्यों की अभिव्यक्ति हुई है। पुत्री द्वारा गाया जाने वाला एक लोक गीत देखिये–

आयौ आयौ सांवण भादवौ
कोई, काळी घटा घिर आय, आज म्हांरी बदळी बरसैगी
म्हां रौ वीरोजी वीजै बाजरौ
म्हां रा भाभीजी काटै फोग, आज म्हांरी वदळी वरसैगी
म्हां रा काकोजी चरावै टोड़िया
म्हां रा माऊजी लावै छकियार, आज म्हांरी वदळी वरसैगी

वधू अपनी सास के साथ-साथ खेत में अपने कार्य पर जाती है। धरा के स्वतंत्र प्रांगण में वह भी उल्लसित मन से गा उठती है–

सासू बहू म्हे चली खेत नै
लीनी गंडासी हाथ, बणायी झूंपड़ी
सासूजी तौ पूळा काट्या
कोई म्हे काट्या सर ए पचास, बणायी झूंपड़ी
म्हारे परण्ये छायी तिरणी
म्हारे देवरिये गूंथ्यौ पाल, बणायी झूंपड़ी
सासू बहुवां मिळ गारौ तौ ढोळ्यौ
कोई लीप्यौ-लीप्यौ सारौ पाल, बणायी झूंपड़ी
आ झूंपड़ी म्हांरौ माळियौ
स कोई आ झूंपड़ी म्हांरौ मै’ल, बणायी झूंपड़ी।

ग्राम्य-जीवन से सम्बन्धित कुछ ऐसे लोक गीत भी पाये जाते हैं जिनमें किसी आभूषण अथवा घरेलू उपकरण की प्रशंसा की गई हो। “गोरबंध” एवं ईंढ़ांणी” ऐसे ही लोक गीत हैं। “गोरबंध” ऊँट के गले का एक आभूषण होता है। यह गीत उसी आभूषण का रूप चित्रण करता है–

खारा रे समंदां सूं कोडा मंगाया
जूने गढ़ गूंथाया रे, म्हारौ गोरबंद लूँबाळौ!
असी रे कोडां में तू उजळा
हडबी काच बिड़ाया रे, म्हारौ गोरबंद लूँबाळौ!
असी रे लड़ां रौ म्हारौ गोरबंधियौ नै
पची लड़ां री लूंबां रे,, म्हारौ गोरबंद लूँबाळौ!
जोधांणां सूं रेसम मंगायौ
गोरबंधियौ गूंथायौ रे, म्हारौ गोरबंद लूँबाळौ!

इसी प्रकार “ईंढ़ांणी” नामक लोक गीत में “ईंढ़ांणी” (पानी लाने के लिए सूत, मूँज अथवा नारियल की जट का बना एक उपकरण जिसे स्त्रियाँ सिर पर रख कर उस पर पानी का घड़ा रख कर लाती हैं) की प्रशंसा की गई है–

म्हारी सवा पाव की ईंढूँणी
म्हारौ सवा तार कौ सूत, गमगी ईंढूँणी!
म्हारी माऊजी वणायी ईंढूँणी
म्हारी मामीजी कात्यौ सूत, गमगी ईंढूँणी!
मोतीड़ा जड़ी म्हारी ईंढूँणी
कोई हीरा जड़्यौ म्हारौ सूत, गमगी ईंढूँणी!
म्हारी सवा लाख री ईंढूँणी
म्हारौ सवा लाख रौ सूत, गमगी ईंढूँणी!
और वणास्यां ईंढूँणी
म्हे और कतास्यां सूत, गमगी ईंढूँणी!

5. विविध गीत

राजस्थानी के अंतर्गत कुछ गीत ऐसे भी मिलते हैं जिनका अंतर्भाव उपर्युक्त श्रेणी-विभाजन में नहीं होता।

“लोक गीत के स्वर दूर से आते हैं। जाने ये स्वर कहाँ से फूट पड़ते हैं। युग-युग की पीड़ा-वेदना, युग-युग की हर्ष-श्री, रीति-नीति, प्रथा-गाथा, अचूक, सहज रूढ़िवार्त्ता, भौगोलिक एवं वातावरण-निर्मित संस्कृत परम्परायें सभी इन स्वरों में अपने नाम-धाम अथवा अंश आदि का परिचय देती प्रतीत होती हैं।”[1]

[1] देवेन्द्र सत्यार्थी।

(i) ऐतिहासिक गीत–

राजस्थान में व्यावसायिक गायकों द्वारा गाये जाने वाले अनेक गीत प्रचलित हैं। इन गीतों को प्रायः व्यावसायिक गायक ही गाते हैं। “रतन रांणौ” ऐसा ही एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक लोक गीत है। “रतन” ऊमर कोट का एक सोढ़ा राजपूत था। किसी अंग्रेज की हत्या के अपराध में उसे तत्कालीन पोलिटिकल ऐजेन्ट द्वारा फाँसी दिलवा दी गई थी। गीत बड़ा करुणापूर्ण है जिसमें सोढ़ा “रतन रांणा” की पत्नी अपने मृत पति को याद कर रही है। यह एक प्रकार का मरसिया ही है–

म्हारा रतन रांणा, एकर तौ अमरांणे घोड़ौ फेर!
भटियल ऊभी छाजइये री छांह, हो जी हो
आंसूड़ा ढळकावे कायर मोर ज्यूं रे
म्हारा रतन रांणा एकर सूं अमरांणे घोड़ौ फेर
अमरांणै में घोर अंधार, हां रे म्हांरा सोढ़ा रांणा
अमरांणै में हो घोर अंधार, हो जी हो
विलखण नै लागै रे मै”ल माळिया हो
म्हारा रतन रांणा, एकर तौ अमरांणै पाछौ आव!

राजस्थानी लोक गीतों में प्राचीन इतिहास प्रतिबिम्बित होता है। सन् 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में राजस्थान ने भी अपना योग-दान दिया। तत्कालीन लोक गीत सहस्रों नर-नारियों द्वारा गाये जाकर उस स्वातंत्र्य- संग्राम एवं बलिदान हुए वीरों का जयघोष करते रहते हैं। “आऊवा” के ठाकुर खुशालसिंहजी इन सब में अग्रगण्य थे। “आऊवा” ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। आऊवे के साथ युद्ध में पॉलिटिकल एजेन्ट कैप्टेन मैशन मारा गया। लोक गीतों में इस भावना का सुन्दर चित्रण हुआ है–

ढोल वाजै थाळी वाजै भेळौ वाजै बांकियौ
अजंट ने मार नै दरवाजे न्हांकियौ
जूझै आऊवौ!
हे ओ जूझै आऊवौ
आऊवौ मुलकां में चावौ ओ के
जूझै आऊवौ!

निरन्तर आठ महिनों तक खुशालसिंहजी ने अंग्रेजों से मोर्चा लिया। मारवाड़ के आसोप, गूलर, लांबिया, बाजवास, आलनियावास, भिंवाळिया, बांता और मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर, लसानी आदि जागीरदारों ने भी आऊवे का साथ दिया। लोक गीतों में भी इस संगठन के लिए दी जाने वाली प्रेरणा का भाव मिलता है–

आऊवौ ने आसोप धणियां मोतीड़ां री माळा रे
बारे न्हांकौ कूंचियां तुड़ावौ ताळा रे, झगड़ौ आदरियौ
वा’–वा’ झगड़ौ आदरियौ टोळी रै टीकायत माथै
चढ़ नै आया हो, झगड़ौ आदरियौ।
आऊवे वाळा बाग में बाबलिये वाळौ घेरौ रे
माथै फौजां आई नै अंगरेज भेळौ रे
भायां सांमल रीज्यौ वा’वा’ भायां सांमल रीज्यौ
ठाकर नै ठिकांणौ छूटै रे के भायां सांमल रीज्यौ
एक तौ नगारौ धणियां रातेनाडे बाजे ओ
दूजोड़ौ नगारौ धणियां ठेठ बाजे ओ
के झंडौ रोपियौ, वा’वा’ झंडौ रोपियौ
गोरां रा माथा कंवरां लीधौ ओ के झंडौ रोपियौ…..

लोक गीतों में तत्कालीन समाज की राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का सुन्दर चित्रण मिलता है। अंग्रेजों की कूटनीति का लोक गीतों ने पर्दाफाश किया है। अंग्रेज ने इस देश को क्या दिया? भाइयों में फूट डाली, (यह फूट डालो और शासन करो की नीति की ओर संकेत करता है) बेगार की प्रथा आरम्भ की एवं आर्थिक दृष्टि से देश को निर्बल बना दिया। भारत के अतीत की समृद्धि और सुख-सम्पन्नता विलीन हो गई। दरिद्रता यहां तक बढ़ गई कि अनेक भारतीय रोटी-रोटी को मुहताज हो गये। अंग्रेजों ने जो यहाँ पर अपनी कूटनीति चलाई उसकी लोक-भावना में स्पष्ट अभिव्यंजना हुई है–

मोडकी मगरी रौ पांणी ढाळौं ढाळ ढळियौ रे
आबू थारै पा’ड़ां में अंगरेज बड़ियौ रे
काळी टोपी रौ देस में छांवणियां नाखै रे, काळी टोपी रौ
देस में अंगरेज आयौ कांईं-कांईं लायौ रे
फूट नांखी भायां में बेगार लायौ रे
काळी टोपी रौ, वा’वा’ काळी टोपी रौ।
घोड़ा रोवै घास नै टाबरिया रोवै दांणा नै
बुरजां में ठकुरांण्यां रोवै जांमण जाया नै
के रोळौ वापरियौ, वा’ वा’ रोळौ वापरियौ
देस में अंगरेज आयौ रे, के रोळौ वापरियौ!

राजस्थान के निवासियों में अंग्रेज-सत्ता के खिलाफ असंतोष एवं उत्पीड़न था, अतः वे हृदय से अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति की कामना करते थे। “गोरा हट जा” ऐसा ही लोकगीत है।

समय आने पर जन-जीवन की रक्षा करने तथा धर्म की रक्षा करने के लिए जिन-जिन वीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है वे भी यहां के लोक गीतों में प्रसिद्ध हो चुके हैं। अनेक वीरों केप्रति यहां के लोक-जीवन में विशेष आस्था और श्रद्धा होने के कारण उन्हें धार्मिक महत्त्व प्राप्त हो गया है। ऐसे वीरों में पाबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी आदि प्रसिद्ध हैं जिनके गीत आज भी लोक-जीवन में विशेष सम्मान के साथ गाये जाते हैं। इन गीतों का धार्मिक महत्त्व के साथ-साथ ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि भी है। इनके अतिरिक्त अनेक ऐतिहासिक घटनायें तथा उनसे सम्बन्धित व्यक्ति भी लोक गीतों में गाये जाते हैं। गायों की रक्षा करने में अपना बलिदान देने वाले प्रसिद्ध गोगाजी का एक लोक गीत देखिये–

गिगन-भवन सूं कुरजां उतरी, कांईं यक लाई वात ओ
कुण-कुण ठाकर झूझिया, कुण-कुण आया है कांम ओ
गोगौ नै धरमी बेई जूझिया, गोगौ आयौ है कांम ओ
आठम रै दिन जूझिया, नमैं लीधौ अवतार ओ
दसम रै चिणावूं धरमी रे देवरौ, चवदस जातीड़ौ जाय ओ
बांधौ गोगाजी री धरमी राखड़ी, आठम री नव गांठ ओ
तूठै गोगोजी सांवण रमती तीजण्यां, ज्यांरौ अमर अहिवात ओ।
तूठै गोगोजी बूढ़ा ठाढ़ा डोकरां, तूठै भल मोटियारां ओ
गाय गवाड़ै सीखै सांभळै, जिण री गोगोजी पूरै छै आस ओ।

(ii) बाल गीत–

राजस्थानी लोक गीतों का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। जीवन के प्रत्येक पहलू पर लोक गीत मिलते हैं। बालक- बालिकाओं-संबंधी अनेक गीत राजस्थानी में विद्यमान हैं। स्वर, ताल और लय के अतिरिक्त उनकी एक विशेषता है और वह उनकी मनोवैज्ञानिकता। बाल-मनोविज्ञान का उनमें सर्वत्र निर्वाह हुआ है।[1]

[1] राजस्थानी लोक गीत--संग्रहकर्त्ता--श्री जगदीशसिंह गहलोत, सं. रामप्रसाद दाधीच, पृ. 137.

खेल ही खेल में रात हो जाने के कारण भाई अपनी छोटी बहिन से कह रहा है कि–“बहिन, शीघ्र चल, देख आकाश में चांद चढ़ आया है, किरतियां ढल रही हैं, जल्दी चल अन्यथा माताजी मारेंगी, बाबाजी गालियां देंगे, तब बड़ा भाई मना करेगा और कहेगा कि बहिन को गालियां मत दो, वह तो परदेसिन है, कुछ दिनों बाद जँवाई ले जायगा।” गीत का काव्य-सौन्दर्य भी दृष्टव्य है–

चाँद चढ़्यौ गिगनार
किरत्यां ढळ रहियाँ जी ढळ रहियाँ
अब बाई घरे पधार
माऊजी मारैला जी मारैला
कोई बाबोसा दैला गाळ
वडोड़ौ वीरौ वरजैला जी वरजैला
मत दौ म्हांरी बाई नै गाळ
बाई म्हारी परदेसण जी परदेसण
आ आज उडै परभात
तड़कले उड ज्यासी जी उड ज्यासी
सांवणिये रा दिनड़ा चार
जँवाईड़ौ ले ज्यासी जी ले ज्यासी!

वर्षा काल में उमड़ते मेघों को देख कर छोटे-छोटे बालक और बालिकायें गा उठते हैं–

मेह बाबा आजा
घी ने रोटौ खाजा!
आयौ बाबौ परदेसी
अबै जमांनौ कर देसी!
ढाकणी में ढोकळौ
मेह बाबौ मोकळौ!

इसी प्रकार अनेक तुकबंदियां मिलती हैं। कुछ तो केवल शिशुओं को बहलाने के लिये ही निर्माण की गई जान पड़ती हैं–

कांन्या मांन्या कुर्रर्र
जाऊं जोधपुर्रर्र
लाऊँ कबूतर्रर्र
ऊडाय देऊँ फर्रर्र

(iii) अन्य गीत–

लोक गीत लोक-हृदय के उद्गार हैं, जिन पर समाज की छाप स्पष्ट रूप से लक्षित होती है। इनका क्षेत्र जीवन के विस्तार के साथ सम्बन्धित है। आदि काल से ही मानव अपने जीवन की जिन-जिन गतिविधियों में जीवनानुभूति करता आया है उसका एक-एक क्षण और विविध कार्य-कलापों का एक-एक अंग इन लोक गीतों में अभिव्यक्त हुआ है। समाज की आत्मा के परिचायक, इन लोक गीतों को वर्गों की सीमा-रेखा में बांधना, उनके विस्तार और उनकी महत्ता को कम करना है। हमने अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से उपरोक्त विवेचन में लोक गीतों को कुछ वर्गों में विभक्त कर उनका संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया है। परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि हम राजस्थान के लोक गीतों को इस रेखा में बांध ही नहीं सकते। कुछ लोक गीत तो निश्चयपूर्वक वर्णित वर्गों के अनुसार सम्बन्धित अवसरों पर ही गाये जाते हैं परन्तु बहुत से गीत किसी विशेष अवसर या वर्ग से सम्बन्धित होते हुए भी भिन्न-भिन्न समय पर भी गाये जाते हैं। जनेऊ संस्कार के समय प्रायः सभी गीत विवाह संस्कार के ही गाये जाते हैं। विशेष ऋतु-सम्बन्धी, पर्व-सम्बन्धी या श्रृंगारिक गीत श्रम के समय, मेलों आदि में तथा गाने का व्यवसाय करने वाले लोगों द्वारा किसी उत्सव या आयोजन विशेष के समय भी गाये जाते हैं। कुछ ऐसे भी गीत हैं जिनका व्यापक प्रयोग होने के कारण किसी वर्ग की सीमा में नहीं बँधते। जीवन में रस घोलने, वातावरण को उल्लासमय बनाने, दुख-दर्द को भुलाने, श्रृंगार के दोनों ही पक्षों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न जड़ पदार्थों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को ही अपने गीतों का विषय बना लिया है। इनमें कांगसियौ, गाडूलौ, दिवलौ, नींबड़ली, नींबूड़ौ, बड़लौ, मरवौ, केवड़ौ, तथा सूवटौ, पपिऔ, हिरणी आदि बहुत प्रचलित गीत हैं। इसी प्रकार अनेक ग्राम्य-गीत यथा–खीचड़ौ, हाळी, ऊंट, कूवौ, विणजारौ आदि गीतों की मधुर स्वर-लहरी भी बहुधा सुनाई पड़ती ही रहती है।

खीचड़ौ गीत में अकृत्रिम जीवन एवं सरल भावों की अभिव्यक्ति श्रोताओं को आकर्षित किए बिना नहीं रहती–

म्हारौ मीठौ लागै खीचड़ौ
म्हारौ चोखौ लागै खीचड़ौ
छुळक्यौ-छांट्यौ बाजरौ
म्हे दळी ए मूंगां की दाळ, मीठौ खीचड़ौ
ऊंखळ घाल्यौ बाजरौ
म्हे छल्ले गाली दाळ, मीठौ खीचड़ौ
म्हे नानूं कूट्यौ बाजरौ
म्हे मीठी छांटी दाळ, मीठौ खीचड़ौ
खदबद सीजै बाजरौ
कोई लथ-पथ सीजै दाळ, मीठौ खीचड़ौ
दूध-खीचड़ौ खाबा बैठ्या
कोई तरसै म्हांरी जाड़, मीठौ खीचड़ौ

4. राजस्थानी लोक गाथा

राजस्थानी लोक साहित्य में लोक गाथाओं का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोक गाथा अंग्रेजी शब्द Ballad का रूपान्तर मात्र है। Ballad की उत्पत्ति लैटिन शब्द Ballure से मानी जाती है, जिसका मूल अर्थ नाचना होता है। रोबर्ट ग्रेब्स के मतानुसार वैलेड में संगीत और नृत्य दोनों की प्रधानता रहती है।[1] डॉ. मरे ने अपने अंग्रेजी शब्द कोश में स्फूर्तिदायक या उत्तेजनापूर्वक वह कविता जिसमें कोई लोकप्रिय आख्यान सजीव रीति से वर्णित हो, को बैलेड कहा है।[2] संसार की प्रायः सभी भाषाओं में लोक गाथायें किसी न किसी रूप में अवश्य वर्तमान हैं। राजस्थानी के लिए लोक गाथा किंचित् नया शब्द है। प्रायः अंग्रेजी शब्द Ballad का रूपान्तर लोक गीत ही किया जाता है। ढोला मारू के विद्वान संपादकों ने भी प्रस्तावना में “लोक गीत” शब्द का ही प्रयोग किया है।[3] अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो “लोक गीत” एवं “लोक गाथा” दोनों में बड़ा अन्तर है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने Ballad के लिए “लोक गाथा” का प्रयोग किया है।[4] वस्तुतः यह रूपान्तर अधिक वैज्ञानिक है। उन्होंने लोक गीतों एवं लोक गाथाओं में मोटे तौर से दो भेद बताये हैं।[5] (1) स्वरूपगत भेद, एवं (2) विषयगत भेद।

[1] "It is connected with the word 'Belle' and originallyment a song for refrain intended as accompanyment to dancing but later covered any song in which a group or people socially joined"-Robert Grabs, The English Ballad (Preface)
[2] "A simple spirited poem in short stanzas in which some popular story is graphically told"-New English Dictionary. "बैलेड" शब्द का अर्थ।
[3] डोला मारू रा दूहा--सं. रामसिंह, सूर्यकरण पारीक एवं नरोत्तमदास स्वामी--नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित-- प्रस्तावना, पृष्ठ 41.
[4] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, पृष्ठ 73.
[5] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास--षोडश भाग, प्रस्तावना--ले. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, पृष्ठ 74.

लोक गीत प्रायः छोटे होते हैं तथा लोक गाथायें लम्बी होती हैं। यद्यपि कुछ लोक गीत भी लम्बे होते हैं तथापि लोक गाथाओं की लम्बाई से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। राजस्थानी का “ढोला-मारू” नामक काव्य एक लोक गाथा ही है। अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध “दी जेस्ट आव् रोबिनहुड” नामक लोक गाथा हजारों पंक्तियों में समाप्त होती है।

विस्तार के अतिरिक्त लोक गीत एवं लोक गाथा में विषयगत अन्तर भी निहित रहता है। लोक गीतों में जीवन की विभिन्न अनुभूतियों का प्रकाशन होता है। विभिन्न संस्कारों, विभिन्न ऋतुओं, उत्सवों, पर्वों एवं त्यौहारों पर अनेक प्रकार के लोक गीत गाये जाते हैं। लोक गाथाओं में इन विषयों का मुख्य रूप से समावेश नहीं होता। उनमें प्रेम का पुट होते हुए भी प्रायः युद्ध, वीरता, साहस, रहस्य और रोमांच आदि का पुट अधिक मिलता है। इन गाथाओं में चित्रित नायक प्रायः लोकत्राता या लोकरक्षक के रूप में सामने आता है। लोक गीत एवं लोक गाथाओं के उपरोक्त भेद के कारण दोनों को एक ही श्रेणी में रखना उचित नहीं है।

लोक गाथाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनकी रचना किसी समुदाय के द्वारा हुई मानते हैं, किन्तु कुछ विद्वान इन्हें किसी व्यक्ति विशेष की रचना स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. ग्रिम का समुदायवादी, श्लेगल का व्यक्तिवादी, स्टेंथल का जातिवादी, चाइल्ड का व्यक्तित्वहीन व्यक्तिवादी, आदि अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं। भारतीय विद्वान डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने अपना एक अलग मत “समन्वयवाद” नाम से प्रस्तुत किया है।[1] प्रसिद्ध कहानी लेखक जेम्स ग्रिम के अनुसार लोक गाथाओं का रचयिता जन-समुदाय (Das Volksdichter) ही हैं,[2] क्योंकि लोक गीतों एवं लोक गाथाओं में जन-समुदाय की आत्मा संपूर्ण रूप में प्रकाशित होती है। उनके अनुसार लोक गाथाओं की रचना किसी विशिष्ट या प्रसिद्ध कवि के द्वारा नहीं होती अपितु इनकी रचना स्वतः होती है और उसका प्रचार भी जन-साधारण में स्वतः ही हो जाता है।[3] डॉ. गूमर ने भी इसका प्रतिपादन करते हुए कहा है कि लोक गाथा जनता के द्वारा जनता के लिए जनता की कविता है।[4] देखा जाय तो जन- समुदाय का काव्य-निर्माता होना कोई असंभाव्य बात नहीं है। किन्तु इसके साथ यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सभी लोक गाथाओं की रचना जन-समुदाय द्वारा ही हुई होगी। “ढोला मारू” के विद्वान सम्पादकों ने भी “समुदायवादी” सिद्धान्त को मान्यता ही है।[5]

इस सिद्धान्त के विरुद्ध कुछ विद्वानों का कथन है कि किसी कविता या गाथा का रचयिता कोई न कोई व्यक्ति अवश्य होता है। डॉ. स्टेंथल के मतानुसार किसी जाति (Race) के समस्त व्यक्ति मिल कर लोक गाथाओं का निर्माण करते हैं। स्टेंथल का यह मत व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता क्योंकि किसी छोटी जाति के सम्बन्ध में तो यह मत समीचीन हो सकता है किन्तु किसी बड़े देश की बड़ी जाति के सम्बन्ध में यह मत नितांत अव्यवहार्य है। डॉ. उपाध्याय के अनुसार “समस्त जाति” लोक गाथाओं का निर्माण करती है, उतनी ही हास्यास्पद है जितनी “समग्र जाति” शासन करती है, उक्ति।[6] जिस प्रकार शासन का संचालन कुछ चुने हुए व्यक्तियों द्वारा होता है उसी प्रकार लोक गाथाओं की रचना कुछ विशिष्ट लोक कवियों का ही कार्य है। प्रो. चाइल्ड ने व्यक्तिवाद का समर्थन करते हुए उसमें इतना-सा और जोड़ दिया है कि उसमें लेखक के व्यक्तित्व का कुछ विशेष महत्त्व नहीं होता।[7] इस सम्बन्ध में यह सम्भव प्रतीत होता है कि समय-समय पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में गाये जाने के कारण उनमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होते रहने से मूल लेखक का व्यक्तित्व नष्ट या तिरोहित हो जाता हो। प्रो. चाइल्ड लोक गाथाओं को किसी व्यक्ति विशेष द्वारा रचित स्वीकार तो करते हैं किन्तु वे लेखक के व्यक्तित्व को कोई महत्त्व प्रदान नहीं करते। “समन्वयवाद” के नाम से डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने अपना नया मत प्रस्तुत किया है।[8] उनके मतानुसार सभी सिद्धान्तों में कुछ न कुछ सत्य का अंश विद्यमान है। सभी सिद्धान्त कारणीभूत हैं एवं इन सभी का सहयोग इन गाथाओं के निर्माण में उपलब्ध होता है।[9]

लोक गाथाओं में अनेक विशेषताएँ होती हैं। इनमें मुख्य-मुख्य विशेषताओं को प्रायः दस भागों में विभक्त किया जाता है[10]

(1) रचयिता का अज्ञात होना
(2) प्रामाणिक मूल पाठ का अभाव
(3) संगीत और नृत्य का अभिन्न साहचर्य
(4) स्थानीयता का प्रचुर पुट
(5) मौखिक परम्परा
(6) उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अभाव
(7) अलंकृत शैली की अविद्यमानता
(8) कवि के व्यक्तित्व की अप्रधानता
(9) लम्बे कथानक की मुख्यता
(10) टेक पदों की पुनरावृत्ति

[1] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास--षोडश भाग, प्रस्तावना--ले. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, पृष्ठ 77.
[2] "He (Grim) maintained that the poetry of the people 'sings itself'; it has no individual poet behind it and is the product of the whole folk"-Old English Ballads-Gummer, भूमिका, Page 49-50.
[3] "Epic Poetry, He (Grim) says, is not produced by particular Rend recognized poets but rather springs up and spreads along time among the people themselves, in the mouth of the people"-Old English Ballads-Gummer, भूमिका, Page 51.
[4] "The Poetry of the People, by the People, for the People"-Old English Ballads-Gummer.
[5] ढोला मारू रा दूहा--सं. रामसिंह,सूर्यकरण पारीक एवं नरोत्तमदास स्वामी--नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित-- प्रस्तावना, पृष्ठ 46.
[6] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, प्रस्तावना--ले. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, पृष्ठ 81, 82.
[7] "Though they (ballads) do not write themselves as Villiam Grim has said, though a man and not a people has composed them, still the author counts for nothing, and it is not by mere accident but with best region that they have come down to us anonimous"-Jhonson 'Encyclopaedia' 1893 A.D.
[8] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ 84.
[9] वही, पृष्ठ 85.
[10] वही, पृष्ठ 87.

इन विशेषताओं की विवेचना करने से पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि लोक गीतों एवं लोक गाथाओं में कोई स्थूल अंतर नहीं है। इतना अवश्य है कि लोक गीत आकार में छोटे होते हैं और उनमें कथानक का सर्वथा अभाव रहता है। लोक गीत सकांगी होते हैं। उनमें प्रायः विषयवस्तु का गीतिमय वर्णन होता है। गीतात्मकता ही इनकी प्रधान विशेषता है। लोक गाथा–लोक गीतों का ही दूसरा रूप है। लोक गाथायें गेय अवश्य हैं परन्तु ये आकार में दीर्घ होती हैं और विस्तृत कथानक ही इनकी मुख्य विशेषता है। लोक गीतों व गाथाओं में परस्पर निकट सम्बन्ध होने के कारण उपरोक्त विशेषताओं में से अधिकांश लोक गीतों में भी प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।

यद्यपि लोक गीत एवं लोक गाथायें किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा ही रची जाती हैं तथापि कालान्तर में उसके रचयिता का नाम लोगों को ज्ञात नहीं रहता। राजस्थानी में प्रचलित किसी भी लोक गाथा के रचयिता का नाम आज तक मालूम नहीं हो सका। कुछ लोक गाथाओं का रचयिता कोई व्यक्ति न होकर समुदाय होता है, अतः ऐसी अवस्था में वह रचना सारे समुदाय की कृति ही कही जा सकती है।

लोक साहित्य कंठस्थ साहित्य होने के कारण लोक गीतों की भांति लोक गाथायें भी मौखिक रूप से ही आगे की पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रही हैं। इसीलिए लोक गाथाओं का मूल पाठ भी प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं होता। समय-समय पर भाषा में होने वाले परिवर्तनों का भी लोक गाथाओं पर प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही स्थान-दूरी के कारण जनवाणी में कुछ अन्तर होने के कारण भी प्रचलित गाथाओं में परिवर्तन आ जाता है। मूल रूप के अभाव में इनका सम्पादन भी एक कठिन समस्या है। वैसे इनका महत्त्व मौखिक रूप में ही अधिक है। लिपिबद्ध होने से इनका विकास एवं वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है। राजस्थान के वीर पुरुषों के अद्भुत पराक्रम की अनेक गाथाओं को स्थायित्व देने का श्रेय यहां के भीलों, नायकों, थोरियों तथा जोगियों को प्राप्त है। बगड़ावतों, गोगाजी चौहान, दूल्हौ धाड़वी आदि की वीर गाथाओं को यहां के लोक गायकों ने ही कालकवलित होने से बचाया है। वास्तव में इन गाथाओं ने ही अपनी मौखिक परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा है। सत्य भी यही है कि लोक गाथा तभी तक सुरक्षित रहती है जब तक उसकी परम्परा मौखिक होती है। डॉ. सिजनिक का कथन है कि “यदि आपने किसी लोक गाथा को लिपिबद्ध कर लिया तो यह निश्चित रूप से समझ लीजिये कि आपने उसकी हत्या में सहायता पहुंचाई है।”[1] प्रो. गूमर के अनुसार भी लोक गीतों व लोक गाथाओं की सच्ची कसौटी मौखिक परम्परा ही है।[2]

लोक गाथाओं में संगीत एवं नृत्य का अभिन्न साहच्यर्य निहित रहता है। गांवों में “पाबूजी की पड़” कई रातों तक लगातार गाई जाती रहती है। गायक “पड़” को गाने के साथ-साथ आवश्यकतानुसार नृत्य भी करता है। इसी प्रकार राजस्थान में होली पर्व पर “लूर” एवं “घूमर” नामक नृत्य के साथ-अनेक गाथायें गाई जाती हैं। इन लोक गाथाओं में लोक गीतों की भांति स्थानीयता का प्रचुर पुट रहता है। स्थानीय वातावरण, रहन-सहन, रीति- रिवाज, खान-पान, आचार-विचार, प्रकृति-वर्णन आदि का इनमें सजीव चित्रण रहता है। उदाहरण के लिए “पाबूजी रा पवाड़ा” में उनकी वेश-भूषा का वर्णन देखिये–

सिर तौ बांध्यौ छै ठाकर हरियौ रूमाल
कोई अंगरखौ पैर्यौ रै भुरजाळै लांबी बांह कौ।
धोती तौ बांधी छै पाबू लाल कणी की खास
कोई लांबै तौ कूंटां री पहरी छै बंकै मोचड़ी।

इसी प्रकार “ढोला मारू” नामक लोक गाथा में भी जगह-जगह पर स्थानीयता का पुट दीख पड़ता है। मालवा देश सजल है, अतः वहां की मालवणी “मरु देश” के प्रति अनिच्छा प्रकट करती हुई कहती है कि ऐसे देश को जला दूं जहां पानी के लिए ही आधी रात को प्रिय का साथ त्यागना पड़ता है–

बाळउं बाबा देसड़उ, पांणी संदी ताति।
पांणी केरइ कारणइ, प्री छंडइ अधराति।।
बाबा, म देइस मारुवाँ, वर कूंआरि रहेस।
हाथि कचोळउ सिरि घड़उ, सींचंती य मरेस।।
मारू, थांकइ देसड़इ, एक न भाजइ रिड्ड।
ऊचाळउक अवरखणउ, कइ फाकउ कइ तिड्ड।।
जिण भुइ पन्नग पीमणा, कमर कँटाळा रूँख।
आके फोगे छांहड़ी, हूँछाँ भांजइ भूख।।

यह “मरु देश” के ठेठ देहाती जीवन का सजीव चित्रण है। यह ऐसा सूक्ष्म निदर्शन है कि राजस्थान देश की आत्मा का चित्र स्पष्ट रूप से उभर आता है।

“लोक गीत” एवं “लोक गाथाओं” का प्रयोग विशेषतः जन-जीवन में मनोरंजन की दृष्टि से ही किया जाता रहा है। लोक गाथायें “लोक” के आमोद-प्रमोद का एक साधन बनी हुई हैं। जन-साधारण को उपदेश देने का सहारा इन गाथाओं से नहीं लिया गया है। यही कारण है कि उपदेशात्मक प्रवृत्ति का इनमें सर्वथा अभाव है। मनोरंजन एवं आमोद-प्रमोद हेतु लोक गाथाओं की अभिव्यक्ति होने के कारण इनकी वर्णन-शैली भी अत्यन्त सरल और सीधी होती है। जन-साधारण में व्याप्त बोली ही इन गाथाओं की भाषा है। चूंकि इनको जनता की कविता (Poetry of the people) कहा जाता है, अतः इनमें अलंकार-विधान तथा कृत्रिम साहित्यिक विधानों का सर्वथा अभाव रहता है। यदि कहीं कोई अलंकार या अन्य साहित्यिक गुण दृष्टिगोचर हो तो उसे अनायासपूर्वक संन्निवेश ही समझना चाहिए। वस्तुतः कथावस्तु एवं भावों का सरल वर्णन ही लोक गीतों एवं लोक गाथाओं की विशेषता है। लोक गीतों एवं लोक गाथाओं की एक बड़ी विशेषता यह है कि इनमें रचयिताओं के व्यक्तित्व का अभाव पाया जाता है। सिजविक तो व्यक्तित्वहीनता को ही लोक गाथा का सर्वश्रेष्ठ गुण मानता है।[3] लोक गाथा कहने वाले का उस कथा में कोई विशेष भाग नहीं होता। गाथाओंका रचयिता या गायक इनमें न तो अपने निजी विचार ही व्यक्त करता है, न किसी वस्तु की आलोचना ही। प्रधान कथावस्तु की अभिव्यंजना मात्र ही लोक गाथा के रचयिता तथा गायक का सिद्धान्त होता है।

यह तो हम पहिले ही बता आये हैं कि लोक गीत एवं लोक गाथाओं में संगीत का अभिन्न साहच्यर्य है, परंतु इसमें भी विशेष आकर्षण एवं कर्णप्रियता लाने के लिए टेक पदों की पुनरावृत्ति की जाती है। लोक गाथा में पद के चरण विशेष के साथ टेक पदों की आवृत्ति नियमित होती है। इन पदों का उद्देश्य लोकगीतों को जीवन प्रदान कर श्रोताओं के हृदय-पटल पर अमिट प्रभाव उत्पन्न करना होता है। श्रोतागण स्वयं आनन्दित होकर गायक के साथ- साथ टेक पदों को गाने लग जाते हैं। इसी के आधार पर सिजविक का यह मत है कि टेक पद लोक गाथाओं की वह विशेषता है जिससे पता चलता है कि ये गीत सामूहिक रूप से पहले गाये जाते थे।[4] वर्तमान काल में समवेत स्वर से गीत गाने की प्रवृत्ति इसी परम्परा को सूचित करती है।

[1] "In the act of writing each one (ballad) down, you must remember that you are helping to kill that ballad.....It lives only while it remains what the french with a charming confusion of ideas call oral literature"-Frank Cizvik-the Ballad, Page 39.
[2] "These are the cardinal virtues of the ballad, with respect to its conditions critics unite in regarding oral transmission as its chief valuable test"-Old English Ballad-Gummar, Page 29.
[3] "The first and the foremost quality of the ballad in any language is not its personality but its impersonality. There can be disagreement about"-The Ballad-Frenck Civizik, Page 11.
[4] "The refrain is another peculiarity of the popular ballad that establishes its derivation from the chorus song."-Civizic-The Ballad, Page 27.

2. लोक गाथाओं का वर्गीकरण–

भिन्न-भिन्न विद्वानों ने लोक गाथाओं का वर्गीकरण अपने-अपने दृष्टिकोण से विभिन्न रूपों में किया है। कहीं इनका वर्गीकरण आकार की दृष्टि से मिलता है तो कहीं विषय की दृष्टि से। आकार की दृष्टि से लोक गाथायें “लघु” एवं “वृहत्” दो रूप में प्राप्त होती हैं। लोक साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. गूमर ने लोक गाथाओं का वर्गीकरण निम्न छः रूपों में किया है–

(1) प्राचीनतम गाथायें (ओल्डेस्ट बैलेड्स)
(2) कौटुंबिक गाथायें (बैलेड्स ऑव किनशिप)
(3) शोकपूर्ण एवं अलौकिक गाथायें (कोरोनेच एण्ड बैलेड्स ऑव दी सुपर नेचुरल)
(4) निजंधरी गाथायें (लीजेंडरी बैलेड्स)
(5) सीमांत गाथायें (बार्डर बैलेड्स)
(6) आरण्यक गाथायें (ग्रीनवुड बैलेड्स)

“ढोला मारू” के विद्वान सम्पादकों ने लोक गाथाओं के मुख्य रूप से चार विभाग किये हैं।[1]

(1) परंपरागत लोक गाथायें (Traditional ballads)
(2) चारणी लोक गाथायें (Minstrel ballads)
(3) विकृत लोक गाथायें (Broadside ballads)
(4) साहित्यिक लोक गाथायें (Literary ballads)

डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोक गाथाओं का वर्गीकरण विषय की दृष्टि से किया है। गाथाओं के भिन्न-भिन्न विषयों के आधार पर उनका यह विभाजन समुचित प्रतीत होता है। उन्होंने लोकगाथाओं को निम्न तीन भागों में विभाजित किया है–

(1) प्रेम कथात्मक गाथायें (Love ballads)
(2) वीर कथात्मक गाथायें (Heroic ballads)
(3) रोमांच कथात्मक गाथायें (Romantic ballads)

भारतीय परिस्थितियों एवं राजस्थानी लोक गाथाओं को दृष्टिगत रखते हुए डॉ. उपाध्याय द्वारा किया गया वर्गीकरण ही उचित कहा जा सकता है। “ढोला मारू” के सम्पादकों का वर्गीकरण स्वरूपगत किया गया है। राजस्थानी लोक गाथाओं को हम विषयगत वर्गीकरण के आधार पर ही ठीक स्पष्ट कर सकते हैं। डॉ. उपाध्याय के विषयगत वर्गीकरण के अनुसार सर्व प्रथम प्रेम कथात्मक गाथायें आती हैं। इन गाथाओं में उल्लिखित प्रेम साधारण परिस्थितियों में उत्पन्न नहीं होता। राजस्थानी की “ढोला मारू” नामक लोक गाथा इसी के अंतर्गत मानी जा सकती है। इसमें मुख्यतः ढोला एवं मारवणी का प्रेम वर्णित है एवं अन्य सभी प्रासंगिक वृत्तांतों का सहायक के रूप में प्रवाह हुआ है। प्रेम गाथाओं में हीररांझा, बींजा सोरठ, पन्ना वीरमदे आदि प्रसिद्ध हैं।

दूसरे प्रकार की वे वीर रसात्मक लोक गाथायें हैं जिनमें किसी वीर के साहसपूर्ण और शौर्यसंपन्न कार्य का वर्णन रहता है। राजस्थान के लोक साहित्य के अंतर्गत गाये जाने वाले विभिन्न वीर पुरुषों से संबंधित “पँवाड़े” इसी कोटि में रखे जा सकते हैं। इनमें प्रायः उन लोगों का यश-गान होता है जिन्होंने लोक कल्याण तथा वचन-निर्वाह के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। यद्यपि ऐसे अनेक वीरों का यशगान साहित्यिक कृतियों में नहीं किया गया, तथापि जन-साधारण ने मौखिक रूप से गाई जाने वाली लोक गाथाओं के द्वारा उनके यश को सुरक्षित रखा। इन पँवाड़ों में राजस्थान के धार्मिक,राजनैतिक तथा सांस्कृतिक आदर्शों का प्रतिबिम्ब मिलता है। पाबूजी का पँवाड़ा, नानड़िया का पँवाड़ा, गोगादे चहुआंण का पँवाड़ा,डूंगजी, जवारजी री पड़ आदि लोकगाथायें ऐसी ही वीर रसात्मक गाथायें हैं। इस प्रकार की लोक गाथाओं के द्वारा राजस्थान का लोक हृदय इन वीरों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

तीसरे प्रकार की रोमांच कथात्मक गाथायें हैं। इनमें प्रायः असाधारण एवं अलौकिकता का वर्णन रहता है। पढ़ते-पढ़ते या सुनते-सुनते सहसा रोमांच हो उठता है। इनमें जादू द्वारा तोता या मैना बना देना, बकरा बना देना आदि अनेक असामान्य घटनायें निहित रहती हैं। “निहालदे सुलतांन” संबंधी लोक गाथा ऐसी एक लोक गाथा है।

खेद है कि राजस्थानी लोक गीतों पर काफी कुछ लिखा जाने के बावजूद लोक साहित्य का यह अंग लोक साहित्यकारों की लेखनी से अछूता रह गया है।

[1] ढोला मारू रा दूहा--सं. रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी।

3. लोक कथाएँ–

लोक-साहित्य के अन्तर्गत लोक कथाओं का स्थान भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इन कथाओं में प्राचीन लोक संस्कृति अभिनिहित है। राजस्थानी साहित्य में इन लोक कथाओं की संख्या अनन्त है। यद्यपि इनका कोई पूर्ण संग्रह प्रकाशित करने का प्रयास प्रकाश में नहीं आया है तथापि मरु भारती, वरदा आदि शोध-पत्रिकाओं में यत्र- तत्र ये लोक कथाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। लोक कथाओं की दृष्टि से राजस्थानी बहुत ही समृद्ध है। कहा जाता है कि जिस प्रकार आदि काव्य का जन्म इस देश में हुआ, उसी प्रकार संसार की सब से प्राचीन कथाओं के निर्माण का श्रेय भी इस पुण्य-भूमि भारत को ही है। लोक कथाओं की यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। वैदिक संहिताओं में भी इन कथाओं के बीज उपबल्ध हैं। उसके पश्चात् ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में भी अनेक कथाएँ उल्लिखित हैं। संस्कृत का “पंचतंत्र” तो लोक कथाओं का प्रसिद्ध संग्रह है।

राजस्थानी में लोक कथाओं के लिए ही प्रायः “बातां” शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है, किन्तु “लोक कथा” एवं “बात” में स्पष्ट अन्तर पाया जाता है। आधुनिक समय में प्रचलित कहानी एवं लघु कथा में जो अन्तर है वही साधारणतया “बात” तथा “लोक कथा” में माना जाना चाहिए। विभिन्न मूल अभिप्रायों को लेकर लोक कथाएँ चलती हैं। अगर इन मूल अभिप्रायों को अलग से छाँटा जाय तो इनकी संख्या सैकड़ों तक पहुँचेगी। डॉ. कन्हैयालाल सहल ने “मरु भारती” में लोक कथाओं के कुछ मूल अभिप्रायों के सम्बन्ध में विभिन्न उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।

यद्यपि सीधे तौर पर ये लोक कथाएँ जनसाधारण को उपदेश देने के लिए नहीं लिखी गईं, तथापि उनकी रचना में शिक्षा देने की मूल भावना निहित रहती है। प्राचीन पौराणिक एवं परियों की कथाएँ एवं लघु कथाएँ अनजाने में ही हमें शिक्षा प्रदान कर देती हैं।

“राजस्थानी कथाओं के पात्र प्रायः वर्ग प्रतिनिधि होते हैं। इन पात्रों में “ब्राह्मण” विद्वान और ज्ञानवान होता है, परन्तु हाजिरजबाब नहीं। “राजपूत” वीर योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है जो अपनी प्रतिज्ञा अथवा उद्देश्य के लिए सर्वस्व बलिदान कर देता है। वह सीधे और सत्य मार्ग को अपनाता है, चाहे उसे हानि ही क्यों न उठानी पड़े। व्यापारी-वर्ग को “बनिये” के रूप में वर्णित किया गया है जो प्रत्युत्पन्नमति है और आर्थिक विषयों में सदा चौकन्ना रहता है। किसान को “जाट” के रूप में चित्रित किया गया है, जो सीधा-सादा लगता है परन्तु व्यावहारिक ज्ञान काफी रखता है। “मियां” (मुसलमान) उस समय के शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। वह अपने को चतुर प्रमाणित करने के लिए कुछ बुद्धि-प्रदर्शन करता है परन्तु मुंह की खाता है। शिल्पी वर्ग का निरूपण “कुम्भकार” में किया गया है जो अधिक होशियार तो नहीं, पर उसका सद्भाग्य उसे पार कर देता है। इस प्रकार के पात्रों से लोक कथाओं का ताना-बाना बुना हुआ होता है। अधिकतर ये कथाएँ वीरता और बुद्धि से पूर्ण कार्यों का दिग्दर्शन कराती हैं। कुछ कथाएँ राजाओं और राजपूतों के वीर कृत्यों से परिपूर्ण हैं तथा कुछ में सदुपदेश दिये गये हैं। कुछ में हँसी और हाजिरजबाबी दिखलाई गयी है। बुद्धिद्वन्द्व में जाट की विजय और बेचारे मियाँ की पराजय।”[1]

डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोक कथाओं का वर्गीकरण छः प्रकार से किया है[2]

1. नीति कथा
2. व्रत कथा
3. प्रेम कथा
4. मनोरंजक कथा
5. दंत कथा
6. पौराणिक कथा

लोक साहित्य के अन्तर्गत प्राप्त होने वाली अधिकतर लोक कथायें प्रायः नीति-कथायें ही होती हैं। यद्यपि इनका मुख्य उद्देश्य नीति-कथन ही होता है, तथापि यह प्रत्यक्ष रूप में न होकर परोक्ष रूप से ही सम्पादित होता है। भारतीय जीवन धर्म से अनुप्राणित होने के कारण यहाँ स्त्रियों द्वारा विभिन्न व्रतों के किये जाने का विधान है। प्रायः प्रत्येक व्रत के दिन कोई न कोई कथा कही जाती है, जिसमें उस व्रत को करने वालों को लाभ-प्राप्ति होने का प्रायः वर्णन रहता है। प्रेम-कथाओं के अन्तर्गत वे लोक कथायें आती हैं जिनमें बहिन के प्रति भाई का प्रेम, माता के प्रति पुत्र का प्रेम अथवा पुत्र के प्रति माता का प्रेम एवं दाम्पत्य प्रेम का वर्णन रहता है। दाम्पत्य प्रेम सम्बन्धी इन लोक कथाओं में बड़े पवित्र प्रेम की झाँकी मिलती है। काम-वासना की उसमें गन्ध तक नहीं रहती। बालकों को कही जाने वाली कथायें (यथा परियों की कथा, चिड़ा-चिड़ी की कथा) मनोरंजक कथाओं के अन्तर्गत आती हैं। इनका उद्देश्य केवल बालकों का मनोरंजन करना होता है। परम्परा से आती हुई कथायें दन्त कथायें कहलाती हैं, यथा पाबूजी री कथा, केसरिया कंवरजी री कथा आदि। पौराणिक कथायें भी राजस्थानी लोक साहित्य में प्रचुरता के साथ मिलती हैं। गणेसजी री कथा, पारबती री कथा आदि ऐसी ही लोक कथायें हैं।

प्रायः सभी लोक कथाओं में निम्नलिखित विशेषतायें प्रचुरता के साथ मिलती हैं–

(1) प्रेम का अभिन्न पुट
(2) अश्लील श्रृंगार का अभाव
(3) मानव की मूल वृत्तियों से निरंतर साहचर्य
(4) मंगल कामना की भावना
(5) सुखांतता
(6) रहस्य, रोमांच एवं अलौकिकता की >प्रधानता
(7) उत्सुकता की भावना
(8) वर्णन की स्वाभाविकता

धार्मिक एवं अंधविश्वासों का भी प्रभाव इन लोक कथाओं पर स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। एक छोटी-सी राजस्थानी लोक कथा में “भाग्यवाद” का प्रभाव देखिये–

एक आदमी या बात सुण राखी ही क दिन भर में आदमी रै मुंह सैं नीकळ्योड़ी एक बात जरूर सांची होवै। वीं कै पां और क्यूंईं हो कोयनी, एक पीतळ री टोकणी ही सो बीं नैं लेकर बैठग्यौ अर टोकणी नै कैवै लाग्यौ क होज्या सोनै की, होज्या सोनै की। कहतां-कहतां आखतौ होग्यौ जद झाळ मरतौ बोल्यौ क सोनै की नई होवै तौ लोह की ई होज्या। ज टोकणी झट लोह की होगी। करमहीण की चोखी बात सांची कोनी होवै, न्याऊ बात झट सांची हो ज्यावै।

राजस्थानी लोक कथाओं का अपना विशेष महत्त्व है। यह बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि दूर-दूर जातियों के फैलने, बसने और सम्पर्क स्थापित करने से कथाएँ एक स्थान पर नहीं रह सकीं। अनेक राज्यों में फैली लोक कथाओं में बहुत सी समानताएँ मिलती हैं। जातक कथाओं, प्राचीन वेदों के आख्यान, कथा सरित सागर, वैताळ पचीसी, हितोपदेश आदि से संबंधित कथायें अनेक भाषाओं में अपने बिगड़े रूप में उपलब्ध हो जाती हैं। वस्तुतः भारत के अनेक राज्यों में एक ही कथा अपने विभिन्न रूपों में कैसे टिकी रहती है, इसका अध्ययन करना बड़ा मनोरंजक कार्य है।

[1] मरु भारती, वर्ष 9, अंक 1, अप्रैल 1961, पृष्ठ 2 से उद्धृत।
[2] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ 113-114.

लोक नाट्य–

आधुनिक समय में प्रचलित नाटकों का बीज भी प्राचीन लोक नाट्यों में निहित है। राजस्थान में प्राचीन समय से ही लोक नाट्य का प्रचलन था, चाहे उसका स्वरूप कुछ भिन्न रहा हो। राजस्थान में प्रचलित “कठपुतली” का खेल वस्तुतः बहुत पुराना है। प्रायः चारपाई खड़ी कर के आगे के भाग में रंगीन वस्त्र से बना परदा टांग दिया जाता है, जिसके आगे सूत्रधार पुतलियां उतार कर राजपूती वीरता को प्रगट करने वाली अथवा अन्य किसी घटना का संचालन करता है। इसके साथ ही कोई व्यक्ति उससे संबंधित घटना का वर्णन करता रहता है।

विवाह के अवसर पर अनेक जातियों में स्त्रियां बारात विदा हो जाने पर स्वांग का अभिनय करती हैं। एक स्त्री पुरुष-वेश धारण कर “वर” बनती है एवं दूसरी स्त्री “वधू” बनती है, फिर विवाह के प्रायः सभी रीति-रस्मों का अभिनय किया जाता है। बहुत सी जातियों में इसे “टूंटियौ नाचणौ” कहते हैं। मनोरंजन के अतिरिक्त इसका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। इससे यह तो स्पष्ट है कि लोक जीवन से लोक नाट्यों का घनिष्ठ संबंध है।

“ख्याल” भी राजस्थान का एक लोक नाट्य है। इसके लिये साधारण मंच तैयार किया जाता है जो प्रायः चारों ओर से खुला होता है। इस पर पौराणिक तथा धार्मिक कथाओं के अतिरिक्त जनश्रुति पर अथवा ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित कथाओं को अभिनीत किया जाता है। इसमें स्त्री पात्रों का अभिनय भी पुरुषों द्वारा ही किया जाता है। राजस्थान में विभिन्न स्थानों पर खेले जाने वाले ख्यालों में गोपीचन्द, भरथरी, चन्द्र मलयागिरी, रूप बसन्त, राठौड़ अमरसिंह आदि के ख्याल बहुत प्रसिद्ध हैं।

इसके अतिरिक्त समस्त भारत में खेली जाने वाली रामलीला एवं रासलीला भी एक प्रकार के लोक नाट्य हैं। दूसरे प्रान्तों की अपेक्षा इनका अभिनय राजस्थान में कम होता है। ठेठ राजस्थानी व्यक्ति प्रायः रासलीला नहीं करते।

राजस्थान में प्रचलित उपरोक्त लोक नाट्यों की विशेषताओं की ओर दृष्टिपात करना अप्रासंगिक न होगा। इन लोक नाट्यों में प्रायः वे ही कथायें होती हैं जिनका यहां के जन-जीवन में बहुत प्रचलन होता है। प्रायः ऐतिहासिक कथा-वस्तुओं में धार्मिक मान्यताओं का अनायास ही प्रवेश हो जाता है। संगीत एवं नाटक का चोली-दामन का साथ है। यह संगीत गांवों में प्रायः ढोलक, सारंगी या रावणहत्थे की सहायता से चलता है। इन लोक नाट्यों में नाटकीय तत्वों की ओर प्रायः ध्यान नहीं दिया जाता। जो कुछ नाटकीयता इनमें पायी जाती है वह स्वाभाविक एवं अनायास आई हुई ही समझ लेना चाहिये। लोक नाट्य राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न बोलियों में प्रचलित हैं। लोक भाषा ही लोक नाट्यों का प्राण है। अपने ज्ञान के अनुसार इन लोक नाट्यों में वेश- भूषा का पर्याप्त ध्यान रखा जाता है। साधनों के अभाव में यद्यपि उनके वेश-भूषा संबंधी प्रयत्न अपूर्ण ही रहते हैं। साहित्यिक नाटकों की तरह इन नाटकों में विदूषक का भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विदूषक की वेश-भूषा, उसके हाव-भाव और कहने का ढंग सभी कुछ प्रायः हास्योत्पादक होते हैं।

आधुनिक सिनेमा एवं नाटकों ने इन लोक नाट्यों को बहुत हानि पहुँचाई है। आजकल इनका खेला जाना निरंतर कम होता जा रहा है। शहरों में इन्हें हेय दृष्टि से भी देखा जाने लगा है। सस्ते सिनेमाओं के कारण इन लोक नाट्यों में कई जगह अश्लीलता भी आ गई है। संगठित रूपों से इन लोक नाट्यों के विकास का प्रयत्न करना आवश्यक है। इन्हीं में राजस्थान की आत्मा बसती है।

लोक सुभाषित–

सुन्दर ढंग का कथन या वह उक्ति जिसमें चमत्कार हो सुभाषित कहलाती है। जन-साधारण अपने परम्परागत संचित ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर अपने दैनिक व्यवहार में स्वाभाविक रूप से इसी प्रकार की अनेक उक्तियों का प्रयोग करता आया है। इस प्रकार के लोक साहित्य की सामग्री को हम निम्न तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं–

(1) लोकोक्ति (2) मुहावरे (3) पहेलियाँ

(i) लोकोक्ति– लोक साहित्य में लोकोक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसार के सभी देशों और जातियों में कहावतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः लोकोक्ति जनता-जनार्दन की उक्ति है। साहित्य की दृष्टि से भी कहावतों का महत्त्व कुछ कम नहीं है। कहावतें भाषा का श्रृंगार हैं। लोकोक्ति एक संक्षिप्त व चुभता हुआ जीवन का सुंदर सूत्र है जो जनता की जिह्वा पर निवास करता है तथा जो व्यावहारिक जीवन के निरीक्षण, शाश्वतिक अनुभूति या जीवन के सच्चे नियम को प्रकाशित करता है। इस प्रकार लोकोक्तियों में मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की अनुभूति पूंजीभूत रूप में उपलब्ध होती है।[1] डॉ. वासुदेवशरण के शब्दों में लोकोक्तियां मानवी ज्ञान के घनीभूत रत्न हैं, जिन्हें बुद्धि और अनुभव की किरणों से फूटने वाली ज्योति प्राप्त होती है।

लोकोक्तियों का प्रयोग अत्यन्त प्राचीन काल से होता आया है। लोकोक्ति के लिये संस्कृत में भी सुभाषित या सूक्ति शब्द का प्रयोग हुआ है।[2] विभिन्न योरोपीय एवं भारतीय भाषाओं में लोकोक्तियों के संग्रह एवं संपादन का बड़ा सुंदर कार्य हुआ है। राजस्थानी में “राजस्थानी कहावतें, एक अध्ययन” नामक डॉ. सहल का शोध- प्रबन्ध प्रकाशित हो चुका है। इसमें राजस्थानी कहावतों का पूर्ण एवं वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।[3] विभिन्न विषयों से सम्बन्धित कहावतों का इसमें विषयानुसारवर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। राजस्थानी कहावतों के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये यह पुस्तक पर्याप्त है।

राजस्थान में लोक जीवन का कोई भी अंग ऐसा नहीं रहा जिसके सम्बन्ध में लोकोक्ति का प्रयोग न होता हो। मनोरंजन, प्रहसन, शोक, दुःख, व्यंग, श्रम, भोजन, पर्व आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में लोकोक्तियों का प्रयोग होता है। इन लोकोक्तियों की स्वाभाविकता, इनका गूढ़ार्थ और इनमें पाया जाने वाला चमत्कार ही इनकी विशेषता है। राजस्थानी लोकोक्तियों का उदाहरण देखिये–

1– कागा कुत्ता कुमांणसां, तीन्यूं एक निकास।
ज्यां ज्यां सेर्यां नीसरै, त्यां त्यां करै बिणास।।
अर्थ–कौवे, कुत्ते, और दुर्जन तीनों समान ही स्वभाव के होते हैं; ये जिस मार्ग से निकलते हैं वहीं विनाश करते हैं।

2– म्हारी हुती नै म्हैं ही ल्याई,
बैन हुती नै सौक कहाई,
सांमी बैठी सुरमौं सारै,
मांखी नहीं मुळकौ मारै।
अर्थ–स्त्री के सन्तान न होने के कारण पति दूसरा विवाह करने के लिए तैयार हो गया तब पत्नी ने उचित समझ कर अपनी छोटी बहिन का ही विवाह अपने पति से करवा दिया। सोचा था कि दोनों बहिनें प्रेम से रहेंगी परन्तु वह तो उसके लिए शूल बन गई। युवा एवं सुन्दर होने के कारण पति की अधिक मानेता हो गई और श्रृंगार में व्यस्त रहने लगी। छोटी बहिन के सभी कार्य बड़ी को व्यंग लगने लगे। इसी प्रकार कोई अपने ही व्यक्ति का भला चाहने के लिये उसे अपने साथ रखता है और जब वह उसी के लिए बाधक हो जाता है तब यह उक्ति कही जाती है।

3– माथा माथे वीटोरौ (मथारी) और कै’ म्हनै तंबू में आवण दौ।
अर्थ–शिर पर तो कांटों का गट्ठर और कहता है मुझे शामियाने में प्रवेश करने दो। अपनी हस्ती, योग्यता और स्थिति के बाहर बात करने पर यह उक्ति उस आदमी के प्रति कही जाती है।

[1] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ 134.
[2] सुभाषितेन गीतेन, युवतीनां च लीलया। मनो न रमते यस्य, स योगी अथवा पशुः।।
[3] भारती साहित्य मंदिर, फव्वारा, दिल्ली से प्रकाशित।

मुहावरा–

मुहावरा का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितनी भाषा की उत्पत्ति। संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग प्रचुरता के साथ मिलता है। श्री रामनरेश त्रिपाठी ने मुहावरों की परिभाषा करते हुए लिखा है कि मुहावरा किसी भाषा अथवा बोली में प्रयुक्त होने वाला वह वाक्य-खंड है जो अपनी उपस्थिति से समस्त वाक्य को सबल, सतेज, रोचक और चुस्त बना देता है। संसार में मनुष्य ने अपने लोक-व्यवहार में जिन-जिन वस्तुओं और विचारों को बड़े कौतूहल से देखा है, समझा है, तथा बार-बार उनका अनुभव किया है उनको उसने शब्दों में बांध दिया है। वे ही मुहावरे कहलाते हैं।[1]

लोक जीवन में अनेक मुहावरे प्रचलित हैं। इन मुहावरों में जनता के जीवन की झाँकी देखने को मिलती है। मुहावरों की विशेषता बतलाते हुए डॉ. उपाध्याय कहते हैं।- “मुहावरे की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किसी वाक्य का अंगीभूत होकर रहता है। जैसे “आग लगाना” एक मुहावरा है। परन्तु इसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। जब तक इसका किसी वाक्य में प्रयोग नहीं होता तब तक इससे किसी अर्थ की व्यंजना नहीं हो सकती। मुहावरा अपने मूल रूप में ही सदा प्रयुक्त होता है। यदि मूल मुहावरों के स्थान पर उसके पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाय तो उसकी अभिव्यंजना शक्ति नष्ट हो जाती है।[2]

लोक संस्कृति का स्पष्ट चित्रण इन मुहावरों में मिलता है अतः इनके वैज्ञानिक अध्ययन की अत्यन्त आवश्यकता है। यद्यपि राजस्थानी की विभिन्न पत्रिकाओं में मुहावरों के अनेक छोटे-मोटे संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, तथापि इस सम्बन्ध में पूर्ण एवं संगठित प्रयत्न की आवश्यकता है। राजस्थानी शब्द-कोश में सम्बन्धित शब्दों के साथ आवश्यक जानकारी के लिये प्रचलित मुहावरे प्रस्तुत कर दिये गये हैं।

[1] पं. रामनरेश त्रिपाठी, त्रिपथगा, अंक 6 (मार्च 1956), पृष्ठ 30.
[2] हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, षोडश भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ 142.

पहेलियाँ–

यह संस्कृत के प्रहेलिका शब्द का रूपान्तर मात्र है। पहेलियों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। संस्कृत साहित्य में प्रहेलिकायें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। आज भी गाँवों में अवकाश के क्षणों में पहेलियाँ बालकों, बूढों और नौजवानों सभी के लिए मनोरंजन का उत्कृष्ट साधन हैं। स्त्रियाँ भी उन्हें अपना अस्त्र समझती हैं। सुसराल में जामाता की परीक्षा लेने के लिये स्त्रियाँ पहेलियों की झड़ी लगा देती हैं। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार “लोकमानस इसके द्वारा अर्थ-गौरव की रक्षा करता है और मनोरंजन प्राप्त करता है। यह बुद्धि-परीक्षा का साधन है। भाव से इसका सम्बन्ध नहीं होता, प्रकृत को गोप्य करने की चेष्टा रहती है, बुद्धि-कौशल पर निर्भर करती है।”[1]

[1] "ब्रज लोक साहित्य का अध्ययन", डॉ. सत्येन्द्र, पृष्ठ 520.

पहेलियों के अनेक भेद किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित मुख्य हैं–

(1) खेती सम्बन्धी
(2) भोज्य पदार्थ सम्बन्धी
(3) घरेलू वस्तु सम्बन्धी
(4) जीव सम्बन्धी
(5) प्रकृति सम्बन्धी
(6) शरीर सम्बन्धी
(7) प्रकीर्ण

राजस्थानी लोक जीवन में इन पहेलियों का भी विशेष स्थान है। अवकाश के क्षणों में अपने मनोरंजनार्थ लोग इनका प्रयोग भी करते हैं। लोक जीवन में पहेलियों को बुद्धि के माप का एक साधन माना है। इन पहेलियों में कुछ तो इस प्रकार की हैं कि उनमें केवल प्रश्न ही किया गया है और इनका उत्तर बुद्धि के प्रयोग द्वारा बाहर से देना पड़ता है। अन्य प्रकार की पहेलियों में प्रश्न के साथ-साथ उत्तर भी श्लेषालंकार में दिया हुआ होता है। बुद्धि से विचार कर उसी में से उत्तर निकाला जाता है। राजस्थानी पहेलियों के उदाहरण देखिये–

1. चांर खूणां री बावड़ी, भरी झखोळा खाय।
हाथी घोड़ा डूब ग्या, पिणियारी खाली जाय।। -काच

2. एक भंडार नौ लख तारा, जिण में बैठ्या दो बिणजारा।
अन खावै न पाणी पीवै, दुनिया देख देख कर जीवै।। -चांद, सूरज

3. नारी पुरख न आदरै, तसकर बांधौ जाय।
तेजी ताजणौ खमै, कह चेला किण दाय।। -गुरुजी तेज नहीं

इन पहेलियों के अतिरिक्त राजस्थानी लोक साहित्य में “भूंगररासौ” और प्रचलित है। पहेलियों में तो प्रश्न एवं उत्तर दोनों सार्थक होते हैं किन्तु “भूंगररासौ” में बे-सिरपैर, ऊटपटाँग एवं असंबद्ध बातें ही कही जाती हैं, जिनका उद्देश्य जनता का विशुद्ध मनोरंजन करना ही होता है। इन निरर्थक तुकबंदियों को सुन कर गंभीर प्रकृति के मनुष्यों के होठों पर भी मुस्कराहट खेल जाती है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ऐसी ही उक्तियों को ‘ढकोसला’ कहते हैं। “भूंगररासौं” के उदाहरण देखिये

1. भाकर माथूं गीड़ौ पड़ियौ, मैं जाण्यौ वडबोर।
हाथ में ले’र चाखियौ, वाह रे ऊना खीच।।

2. ऊबौ ऊंट मींगणां करे, तड़ तड़ वाजै ताली।
लाव पड़ोसण कवाड़ियौ, डोरा घालूं राली।।

3. रबड़क भैंस पींपळ चढ़ी, गिंढ़क तोड़ायी नाथ।
डागळा माथा ऊं डूंम पडियौ, भागौ गांव भाभी रौ साथळ माऊं हाथ।

उपरोक्त विवेचन राजस्थानी लोक साहित्य की एक छोटी-सी झाँकी प्रस्तुत करने में सहायक होगा। लोक गीत एवं लोकोक्तियों को छोड़ दिया जाय तो राजस्थानी में लोक-साहित्य से सम्बन्धित बहुत कम सामग्री का प्रकाशन एवं समुचित सम्पादन हो पाया है। अतः इस सम्बन्ध में विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है। इसी के द्वारा प्राचीन राजस्थान की लोक-संस्कृति पर कुछ प्रकाश पड़ सकेगा।

–सीतारांम लाळस

 

 

 


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