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सबदकोस – समर्पण एवं वक्तव्य

समर्पण

जिन्होंने अपनी महती कृपा से
इस अकिंचन के जीवन में ज्ञानार्जन की जिज्ञासा जागृत कर
साहित्य अध्ययन की ओर आकृष्ट किया
उन
परम वन्दनीय पूज्य नानाजी
कविवर श्री सादूलदांनजी बोगसा, सरवड़ी (मारवाड़)
तथा
जिन्होंने कोश-निर्माण की अनुपम प्रेरणा प्रदान कर
प्रस्तुत कोश-निर्माण के पथ पर अग्रसर किया
उन
राजस्थानी के अनन्य सेवी, विद्यानुरागी
पं. हरिनारायणजी पुरोहित, बी.ए., विद्याभूषण, जयपुर
की
पावन स्मृति में
सादर समर्पित

जेथ नदी जळ बहळ, तेथ थळ विमळ उलट्टै।
तिमर घोर अंधार, तेथ रिव किरण प्रगट्टै।
राव करीजै रंक, रंक सिर छत्र धरीजै।
‘अलू’ तास विसवास, आस कीजे सिमरीजै।
चख लहै अंध पंगू चलण, मूनी सिद्धायत वयण।
तो कियां (करत) कहा न ह्वै क्रिसन, नारायण पंकज नयण।।1
— महात्मा अलूनाथ

 

Jaipur, Rajasthan

 

 

त्याग और बलिदान से ओतप्रोत राजस्थान का इतिहास जितना उज्ज्वल है उतना ही उज्ज्वल, समृद्ध और ओजस्वी यहाँ का साहित्य है। प्राचीन डिंगल गीत, कविराजा सूरजमल का वंशभाष्कर, राठौड़ पृथ्वीराज की वेलि क्रष्ण रुक्मणि री, ईसरदासजी के कुण्डलिये, ढोला मारू रा दूहा, मीराँ बाई के पद, संतों की वाणियाँ तथा लोगों के कण्ठों में सुरक्षित विशाल लोक-साहित्य किसी भी प्रान्तीय भाषा के उच्चस्तरीय साहित्य के समकक्ष रखा जा सकता है। परन्तु इस भाषा का कोई व्याकरण और कोश न होने के कारण इस साहित्य का उचित मूल्यांकन तथा प्रचार भारत के अन्य प्रान्तों में नहीं हो पाया।

यह देख कर बड़ा हर्ष होता है कि श्री सीताराम लाळस ने पहले व्याकरण प्रकाशित कर और अब वृहद्‌ राजस्थानी शब्द कोश का निर्माण कर इस अभाव की पूर्ति कर दी है और इसका प्रथम खण्ड प्रकाशित होने जा रहा है। अब देश के विद्वान्‌ राजस्थानी साहित्य का सही मूल्यांकन कर सकेंगे, ऐसी मेरी धारणा है।

श्री सीताराम लाळस एक साधारण अध्यापक हैं और उनके सीधे-सादे वेश तथा सरल स्वभाव को देख कर किसी भी व्यक्ति के लिए उनकी प्रकांड विद्वता और भाषा-शास्त्र में असाधारण गति का अंदाज लगाना कठिन हो जाता है। पर एक अवसर पर राजस्थानी शोध संस्थान के कार्यालय में जब मैंने कोश के कई एक अंशों की व्याख्या उनसे सुनी तो मैं उनकी विशाल जानकारी और असाधारण विद्वता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।

राजस्थानी भाषा के इस कोश में विद्वान्‌ सम्पादक ने अपनी 30 वर्ष की निरन्तर साधना के फलस्वरूप विस्तार के साथ राजस्थानी शब्दों के विभिन्न अर्थ, व्युत्पत्ति तथा जो अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं उससेकोश की उपयोगिता और भी बढ़ गई है। इस कार्य के महत्त्व को समझ कर ही राजस्थान सरकार ने तथा भारत सरकार ने इसके प्रकाशनार्थ आर्थिक सहायता भी दी है।

मैं इस उपयोगी ग्रन्थ के सम्पादन के लिए श्री सीताराम लाळस को तथा सुन्दर प्रकाशन के लिए राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर व उसके प्रबन्धकों को हार्दिक बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि भविष्य में भी राजस्थानी शोध संस्थान इस प्रकार के सुन्दर प्रकाशन कर राजस्थानी साहित्य की अमूल्य सेवा करता रहेगा।

19-03-1962

 

 

प्रबन्धकारिणी समिति की ओर से

राजस्थानी भाषा के एक सर्वांगीण कोश की कमी राजस्थान के विद्वान्‌ और गण्यमान्य व्यक्ति कई वर्षों से अनुभव कर रहे थे। जहाँ तक मेरा ख्याल है आज से कोई 30-35 वर्ष पहले भूतपूर्व जोधपुर राज्य के दीवान सर सुखदेव ने एक राजस्थानी कोश बनवाने का प्रयत्न किया था। कोश-निर्माण सम्बन्धी अन्य जो भी प्रयास समय-समय पर हुए उनका विस्तृत वर्णन कोशकर्ता ने अपने निवेदन में किया है। मेरे मित्र स्वर्गीय ठाकुर भवानीसिंहजी पोकरण, ने भी इस विषय में कई बार मेरे से चर्चा की। उनकी भी इस कार्य में बड़ी रुचि थी। इस वृहत्‌ राजस्थानी शब्द-कोश का कार्य श्री सीतारामजी लाळस लगभग 30 वर्षों से कर रहे हैं। जिस लगन और निष्ठा से उन्होंने यह कार्य किया है वह वास्तव में सराहनीय है।

इतना बड़ा कार्य अकेले व्यक्ति से होना सम्भव नहीं था अतः कई व्यक्तियों ने समय-समय पर किसी-न-किसी रूप में उन्हें सहयोग दिया, जिसका जिक्र उन्होंने स्वयं किया है। कोश के लिए शब्द जब काफी संख्या में शामिल कर लिए गए और उन्हें अक्षर-क्रम से जमाया गया तो उनके सामने यह प्रश्न आया कि इस कार्य को पूर्ण रूप देकर प्रकाशित करवाया जाय।

राजस्थानी शोध संस्थान के संचालक श्री नारायणसिंह भाटी ने प्रबन्धकारिणी समिति के सामने यह प्रस्ताव रखा कि उक्त ग्रन्थ का प्रकाशन-कार्य संस्थान अपने हाथ में ले ले। प्रबन्धकारिणी समिति ने इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य समझ कर सहर्ष स्वीकार किया। कोश को उदाहरण, मुहावरे, व्युत्पत्ति, आवश्यक टिप्पणियां आदि से सर्वांगीण रूप देने के लिए कोशकर्ता को एक विस्तृत योजना दी गई और उस योजना के अनुसार राजस्थानी का वृहत्‌ कोश बनाने हेतु समिति ने अर्थ आदि की आवश्यक व्यवस्था भी की। इस प्रकार की योजना के अनुसार लगभग चार वर्ष तक निरंतर कार्य चलते रहने पर कोश का प्रथम भाग तैयार हुआ है। शेष तीन भागों पर अभी कार्य चल रहा है। यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि इस वृहत्‌ कोश का प्रथम भाग एक बड़ी साहित्य-साधना के पश्चात्‌ जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है।

जनतंत्र में जनवाणी का बड़ा महत्त्व होता है। राजस्थानी यहाँ की जनता की मातृभाषा है। पर हमारा दुर्भाग्य है कि भारतवर्ष की अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी को संविधान में स्थान प्राप्त नहीं हो सका। पर यहां की जनता के हृदय में राजस्थानी का स्थान है और राजस्थान के नवयुवक विद्वानों ने भी इसके महत्त्व को समझ कर ही इस ओर पूर्ण अभिरुचि प्रकट की है। राजस्थान सरकार ने भी ‘प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान’ जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था कायम कर राजस्थानी व अन्य भाषाओं के ग्रन्थों को सुरक्षित करने तथा विद्वानों के लिए उन्हें उपलब्ध कराने का अत्यन्त उपयोगी व सराहनीय कार्य किया है। राजस्थानी शब्द कोश इन ग्रन्थों को समझने में तथा नये लेखकों को प्रोत्साहित करने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। एक तरह से देखा जाय तो राजस्थानी शब्द कोश समय की माँग है। आज जब विकेन्द्रीकरण द्वारा शासन सत्ता आम जनता के हाथों में चली गई है तो यह आवश्यक है कि आम जनता की भाषा को भी उचित महत्त्व दिया जाय और उसका अपना कोश व नया साहित्य बने जो यहाँ की जनता की भावनाओं का सही माध्यम हो। प्रस्तुत ग्रंथ को देख कर हमारे देश के बड़े विद्वानों ने इसकी प्रशंसा की है।

अतः यह विद्वत्‌-वर्ग तथा जनता दोनों के लिए लाभप्रद सिद्ध होगा, ऐसी आशा है। राजस्थान सरकार व भारत सरकार ने इस ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ आर्थिक सहयोग दे कर संस्थान के कार्य को और भी सुलभ बना दिया जिसके लिए संस्थान उनका अत्यन्त आभारी है। झालावाड़ नरेश श्रीमान्‌ हरिश्चन्द्रजी तथा कर्नल ठा. श्यामसिंहजी ने जो विशेष आर्थिक सहायता दी है, उसके लिए भी मैं प्रबन्धकारिणी समिति की ओर से उनका आभार स्वीकार करता हूँ।

असली कार्य तो इस कोश के सम्पादक श्री सीतारामजी लाळस व शोध संस्थान के संचालक श्री नारायणसिंहजी भाटी का है जिनके अथक प्रयत्न से ग्रन्थ का प्रकाशन इस रूप में सम्भव हो सका है। राजस्थानी साहित्य की जो सेवा इन्होंने की है उसका आभार आने वाली पीढ़ियाँ भी मानेगी।

कोश का कार्य किस विद्वत्तापूर्ण ढंग से किया गया है उसके सम्बन्ध में कुछ कहने का अधिकारी मैं नहीं हूँ, क्योंकि यह तो विद्वानों के ही कहने की बात है। पर मुझे यह आशा है कि यह कोश राजस्थानी साहित्य की बहुत बड़ी कमी को पूरा करके राजस्थान की जनता की बहुत बड़ी सेवा करेगा और हमारी जो यह अभिलाषा है कि राजस्थानी भाषा को संविधान में मान्यता प्राप्त हो, उसे फलीभूत करने में भी यह अत्यन्त सहायक सिद्ध होगा।

संचालकीय वक्तव्य

आधुनिक भारतीय भाषाओं में राजस्थानी भाषा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। पर इस भाषा के साहित्य के प्रकाशन की समुचित व्यवस्था न होने के कारण तथा कोश व व्याकरण के अभाव में इसे वह महत्त्व नहीं मिल पाया जिसकी वह अधिकारिणी थी। इस प्रान्त के विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विशेषताओं को सर्वप्रथम विश्व के सामने आधुनिक ढंग से प्रकट करने का श्रेय कर्नल टॉड को है जिन्होंने न केवल यहाँ के इतिहास पर ही प्रकाश डाला वरन्‌ यहाँ की साहित्यिक निधि तथा महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों तथा कवियों की ओजस्विनी वाणी की भी यथास्थान प्रशंसा भी की। परन्तु यहाँ की भाषा पर भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण करते समय सर्वप्रथम वैज्ञानिक ढंग से विचार सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया। हालांकि कुछ और विदेशी विद्वानों ने भी इस बीच छोटे-बड़े प्रयत्न इस भाषा पर प्रकाश डालने के लिए किये पर उन सब में ग्रियर्सन का कार्य ही अधिक महत्वपूर्ण था। उन्होंने अपने सर्वे की जिल्द संख्या 9 में गुजराती और राजस्थानी भाषाओं को पृथक्‌ करते हुए प्रत्येक भाषा की व्याकरण सम्बन्धी विशेषताओं तथा बोलियों आदि पर बहुत उपयोगी कार्य किया और उन्हीं की सहायता से दूसरे इटली के विद्वान्‌ डॉ. तैस्सीतोरी को राजस्थानी भाषा तथा साहित्य पर कार्य करने का अवसर मिला। उनका कार्यकाल 1914 से 1919 तक ही रहा पर इस काल में वे बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य कर गये। हस्तलिखित ग्रन्थों के सर्वेक्षण तथा ‘वेलि क्रस्न रुकमणिरी’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के सुन्दर सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने पुरानी राजस्थानी का व्याकरण भी लिखा तथा गुजराती और राजस्थानी के अलग-अलग अस्तित्व प्राप्त करने की सीमा रेखा पर बड़ी बारीकी तथा नपे-तुले ढंग से विचार किया। उनका यह कार्य केवल राजस्थानी व गुजराती भाषा के अध्ययन के लिए ही उपयोगी नहीं है वरन्‌ अन्य सम्बन्धित भारतीय भाषाओं के लिए भी कई प्रकार से बड़े महत्त्व का है। यदि वे कुछ समय और जीवित रहते तो शायद राजस्थानी के लिए बहुत-सा उपयोगी कार्य कर जाते पर ऐसा न हो सका। उनके उस कार्य को किसी ने भी आगे नहीं बढ़ाया।

कुछ वर्षों बाद यहीं के विद्वानों ने कुछेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन कर लोगों में राजस्थानी के प्रति रुचि उत्पन्न की, उनमें श्री रामकरण आसोपा, जोधपुर, श्री सूर्यकरण पारीक, बीकानेर तथा पुरोहितजी श्री हरिनारायणजी, जयपुर का नाम उल्लेखनीय है। यह जितना भी कार्य हुआ इससे भाषा-विज्ञान के विद्वानों के हृदय में राजस्थानी के लिए बड़ी जिज्ञासा उत्पन्न हुई जिसके फलस्वरूप प्रसिद्ध भारतीय भाषाविद्‌ श्री सुनीतिकुमार चटर्जी ने उदयपुर साहित्य संस्थान के तत्वावधान में राजस्थानी भाषा पर महत्त्वपूर्ण भाषण दिए, जो राजस्थानी की प्राचीनता और अन्य भारतीय भाषाओं से उसके सम्बन्ध पर अच्छा प्रकाश डालते हैं।

इधर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्‌ इस भाषा के प्राचीन गौरव को सुरक्षित रखने और प्रकाश में लाने के लिए कई योग्य व्यक्ति तत्पर हुए, कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन विभिन्न संस्थाओं द्वारा हाथ में लिया गया और आधुनिक राजस्थानी में नए पद्य तथा गद्य के लेखक भी समय की मांग के अनुकूल रचनाएँ प्रस्तुत करने लगे। राजस्थान की जनता ने अपनी मातृभाषा में अपने ही हृदय के उद्‌गारों को व्यक्त होते देख उसका समुचित आदर भी किया। और भारत के अनेक निष्पक्ष विद्वानों ने ऐसे प्रयत्नों की हृदय से प्रशंसा भी की। पर इस भाषा का व्याकरण और शब्द कोश जब तक किसी उपयुक्त विद्वान्‌ की साधना के फलस्वरूप सामने नहीं आया तब तक कई लोगों को राजस्थानी को एक स्वतंत्र तथा सशक्त भाषा के रूप में स्वीकार करने में बड़ी आपत्ति थी। सौभाग्य से राजस्थान की इस समस्या को पूर्ण करने वाला व्यक्ति उसे मिल गया। श्री सीताराम लाळस ने 7-8 वर्ष पहले अपना व्याकरण प्रकाशित करवाया था जिसकी प्रशंसा भाषा विज्ञान के सभी विद्वानों ने की और लगभग 30 वर्ष के असाध्य परिश्रम के फलस्वरूप उनका ‘राजस्थानी सबद कोस’ चार भागों में प्रकाशिथ हो रहा है। इसका पहला भाग आपके सम्मुख प्रस्तुत है।

पूरे कोश में करीब सवा लाख शब्दों को उनके हिन्दी अर्थ और उदाहरणों तथा मुहावरों आदि सहित प्रकाशित किया जा रहा है। यह कोश कितना विद्वतापूर्ण और उपयोगी है यह तो विद्वानों के समझने और कहने की बात है, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि श्री सीतारामजी का यह प्रयत्न राजस्थानी भाषा के लिए ही नहीं वरन्‌ राष्ट्र भाषा हिन्दी और उससे सम्बन्धित अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी और ऐतिहासिक महत्त्व का है।

कोश-निर्माण का कार्य श्री सीतारामजी ने सन्‌ 1932 में पंडित हरिनारायणजी विद्याभूषण की प्रेरणा से प्रारंभ किया था और तब से वे निरन्तर इस पर कार्य करते रहे। इतने बड़े कार्य के लिए आर्थिक सहायता की बड़ी आवश्यकता थी जो उन्हें समय-समय पर साहित्य-प्रेमी सज्जनों से मिलती रही। पर कर्नल ठा. श्यामसिंहजी ने इस कार्य के महत्त्व को समझ कर विशेष आर्थिक सहायता का प्रबन्ध किया जिसके फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में शब्दों तथा उदाहरणों का संकलन संभव हो सका। इसके पश्चात्‌ राजस्थानी शोध संस्थान की प्रबन्धकारिणी समिति ने इस कार्य को संस्थान के अन्तर्गत ले लिया। अभी तक प्रेस कॉपी बनने तथा कोश को पूर्णता प्रदान करने में काफी काम शेष था, वह काम विस्तृत योजना के अनुसार संस्थान के तत्वावधान में श्री सीतारामजी करते रहे। कर्नल ठा. श्यामसिंहजी की भी आर्थिक सहायता संस्थान को इस कार्य में मिलती रही। इतने बड़े ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए बहुत बड़ी धन-राशि की आवश्यकता थी। अतः झालावाड़ नरेश श्रीमान्‌ हरिश्चन्द्रजी ने पहले-पहल पांच हजार रुपये की राशि इस कार्य के लिए प्रदान की और कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। तत्पश्चात्‌ राजस्थान राज्य के मुख्यमंत्री श्री मोहनलालजी सुखाड़िया तथा केन्द्रीय सरकार के विज्ञान अनुसंधान व सांस्कृतिक मंत्री श्री हुमायूं कबीर को यह कार्य दिखाने का अवसर संस्थान की प्रबन्धकारिणी समिति के अध्यक्ष श्री भैरूंसिंहजी खेजड़ला M.L.A. व मंत्री श्री विजयसिंहजी सिरियारी M.P. के प्रयत्नों के फलस्वरूप मिला और उसी वर्ष राजस्थान सरकार से 9470) रु. की तथा भारत सरकार से 17000/- रुपये की आर्थिक सहायता कोश के प्रकाशनार्थ प्राप्त हुई। तथा दूसरे वर्ष राजस्थान सरकार ने 7530/- रुपये की सहायता और दी जिसके लिए उपरोक्त दोनों महानुभावों का मैं हृदय से आभार स्वीकार करता हूं। सरकारी सहायता शीघ्रातिशीघ्र दिलवाने में राजस्थान शिक्षा मंत्रालय के सचिव श्री विष्णुदत्तजी शर्मा I.A.S., वित्त विभाग के उपसचिव श्री विनोदचन्द्रजी पांडे I.A.S. तथा श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता I.A.S., संचालक, शिक्षा विभाग और केन्द्रीय सरकार के डॉ. रोजेरियो संयुक्त शिक्षा सलाहकार तथा डॉ. रघुवीरसिंहजी, सीतामऊ M.P. का पूरा सहयोग मिला, जिसके लिए भी मैं संस्थान की ओर से उनका आभार प्रकट करता हूँ।

जैसा कि बड़े कामों में प्रायः हुआ करता है, इस कोश के प्रकाशन में भी हमें अजीब तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, जिनका हमें अनुमान नहीं था। उन कठिनाइयों के फलस्वरूप प्राप्त अनुभव भी एक धरोहर है। पर इन कठिनाइयों को दूर करने का श्रेय ठा. भैरूंसिंहजी खेजड़ला तथा विजयसिंहजी सिरियारी के अतिरिक्त कर्नल ठा. श्यामसिंहजी, श्री गोवर्द्धनसिंहजी I.A.S. तथा राजा साहिब देवीसिंहजी भाद्राजून को है जिन्होंने इस कार्य के राष्ट्रीय महत्त्व को समझते हुए हर कठिनाई में मेरी पूरी सहायता की अन्यथा शायद इस कोश का यह प्रथम खण्ड अब तक प्रकाशित नहीं हो पाता।

अंत में मैं उन सभी महानुभावों का आभार प्रदर्शित करना आवश्यक समझता हूँ जिन्होंने परोक्ष या अपरोक्ष रूप में इस कार्य को पूर्णता प्रदान करने में सहयोग दिया है या जिन्होंने हमें इस क्षेत्र में विशेष प्रकार के अनुभव प्राप्त करने का अवसर दिया है।

नारायणसिंह भाटी
संचालक
राजस्थानी शोध-संस्थान, जोधपुर

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