सबदकोस – विद्वानों की सम्मतियाँ

‘राजस्थांनी सबद कोस’ का प्रथम भाग मिला। बिना किसी हल्ले-गुल्ले के ठोस काम करने का यह उत्तम उदाहरण है। राजस्थानी साहित्य के रूप में हिन्दी को वस्तुतया बहुमूल्य देन मिली है। जब इसके सारे रत्न प्रकाशित होकर सुलभ हो जायेंगे तब विद्वान इसके मूल्य को समझ पायेंगे। उसके समझने के लिए ऐसे विशाल कोश की आवश्यकता थी।

~~राहुल सांकृत्यायन

मैंने इस शब्द-कोश के कुछ पृष्ठ पढ़ लिये हैं। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है। बहुत दिनों से ऐसे कोश का अभाव खटक रहा था। इसके प्रकाशन से केवल राजस्थानी भाषा के समझने में ही सहायता नहीं मिलेगी, अन्य सम्बन्धित भाषाओं के समझने में भी बड़ी सहायता मिलेगी। कई अपभ्रंश साहित्य के ऐसे शब्द जो अस्पष्ट या विवादास्पद हैं, इसमें मिल जाते हैं। इस प्रकाशन ने साहित्य के विद्यार्थियों का बड़ा उपकार किया है। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

~~डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी

मैं कोश की सर्वतोन्मुखी जागरूकता देख कर दंग रह गया। भारत में जितने भाषा कोश बने हैं, पाण्डित्य और संदर्भ दोनों का इसमें असाधारण संयोग हुआ है। कोशकार की कार्यपद्धति देखी और देखा श्री लाळस का अध्यवसाय। अपने देश की प्राचीन परिस्थितियों में पण्डित जिस निष्ठा से निरुक्त लिखा करते थे-उसकी कुछ झलक मैंने यहाँ पाई।

~~डॉ. भगवतशरण उपाध्याय

राजस्थानी भाषा के इस शब्द कोश का बन कर प्रकाशित होना एक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। इसके संकलन में जो मौलिक ढंग अपनाया गया है, वह बहुत उपयुक्त और अर्थपूर्ण है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए विद्वद्वर्य श्री सीतारामजी लाळस युगों से जिस अध्ययन चिन्तन और आलेखन स्वरूप वाङ्मय तप की साधना कर रहे हैं वह अभिनन्दनीय है। राजस्थानी भाषा के प्राचीन इतिहास और शब्दभण्डार की खोज करने वाले जिज्ञासुओं को यह शब्द कोश एक अपूर्व दीप-स्तम्भ का काम देगा।

~~पद्मश्री जिनविजय मुनि
पुरातत्वाचार्य, सम्मान्य सञ्चालक,
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर

देवताओं ने समुद्र का मन्थन करके 14 रत्न निकाले थे। किन्तु भाषा-समुद्र का मंथन करके उससे शब्द रत्न निकालना, उनको परखना, उनकी बारीकियों को दिखलाना यह और दुष्कर कार्य है। किन्तु श्री सीतारामजी लाळस की अनवरत तपस्या और साधना ने इसे भी संभव करके दिखला दिया है। यह एक बहुत बड़ा अनुष्ठान है जिसकी सफलता से राजस्थान का मस्तक ऊँचा रहेगा।

श्री सीतारामजी ने इस कोश की भूमिका लिखने में भी बहुत श्रम किया है। प्रस्तावना में उन्होंने राजस्थानी भाषा और व्याकरण के सम्बन्ध में बहमूल्य सामग्री प्रस्तुत की है। राजस्थानी भाषा और साहित्य के इतिहास में इस कोश को ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त होगा।

~~डॉ. कन्हैयालाल सहल

मैंने आज ‘राजस्थानी शब्द कोश’ कार्यालय में कोश कार्य से परिचय प्राप्त करके हर्ष का अनुभव किया। इस कोश के निर्माता श्री सीताराम लाळस ने जिस लगन से राजस्थानी शब्दों के संग्रह और अर्थ निर्धारण का कार्य सम्पन्न किया है, वह श्लाघ्य है। राजस्थानी भाषा पर लाळस जी का जैसा अधिकार है वैसा मेरे देखने में कहीं नहीं आया।

~~डॉ. नामवरसिंह
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
जोधपुर विश्वविद्यालय
(13-5-1973)

शब्द कोश के प्रकाशन द्वारा निस्सन्देह एक बड़े अभाव की पूर्ति हुई है। उसमें जिस लगन से सीतारामजी ने काम किया है, वैसी लगन अन्यत्र दुर्लभ है। यह एक ठोस एवं स्थाई काम है। इसके लिए सीताराम की जितनी भी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। प्रारम्भ में राजस्थानी भाषा और साहित्य का जितना विस्तार से विवेचन हआ है, वास्तव में वह स्वतन्त्र ग्रन्थ का ही काम था।

~~अगरचन्द नाहटा

Rajasthani Sabd Kosh is a monumental work prepared by its compiler and editor Master Sahib Sri Sita Ram Lalas who has worked against all kinds of odds for 40 years in order to bring out a suitable dictionary of the language. The importance of this work lies not only in the fact that it is the first and the only work of its kind but also in its excellent coverage, a deep and thorough description of the semantic peculiarities of the language as well as the care with which each and every lexical entry is presented. Though my acquaintance with this learned and humble scholar of Rajasthani is of very short duration, the more I discover about him and his work, the more I wonder about his extraordinary accomplishments.

Rajasthani literature, most of which still exists in manuscript form has been invariably termed as a historian’s Paradise’, ‘a virgin land’ and so on. Master Sahib’s dictionary is a sure and excellent guide for anybody who would like to venture into this ‘Paradise’ and ‘virgin field of Rajasthani language and literature.

Master Sahib, by making the Rajasthani language accessible to the scholarly world for the first time almost single-handedly, has performed a feat for which scholars who are working or may someday choose to work on the language or its Literature, will remain indebted to him. I am looking forward to when this work will be out of the press in its entirety.

~~Kalicharan Bahal
Department of Linguistics and South Asian Languages and Civilizations,
The University of Chicago

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